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संकलन डॉ.अशोक नेने
सेवाननवृत्त प्राध्यापक व्हीएनआयटी नागपूर
nene_ashok@yahoo.com
प्राचीन भारतीय वृक्षनवद्या
प्राचीन भारतीय नशल्पशास्त्र के अन्तगगत दस शास्त्र, बत्तीस
नवद्याऐं और चौसष्ट कलाओं का समावेश होता था। यह सवग
नवषय एक दुसरे से जुड़े हुए है। “वृक्षनवद्या के अनभयानन्िकी
उपयोग’’ इस नवषय पर सेकडों सन्दभग उपलब्ध है।
2
वृक्ष-वनस्पनत के पञ्चाङ्ग फु ल,पत्ते, बीज, टहननयााँ और
जड का उपयोग अनेक अनभयानन्िकी क्रियाओं में होता
था एवं आज भी होता है।
3
4
वृक्ष-वनस्पनत के पञ्चाङ्ग के नवनवध उपयोग के ननम्न प्रकार है-
• कुम्हारी नमट्टी के गुणों में सुधार
• लोहे के औजारों को धार लगाना
• पानी को शुध्द करना
• पजगन्य का अनुमान
• चााँदी या तांबे की वस्तुओं पर स्वणग या रजत की तामचीनी
5
• पत्थर में पायी जाने वाली सूक्ष्म दरारों का अन्वेषण
• वज्रबन्ध की ननर्मगनत
• कॉंक्रिट और प्लास्टर बनाने में चूने का उपयोग
• मूलभूत रंग और रोगन (वारननश)
• भूगभग जल खोजने सहाय्यक जडी बूटी की मेहंदी
6
नस्थरीकरण की हुई नमट्टी, कच्ची या पकी हुई ईटें, कवेलू, नमट्टी के
बतगन बनाना, नचनी नमट्टी के बतगन, या दीवाले बनाने आक्रद काम
में आती है।
१ कुम्हारी नमट्टी के गुणों में सुधार
7
मृदा सुधारक वस्तुओं के फायदे
• कम पानी का उपयोग करके नमट्टी के गुणों मे सुधार.
• नमