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ॄ लीन ॄ िन                           परम पूज्य
                     ःवामी ौी लीलाशाहजी महाराज की अमृतवाणी



                                          मन को सीख




ूितिदन मन क कान खींिचए : .......................................................................................... 3
           े
मन को कभी फसर्त न दें .................................................................................................... 4
           ु
मन को ूितिदन दःखों का ःमरण कराओ.......................................................................... 5
              ु
संत और सॆाट.................................................................................................................... 5
मन की चाल अटपटी........................................................................................................... 6
मन का नशा उतार डािलए .................................................................................................. 7
मन को दे खें ......................................................................................................................... 7
मन क मायाजाल से बचें ..................................................................................................... 7
    े
आहारशुि          रखें ..................................................................................................................... 8
मंऽजप करें ........................................................................................................................... 9
िनंकाम भाव से सेवा करें ................................................................................................. 10
िच      की समता पायें .......................................................................................................... 10
यह भी बीत जायेगी........................................................................................................... 11
मंगलमय दृि             रखें ............................................................................................................. 11
सत्पुरुष का सािन्नध्य पावें................................................................................................ 11
ूाथर्ना ................................................................................................................................ 12
वाःतिवक िववेक ................................................................................................................ 12
िववेक क्या है ?................................................................................................................. 13
आप दःखी क्यों है ? ........................................................................................................... 14
    ु
यह साधना है या मजदरी ?.............................................................................................. 14
                  ू
सत्संग का ूभाव लहू पर.................................................................................................. 15
मंकी ॄा ण और महिषर् विश .......................................................................................... 16
सा ांग दण्डवत ूणाम िकसिलए ? ................................................................................... 17
िववेकसम्पन्न पुरुष की मिहमा ......................................................................................... 23
मनः एव मनुंयाणां कारणं बंधमोक्षयोः ।

मन ही मनुंय क बंधन और मोक्ष का कराण है । शुभ संक प और पिवऽ कायर् करने से
             े
मन शु    होता है , िनमर्ल होता है तथा मोक्ष मागर् पर ले जाता है । यही मन अशुभ
संक प और पापपूणर् आचरण से अशु         हो जाता है तथा जडता लाकर संसार क बन्धन
                                                                      े
में बांधता है । रामायण में ठ क ही कहा है :
िनमर्ल मन जन सो मोिह पावा ।
मोही कपट छल िछि न भावा ।



ूितिदन मन क कान खींिचए :
           े
अतः हे िूय आत्मन ् ! यिद आप अपने क याण की इच्छा रखते हो तो आपको अपने
मन को समझाना चािहए । इसे उलाहने दे कर समझाना चािहएः “अरे चंचल मन ! अब
शांत होकर बैठ । बारं बार इतना बिहमुख होकर िकसिलए परे शान करता है ? बाहर क्या
                                   र्
कभी िकसीको सुख िमला है ? सुख जब भी िमला है तो हर िकसीको अंदर ही िमला है ।
िजसक पास सम्पूणर् भारत का साॆाज्य था, समःत भोग, वैभव थे ऎसे सॆाट भरथरी
    े
को भी बाहर सुख न िमला और तू बाहर क पदाथ क िलए दीवाना हो रहा है ? तू भी
                                  े      े
भरथरी और राजकमार उ ालक की भांित िववेक करक आनंदःवरुप की ओर क्यों नहीं
             ु                           े
लौटता ?”

राजकमार उ ालक युवावःथा में ही िववेकवान होकर पवर्तों की गुफाओं में जा-जाकर
    ु
अपने मन को समझाते थेः “अरे मन ! तू िकसिलए मुझे अिधक भटकाता है ? तू कभी
सुगध क पीछे बावरा हो जाता है , कभी ःवाद क िलए तडपता है , कभी संगीत क पीछे
   ं  े                                  े                          े
आकिषर्त हो जाता है । हे नादान मन ! तूने मेरा सत्यानाश कर िदया । क्षिणक िवषय-
सुख दे कर तूने मेरा आत्मानंद छ न िलया है , मुझे िवषय-लोलुप बनाकर तूने मेरा बल,
बुि , तेज, ःवाः य, आयु और उत्साह क्षीण कर िदया है ।”

राजकमार उ ालक पवर्त की गुफा में बैठे मन को समझाते ह: “अरे मन ! तू बार-बार
    ु
िवषय-सुख और सांसा रक सम्बन्धों की ओर दौडता है , प ी बच्चे और िमऽािद का
सहवास चाहता है परन्तु इतना भी नहीं सोचता िक ये सब क्या सदै व रहनेवाले ह ?
                                                        ू
िजन्हें ूत्येक जन्म में छोडता आया है वे इस जन्म में भी छट ही जायेंगे िफर भी तू
इस जन्म में भी उन्हीं का िवचार करता है ? तू िकतना मूखर् है ? िजसका कभी िवयोग
नहीं होता, जो सदै व तेरे साथ है , जो आनन्दःवरुप है , ऎसे आत्मदे व क ध्यान में तू क्यों
                                                                   े
नहीं डू बता ? इतना समय और जीवन तूने बबार्द कर िदया । अब तो शांत हो बैठ !
थोडी तो पुण्य की कमाई करने दे ! इतने समय तक तेरी बात मानकर, तेरी संगत करके
मने अधम संक प िकये, कसंग िकये, पापकमर् िकये ।अब तो बुि मान बन, पुरानी आदत
                     ु
छोड । अंतमुख हो ।”
           र्

उ ालक की भांित इसी ूकार एक बार नहीं परन्तु ूितिदन मन क कान खींचने चािहए ।
                                                      े
     मन पलीत है । इस पर कभी िव ास न करें । आपक कथनानुसार मन चलता है
                                              े
या नहीं, इस पर िनरन्तर िि
                        ु        रखें । इस पर चौबीसों घण्टे जामुत पहरा रखें । मन को
समझाने क िलए िववेक-िवचाररुपी डं डा सतत आपक हाथ में रहना चािहए । नीित और
        े                                 े
मयार्दा क िवरु
         े       मन यिद कोई भी संक प करे तो उसे दण्ड दो । उसका खाना बंद कर
दो । तभी वह समझेगा िक म िकसी मदर् क हाथ में पड गया हू । अब यिद सीधा न
                                   े
चलून्गा तो मेरी ददर्शा होगी ।
                 ु



मन को कभी फसर्त न दें
           ु
मन में जबरदःत शि        क भंडार भरे पडे ह । यह ऎसा वेगवान अ
                         े                                        है िक इस पर
लगाम हो तो शीी ही मंिजल पर पहुचता है । लगाम िबना यह टे ढे-मेडे राःतों पर ऎसा
भागेगा िक अंत में गहरी अन्धेरी कांटे दार झािडयों में ही िगरा दे गा । अतः मन पर
मजबूत लगाम रखें । इसे कभी फसर्त न दें । यह कहवत तो आप जानते होंगे िक
                           ु


खाली मन शैतान का घर ।
Idle mind is devil's workshop.



अन्याथा यह खरािबयाँ ही करे गा । इसिलए मन को िकसी-न-िकसी अच्छे काम में, िकसी
िवचारशील कायर्-कलाप में लगाए रखें । कभी आत्मिचन्तन करें तो कभी सत्शा ों का
अध्ययन, कभी सत्संग करें तो कभी ई रनाम-संकीतर्न करें , जप करें , अनु ान करें और
परमात्मा क ध्यान में डू बें । कभी खुली हवा में घूमने जायें, यायाम करें । आशय यह
          े
है िक इसक पैरों में कायर्रुपी बेिडयाँ डाले ही रखें । इसक िसर पर यदा - कदा अंकश
         े                                              े                    ु
लगाते ही रहें । हाथी अंकश से वश होता है , इसी ूकार मन भी अंकश से वशीभूत हो
                        ु                                   ु
जायेगा ।
मन को ूितिदन दःखों का ःमरण कराओ
              ु
जीवन जन्म से लेकर मृत्यु तक दःखों, से भरा पड़ा है । गभर्वास का दःख, जन्मते
                             ु                                 ु
समय का दःख, बचपन का दःख, बीमारी का दःख, बुढ़ापे का दःख तथा मृत्यु का दःख
        ु            ु              ु              ु                 ु
आिद दःखो की परम्परा चलती रहती है । गुरु नानक कहते ह :
     ु


“नानक ! दिखया सब संसार ।”
         ु

मन को ूितिदन इन सब दःखो का ःमरण कराइए । मन को अःपतालों क रोगीजन
                    ु                                   े
िदखाइए, शवयाऽा िदखाइए, ःमशान-भूिम        में घू-घू जलती हुई िचताएँ िदखाइए । उसे
कहें : “रे मेरे मन ! अब तो मान ले मेरे लाल ! एक िदन िम टी में िमल जाना है
अथवा अि न में खाक हो जाना है । िवषय-भोगों क पीछे दौड़ता है पागल ! ये भोग तो
                                           े
दसरी योिनयों में भी िमलते ह । मनुंय-जन्म इन क्षुि वःतुओं क िलए नहीं है । यह
 ू                                                        े
तो अमू य अवसर है । मनुंय-जन्म में ही पुरुषाथर् साध सकते ह । यिद इसे बबार्द कर
दे गा तो बारं बार ऎसी दे ह नहीं िमलेगी । इसिलए ई र-भजन कर, ध्यान कर, सत्संग
सुन और संतों की शरण में जा । तेरी जन्मों की भूख िमट जायेगी । क्षुि िवषय-सुखों के
                   ू
पीछे भागने की आदत छट जायेगी । तू आनंद क महासागर में ओतूोत होकर
                                       े
आनंदःवरुप हो जायेगा ।


                                                                     ू
अरे मन ! तू ज्योितःवरुप है । अपना मूल पहचान । चौरासी लाख क चक्कर से छटने
                                                          े
का यह अवसर तुझे िमला है और तू मु ठ भर चनों क िलए इसे नीलाम कर दे ता है ,
                                            े
पागल ।


इस ूकार मन को समझाने से मन ःवतः ही समपर्ण कर दे गा । तत्प ात ् एक
आ ाकरी व बुि मान बच्चे क समान आपक बताये हुए सन्मागर् पर खुशी-खुशी चलेगा ।
                        े        े


िजसने अपना मन जीत िलया, उसने समःत जगत को जीत िलया । वह राजाओं का
राजा है , सॆाट है , सॆाटों का भी सॆाट है ।




संत और सॆाट
एक बार एक संतौी राजदरबार में गये और इधर-उधर दे खने लगे । मंऽी ने आकर
संतौी से कहा : "हे साधो ! यह राजदरबार है । आप दे खते नहीं िक सामने राजिसंहासन
पर राजाजी िवराजमान ह? उन्हें झुककर ूणाम कीिजये ।”

संतौी ने उ र िदया : " अरे मंऽी ! तू राजा से पूछकर आ िक आप मन क दास ह या
                                                              े
मन आपका दास है ?”

मंऽी ने राजा क समीप जाकर उसी ूकार पूछा । राजा लज्जा गया और बोला : "मंऽी
              े
! आप यह क्या पूछ रहे ह ? सभी मनुंय मन क दास ह । मन जैसा कहता है वैसा ही
                                       े
म करता हँू ।”

मंऽी ने राजा का यह उ र संतौी से कहा । वे यह सुनकर बड़े जोर से हँ स पड़े और बोले
: " सुना मंऽी ! तेरा राजा मन का दास है और मन मेरा दास है , इसिलये तेरा राजा मेरे
दास का दास हुआ । म उसे झुककर िकस ूकार ूणाम करुँ ? तेरा राजा राजा नहीं,
पराधीन है । घोड़ा सवार क आधीन होने क बदले यिद सवार घोड़े क आधीन हा, तो
                       े           े                    े
घोड़ा सवार को ऎसी खाई में डालता है िक जहाँसे िनकलना भारी पड़ जाता है ।”

संतौी क कथन में गहरा अनुभव था । राजा क क याण की स ावना थी । ॑दय की
       े                              े
गहराई में सत्यता थी । अहं कार नहीं िकन्तु ःवानुभित की ःनेहपूणर् टं कार थी । राजा पर
                                                ू
उन जीवन्मु      महात्मा क सािन्नध्य, वाणी और िि
                         े                    ु   का िद य ूभाव पड़ा । संतौी के
ये श द सुनकर राजा िसंहासन से उठ खड़ा हुआ । आकर उनक पैरों में पड़ा । संतौी ने
                                                 े
राजा को उपदे श िदया और मानव दे ह का मू य समझाया ।




मन की चाल अटपटी
    मन की चाल बड़ी ही अटपटी है इसिलए गािफल न रिहएगा । इस पर कभी िव ास
न करें । िवषय-िवकार में इसे गक न होने दें । चाहे जैसे तक लड़ाकर मन आपको दगा
                              र्                        र्
दे सकता है । अवश और अशु        मन बंधन क जाल में फसाता है । वश िकया हुआ शु
                                        े         ँ
मन मोक्ष क मागर् पर ले जाता है । शु
          े                           और शांत मन से ही ई र क दशर्न होते ह,
                                                            े
आत्म ान की बातें समझ में आती ह, त व ान होता है ।


मन की आँटी अटपटी, झटपट लखे न कोय ।
मन की खटपट जो िमटे , चटपट दशर्न होय ॥
मन का नशा उतार डािलए
मन एक मदमःत हाथी क समान है । इसने िकतने ही ऋिष-मुिनयों को ख डे में डाल
                  े
िदय है । आप पर यह सवार हो जाय तो आपको भूिम पर पछाड़कर र द दे । अतः
िनरन्तर सजग रहें । इसे कभी धाँधली न करने दें । इसका अिःतत्व ही िमटा दें , समा
कर दें ।


हाथ-से-हाथ मसलकर, दाँत-से-दाँत भींचकर, कमर कसकर, छाती में ूाण भरकर जोर
लगाओ और मन की दासता को कचल डालो, बेिड़याँ तोड़ फको । सदै व क िलए इसक
                        ु                     ें          े       े
िशकजे में से िनकलकर इसक ःवामी बन जाओ ।
   ं                   े


मन पर िवजय ूा      करनेवाला पुरुष ही इस िव    में बुि मान ् और ् भा यवान है । वही
सच्चा पुरुष है । िजसमें मन का कान पकड़ने        का साहस नहीं, जो ूय       तक नहीं
करता वह मनुंय कहलाने क यो य ही नहीं । वह साधारण गधा नहीं अिपतु मकरणी
                      े
गधा है ।


वाःतव में तो मन क िलए उसकी अपनी स ा ही नहीं है । आपने ही इसे उपजाया है ।
                 े
यह आपका बालक है । आपने इसे लाड़ लड़ा-लड़ाकर उन्मत बना िदया है । बालक पर
िववेकपूणर् अंकश हो तभी बालक सुधरते ह । छोटे पेड़ की रक्षाथर् काँटों की बाड़ चािहए ।
              ु
इसी ूकार मन को भी खराब संगत से बचाने क िलए आपक
                                      े       े            ारा चौकीरुपी बाड़ होनी
चािहए ।


मन को दे खें
    मन क चाल-चलन को सतत दे खें । बुरी संगत में जाने लगे तो उसक पेट में
        े                                                     े                ान
    ु
का छरा भोंक दें । चौकीदार जागता है तो चोर कभी चोरी नहीं कर सकता । आप सजाग
रहें गे तो मन भी िब कल सीधा रहे गा ।
                     ु


मन क मायाजाल से बचें
    े

पहाड़ से चाहे कदकर मर जाना पड़े तो मर ् जाइये, समुि में डू ब मरना पड़े तो डू ब
              ू
म रये, अि न में भःम होना पड़े तो भले ही भःम हो जाइये और हाथी क पैरों तले
                                                             े
रुँ दना पड़े तो रुँ द जाइये परन्तु इस मन क मायाजाल में मत फिसए । मन तक लडाकर
                                         े                ँ          र्
िवषयरुपी िवष में घसीट लेता है । इसने युगों-युगों से और जन्मों-जन्मों से आपको
भटकाया है । आत्मारुपी घर से बाहर खींचकर संसार की वीरान भूिम में भटकाया है ।
 यारे ! अब तो जागो ! मन की मिलनता त्यागो । आत्मःवरुप में जागो । साहस करो ।
पुरुषाथर् करक मन क साक्षी व ःवामी बन जाओ ।
             े    े


आत्म ान ूा    करने क िलए तथा आत्मानंद में मःत रहने क िलए स वगुण का
                    े                               े
ूाब य चािहये । ःवभाव को स वगुणी बनाइये । आसुरी त वों को चुन-चुनकर बाहर
फिकए । यिद आप अपने मन पर
 ें
िनयंऽण नहीं पायेंगे तो यह िकस ूकार संभव होगा? रजो और तमोगुण में ही रें गते
रहें गे तो आत्म ान क आँगन में िकस ूकार पहँु च पायेंगे ?
                    े


यिद मन मैला हो िूय ! सब ही मैला होय ् ।
तन धोये से मन कभी साफ-ःवच्छ न होय ॥

इसिलये सदै व मन क कान मरोड़ते रहें । इसक पाप और बुरे कमर् इसक सामने रखते रहें
                 े                     े                    े
। आप तो िनमर्ल ह परन्तु मन ने आपको ककम क कीचड़ में लथपथ कर िदया है ।
                                    ु   े
अपनी वाःतिवक मिहमा को याद         करक मन को कठोरता से दे खते रिहये तो मन
                                     े
समझ जायेगा, शरमायेगा और अपने आप ही अपना मायाजाल समेट लेगा ।




आहारशुि        रखें
कहावत है िक ’जैसा खाये अन्न वैसा बने मन । ’ खुराक क ःथूल भाग से ःथूल शरीर
                                                   े
और सूआम भाग से सूआम शरीर अथार्त ् मन का िनमार्ण होता है । इसिलए सदै व
स वगुणी खुराक लीिजये ।
दारु-शराब, मांस-मछली, बीड़ी-तम्बाक, अफीम-गाँजा, चाय आिद वःतुओं से ूय पूवक
                                 ू                                     र्
दर रिहये । रजोगुणी तथा तमोगुणी खुराक से मन अिधक मिलन तथा प रणाम में
 ू
अिधक अशांत होता है । स वगुणी खुराक से मन शु       और शांत होता है ।


ूदोष काल में िकये गये आहार और मैथुन से मन मिलन होता है और आिध- यािधयाँ
बढ़ती ह । मन की लोलुपता िजन पदाथ पर हो          वे पदाथर् उसे न दें । इससे मन के
हठ का शनैः-शनैः शमन हो जायेगा ।
भोजन क िवषय में ऋिषयों
      े                    ारा बतायी हुई कछ बातें ध्यान में रखनी चािहए :
                                          ु
१.     हाथ-पैर-मुह धोकर पूवार्िभमुख बैठकर मौन भाव से भोजन करें । िजनक माता-
                 ँ                                                   े
िपता जीिवत हों, वे दिक्षण िदशा की ओर ् मुख करक भोजन न करें । भोजन करते समय
                                              े
                                                                      ू
बायें हाथ से अन्न ् का ःपशर् न करें और चरण, मःतक तथा अण्डकोष को भी न छएँ
।कवल ूाणािद क िलए पाँच मास अपर्ण करते समय तक बाय़ें हाथ
  े          े                                                 से पाऽ को पकड़े
रहें , उसक बाद छोड़ दें ।
          े


२.     भोजन क समय हाथ घुटनों क बाहर न करें । भोजन-काल में बायें हाथ से
             े                े
जलपाऽ उठाकर दािहने हाथ की कलाई पर रखकर यिद पानी िपयें तो वह पाऽ भोजन
समा   होने तक जूठा नहीं माना जाता, ऎसा मनु महाराज का कथन है । यिद भोजन
                                             ू
करता हुआ ि ज िकसी दसरे भोजन करते हुए ि ज को छ ले तो दोनों को ही भोजन
                   ू
छोड़ दे ना चािहए ।


३.     रािऽ को भोजन करते समय यिद दीप बुझ जाय तो भोजन रोक दें और दायें हाथ
से अन्न ् को ःपशर् करते हुए मन-ही-मन गायऽी का ःमरण करें । पुनः दीप जलने के
बाद ही भोजन शरु करें ।


४.     अिधक माऽा में भोजन करने से आयु तथा आरो यता का नाश होता है । उदर
का आधा भाग अन्न से भरो, चौथाई भाग जल से भरो और चौथाई भाग वायु के
आवागमन क िलए खाली रखो ।
        े


५.     भोजन क बाद थोड़ी दे र तक बैठो । िफर ् सौ कदम चलकर कछ दे र तक बाइँ
             े                                           ु
करवट लेटे रहो तो अन्न ठ क ढं ग से पचता है । भोजन क अन्त में भगवान को अपर्ण
                                                  े
िकया हुआ तुलसीदल खाना चािहए ।


भोजन िवषयक इन सब बातों को आचार में लाने से जीवन में सत्वगुण की वृि         होती है
।




मंऽजप करें
तुच्छ ओछे लोगों की संगत से मन भी तुच्छ और िवकारी बन जाता है । मंऽजप करने
से मन क चारों ओर एक िवशेष ूकार का आभामंडल तैयार हो जाता है । इस
       े
आभामंडल क कित्सत आंदोलनों से अपना रक्षण हो जाता है । तत्प ात ् अपना मन
         े ु
पितत िवचारों और पितत काय की ओर आकिषर्त ् नहीं होता । उत्थान करानेवाले
सत्काय की ओर ही यह सतत गितमान रहे गा । अतः ूत्येक िदन िनयमपूवक मंऽजप
                                                             र्
करते रहकर मन को स वगुणूधान बनाते रिहये । चलते-िफरते भी मंऽ का आवतर्न
करते रहें ।


यदा कदा ूयोग करें । कम्बल िबछाकर उस पर िचत होकर लेटें । शरीर को एकदम
ढीला छोड़ दें । िब कल शांत हो जायें । समम िव ् को भूल जायें । शांत होकर िवचार
                   ु
करने से जानेंगे िक जो सुख-दःख िमलता है वह सब हमारे कम का फल है । इसका
                           ु
फल दे ने में िमऽ और शऽु तो िनिम   माऽ ह । म जागता हँू तो समःत संसार दीख
पड़ता है । म सो जाता हँू तो संसार गायब । इसिलए यह समःत जगत ःव न के
समान िम या है । यही सत्य है , यही वाःतिवकता है ।


इस वाःतिवकता को जानकर मन शांत हो जायेगा, मौन को उपल ध हो जायेगा । शांत
और ःवःथ मन शु       होता है ।




िनंकाम भाव से सेवा करें
िनंकाम भाव से यिद परोपकार क कायर् करते रहें गे तो भी मन की मिलनता दर हो
                           े                                       ू
जायेगी । यह ूकृ ित का अटल िनयम है । इसिलए परोपकार क कायर् िनंकाम भाव से
                                                   े
करने क िलये सदै व तत्पर रहें ।
      े




िच      की समता पायें
छोटी-मोटी प रिःथितयों से घबराकर अपने िच   की समता न खोयें । भले ही आपको
कोई गाली दे अथवा हािन पहँु चाए परन्तु आप बोध न करें । बोध करने से अपनी ही
शि   क्षीण होती है । इसिलए शांत रहें , ःवःथ रहें और उपिःथत प रिःथित का
समाधान बुि पूवक यथा उिचत करें ।
              र्
यह भी बीत जायेगी
सुख में फलो मत । दःख में िनराश न बनो । सुख और दःख दोनों ही बीत जायेंगे ।
         ू        ु                            ु
कसी भी प रिःथित आये उस समय मन को याद िदलायें िक यह भी बीत जायेगी ।
 ै


Even that shall pass too.


इस सूऽ को सदै व याद रखें । मन इससे शांत रहे गा और राग- े ष कम होता जायेगा ।




मंगलमय दृि             रखें
अपनी दृि    को शुभ बनायें । कहीं भी बुराई न दे खें । सवर्ऽ मंगलमय दृि   रखे िबना मन
में शांित नहीं रहे गी । जगत आपक िलए क याणकारी ही है । सुख-दःख क सभी ूसंग
                               े                           ु   े
आपकी गढ़ाई करने क िलए ह । सभी शुभ और पिवऽ ह । संसार की कोई बुराई आपक
                े                                                  े
िलए नहीं है । सृि   को मंगलमय दृि    से दे खेंगे तो आपकी जय होगी ।


दृि ं ॄ मयीं कृ त्वा पँयमेविमदं जगत ।



सत्पुरुष का सािन्नध्य पावें
    े   ं      ू
मन क िशकजे से छटने का सबसे सरल और ौे            उपाय यह है िक आप िकसी समथर्
सदगुरु क सािन्नध्य में पहँु च जायें । उनकी सेवा तन-मन-धन से करें । संसा रयों की
        े
सेवा करना कठ न है क्योंिक उनकी इच्छाओं और वासनाओं का कोई पार नहीं, जबिक
स रु तो अ प सेवा से ही संतु
  ु                            हो जायेंगे क्यों िक उनकी तो कोई          इच्छा ही नहीं
रही । ऎसे स रु का संग करें , उनक उपदे शों का ौवण करें , मनन करें , िनिदध्यासन करें
            ु                   े
। उनक पास रहकर आध्याित्मक शा ों का अ यास करें , ॄ िव ा क रहःय जानें और
     े                                                  े
आत्मसात करें । पक्की खोज करें िक आप कौन ह ? यह जगत क्या है ? ई र क्या है
? सत्य क्या है ? िम या क्या है ?


     इन समःयाओं का सच्चा भेद ॑दय में खुलेगा तब पता चलेगा िक जगत जैसा तो
कछ है ही नहीं । सवर्ऽ आप ःवयं ही ॄ ःवरुप में या
 ु                                                     ह । आप ही वृि     को बिहमुख
                                                                                 र्
करक अलग-अलग रुप धारण करक खेल खेलते ह, लीला करते ह । जीवन क समःत
   े                    े                                 े
दःखों से मुि
 ु             पाने का एकमाऽ सच्चा उपाय है ॄ िव ा ।


     पूणर् समथर् स रु क समागम से ॄ िव ा िमलेगी । ॄ िव ा से आपका मन शु ,
                   ु   े
ःवच्छ, िनमर्ल होकर अंत में अमन बन जायेगा । सवर्ऽ ॄ दृि        पक्की हो जायेगी ।
समम जगत मरुभूिम क जल क समान भािसत होगा ।
                 े    े


पहले भी था ॄ     ही बाद में रहे गा ॄ    ।
िनकाल डालो बीच का जग का झूठा ॅम ॥

जब जगत ही नहीं रहे गा तब मन कहाँसे रहे गा ? आत्मःवरुप में एकमाऽ आप ही रहें गे
। तदनन्तर जो संक प उठे गा वह अपने आप पूरा होगा । आपक काम, बोध, मोह, मद,
                                                    े
मत्सर ये सब शऽु गायब हो जायेंगे । िजसने मन को जीता, उसने समःत जगत को
जीता । िजसने मन को जीता, उसने परमात्म-ूाि          की ।


मन का दपर्ण ःवच्छ िकया िजसने अपने तांई ।
अनुभव उसका दे खी उसमें आत्मदे व की सांई ॥
भीतर बाहर िदखे अकला न कहीं दसरा कांई ।
                 े          ू
कायर्िस   हुए उसक तो ’सामी’ कहे सुन सांई ॥
                 े                                     ‘


*

ूाथर्ना

हे भगवान ! सबको स ि
                  ु          दो... शि   दो... अरो यता दो... हम अपने-अपने क र् य का
पालन करें और सुखी रहें ...

                                        *


वाःतिवक िववेक
- परम पूज्य संत ौी आसारामजी बापू
अपने जीवन में िववेक लाइये । िववेकहीन जीवन तो जीवन ही नहीं । िववेकहीन यि
को कदम-कदम पर दःख सहने पड़ते ह । लोग कहते ह: “हमने िववेक से ही अपना
               ु
जीवन बनाया है । दे िखए, हम इं जीिनयर बन गये... डॉक्टर बन गये... हम अमुक
फक्ट रयों क मािलक बन गये... हम इतने बड़े कायर्भार सँभालते ह... हम इतनी ऊची
 ै         े                                                           ँ
स ा पर, ऊचे पद पर पहँु च गये ह... इतने लोग हमें सम्मान दे ते ह ।”
         ँ

अरे नहीं... यह िववेक नहीं ।


 यापार करना, धन कमाना, अपने शरीर की वाहवाही कराना, भवन बनवाना आिद सब
तो सामान्य िववेक है । इं जीिनयर बनकर मकान बना िदया... यूँ तो िचिड़या भी अपना
मकान बनाकर रहती है । जीविव ान पढ़कर डॉक्टर बन गये और पािथर्व शरीर का कोई
रोग िमटा िदया... यह सब सामान्य िववेक है ।




िववेक क्या है ?
     िववेक का अथर् है : सत्य क्या है , िम या क्या है , शा त क्या है , न र क्या है यह
बात ठ क से समझकर अपने जीवन में ढाल लें । एक्माऽ परमात्मा सत्य है । शेष सब
जो कछ भी है सो पुऽ, प रवार, भवन, दकान, िमऽ, सम्बन्धी, अपने, पराये आिद सब
    ु                             ु
अिनत्य ह । एक िदन इन सबको छोड़कर जाना पड़े गा । इस शरीर क साथ ही समःत
                                                       े
सम्बन्ध, िनन्दा-ूित ा, अमीरी-गरीबी, बीमारी-तन्दरुःती यह सब जलकर खाक हो
                                               ु
जायेगी । तब िमऽ, पित, प ी, बालक, यापार-धंधे, लोगों की खुशामद आिद कोई भी
मृत्यु से बचा नहीं पायेंगे । अतः उन्हें ही सँभालने, ूसन्न रखने में संल न रहना यह
िववेक नहीं है ।


भगवान राम क गुरु महिषर् विश
           े                     कहते ह: "हे रामजी ! चांडाल क घर की िभक्षा खाकर
                                                             े
भी यिद सत्संग िमलता हो और उससे शा त- न र का िववेक जागता हो तो यह
सत्संग नहीं छोड़ना चािहए ।”

विश जी का कथन िकतना मािमर्क है ! क्योंिक ऎसा सत्संग हमें अपने शा त ःवरुप की
ओर ले जायेगा जबिक संसार क अन्य यवहार चाहे जैसी भी उपलि ध करायें, अंत में
                         े
मृत्यु क मुख में ले जायेंगे ।
        े
आप दःखी क्यों है ?
    ु
तिनक ःवःथता से िवचा रये िक आप दःखी क्यों ह ? आपक पास धन नहीं है ?
                               ु                े
आपकी बुि    तीआण नहीं है ? आपक पास यवहारकशलता नहीं है ? आप रोगी ह ?
                              े          ु
आपमें बल नहीं है ? अथवा आपमें सांसा रक     ान नहीं है ? बहुतों क पास यह सब है
                                                                े
:धनवान ह, बलवान ह, यवहारकशल ह, बुि मान ह, जगत का
                         ु                                   ान भी जीभ क िसरे
                                                                        े
पर है , तथािप वे दःखी ह । दःखी इसिलए नहीं ह िक उनक पास इन सब वःतुओं अथवा
                  ु        ु                      े
वःतुओं के   ान का अभाव है । परन्तु दःखी इसिलए ह िक संसार का सब कछ जानते
                                    ु                           ु
हुए भी अपने आपको नहीं जानते । अपने आपको जान लें तो सवर् शोकों से पार हो
जायें, जन्म-मरण से पार हो जायें । ... और अपने आपको न जानें तो शेष सब जाना
हुआ धूल हो जाता है , क्योंिक शरीर की मृत्यु क साथ ही समःत यहीं रह जाता है ।
                                             े




यह साधना है या मजदरी ?
                  ू
    िम या में सत्य को जान लेना, न र में शा त को खोज लेना, आत्मा को पहचान
लेना तथा आत्मामय होकर जीना यही िववेक है । इसक अित र
                                             े               अन्य सभी मजदरी है ,
                                                                         ू
 यथर् बोझा उठाना और अपने आपको मूढ़ िस        करने जैसा है । ऎसा िववेक धारण कर
अपने आपको आध्याित्मक मागर् पर चला दें तो सभी कछ उिचत हो जाये, जीवन साथर्क
                                              ु
हो जाये । अन्यथा िकतने ही ग ी-तिकयों पर बैिठए, टे बल-किसर्यों पर बैिठए,
                                                      ु
एयरकडीशन्ड कायार्लयों में बैठकर आदे श चलाइये अथवा जनता क सम्मुख ऊचे मंच पर
    ं                                                   े        ँ
बैठकर अपनी न र दे ह और नाम की जयजयकार करवा लीिजए परं तु अंत में कछ भी
                                                                 ु
हाथ न लगेगा ।


ढाक क वे ही तीन पात ।
     े
चौथा लगे न पाँचवें की आस ॥
आप जहाँ क तहाँ ही रह जायेंगे । आयु बीत जायेगी और पछतावे का पार न रहे गा ।
         े
जब मौत आयेगी तब जीवन भर कमाया हुआ धन, प रौम करक पाये हुए पद-ूित ा,
                                               े
लाड़ से पाला-पोसा यह शरीर िनदर् यतापूवक साथ छोड़ दे गा । आप खाली हाथ रोते रहें गे,
                                     र्
बार-बार जन्म-मरण क चक्कर में घूमते रहें गे । इसीिलए कनोपिनषद क ऋिष कहते ह :
                  े                                  े        े


इह चेदवेदीदथ सत्यमिःत ।
न चेिदहावेदीन महती िवनि ः ॥
’यिद इस जीवन में ॄ        ान ूा   कर िलया या परमात्मा को जान िलया, तब तो जीवन
की साथर्कता है और यिद इस जीवन में परमात्मा को नहीं जाना तो महान िवनाश है ।’
(कनोपिनषद : २.५)
  े


...तो यह िववेक ूा     होता है सत्संग से और    ानी महापुरुषों क सािन्नध्य से । सत्संग
                                                              े
से और      ानी महपुरुषों क संग से िकस ूकार का उत्थान होता है इसे आज का िव ान
                          े
भी िस     करने लगा है ।




सत्संग का ूभाव लहू पर
ऑक्सफोडर् यूिनविसर्टी की िडलाबार ूयोगशाला में एक ूयोग बारं बार िकया गया है और
वह यह िक आपक अपने िवचारों का ूभाव तो आपक लहू पर पड़ता ही है परन्तु आपक
            े                           े                            े
िवषय में शुभ अथवा अशुभ िवचार करनेवाले अन्य लोगों का ूभाव आपक लहू पर कसा
                                                            े        ै
पड़ता है और आपक भीतर कसे प रवतर्न होते ह ? वै ािनकों ने अपने दस वषर् क
              े      ै                                               े
प रौम क प ात िनंकषर् िनकाला िक:
       े


"आपक िलए िजनक ॑दय में मंगल भावना भरी हो, जो आपका उत्थान चाहता हो ऎसे
    े        े
 यि     क संग में जब आप रहते ह तब आपक ूत्येक घन िम.मी. र
         े                           े                              में १५००
     ेतकणों का वधर्न एकाएक हो जाता है । इसक िवपरीत आप जब िकसी
                                           े                           े षपूणर् अथवा
दु    िवचरोंवाले यि   क पास जाते हो तब ूत्येक घन िम.मी र
                       े                                        में १६००   ेतकण
तत्काल घट जाते ह ।" वै ािनकों ने तुरन्त लहू-िनरीक्षण उपरान्त यह िनणर्य ूकट
िकया है । जीविव ान कहता है िक र        के    ेतकण ही हमें रोगों से बचाते ह और अपने
आरो य की रक्षा करते ह । वै ािनकों को यह दे खकर आ यर् हुआ िक शुभ िवचारवाले,
सबका िहत चाहनेवाले, मंगलमूितर् सज्ज्न पुरुषों में ऎसा क्या होता है िक िजनक दशर्न
                                                                          े
से अथवा िजनक सािन्नध्य में आने से इतना प रवतर्न आ जाता है ? अपना योगिव ान
            े
तो पहले से जानता है परन्तु अब आधुिनक िव ान भी इसे िस           करने लगा है ।


र     में जब इतना प रवतर्न होता है तब अन्य िकतने अदृँय एवं अ ात प रवतर्न होते
होंगे जो िक िव ान क जानने में न आते हों ?
                   े
मंकी ॄा ण और महिषर् विश
इसिलए मंकी नामक एक ॄा ण जब जंगल छोड़कर गाँव क अ ानी लोगों का संग करने
                                            े
जाता है तब ौी विश जी उसे बीच में ही रोक दे ते ह और कहते ह :


"अरे मंकी ! तू कहाँ जाता है ? अंधेरी गुफा का साँप होना, िशला क अन्दर का कीड़ा
                                                              े
होना अथवा िनजर्ल मरुभूिम का मृग होना     अच्छा है परन्तु दबुि
                                                          ु र्   लोगों का संग करना
अच्छा नहीं है ।"


ौी विश जी कहते ह: "मंकी ! तू िजससे िमलने क िलए आतुर होकर दौड़ता जा रहा है
                                          े
वे दबुि
    ु र्    लोग ःवयं अ ान की आग में जल रहे ह, तब तुझे कसे सुख दे सकगे ?"
                                                       ै           ें


मंकी की यह कथा ’ौीयोगवािश       महारामायण’ मंथ में आती है । विश जी जैसे महिषर् का
संग ॄा ण मंकी को खूब शांित दे ता है ।


वह ःवयं कहता है : "हे भगवान ! आप कौन ह ? आपक वचन सुनकर मुझे बहुत शांित
                                            े
िमली है । इस संसार को असार जानकर म उदासीन हुआ हँू । मने अनेक जन्म िलये ह
परन्तु अब तक परम शांित को उपल ध नहीं हुआ । अतएव इस ूकार भटकता िफरता
हँू । आपको दे खकर मुझे िव ास होता है िक आपक शरणागत रहे ने से मेरा क याण
                                           े
होगा । आप क याणःवरुप लगते ह ।"


साधक और िशंय का शरणागत-भाव िजतना ूबल होगा, उतना ही वह                 ानी महपुरुष के
आगे झुकगा और िजतना झुकगा उतना पायेगा । िशंय का समपर्ण दे खकर गुरु का हाथ
       े              े
ःवाभािवक ही उसक मःतक पर जाता है । अब तो पा ात्य िव ान भी इस योगिव ा क
               े                                                     े
सूआम रहःयों को समझने लगा है िक ऎसा क्यों होता है ।


महपुरुषों की आध्याित्मक शि याँ समःत शरीर की अपेक्षा शरीर क जो नोंकवाले अंग ह
                                                          े
उनके       ारा अिधक बहती ह । इसी ूकार साधक क जो गोल अंग ह उनक
                                            े                े          ारा तेजी से
महण होती ह । इसी कारण से गुरु िशंय क िसर पर हाथ रखते ह तािक हाथ की
                                    े
अँगिलयों
   ु         ारा वह आध्याित्मक शि   िशंय में ूवािहत हो जाये । दसरी ओर िशंय जब
                                                               ू
गुरु क चरणों में मःतक रखता है तब गुरु क चरणों की अँगुिलयाँ और िवशेषकर अँगठा
      े                                े                                 ू
 ारा जो अध्याित्मक शि     ूवािहत होती है वह मःतक      ार िशंय अनायास ही महण
करक अध्याित्मक शि
   े                    का अिधकारी बन जाता है । इसी ूकार िशंय      ार िकये
जानेवाले सा ांग दण्डवत ूणाम क पीछे भी रहःय है ।
                             े




सा ांग दण्डवत ूणाम िकसिलए ?
िवदे श क बड़े -बड़े िव ान एवं वै ािनक भारत में ूचिलत गुरु समक्ष साधक क सा ांग
        े                                                           े
दण्डवत ूणाम की ूथा को पहले समझ न पाते थे िक भारत में ऎसी ूथा क्यों है ।
अब बड़े -बड़े ूयोगों के   ारा उनकी समझ में आ रहा है िक यह सब युि यु       है । इस
ौ ा-भाव से िकये हुए ूणाम आिद      ारा ही िशंय गुरु से लाभ ले सकता है , अन्यथा
आध्याित्मक उत्थान क मागर् पर वह कोरा ही रह जाय ।
                   े


एक ब गे रयन डॉ. लोजानोव ने ’इन्ःटी यूट आफ सजेःटोलोजी ’ की ःथापना की है
िजसे एक ’मंऽ महािव ालय’ कहा जा सकता है । वहाँ ूयोग करनेवले लोरे न्जो आिद
वै ािनकों का कहना है िक इस संःथा में हम िव ािथर्यों को २ वषर् का कोसर् २० िदन में
पूरा करा दे ते ह । वै ािनकों से भरी अंतरार् ीय सभा में जब लोजानोव से पूछा गया िक
यह युि   आपको कहाँ से िमली । तब उन्होंने कहा: "भारतीय योग में जो शवासन का
ूयोग है उसमें से मुझे इस प ित को िवकिसत करने की ूेरणा िमली ।"


लोजानोव कहते ह: "रािऽ में हमें िवौाम और शि      ूा   होती है क्योंिक हम उस समय
िचत सो जाते ह । इस अवःथा में हमारे सभी ूकार क शारी रक-मानिसक तनाव
                                             े
(टे न्शन) कम हो जाते ह । प रणामःवरुप हममें िफर नयी शि       और ःफितर् महण करने
                                                                 ू
की यो यता आ जाती है । जब हम खड़े हो जाते ह तब हमारे भीतर का अहं कार भी उठ
खड़ा होता है और समःत ’टे न्शन’ शरीर पर िफर से लागू पड़ जाते ह ।


िनिा क समय की यह अवःथा शवासन में शरीर क िशिथलीकरण क समय उत्पन्न हो
      े                                े           े
जाती है । सा ांग दण्डवत ूणाम में भी शरीर इसी ूकार तनावरिहत िशिथल और
समपर्ण की िःथित में आ जाता है ।


चेक यूिनविसर्टी में एक अन्य वै ािनक राबटर् पाविलटा ने भी इसी ूकार क ूयोग िकये
                                                                   े
ह । वे िकसी भी थक हुए यि
                 े             को एक ःवःथ गाय क नीचे जमीन पर िचत िलटा दे ते
                                               े
ह और कहते ह िक समःत तनाव (टे न्शन) छोड़कर पड़े रहो और भावना करो िक आप
पर ःवःथ गाय की शि        की वषार् हो रही है । कछ ही िमनटों में थकान और ःफितर् का
                                               ु                         ू
मापक यंऽ बताने लगता है िक इस यि         की थकान उतर चुकी है और वह पहले से भी
अिधक ताजा हो गया है । लोगों ने पाविलटा से पूछा : "यिद हम गाय क नीचे सोयें
                                                              े
नहीं और कवल बैठे रहें तो ?" पाविलटा कहते ह िक जो काम क्षणों में होता है वह काम
         े
बैठने से घण्टों में भी होना किठन है ।


सुूिस   मनोवै ािनकों ने भी अनुभव से जाना िक रोगी सामने बैठकर इतना लाभािन्वत
नहीं होता, िजतना उसक सामने िचत लेटकर, तनावरिहत अवःथा में िशिथल होकर
                    े
                                               ु
लाभािन्वत होता है । उस अवःथा में वह अपने अंदर छपी हुई ऎसी बातें भी कह दे ता है ,
गु रुप से िकये अपराध को भी अपने आप ःवीकार लेता है िजन्हें वह बैठकर कभी नहीं
कहता अथवा ःवीकारता । िचत लेटने से उसक अंदर समपर्ण का एक भाव अपने आप
                                     े
पैदा होता है ।


आज कल ःकल-कॉलेज क बड़े -बड़े िशक्षाशाि यों की िशकायत है िक िशक्षकों क ूित
        ू        े                                                 े
िव ािथर्यों का ौ ाभाव िब कल घट गया है । अतएव दे श में अनुशासनहीनता तेजी से
                          ु
बढ़ रही है । इसका एक कारण यह भी है िक हम ऋिषयों          ारा िनिदर्   दण्डवत ूणाम
की ूथा को िवदे शी अन्धानुकरण क जोश में ठोकर मारने लगे ह ।
                              े


जब विश जी कहते ह : "हे रामचन्िजी ! जब मने मंकी ॄा ण से कहा िक, ’म विश
हँू । तू संशय मत कर । म तुझे अकृ िऽम शांित दे कर जाऊगा । तब मंकी मेरे चरणों में
                                                    ँ
िगर पड़ा और उसकी आँखों से आनंदाौु बहने लगे । वह महा आनंद को ूा            हुआ ।"


यह कसे हुआ होगा ? आप शंका कर सकते ह । परन्तु इसक पीछे गूढ़ वै ािनक रहःय
    ै                                           े
अब ूकाश में आये ह । यह पूणतया संभव है ।
                          र्


िकरिलयान नामक वै ािनक ने एक अित संवेदनशील फोटोमाफी का आिवंकार िकया है
जो यि     क मिःतंक क चारों ओर फले हुए आभामण्डल का रं ग व िवःतार बताता है ।
           े        े          ै
यह आभामण्डल (इलेक्शोडायनेिमक फी ड) मनुंय, पशु, पक्षी ही नहीं अिपतु वृक्ष के
चारों ओर भी होता है । जो िजतना तेजःवी होगा, उतना ही दसरों को ूभािवत करे गा ।
                                                     ू
जब मनुंय मरता है तब यह आभामण्डल क्षीण होने लगता है । पूणर् िवसिजर्त होने में
उसे तीन िदन लगते ह ।
िकरिलयान की फोटोमाफी िजस रहःय को आज िस             कर रही है उसे भारत क योगी
                                                                       े
ूाचीन काल से जानते ह । भगवान राम, भगवान ौीकृ ंण, महत्मा बु , चैतन्य एवं
अन्य महापुरुषों क मःतक क पीछे ूकाश का वृ
                 े      े                       बनाया जाता है जो इस आभामण्डल
की ही सूचना दे ता है । आज भी बहुत-से साधकों को जब उनकी वृित सूआम होती है तब
अपने इ दे व अथवा गुरुदे व क चारों ओर ूकाश का वृत िदखाई दे ता है ।
                           े


िनःसंदेह महिषर् विश   का आभामण्डल अत्यंत तेजःवी होगा िजसक कारण मंकी का शोक
                                                         े
एकदम हरण हुआ और वह बोल उठा: " हे भगवन ! िकतने ही जन्मों से लेकर आज
तक मने कई भोग भोगे ह, परन्तु मुझे दःख ही िमला है । आज आपक दशर्न करक म
                                   ु                     े         े
कृ तकृ त्य हो गया हँू । भगवन! जब तक यह जीव संतजनों का सत्संग नहीं करता तब
तक वह अंधेरी रात में ही जीता है । संतजनों का संग और उनकी वाणीरुपी सत्शा ों का
अध्ययन करना यह उज्ज्वल चाँदनी रात जैसा है ।"


मंकी ॄा ण क िलए महिषर् विश
           े                     क दशर्न एवं वचनामृत शोक-संताप को हरनेवाले िस
                                  े
हुए । वाःतव में मुिन विश    जैसे महापुरुष   ारा अथवा किहए िक सदगुरु     ारा िमले हुए
मंऽ अथवा
आध्याित्मक रहःय जो िशंय या साधक सुन लेता है , झेल लेता है और सँभाल सकता है
उसक लोक-परलोक सँभल जाते ह । जो िशंय या साधक स रु की वह अमू य पूँजी न
   े                                          ु
सँभालकर अ ानी मूढ़ो क संग में मनमुख होकर आचरण करने लगता है उसकी सारी
                    े
कमाई िबखर जाती है ।


बहुत-से सधकों को गुरु क सािन्नध्य में रहना तब तक अच्छा लगता है जब तक वे ूेम
                       े
दे ते ह । परन्तु जब उन साधकों क उत्थानाथर् गुरु उनका ितरःकार करते ह, फटकारते ह,
                               े
उनका दे हाध्यास तोडने क िलए िविवध कसौिटयों में कसते ह तब साधक कहता है : "
                       े
गुरु क सािन्नध्य में रहना तो चाहता हँू परन्तु िनयंऽण में नहीं । हम साधना तो करें गे
      े
परन्तु ःवतंऽ रहकर ।"


मन उन्हें दगा दे ता है । यह ःवतंऽता नहीं बि क ःवेच्छाचार है । सच्ची ःवतंऽता तो
आत्म ान में ही है और उस पर ज दी आगे बढ़ने क िलए ही गुरु ने साधक को कचन
                                          े                        ं
की तरह तपाना शरु िकया था । परं तु साधक में यिद िववेक जागृत न हो तो मन उसे
अध:पतन क ऎसे ख डे में पटकता है िक उसे उठने में वष लग जाते ह, जन्मों लग
        े
जाते ह ।
अब जरा िवचा रये तो सही ! आज तक िजस मन को आप अपने काबू में न रख सके
और ःवेच्छाचरी होने क कारण भटकते रहे उस मन को ठ क करने क िलए तो आपने
                    े                                  े
गुरु की शरण ःवीकारी थी । जब गुरु ने आपक मन की मान्यताओं की चीर-फाड़ करने
                                       े
क िलए अपने अ -श
 े                      उठाये तो अब लौटकर िकसिलए जाना ? होने दो जो होता है
उसे । आप कोई बच्चे जैसे अथवा रोगी तो हो नहीं िक आपक ऑपरे शन क िलए ईथर य
                                                   े         े
क्लोरोफामर् आपको सुघाया जाय । आप अपने मन को समझाइये :"अरे मन ! तू मुझे
                   ँ
दगा दे कर गुरु के   ार से पुनः दर धकलना चाहता है ? मुझे अपने उसी पुराने जाल में
                                ू   े
फसाना चाहता है ? जा, अब म तेरी एक न सुनूँगा । अब तक म बहुत भटका । तेरी
 ँ
बात मानकर अब जन्म-मरण क चक्कर में अिधक नहीं भटकना है । यिद तेरा सुझाव
                       े
मानकर अन्यऽ कहीं गया तो वहाँभी िकसी पित या प ी की, सेठ या नेता की, मान
अथवा अपमान की दासता में तो रहना ही पड़े गा क्योंिक जब तक अंदर का सुख नहीं
िमलता तब तक सुख क िलए बाहरी िकसी-न-िकसी वःतु या यित्क की दासता तो
                 े
ःवीकारनी ही पड़े गी । अरे मन ! तो िफर यह गुरु का     ार ही क्या बुरा है ?" संत
कबीरजी कहते ह :


दजन की करुणा बुरी, भलो सांई को ऽास ।
 ु र्
सूरज जब गरमी करे , तब बरसन की आस ॥

...और सच पूछो तो गुरु आपका कछ लेना नहीं चाहते । वे आपको ूेम दे कर तो कछ
                            ु                                         ु
दे ते ही ह, परन्तु फटकार दे कर भी कोई उ म खजाना आपको दे ना चाहते ह । भले आप
इस बात को आज न समझें परन्तु यह वाःतिवकता है । डॉक्टर ऑपरे शन           ारा आपके
शरीर क िवजातीय पदाथ को ही िनकालता है िजससे आपको आरम िमले ।
      े


मफतलाल क पेट का ददर् जब बढ़ गया तब डॉक्टर ने कहा िक अब ऑपरे शन क
        े                                                      े
अित र    कोई उपाय नहीं है । बहुत समझाने क प ात मफतलाल ऑपरे शन क िलए बड़ी
                                         े                     े
किठनाई से तैयार हुआ । ऑपरे शन िथयेटर में जब ऑपरे शन की कायर्वाही शरु होने लगी
तब मफतलाल बोला :          "जरा ठह रए ! "


सभी चिकत हो गये ! बड़ी किठनाई से मफतलाल ऑपरे शन क िलए तैयार हुआ था ।
                                                े
अब कहीं िफर से रुठ न जाय ! सबने दे खा िक उसने जेब से आठ-दस आने की रे जगारी
िनकालकर कहा : "मेरे ये पैसे िलख लीिजए । क्य पता, मुझे बेहोश करने क बाद
                                                                  े
आपकी नीयत िबगड़ जाय तो ! "
इतना बड़ा ऑपरे शन हो रहा है और मफतलाल को अपने आठ-दस आने की िचन्ता लगी
है ! यह मफतलाल कोई दर नहीं है । संभव है वह अपने में ही हो । अपना ध्यान अपनी
                    ू
मन्यताएँरुपी आठ-दस आने बचाने में है , पेट का ददर् दर करने में कम है ।
                                                   ू


वह तो पेट का रोग था । यहाँ तो जन्म-मरणरुपी रोग का मूलोच्छे द करने का ू             है ।
विश जी कहते ह : "अ ानी क संग रहने से तो िकसी जलिवहीन मरुःथल का मृग हो
                        े
जान अच्छा है ।" ...और म कहता हँू िक जन्म-मरणरुपी महारोग क िनवारणाथर् गुरु क
                                                         े                 े
                       ु
 ारा ऑपरे शन क समय जो छरीरुपी अपमान सहना पड़े तो सह लेना चािहए । ितितक्षा
              े
और भूख- यासरुपी कची का चीरा सहना पड़े तो सह लेना चािहए । ईथर अथवा
क्लोरोफामर्रुपी ितरःकार-फटकार सहना पड़े तो सह लेना चािहए परन्तु अपना िन य
नहीं छोड़ना चिहए, साधना नहीं छोड़नी चािहए ।


खूब सोचकर िजनको गुरु माना है उनका           ार ूशंसा-ूाि      अथवा आठ-दस आनारुपी
न र चीजों क मोह में मत छोिड़ए क्योंिक गुरु रुपी डॉक्टर आपका महारोग िमटा दें गे ।
           े
अतः ई र अथवा गुरु को पीठ िदखाकर जीने क लोभ में न फसना । यिद ई र अथवा
                                      े           ँ
गुरु के   ार से ठु कराये गये तो सवर्ऽ ठोकरें खानी पड़ें गी ।

नरिसंह मेहता ठ क ही कहते ह :


भूिम सुलाऊ भूखा मारुँ ितस पर मारुँ मार ।
          ँ
इसक बाद भी जो ह र भजे तो कर दँ ू िनहाल ॥
   े

जब गुरु आपको चमकाने क िलए गढ़ने लगें, आपकी मान-ूित ा को जमीनदोःत करने
                     े
लगें तो घबरायें नहीं । धैयर् रखें । आपको हर ूकार से िवसिजर्त करने क िलए वे उ त
                                                                   े
हों तब िवसिजर्त होने में िझझको मत क्योंिक एक बार तो सभी कछ िवसिजर्त होनेवाला
                                                         ु
ही है । मृत्यु   ारा होनेवाले िवसजर्न से पहले यिद गुरु क हाथ से िवसजर्न ःवीकार कर
                                                        े
लेंगे तो वे आपक अंदर सुषु
               े               आपक ःवतंऽ ःवरुप को जगा दें गे । तत्प ात आपको
                                  े
ूकृ ित का कोई बंधन बाँध नहीं सकगा । आप सभी बंधनों से मु
                               े                                    हो जायेंगे । आप
ःवतंऽता की सुगध अंदर से उठती दे खेंगे । िफर िकसी ःवतंऽता अथवा सुख क िलए
              ं                                                    े
बाहर भटकना नहीं पड़े गा ।

यही िववेक है । इसीको िववेकपूणर् जीवन कहते ह । ऎसा जीवन बना लेंगे तो दे वता भी
आपक सािन्नध्य का लाभ लेने को उत्सुक रहें गे । यही है जीवन का साफ य, जीवन की
   े
पूणता । इसे ही िस
   र्                करें । यह िस   हो जायेगा तो अन्य सब िस      हो जायेगा और
कछ भी करना शेष नहीं रहे गा ।
 ु


इसिलए िहम्मत करो, साहस करो, छलाँग लगाओ । अपने िनजःवरुप को जानो । हे
िव   क सॆाट ! हे दे वों क दे व ! अपनी मिहमा में जािगए । यह कछ किठन नहीं । दर
      े                  े                                  ु              ू
नहीं है । असंभव भी नहीं है ।


ूत्येक प रिःथित में साक्षीभाव... जगत को ःव नतु य समझकर अपने कन्ि में थोड़ा
                                                             े
तो जागकर दे िखए ! िफर मन आपको दगा न दे गा ।


ॐ शांित: ! शांितः ! शांितः !


सवर्ःव दे कर भी अगर अपने शु    भावों की रक्षा होती है तो सौदा सःता है । रुपये, पैसे,
धन, स ा साथ में नहीं चलेंगे । मरने क बाद आपका ःवभाव ही आपक साथ चलेगा ।
                                    े                     े
आपकी साममी आपक साथ नहीं चलेगी, आपका ःवभाव ही आपक साथ चलेगा । अतः
              े                                 े
अपने ःवभाव को ऊचा, अित ऊचा बनाइये ।
               ँ        ँ


शाबाश वीर... ! शाबाश ! साहस कीिजए । जो बीत गई सो बीत गई । हजार बार
असफल होने पर भी िफर से आगे बिढ़ये ।

ॐ ॐ ॐ


स रु तेरा िवसजर्न करते ह । तू आनाकानी मत कर अन्यथा तेरे परमाथर् का पथ लम्बा
  ु
हो जायेगा । तू सहयोग दे । तू उनक चरणों में िवलीन हो जा और ःवामी बन । शीष
                                े
दे कर िसरताज बन । तू अपना घमंड छोड़ और गुरु बन । तू अपनी क्षुिता दे कर उनके
सवर्ःव का ःवामी बन । अपने न र को ठोकर मार और उनक पास से शा त का ःवर
                                                े
सुन । अपने क्षुि जीवत्व को त्यागकर िशवत्व में िवराम कर ।


जीिवत स रु क सािन्नध्य का लाभ िजतना हो सक, अिधकािधक लो । वे अहं कार को
        ु   े                            े
काट-कटकर आपक शु
     ू      े          ःवरुप को ूकट कर दें गे । उनकी व मान हयाती क समय ही
                                                       र्         े
           े                            ू
िजतना हो सक उतना लाभ ले लो । उनकी दे ह छट जाने क बाद तो ठ क है , मंिदर
                                                े
बनते ह और दकानदारी चलती है । आपक जीवन को गढ़ने का काम िफर न होगा ।
           ु                    े
आपका वािःत्वक ःवरुप ूत्यक्ष न हो पायेगा । अब तो ’ःवयं को शरीर मानना और
 ू                                 ु                                ु
दसरों को भी शरीर मानना ’ ऎसी आपकी दःखदायक प रिच्छन्न मान्यता को वे छड़ाते ह
। उनक जाने क प ात
     े      े                                                ु
                               आपकी यह दःखपूणर् मान्यता कौन छड़ायेगा ? िफर नाम
                                        ु
तो रहे गा िक    ’म साधना करता हँू ’ परन्तु खेल मन का होगा । मन आपको उलझा
दे गा । शताि दयों से वह उलझाता आया है ।

*
िववेकसम्पन्न पुरुष की मिहमा
(ौी योगवािश             महारामायण)
ौी विश जी बोले: "रघुकलभूषण ौीराम ! जब संसार क ूित वैरा य सुदृढ़ हो जाता है ,
                     ु                       े
सत्पुरुषों का सािन्नध्य ूा   हो जाता है , भोगों की तृंणा न   हो जाती है , पाँचों िवषय
नीरस भासने लगते ह, शा ों क ’त वमिस’ आिद महावाक्यों का यथाथर् बोध हो जाता है ,
                          े
आनन्दःवरुप आत्मा की अपरोक्षानुभित हो जाती है , ॑दय में आत्मोदय की पूणर् भावना
                               ू
िवकिसत हो जाती है तब िववेकी पुरुष एकमाऽ आत्मानन्द में रममाण रहता है और
अन्य भोग-वैभव, धन-सम्पि        को जूठ प ल की तरह तुच्छ समझकर उनसे उपराम हो
जाता है ।


ऎसे िववेक-वैरा यसम्पन्न पुरुष एकान्त ःथानों में या लोकाकीणर् नगरों में, सरोवरों में,
वनों में या उ ानों में, तीथ में या अपने घरों में, िमऽों की िवलासपूणर् बीड़ाओं में या
उत्सव-भोजनािद समारम्भों में एवं शा ों की तकपूणर् चचार्ओं में आसि
                                           र्                           न होने से कहीं
भी लम्बे समय तक रुकते नहीं । कदािचत कहीं रुक तो त व ान का ही अन्वेषण करते
                                            ें
ह । वे िववेकी पुरुष पूणर् शांत, इिन्ियिनमही, ःवात्मारामी, मौनी और एकमाऽ
िव ानःवरुप ॄ      का ही कथन करनेवाले होते ह । अ यास और वैरा य क बल से वे
                                                               े
ःवयं परमपदःवरुप परमात्मा में िवौांित पा लेते ह । वे मनोलय की पूणर् अवःथा में
आरुढ़ हो जाते ह । िजस ूकार ॑दयहीन पत्थरों को दध का ःवाद नहीं आता, उसी
                                             ू
ूकार इन अलौिकक पुरुषों को िवषयों में रस नहीं आता ।


िजस ूकार दीपक अन्धकार का नाश करता है , उसी ूकार िववेक- ानसम्पन्न महापुरुष
अपने ॑दयिःथत अ ानरुपी अन्धकार का नाश कर दे ते ह, बाहर क राग- े ष, शोक-भय
                                                       े
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Man koseekh

  • 1. ॄ लीन ॄ िन परम पूज्य ःवामी ौी लीलाशाहजी महाराज की अमृतवाणी मन को सीख ूितिदन मन क कान खींिचए : .......................................................................................... 3 े मन को कभी फसर्त न दें .................................................................................................... 4 ु मन को ूितिदन दःखों का ःमरण कराओ.......................................................................... 5 ु संत और सॆाट.................................................................................................................... 5 मन की चाल अटपटी........................................................................................................... 6 मन का नशा उतार डािलए .................................................................................................. 7 मन को दे खें ......................................................................................................................... 7 मन क मायाजाल से बचें ..................................................................................................... 7 े आहारशुि रखें ..................................................................................................................... 8 मंऽजप करें ........................................................................................................................... 9 िनंकाम भाव से सेवा करें ................................................................................................. 10 िच की समता पायें .......................................................................................................... 10 यह भी बीत जायेगी........................................................................................................... 11
  • 2. मंगलमय दृि रखें ............................................................................................................. 11 सत्पुरुष का सािन्नध्य पावें................................................................................................ 11 ूाथर्ना ................................................................................................................................ 12 वाःतिवक िववेक ................................................................................................................ 12 िववेक क्या है ?................................................................................................................. 13 आप दःखी क्यों है ? ........................................................................................................... 14 ु यह साधना है या मजदरी ?.............................................................................................. 14 ू सत्संग का ूभाव लहू पर.................................................................................................. 15 मंकी ॄा ण और महिषर् विश .......................................................................................... 16 सा ांग दण्डवत ूणाम िकसिलए ? ................................................................................... 17 िववेकसम्पन्न पुरुष की मिहमा ......................................................................................... 23
  • 3. मनः एव मनुंयाणां कारणं बंधमोक्षयोः । मन ही मनुंय क बंधन और मोक्ष का कराण है । शुभ संक प और पिवऽ कायर् करने से े मन शु होता है , िनमर्ल होता है तथा मोक्ष मागर् पर ले जाता है । यही मन अशुभ संक प और पापपूणर् आचरण से अशु हो जाता है तथा जडता लाकर संसार क बन्धन े में बांधता है । रामायण में ठ क ही कहा है : िनमर्ल मन जन सो मोिह पावा । मोही कपट छल िछि न भावा । ूितिदन मन क कान खींिचए : े अतः हे िूय आत्मन ् ! यिद आप अपने क याण की इच्छा रखते हो तो आपको अपने मन को समझाना चािहए । इसे उलाहने दे कर समझाना चािहएः “अरे चंचल मन ! अब शांत होकर बैठ । बारं बार इतना बिहमुख होकर िकसिलए परे शान करता है ? बाहर क्या र् कभी िकसीको सुख िमला है ? सुख जब भी िमला है तो हर िकसीको अंदर ही िमला है । िजसक पास सम्पूणर् भारत का साॆाज्य था, समःत भोग, वैभव थे ऎसे सॆाट भरथरी े को भी बाहर सुख न िमला और तू बाहर क पदाथ क िलए दीवाना हो रहा है ? तू भी े े भरथरी और राजकमार उ ालक की भांित िववेक करक आनंदःवरुप की ओर क्यों नहीं ु े लौटता ?” राजकमार उ ालक युवावःथा में ही िववेकवान होकर पवर्तों की गुफाओं में जा-जाकर ु अपने मन को समझाते थेः “अरे मन ! तू िकसिलए मुझे अिधक भटकाता है ? तू कभी सुगध क पीछे बावरा हो जाता है , कभी ःवाद क िलए तडपता है , कभी संगीत क पीछे ं े े े आकिषर्त हो जाता है । हे नादान मन ! तूने मेरा सत्यानाश कर िदया । क्षिणक िवषय- सुख दे कर तूने मेरा आत्मानंद छ न िलया है , मुझे िवषय-लोलुप बनाकर तूने मेरा बल, बुि , तेज, ःवाः य, आयु और उत्साह क्षीण कर िदया है ।” राजकमार उ ालक पवर्त की गुफा में बैठे मन को समझाते ह: “अरे मन ! तू बार-बार ु िवषय-सुख और सांसा रक सम्बन्धों की ओर दौडता है , प ी बच्चे और िमऽािद का सहवास चाहता है परन्तु इतना भी नहीं सोचता िक ये सब क्या सदै व रहनेवाले ह ? ू िजन्हें ूत्येक जन्म में छोडता आया है वे इस जन्म में भी छट ही जायेंगे िफर भी तू इस जन्म में भी उन्हीं का िवचार करता है ? तू िकतना मूखर् है ? िजसका कभी िवयोग नहीं होता, जो सदै व तेरे साथ है , जो आनन्दःवरुप है , ऎसे आत्मदे व क ध्यान में तू क्यों े
  • 4. नहीं डू बता ? इतना समय और जीवन तूने बबार्द कर िदया । अब तो शांत हो बैठ ! थोडी तो पुण्य की कमाई करने दे ! इतने समय तक तेरी बात मानकर, तेरी संगत करके मने अधम संक प िकये, कसंग िकये, पापकमर् िकये ।अब तो बुि मान बन, पुरानी आदत ु छोड । अंतमुख हो ।” र् उ ालक की भांित इसी ूकार एक बार नहीं परन्तु ूितिदन मन क कान खींचने चािहए । े मन पलीत है । इस पर कभी िव ास न करें । आपक कथनानुसार मन चलता है े या नहीं, इस पर िनरन्तर िि ु रखें । इस पर चौबीसों घण्टे जामुत पहरा रखें । मन को समझाने क िलए िववेक-िवचाररुपी डं डा सतत आपक हाथ में रहना चािहए । नीित और े े मयार्दा क िवरु े मन यिद कोई भी संक प करे तो उसे दण्ड दो । उसका खाना बंद कर दो । तभी वह समझेगा िक म िकसी मदर् क हाथ में पड गया हू । अब यिद सीधा न े चलून्गा तो मेरी ददर्शा होगी । ु मन को कभी फसर्त न दें ु मन में जबरदःत शि क भंडार भरे पडे ह । यह ऎसा वेगवान अ े है िक इस पर लगाम हो तो शीी ही मंिजल पर पहुचता है । लगाम िबना यह टे ढे-मेडे राःतों पर ऎसा भागेगा िक अंत में गहरी अन्धेरी कांटे दार झािडयों में ही िगरा दे गा । अतः मन पर मजबूत लगाम रखें । इसे कभी फसर्त न दें । यह कहवत तो आप जानते होंगे िक ु खाली मन शैतान का घर । Idle mind is devil's workshop. अन्याथा यह खरािबयाँ ही करे गा । इसिलए मन को िकसी-न-िकसी अच्छे काम में, िकसी िवचारशील कायर्-कलाप में लगाए रखें । कभी आत्मिचन्तन करें तो कभी सत्शा ों का अध्ययन, कभी सत्संग करें तो कभी ई रनाम-संकीतर्न करें , जप करें , अनु ान करें और परमात्मा क ध्यान में डू बें । कभी खुली हवा में घूमने जायें, यायाम करें । आशय यह े है िक इसक पैरों में कायर्रुपी बेिडयाँ डाले ही रखें । इसक िसर पर यदा - कदा अंकश े े ु लगाते ही रहें । हाथी अंकश से वश होता है , इसी ूकार मन भी अंकश से वशीभूत हो ु ु जायेगा ।
  • 5. मन को ूितिदन दःखों का ःमरण कराओ ु जीवन जन्म से लेकर मृत्यु तक दःखों, से भरा पड़ा है । गभर्वास का दःख, जन्मते ु ु समय का दःख, बचपन का दःख, बीमारी का दःख, बुढ़ापे का दःख तथा मृत्यु का दःख ु ु ु ु ु आिद दःखो की परम्परा चलती रहती है । गुरु नानक कहते ह : ु “नानक ! दिखया सब संसार ।” ु मन को ूितिदन इन सब दःखो का ःमरण कराइए । मन को अःपतालों क रोगीजन ु े िदखाइए, शवयाऽा िदखाइए, ःमशान-भूिम में घू-घू जलती हुई िचताएँ िदखाइए । उसे कहें : “रे मेरे मन ! अब तो मान ले मेरे लाल ! एक िदन िम टी में िमल जाना है अथवा अि न में खाक हो जाना है । िवषय-भोगों क पीछे दौड़ता है पागल ! ये भोग तो े दसरी योिनयों में भी िमलते ह । मनुंय-जन्म इन क्षुि वःतुओं क िलए नहीं है । यह ू े तो अमू य अवसर है । मनुंय-जन्म में ही पुरुषाथर् साध सकते ह । यिद इसे बबार्द कर दे गा तो बारं बार ऎसी दे ह नहीं िमलेगी । इसिलए ई र-भजन कर, ध्यान कर, सत्संग सुन और संतों की शरण में जा । तेरी जन्मों की भूख िमट जायेगी । क्षुि िवषय-सुखों के ू पीछे भागने की आदत छट जायेगी । तू आनंद क महासागर में ओतूोत होकर े आनंदःवरुप हो जायेगा । ू अरे मन ! तू ज्योितःवरुप है । अपना मूल पहचान । चौरासी लाख क चक्कर से छटने े का यह अवसर तुझे िमला है और तू मु ठ भर चनों क िलए इसे नीलाम कर दे ता है , े पागल । इस ूकार मन को समझाने से मन ःवतः ही समपर्ण कर दे गा । तत्प ात ् एक आ ाकरी व बुि मान बच्चे क समान आपक बताये हुए सन्मागर् पर खुशी-खुशी चलेगा । े े िजसने अपना मन जीत िलया, उसने समःत जगत को जीत िलया । वह राजाओं का राजा है , सॆाट है , सॆाटों का भी सॆाट है । संत और सॆाट एक बार एक संतौी राजदरबार में गये और इधर-उधर दे खने लगे । मंऽी ने आकर
  • 6. संतौी से कहा : "हे साधो ! यह राजदरबार है । आप दे खते नहीं िक सामने राजिसंहासन पर राजाजी िवराजमान ह? उन्हें झुककर ूणाम कीिजये ।” संतौी ने उ र िदया : " अरे मंऽी ! तू राजा से पूछकर आ िक आप मन क दास ह या े मन आपका दास है ?” मंऽी ने राजा क समीप जाकर उसी ूकार पूछा । राजा लज्जा गया और बोला : "मंऽी े ! आप यह क्या पूछ रहे ह ? सभी मनुंय मन क दास ह । मन जैसा कहता है वैसा ही े म करता हँू ।” मंऽी ने राजा का यह उ र संतौी से कहा । वे यह सुनकर बड़े जोर से हँ स पड़े और बोले : " सुना मंऽी ! तेरा राजा मन का दास है और मन मेरा दास है , इसिलये तेरा राजा मेरे दास का दास हुआ । म उसे झुककर िकस ूकार ूणाम करुँ ? तेरा राजा राजा नहीं, पराधीन है । घोड़ा सवार क आधीन होने क बदले यिद सवार घोड़े क आधीन हा, तो े े े घोड़ा सवार को ऎसी खाई में डालता है िक जहाँसे िनकलना भारी पड़ जाता है ।” संतौी क कथन में गहरा अनुभव था । राजा क क याण की स ावना थी । ॑दय की े े गहराई में सत्यता थी । अहं कार नहीं िकन्तु ःवानुभित की ःनेहपूणर् टं कार थी । राजा पर ू उन जीवन्मु महात्मा क सािन्नध्य, वाणी और िि े ु का िद य ूभाव पड़ा । संतौी के ये श द सुनकर राजा िसंहासन से उठ खड़ा हुआ । आकर उनक पैरों में पड़ा । संतौी ने े राजा को उपदे श िदया और मानव दे ह का मू य समझाया । मन की चाल अटपटी मन की चाल बड़ी ही अटपटी है इसिलए गािफल न रिहएगा । इस पर कभी िव ास न करें । िवषय-िवकार में इसे गक न होने दें । चाहे जैसे तक लड़ाकर मन आपको दगा र् र् दे सकता है । अवश और अशु मन बंधन क जाल में फसाता है । वश िकया हुआ शु े ँ मन मोक्ष क मागर् पर ले जाता है । शु े और शांत मन से ही ई र क दशर्न होते ह, े आत्म ान की बातें समझ में आती ह, त व ान होता है । मन की आँटी अटपटी, झटपट लखे न कोय । मन की खटपट जो िमटे , चटपट दशर्न होय ॥
  • 7. मन का नशा उतार डािलए मन एक मदमःत हाथी क समान है । इसने िकतने ही ऋिष-मुिनयों को ख डे में डाल े िदय है । आप पर यह सवार हो जाय तो आपको भूिम पर पछाड़कर र द दे । अतः िनरन्तर सजग रहें । इसे कभी धाँधली न करने दें । इसका अिःतत्व ही िमटा दें , समा कर दें । हाथ-से-हाथ मसलकर, दाँत-से-दाँत भींचकर, कमर कसकर, छाती में ूाण भरकर जोर लगाओ और मन की दासता को कचल डालो, बेिड़याँ तोड़ फको । सदै व क िलए इसक ु ें े े िशकजे में से िनकलकर इसक ःवामी बन जाओ । ं े मन पर िवजय ूा करनेवाला पुरुष ही इस िव में बुि मान ् और ् भा यवान है । वही सच्चा पुरुष है । िजसमें मन का कान पकड़ने का साहस नहीं, जो ूय तक नहीं करता वह मनुंय कहलाने क यो य ही नहीं । वह साधारण गधा नहीं अिपतु मकरणी े गधा है । वाःतव में तो मन क िलए उसकी अपनी स ा ही नहीं है । आपने ही इसे उपजाया है । े यह आपका बालक है । आपने इसे लाड़ लड़ा-लड़ाकर उन्मत बना िदया है । बालक पर िववेकपूणर् अंकश हो तभी बालक सुधरते ह । छोटे पेड़ की रक्षाथर् काँटों की बाड़ चािहए । ु इसी ूकार मन को भी खराब संगत से बचाने क िलए आपक े े ारा चौकीरुपी बाड़ होनी चािहए । मन को दे खें मन क चाल-चलन को सतत दे खें । बुरी संगत में जाने लगे तो उसक पेट में े े ान ु का छरा भोंक दें । चौकीदार जागता है तो चोर कभी चोरी नहीं कर सकता । आप सजाग रहें गे तो मन भी िब कल सीधा रहे गा । ु मन क मायाजाल से बचें े पहाड़ से चाहे कदकर मर जाना पड़े तो मर ् जाइये, समुि में डू ब मरना पड़े तो डू ब ू म रये, अि न में भःम होना पड़े तो भले ही भःम हो जाइये और हाथी क पैरों तले े रुँ दना पड़े तो रुँ द जाइये परन्तु इस मन क मायाजाल में मत फिसए । मन तक लडाकर े ँ र्
  • 8. िवषयरुपी िवष में घसीट लेता है । इसने युगों-युगों से और जन्मों-जन्मों से आपको भटकाया है । आत्मारुपी घर से बाहर खींचकर संसार की वीरान भूिम में भटकाया है । यारे ! अब तो जागो ! मन की मिलनता त्यागो । आत्मःवरुप में जागो । साहस करो । पुरुषाथर् करक मन क साक्षी व ःवामी बन जाओ । े े आत्म ान ूा करने क िलए तथा आत्मानंद में मःत रहने क िलए स वगुण का े े ूाब य चािहये । ःवभाव को स वगुणी बनाइये । आसुरी त वों को चुन-चुनकर बाहर फिकए । यिद आप अपने मन पर ें िनयंऽण नहीं पायेंगे तो यह िकस ूकार संभव होगा? रजो और तमोगुण में ही रें गते रहें गे तो आत्म ान क आँगन में िकस ूकार पहँु च पायेंगे ? े यिद मन मैला हो िूय ! सब ही मैला होय ् । तन धोये से मन कभी साफ-ःवच्छ न होय ॥ इसिलये सदै व मन क कान मरोड़ते रहें । इसक पाप और बुरे कमर् इसक सामने रखते रहें े े े । आप तो िनमर्ल ह परन्तु मन ने आपको ककम क कीचड़ में लथपथ कर िदया है । ु े अपनी वाःतिवक मिहमा को याद करक मन को कठोरता से दे खते रिहये तो मन े समझ जायेगा, शरमायेगा और अपने आप ही अपना मायाजाल समेट लेगा । आहारशुि रखें कहावत है िक ’जैसा खाये अन्न वैसा बने मन । ’ खुराक क ःथूल भाग से ःथूल शरीर े और सूआम भाग से सूआम शरीर अथार्त ् मन का िनमार्ण होता है । इसिलए सदै व स वगुणी खुराक लीिजये । दारु-शराब, मांस-मछली, बीड़ी-तम्बाक, अफीम-गाँजा, चाय आिद वःतुओं से ूय पूवक ू र् दर रिहये । रजोगुणी तथा तमोगुणी खुराक से मन अिधक मिलन तथा प रणाम में ू अिधक अशांत होता है । स वगुणी खुराक से मन शु और शांत होता है । ूदोष काल में िकये गये आहार और मैथुन से मन मिलन होता है और आिध- यािधयाँ बढ़ती ह । मन की लोलुपता िजन पदाथ पर हो वे पदाथर् उसे न दें । इससे मन के हठ का शनैः-शनैः शमन हो जायेगा ।
  • 9. भोजन क िवषय में ऋिषयों े ारा बतायी हुई कछ बातें ध्यान में रखनी चािहए : ु १. हाथ-पैर-मुह धोकर पूवार्िभमुख बैठकर मौन भाव से भोजन करें । िजनक माता- ँ े िपता जीिवत हों, वे दिक्षण िदशा की ओर ् मुख करक भोजन न करें । भोजन करते समय े ू बायें हाथ से अन्न ् का ःपशर् न करें और चरण, मःतक तथा अण्डकोष को भी न छएँ ।कवल ूाणािद क िलए पाँच मास अपर्ण करते समय तक बाय़ें हाथ े े से पाऽ को पकड़े रहें , उसक बाद छोड़ दें । े २. भोजन क समय हाथ घुटनों क बाहर न करें । भोजन-काल में बायें हाथ से े े जलपाऽ उठाकर दािहने हाथ की कलाई पर रखकर यिद पानी िपयें तो वह पाऽ भोजन समा होने तक जूठा नहीं माना जाता, ऎसा मनु महाराज का कथन है । यिद भोजन ू करता हुआ ि ज िकसी दसरे भोजन करते हुए ि ज को छ ले तो दोनों को ही भोजन ू छोड़ दे ना चािहए । ३. रािऽ को भोजन करते समय यिद दीप बुझ जाय तो भोजन रोक दें और दायें हाथ से अन्न ् को ःपशर् करते हुए मन-ही-मन गायऽी का ःमरण करें । पुनः दीप जलने के बाद ही भोजन शरु करें । ४. अिधक माऽा में भोजन करने से आयु तथा आरो यता का नाश होता है । उदर का आधा भाग अन्न से भरो, चौथाई भाग जल से भरो और चौथाई भाग वायु के आवागमन क िलए खाली रखो । े ५. भोजन क बाद थोड़ी दे र तक बैठो । िफर ् सौ कदम चलकर कछ दे र तक बाइँ े ु करवट लेटे रहो तो अन्न ठ क ढं ग से पचता है । भोजन क अन्त में भगवान को अपर्ण े िकया हुआ तुलसीदल खाना चािहए । भोजन िवषयक इन सब बातों को आचार में लाने से जीवन में सत्वगुण की वृि होती है । मंऽजप करें तुच्छ ओछे लोगों की संगत से मन भी तुच्छ और िवकारी बन जाता है । मंऽजप करने
  • 10. से मन क चारों ओर एक िवशेष ूकार का आभामंडल तैयार हो जाता है । इस े आभामंडल क कित्सत आंदोलनों से अपना रक्षण हो जाता है । तत्प ात ् अपना मन े ु पितत िवचारों और पितत काय की ओर आकिषर्त ् नहीं होता । उत्थान करानेवाले सत्काय की ओर ही यह सतत गितमान रहे गा । अतः ूत्येक िदन िनयमपूवक मंऽजप र् करते रहकर मन को स वगुणूधान बनाते रिहये । चलते-िफरते भी मंऽ का आवतर्न करते रहें । यदा कदा ूयोग करें । कम्बल िबछाकर उस पर िचत होकर लेटें । शरीर को एकदम ढीला छोड़ दें । िब कल शांत हो जायें । समम िव ् को भूल जायें । शांत होकर िवचार ु करने से जानेंगे िक जो सुख-दःख िमलता है वह सब हमारे कम का फल है । इसका ु फल दे ने में िमऽ और शऽु तो िनिम माऽ ह । म जागता हँू तो समःत संसार दीख पड़ता है । म सो जाता हँू तो संसार गायब । इसिलए यह समःत जगत ःव न के समान िम या है । यही सत्य है , यही वाःतिवकता है । इस वाःतिवकता को जानकर मन शांत हो जायेगा, मौन को उपल ध हो जायेगा । शांत और ःवःथ मन शु होता है । िनंकाम भाव से सेवा करें िनंकाम भाव से यिद परोपकार क कायर् करते रहें गे तो भी मन की मिलनता दर हो े ू जायेगी । यह ूकृ ित का अटल िनयम है । इसिलए परोपकार क कायर् िनंकाम भाव से े करने क िलये सदै व तत्पर रहें । े िच की समता पायें छोटी-मोटी प रिःथितयों से घबराकर अपने िच की समता न खोयें । भले ही आपको कोई गाली दे अथवा हािन पहँु चाए परन्तु आप बोध न करें । बोध करने से अपनी ही शि क्षीण होती है । इसिलए शांत रहें , ःवःथ रहें और उपिःथत प रिःथित का समाधान बुि पूवक यथा उिचत करें । र्
  • 11. यह भी बीत जायेगी सुख में फलो मत । दःख में िनराश न बनो । सुख और दःख दोनों ही बीत जायेंगे । ू ु ु कसी भी प रिःथित आये उस समय मन को याद िदलायें िक यह भी बीत जायेगी । ै Even that shall pass too. इस सूऽ को सदै व याद रखें । मन इससे शांत रहे गा और राग- े ष कम होता जायेगा । मंगलमय दृि रखें अपनी दृि को शुभ बनायें । कहीं भी बुराई न दे खें । सवर्ऽ मंगलमय दृि रखे िबना मन में शांित नहीं रहे गी । जगत आपक िलए क याणकारी ही है । सुख-दःख क सभी ूसंग े ु े आपकी गढ़ाई करने क िलए ह । सभी शुभ और पिवऽ ह । संसार की कोई बुराई आपक े े िलए नहीं है । सृि को मंगलमय दृि से दे खेंगे तो आपकी जय होगी । दृि ं ॄ मयीं कृ त्वा पँयमेविमदं जगत । सत्पुरुष का सािन्नध्य पावें े ं ू मन क िशकजे से छटने का सबसे सरल और ौे उपाय यह है िक आप िकसी समथर् सदगुरु क सािन्नध्य में पहँु च जायें । उनकी सेवा तन-मन-धन से करें । संसा रयों की े सेवा करना कठ न है क्योंिक उनकी इच्छाओं और वासनाओं का कोई पार नहीं, जबिक स रु तो अ प सेवा से ही संतु ु हो जायेंगे क्यों िक उनकी तो कोई इच्छा ही नहीं रही । ऎसे स रु का संग करें , उनक उपदे शों का ौवण करें , मनन करें , िनिदध्यासन करें ु े । उनक पास रहकर आध्याित्मक शा ों का अ यास करें , ॄ िव ा क रहःय जानें और े े आत्मसात करें । पक्की खोज करें िक आप कौन ह ? यह जगत क्या है ? ई र क्या है ? सत्य क्या है ? िम या क्या है ? इन समःयाओं का सच्चा भेद ॑दय में खुलेगा तब पता चलेगा िक जगत जैसा तो कछ है ही नहीं । सवर्ऽ आप ःवयं ही ॄ ःवरुप में या ु ह । आप ही वृि को बिहमुख र् करक अलग-अलग रुप धारण करक खेल खेलते ह, लीला करते ह । जीवन क समःत े े े
  • 12. दःखों से मुि ु पाने का एकमाऽ सच्चा उपाय है ॄ िव ा । पूणर् समथर् स रु क समागम से ॄ िव ा िमलेगी । ॄ िव ा से आपका मन शु , ु े ःवच्छ, िनमर्ल होकर अंत में अमन बन जायेगा । सवर्ऽ ॄ दृि पक्की हो जायेगी । समम जगत मरुभूिम क जल क समान भािसत होगा । े े पहले भी था ॄ ही बाद में रहे गा ॄ । िनकाल डालो बीच का जग का झूठा ॅम ॥ जब जगत ही नहीं रहे गा तब मन कहाँसे रहे गा ? आत्मःवरुप में एकमाऽ आप ही रहें गे । तदनन्तर जो संक प उठे गा वह अपने आप पूरा होगा । आपक काम, बोध, मोह, मद, े मत्सर ये सब शऽु गायब हो जायेंगे । िजसने मन को जीता, उसने समःत जगत को जीता । िजसने मन को जीता, उसने परमात्म-ूाि की । मन का दपर्ण ःवच्छ िकया िजसने अपने तांई । अनुभव उसका दे खी उसमें आत्मदे व की सांई ॥ भीतर बाहर िदखे अकला न कहीं दसरा कांई । े ू कायर्िस हुए उसक तो ’सामी’ कहे सुन सांई ॥ े ‘ * ूाथर्ना हे भगवान ! सबको स ि ु दो... शि दो... अरो यता दो... हम अपने-अपने क र् य का पालन करें और सुखी रहें ... * वाःतिवक िववेक - परम पूज्य संत ौी आसारामजी बापू
  • 13. अपने जीवन में िववेक लाइये । िववेकहीन जीवन तो जीवन ही नहीं । िववेकहीन यि को कदम-कदम पर दःख सहने पड़ते ह । लोग कहते ह: “हमने िववेक से ही अपना ु जीवन बनाया है । दे िखए, हम इं जीिनयर बन गये... डॉक्टर बन गये... हम अमुक फक्ट रयों क मािलक बन गये... हम इतने बड़े कायर्भार सँभालते ह... हम इतनी ऊची ै े ँ स ा पर, ऊचे पद पर पहँु च गये ह... इतने लोग हमें सम्मान दे ते ह ।” ँ अरे नहीं... यह िववेक नहीं । यापार करना, धन कमाना, अपने शरीर की वाहवाही कराना, भवन बनवाना आिद सब तो सामान्य िववेक है । इं जीिनयर बनकर मकान बना िदया... यूँ तो िचिड़या भी अपना मकान बनाकर रहती है । जीविव ान पढ़कर डॉक्टर बन गये और पािथर्व शरीर का कोई रोग िमटा िदया... यह सब सामान्य िववेक है । िववेक क्या है ? िववेक का अथर् है : सत्य क्या है , िम या क्या है , शा त क्या है , न र क्या है यह बात ठ क से समझकर अपने जीवन में ढाल लें । एक्माऽ परमात्मा सत्य है । शेष सब जो कछ भी है सो पुऽ, प रवार, भवन, दकान, िमऽ, सम्बन्धी, अपने, पराये आिद सब ु ु अिनत्य ह । एक िदन इन सबको छोड़कर जाना पड़े गा । इस शरीर क साथ ही समःत े सम्बन्ध, िनन्दा-ूित ा, अमीरी-गरीबी, बीमारी-तन्दरुःती यह सब जलकर खाक हो ु जायेगी । तब िमऽ, पित, प ी, बालक, यापार-धंधे, लोगों की खुशामद आिद कोई भी मृत्यु से बचा नहीं पायेंगे । अतः उन्हें ही सँभालने, ूसन्न रखने में संल न रहना यह िववेक नहीं है । भगवान राम क गुरु महिषर् विश े कहते ह: "हे रामजी ! चांडाल क घर की िभक्षा खाकर े भी यिद सत्संग िमलता हो और उससे शा त- न र का िववेक जागता हो तो यह सत्संग नहीं छोड़ना चािहए ।” विश जी का कथन िकतना मािमर्क है ! क्योंिक ऎसा सत्संग हमें अपने शा त ःवरुप की ओर ले जायेगा जबिक संसार क अन्य यवहार चाहे जैसी भी उपलि ध करायें, अंत में े मृत्यु क मुख में ले जायेंगे । े
  • 14. आप दःखी क्यों है ? ु तिनक ःवःथता से िवचा रये िक आप दःखी क्यों ह ? आपक पास धन नहीं है ? ु े आपकी बुि तीआण नहीं है ? आपक पास यवहारकशलता नहीं है ? आप रोगी ह ? े ु आपमें बल नहीं है ? अथवा आपमें सांसा रक ान नहीं है ? बहुतों क पास यह सब है े :धनवान ह, बलवान ह, यवहारकशल ह, बुि मान ह, जगत का ु ान भी जीभ क िसरे े पर है , तथािप वे दःखी ह । दःखी इसिलए नहीं ह िक उनक पास इन सब वःतुओं अथवा ु ु े वःतुओं के ान का अभाव है । परन्तु दःखी इसिलए ह िक संसार का सब कछ जानते ु ु हुए भी अपने आपको नहीं जानते । अपने आपको जान लें तो सवर् शोकों से पार हो जायें, जन्म-मरण से पार हो जायें । ... और अपने आपको न जानें तो शेष सब जाना हुआ धूल हो जाता है , क्योंिक शरीर की मृत्यु क साथ ही समःत यहीं रह जाता है । े यह साधना है या मजदरी ? ू िम या में सत्य को जान लेना, न र में शा त को खोज लेना, आत्मा को पहचान लेना तथा आत्मामय होकर जीना यही िववेक है । इसक अित र े अन्य सभी मजदरी है , ू यथर् बोझा उठाना और अपने आपको मूढ़ िस करने जैसा है । ऎसा िववेक धारण कर अपने आपको आध्याित्मक मागर् पर चला दें तो सभी कछ उिचत हो जाये, जीवन साथर्क ु हो जाये । अन्यथा िकतने ही ग ी-तिकयों पर बैिठए, टे बल-किसर्यों पर बैिठए, ु एयरकडीशन्ड कायार्लयों में बैठकर आदे श चलाइये अथवा जनता क सम्मुख ऊचे मंच पर ं े ँ बैठकर अपनी न र दे ह और नाम की जयजयकार करवा लीिजए परं तु अंत में कछ भी ु हाथ न लगेगा । ढाक क वे ही तीन पात । े चौथा लगे न पाँचवें की आस ॥ आप जहाँ क तहाँ ही रह जायेंगे । आयु बीत जायेगी और पछतावे का पार न रहे गा । े जब मौत आयेगी तब जीवन भर कमाया हुआ धन, प रौम करक पाये हुए पद-ूित ा, े लाड़ से पाला-पोसा यह शरीर िनदर् यतापूवक साथ छोड़ दे गा । आप खाली हाथ रोते रहें गे, र् बार-बार जन्म-मरण क चक्कर में घूमते रहें गे । इसीिलए कनोपिनषद क ऋिष कहते ह : े े े इह चेदवेदीदथ सत्यमिःत । न चेिदहावेदीन महती िवनि ः ॥
  • 15. ’यिद इस जीवन में ॄ ान ूा कर िलया या परमात्मा को जान िलया, तब तो जीवन की साथर्कता है और यिद इस जीवन में परमात्मा को नहीं जाना तो महान िवनाश है ।’ (कनोपिनषद : २.५) े ...तो यह िववेक ूा होता है सत्संग से और ानी महापुरुषों क सािन्नध्य से । सत्संग े से और ानी महपुरुषों क संग से िकस ूकार का उत्थान होता है इसे आज का िव ान े भी िस करने लगा है । सत्संग का ूभाव लहू पर ऑक्सफोडर् यूिनविसर्टी की िडलाबार ूयोगशाला में एक ूयोग बारं बार िकया गया है और वह यह िक आपक अपने िवचारों का ूभाव तो आपक लहू पर पड़ता ही है परन्तु आपक े े े िवषय में शुभ अथवा अशुभ िवचार करनेवाले अन्य लोगों का ूभाव आपक लहू पर कसा े ै पड़ता है और आपक भीतर कसे प रवतर्न होते ह ? वै ािनकों ने अपने दस वषर् क े ै े प रौम क प ात िनंकषर् िनकाला िक: े "आपक िलए िजनक ॑दय में मंगल भावना भरी हो, जो आपका उत्थान चाहता हो ऎसे े े यि क संग में जब आप रहते ह तब आपक ूत्येक घन िम.मी. र े े में १५०० ेतकणों का वधर्न एकाएक हो जाता है । इसक िवपरीत आप जब िकसी े े षपूणर् अथवा दु िवचरोंवाले यि क पास जाते हो तब ूत्येक घन िम.मी र े में १६०० ेतकण तत्काल घट जाते ह ।" वै ािनकों ने तुरन्त लहू-िनरीक्षण उपरान्त यह िनणर्य ूकट िकया है । जीविव ान कहता है िक र के ेतकण ही हमें रोगों से बचाते ह और अपने आरो य की रक्षा करते ह । वै ािनकों को यह दे खकर आ यर् हुआ िक शुभ िवचारवाले, सबका िहत चाहनेवाले, मंगलमूितर् सज्ज्न पुरुषों में ऎसा क्या होता है िक िजनक दशर्न े से अथवा िजनक सािन्नध्य में आने से इतना प रवतर्न आ जाता है ? अपना योगिव ान े तो पहले से जानता है परन्तु अब आधुिनक िव ान भी इसे िस करने लगा है । र में जब इतना प रवतर्न होता है तब अन्य िकतने अदृँय एवं अ ात प रवतर्न होते होंगे जो िक िव ान क जानने में न आते हों ? े
  • 16. मंकी ॄा ण और महिषर् विश इसिलए मंकी नामक एक ॄा ण जब जंगल छोड़कर गाँव क अ ानी लोगों का संग करने े जाता है तब ौी विश जी उसे बीच में ही रोक दे ते ह और कहते ह : "अरे मंकी ! तू कहाँ जाता है ? अंधेरी गुफा का साँप होना, िशला क अन्दर का कीड़ा े होना अथवा िनजर्ल मरुभूिम का मृग होना अच्छा है परन्तु दबुि ु र् लोगों का संग करना अच्छा नहीं है ।" ौी विश जी कहते ह: "मंकी ! तू िजससे िमलने क िलए आतुर होकर दौड़ता जा रहा है े वे दबुि ु र् लोग ःवयं अ ान की आग में जल रहे ह, तब तुझे कसे सुख दे सकगे ?" ै ें मंकी की यह कथा ’ौीयोगवािश महारामायण’ मंथ में आती है । विश जी जैसे महिषर् का संग ॄा ण मंकी को खूब शांित दे ता है । वह ःवयं कहता है : "हे भगवान ! आप कौन ह ? आपक वचन सुनकर मुझे बहुत शांित े िमली है । इस संसार को असार जानकर म उदासीन हुआ हँू । मने अनेक जन्म िलये ह परन्तु अब तक परम शांित को उपल ध नहीं हुआ । अतएव इस ूकार भटकता िफरता हँू । आपको दे खकर मुझे िव ास होता है िक आपक शरणागत रहे ने से मेरा क याण े होगा । आप क याणःवरुप लगते ह ।" साधक और िशंय का शरणागत-भाव िजतना ूबल होगा, उतना ही वह ानी महपुरुष के आगे झुकगा और िजतना झुकगा उतना पायेगा । िशंय का समपर्ण दे खकर गुरु का हाथ े े ःवाभािवक ही उसक मःतक पर जाता है । अब तो पा ात्य िव ान भी इस योगिव ा क े े सूआम रहःयों को समझने लगा है िक ऎसा क्यों होता है । महपुरुषों की आध्याित्मक शि याँ समःत शरीर की अपेक्षा शरीर क जो नोंकवाले अंग ह े उनके ारा अिधक बहती ह । इसी ूकार साधक क जो गोल अंग ह उनक े े ारा तेजी से महण होती ह । इसी कारण से गुरु िशंय क िसर पर हाथ रखते ह तािक हाथ की े अँगिलयों ु ारा वह आध्याित्मक शि िशंय में ूवािहत हो जाये । दसरी ओर िशंय जब ू गुरु क चरणों में मःतक रखता है तब गुरु क चरणों की अँगुिलयाँ और िवशेषकर अँगठा े े ू ारा जो अध्याित्मक शि ूवािहत होती है वह मःतक ार िशंय अनायास ही महण
  • 17. करक अध्याित्मक शि े का अिधकारी बन जाता है । इसी ूकार िशंय ार िकये जानेवाले सा ांग दण्डवत ूणाम क पीछे भी रहःय है । े सा ांग दण्डवत ूणाम िकसिलए ? िवदे श क बड़े -बड़े िव ान एवं वै ािनक भारत में ूचिलत गुरु समक्ष साधक क सा ांग े े दण्डवत ूणाम की ूथा को पहले समझ न पाते थे िक भारत में ऎसी ूथा क्यों है । अब बड़े -बड़े ूयोगों के ारा उनकी समझ में आ रहा है िक यह सब युि यु है । इस ौ ा-भाव से िकये हुए ूणाम आिद ारा ही िशंय गुरु से लाभ ले सकता है , अन्यथा आध्याित्मक उत्थान क मागर् पर वह कोरा ही रह जाय । े एक ब गे रयन डॉ. लोजानोव ने ’इन्ःटी यूट आफ सजेःटोलोजी ’ की ःथापना की है िजसे एक ’मंऽ महािव ालय’ कहा जा सकता है । वहाँ ूयोग करनेवले लोरे न्जो आिद वै ािनकों का कहना है िक इस संःथा में हम िव ािथर्यों को २ वषर् का कोसर् २० िदन में पूरा करा दे ते ह । वै ािनकों से भरी अंतरार् ीय सभा में जब लोजानोव से पूछा गया िक यह युि आपको कहाँ से िमली । तब उन्होंने कहा: "भारतीय योग में जो शवासन का ूयोग है उसमें से मुझे इस प ित को िवकिसत करने की ूेरणा िमली ।" लोजानोव कहते ह: "रािऽ में हमें िवौाम और शि ूा होती है क्योंिक हम उस समय िचत सो जाते ह । इस अवःथा में हमारे सभी ूकार क शारी रक-मानिसक तनाव े (टे न्शन) कम हो जाते ह । प रणामःवरुप हममें िफर नयी शि और ःफितर् महण करने ू की यो यता आ जाती है । जब हम खड़े हो जाते ह तब हमारे भीतर का अहं कार भी उठ खड़ा होता है और समःत ’टे न्शन’ शरीर पर िफर से लागू पड़ जाते ह । िनिा क समय की यह अवःथा शवासन में शरीर क िशिथलीकरण क समय उत्पन्न हो े े े जाती है । सा ांग दण्डवत ूणाम में भी शरीर इसी ूकार तनावरिहत िशिथल और समपर्ण की िःथित में आ जाता है । चेक यूिनविसर्टी में एक अन्य वै ािनक राबटर् पाविलटा ने भी इसी ूकार क ूयोग िकये े ह । वे िकसी भी थक हुए यि े को एक ःवःथ गाय क नीचे जमीन पर िचत िलटा दे ते े ह और कहते ह िक समःत तनाव (टे न्शन) छोड़कर पड़े रहो और भावना करो िक आप
  • 18. पर ःवःथ गाय की शि की वषार् हो रही है । कछ ही िमनटों में थकान और ःफितर् का ु ू मापक यंऽ बताने लगता है िक इस यि की थकान उतर चुकी है और वह पहले से भी अिधक ताजा हो गया है । लोगों ने पाविलटा से पूछा : "यिद हम गाय क नीचे सोयें े नहीं और कवल बैठे रहें तो ?" पाविलटा कहते ह िक जो काम क्षणों में होता है वह काम े बैठने से घण्टों में भी होना किठन है । सुूिस मनोवै ािनकों ने भी अनुभव से जाना िक रोगी सामने बैठकर इतना लाभािन्वत नहीं होता, िजतना उसक सामने िचत लेटकर, तनावरिहत अवःथा में िशिथल होकर े ु लाभािन्वत होता है । उस अवःथा में वह अपने अंदर छपी हुई ऎसी बातें भी कह दे ता है , गु रुप से िकये अपराध को भी अपने आप ःवीकार लेता है िजन्हें वह बैठकर कभी नहीं कहता अथवा ःवीकारता । िचत लेटने से उसक अंदर समपर्ण का एक भाव अपने आप े पैदा होता है । आज कल ःकल-कॉलेज क बड़े -बड़े िशक्षाशाि यों की िशकायत है िक िशक्षकों क ूित ू े े िव ािथर्यों का ौ ाभाव िब कल घट गया है । अतएव दे श में अनुशासनहीनता तेजी से ु बढ़ रही है । इसका एक कारण यह भी है िक हम ऋिषयों ारा िनिदर् दण्डवत ूणाम की ूथा को िवदे शी अन्धानुकरण क जोश में ठोकर मारने लगे ह । े जब विश जी कहते ह : "हे रामचन्िजी ! जब मने मंकी ॄा ण से कहा िक, ’म विश हँू । तू संशय मत कर । म तुझे अकृ िऽम शांित दे कर जाऊगा । तब मंकी मेरे चरणों में ँ िगर पड़ा और उसकी आँखों से आनंदाौु बहने लगे । वह महा आनंद को ूा हुआ ।" यह कसे हुआ होगा ? आप शंका कर सकते ह । परन्तु इसक पीछे गूढ़ वै ािनक रहःय ै े अब ूकाश में आये ह । यह पूणतया संभव है । र् िकरिलयान नामक वै ािनक ने एक अित संवेदनशील फोटोमाफी का आिवंकार िकया है जो यि क मिःतंक क चारों ओर फले हुए आभामण्डल का रं ग व िवःतार बताता है । े े ै यह आभामण्डल (इलेक्शोडायनेिमक फी ड) मनुंय, पशु, पक्षी ही नहीं अिपतु वृक्ष के चारों ओर भी होता है । जो िजतना तेजःवी होगा, उतना ही दसरों को ूभािवत करे गा । ू जब मनुंय मरता है तब यह आभामण्डल क्षीण होने लगता है । पूणर् िवसिजर्त होने में उसे तीन िदन लगते ह ।
  • 19. िकरिलयान की फोटोमाफी िजस रहःय को आज िस कर रही है उसे भारत क योगी े ूाचीन काल से जानते ह । भगवान राम, भगवान ौीकृ ंण, महत्मा बु , चैतन्य एवं अन्य महापुरुषों क मःतक क पीछे ूकाश का वृ े े बनाया जाता है जो इस आभामण्डल की ही सूचना दे ता है । आज भी बहुत-से साधकों को जब उनकी वृित सूआम होती है तब अपने इ दे व अथवा गुरुदे व क चारों ओर ूकाश का वृत िदखाई दे ता है । े िनःसंदेह महिषर् विश का आभामण्डल अत्यंत तेजःवी होगा िजसक कारण मंकी का शोक े एकदम हरण हुआ और वह बोल उठा: " हे भगवन ! िकतने ही जन्मों से लेकर आज तक मने कई भोग भोगे ह, परन्तु मुझे दःख ही िमला है । आज आपक दशर्न करक म ु े े कृ तकृ त्य हो गया हँू । भगवन! जब तक यह जीव संतजनों का सत्संग नहीं करता तब तक वह अंधेरी रात में ही जीता है । संतजनों का संग और उनकी वाणीरुपी सत्शा ों का अध्ययन करना यह उज्ज्वल चाँदनी रात जैसा है ।" मंकी ॄा ण क िलए महिषर् विश े क दशर्न एवं वचनामृत शोक-संताप को हरनेवाले िस े हुए । वाःतव में मुिन विश जैसे महापुरुष ारा अथवा किहए िक सदगुरु ारा िमले हुए मंऽ अथवा आध्याित्मक रहःय जो िशंय या साधक सुन लेता है , झेल लेता है और सँभाल सकता है उसक लोक-परलोक सँभल जाते ह । जो िशंय या साधक स रु की वह अमू य पूँजी न े ु सँभालकर अ ानी मूढ़ो क संग में मनमुख होकर आचरण करने लगता है उसकी सारी े कमाई िबखर जाती है । बहुत-से सधकों को गुरु क सािन्नध्य में रहना तब तक अच्छा लगता है जब तक वे ूेम े दे ते ह । परन्तु जब उन साधकों क उत्थानाथर् गुरु उनका ितरःकार करते ह, फटकारते ह, े उनका दे हाध्यास तोडने क िलए िविवध कसौिटयों में कसते ह तब साधक कहता है : " े गुरु क सािन्नध्य में रहना तो चाहता हँू परन्तु िनयंऽण में नहीं । हम साधना तो करें गे े परन्तु ःवतंऽ रहकर ।" मन उन्हें दगा दे ता है । यह ःवतंऽता नहीं बि क ःवेच्छाचार है । सच्ची ःवतंऽता तो आत्म ान में ही है और उस पर ज दी आगे बढ़ने क िलए ही गुरु ने साधक को कचन े ं की तरह तपाना शरु िकया था । परं तु साधक में यिद िववेक जागृत न हो तो मन उसे अध:पतन क ऎसे ख डे में पटकता है िक उसे उठने में वष लग जाते ह, जन्मों लग े जाते ह ।
  • 20. अब जरा िवचा रये तो सही ! आज तक िजस मन को आप अपने काबू में न रख सके और ःवेच्छाचरी होने क कारण भटकते रहे उस मन को ठ क करने क िलए तो आपने े े गुरु की शरण ःवीकारी थी । जब गुरु ने आपक मन की मान्यताओं की चीर-फाड़ करने े क िलए अपने अ -श े उठाये तो अब लौटकर िकसिलए जाना ? होने दो जो होता है उसे । आप कोई बच्चे जैसे अथवा रोगी तो हो नहीं िक आपक ऑपरे शन क िलए ईथर य े े क्लोरोफामर् आपको सुघाया जाय । आप अपने मन को समझाइये :"अरे मन ! तू मुझे ँ दगा दे कर गुरु के ार से पुनः दर धकलना चाहता है ? मुझे अपने उसी पुराने जाल में ू े फसाना चाहता है ? जा, अब म तेरी एक न सुनूँगा । अब तक म बहुत भटका । तेरी ँ बात मानकर अब जन्म-मरण क चक्कर में अिधक नहीं भटकना है । यिद तेरा सुझाव े मानकर अन्यऽ कहीं गया तो वहाँभी िकसी पित या प ी की, सेठ या नेता की, मान अथवा अपमान की दासता में तो रहना ही पड़े गा क्योंिक जब तक अंदर का सुख नहीं िमलता तब तक सुख क िलए बाहरी िकसी-न-िकसी वःतु या यित्क की दासता तो े ःवीकारनी ही पड़े गी । अरे मन ! तो िफर यह गुरु का ार ही क्या बुरा है ?" संत कबीरजी कहते ह : दजन की करुणा बुरी, भलो सांई को ऽास । ु र् सूरज जब गरमी करे , तब बरसन की आस ॥ ...और सच पूछो तो गुरु आपका कछ लेना नहीं चाहते । वे आपको ूेम दे कर तो कछ ु ु दे ते ही ह, परन्तु फटकार दे कर भी कोई उ म खजाना आपको दे ना चाहते ह । भले आप इस बात को आज न समझें परन्तु यह वाःतिवकता है । डॉक्टर ऑपरे शन ारा आपके शरीर क िवजातीय पदाथ को ही िनकालता है िजससे आपको आरम िमले । े मफतलाल क पेट का ददर् जब बढ़ गया तब डॉक्टर ने कहा िक अब ऑपरे शन क े े अित र कोई उपाय नहीं है । बहुत समझाने क प ात मफतलाल ऑपरे शन क िलए बड़ी े े किठनाई से तैयार हुआ । ऑपरे शन िथयेटर में जब ऑपरे शन की कायर्वाही शरु होने लगी तब मफतलाल बोला : "जरा ठह रए ! " सभी चिकत हो गये ! बड़ी किठनाई से मफतलाल ऑपरे शन क िलए तैयार हुआ था । े अब कहीं िफर से रुठ न जाय ! सबने दे खा िक उसने जेब से आठ-दस आने की रे जगारी िनकालकर कहा : "मेरे ये पैसे िलख लीिजए । क्य पता, मुझे बेहोश करने क बाद े
  • 21. आपकी नीयत िबगड़ जाय तो ! " इतना बड़ा ऑपरे शन हो रहा है और मफतलाल को अपने आठ-दस आने की िचन्ता लगी है ! यह मफतलाल कोई दर नहीं है । संभव है वह अपने में ही हो । अपना ध्यान अपनी ू मन्यताएँरुपी आठ-दस आने बचाने में है , पेट का ददर् दर करने में कम है । ू वह तो पेट का रोग था । यहाँ तो जन्म-मरणरुपी रोग का मूलोच्छे द करने का ू है । विश जी कहते ह : "अ ानी क संग रहने से तो िकसी जलिवहीन मरुःथल का मृग हो े जान अच्छा है ।" ...और म कहता हँू िक जन्म-मरणरुपी महारोग क िनवारणाथर् गुरु क े े ु ारा ऑपरे शन क समय जो छरीरुपी अपमान सहना पड़े तो सह लेना चािहए । ितितक्षा े और भूख- यासरुपी कची का चीरा सहना पड़े तो सह लेना चािहए । ईथर अथवा क्लोरोफामर्रुपी ितरःकार-फटकार सहना पड़े तो सह लेना चािहए परन्तु अपना िन य नहीं छोड़ना चिहए, साधना नहीं छोड़नी चािहए । खूब सोचकर िजनको गुरु माना है उनका ार ूशंसा-ूाि अथवा आठ-दस आनारुपी न र चीजों क मोह में मत छोिड़ए क्योंिक गुरु रुपी डॉक्टर आपका महारोग िमटा दें गे । े अतः ई र अथवा गुरु को पीठ िदखाकर जीने क लोभ में न फसना । यिद ई र अथवा े ँ गुरु के ार से ठु कराये गये तो सवर्ऽ ठोकरें खानी पड़ें गी । नरिसंह मेहता ठ क ही कहते ह : भूिम सुलाऊ भूखा मारुँ ितस पर मारुँ मार । ँ इसक बाद भी जो ह र भजे तो कर दँ ू िनहाल ॥ े जब गुरु आपको चमकाने क िलए गढ़ने लगें, आपकी मान-ूित ा को जमीनदोःत करने े लगें तो घबरायें नहीं । धैयर् रखें । आपको हर ूकार से िवसिजर्त करने क िलए वे उ त े हों तब िवसिजर्त होने में िझझको मत क्योंिक एक बार तो सभी कछ िवसिजर्त होनेवाला ु ही है । मृत्यु ारा होनेवाले िवसजर्न से पहले यिद गुरु क हाथ से िवसजर्न ःवीकार कर े लेंगे तो वे आपक अंदर सुषु े आपक ःवतंऽ ःवरुप को जगा दें गे । तत्प ात आपको े ूकृ ित का कोई बंधन बाँध नहीं सकगा । आप सभी बंधनों से मु े हो जायेंगे । आप ःवतंऽता की सुगध अंदर से उठती दे खेंगे । िफर िकसी ःवतंऽता अथवा सुख क िलए ं े बाहर भटकना नहीं पड़े गा । यही िववेक है । इसीको िववेकपूणर् जीवन कहते ह । ऎसा जीवन बना लेंगे तो दे वता भी
  • 22. आपक सािन्नध्य का लाभ लेने को उत्सुक रहें गे । यही है जीवन का साफ य, जीवन की े पूणता । इसे ही िस र् करें । यह िस हो जायेगा तो अन्य सब िस हो जायेगा और कछ भी करना शेष नहीं रहे गा । ु इसिलए िहम्मत करो, साहस करो, छलाँग लगाओ । अपने िनजःवरुप को जानो । हे िव क सॆाट ! हे दे वों क दे व ! अपनी मिहमा में जािगए । यह कछ किठन नहीं । दर े े ु ू नहीं है । असंभव भी नहीं है । ूत्येक प रिःथित में साक्षीभाव... जगत को ःव नतु य समझकर अपने कन्ि में थोड़ा े तो जागकर दे िखए ! िफर मन आपको दगा न दे गा । ॐ शांित: ! शांितः ! शांितः ! सवर्ःव दे कर भी अगर अपने शु भावों की रक्षा होती है तो सौदा सःता है । रुपये, पैसे, धन, स ा साथ में नहीं चलेंगे । मरने क बाद आपका ःवभाव ही आपक साथ चलेगा । े े आपकी साममी आपक साथ नहीं चलेगी, आपका ःवभाव ही आपक साथ चलेगा । अतः े े अपने ःवभाव को ऊचा, अित ऊचा बनाइये । ँ ँ शाबाश वीर... ! शाबाश ! साहस कीिजए । जो बीत गई सो बीत गई । हजार बार असफल होने पर भी िफर से आगे बिढ़ये । ॐ ॐ ॐ स रु तेरा िवसजर्न करते ह । तू आनाकानी मत कर अन्यथा तेरे परमाथर् का पथ लम्बा ु हो जायेगा । तू सहयोग दे । तू उनक चरणों में िवलीन हो जा और ःवामी बन । शीष े दे कर िसरताज बन । तू अपना घमंड छोड़ और गुरु बन । तू अपनी क्षुिता दे कर उनके सवर्ःव का ःवामी बन । अपने न र को ठोकर मार और उनक पास से शा त का ःवर े सुन । अपने क्षुि जीवत्व को त्यागकर िशवत्व में िवराम कर । जीिवत स रु क सािन्नध्य का लाभ िजतना हो सक, अिधकािधक लो । वे अहं कार को ु े े काट-कटकर आपक शु ू े ःवरुप को ूकट कर दें गे । उनकी व मान हयाती क समय ही र् े े ू िजतना हो सक उतना लाभ ले लो । उनकी दे ह छट जाने क बाद तो ठ क है , मंिदर े
  • 23. बनते ह और दकानदारी चलती है । आपक जीवन को गढ़ने का काम िफर न होगा । ु े आपका वािःत्वक ःवरुप ूत्यक्ष न हो पायेगा । अब तो ’ःवयं को शरीर मानना और ू ु ु दसरों को भी शरीर मानना ’ ऎसी आपकी दःखदायक प रिच्छन्न मान्यता को वे छड़ाते ह । उनक जाने क प ात े े ु आपकी यह दःखपूणर् मान्यता कौन छड़ायेगा ? िफर नाम ु तो रहे गा िक ’म साधना करता हँू ’ परन्तु खेल मन का होगा । मन आपको उलझा दे गा । शताि दयों से वह उलझाता आया है । * िववेकसम्पन्न पुरुष की मिहमा (ौी योगवािश महारामायण) ौी विश जी बोले: "रघुकलभूषण ौीराम ! जब संसार क ूित वैरा य सुदृढ़ हो जाता है , ु े सत्पुरुषों का सािन्नध्य ूा हो जाता है , भोगों की तृंणा न हो जाती है , पाँचों िवषय नीरस भासने लगते ह, शा ों क ’त वमिस’ आिद महावाक्यों का यथाथर् बोध हो जाता है , े आनन्दःवरुप आत्मा की अपरोक्षानुभित हो जाती है , ॑दय में आत्मोदय की पूणर् भावना ू िवकिसत हो जाती है तब िववेकी पुरुष एकमाऽ आत्मानन्द में रममाण रहता है और अन्य भोग-वैभव, धन-सम्पि को जूठ प ल की तरह तुच्छ समझकर उनसे उपराम हो जाता है । ऎसे िववेक-वैरा यसम्पन्न पुरुष एकान्त ःथानों में या लोकाकीणर् नगरों में, सरोवरों में, वनों में या उ ानों में, तीथ में या अपने घरों में, िमऽों की िवलासपूणर् बीड़ाओं में या उत्सव-भोजनािद समारम्भों में एवं शा ों की तकपूणर् चचार्ओं में आसि र् न होने से कहीं भी लम्बे समय तक रुकते नहीं । कदािचत कहीं रुक तो त व ान का ही अन्वेषण करते ें ह । वे िववेकी पुरुष पूणर् शांत, इिन्ियिनमही, ःवात्मारामी, मौनी और एकमाऽ िव ानःवरुप ॄ का ही कथन करनेवाले होते ह । अ यास और वैरा य क बल से वे े ःवयं परमपदःवरुप परमात्मा में िवौांित पा लेते ह । वे मनोलय की पूणर् अवःथा में आरुढ़ हो जाते ह । िजस ूकार ॑दयहीन पत्थरों को दध का ःवाद नहीं आता, उसी ू ूकार इन अलौिकक पुरुषों को िवषयों में रस नहीं आता । िजस ूकार दीपक अन्धकार का नाश करता है , उसी ूकार िववेक- ानसम्पन्न महापुरुष अपने ॑दयिःथत अ ानरुपी अन्धकार का नाश कर दे ते ह, बाहर क राग- े ष, शोक-भय े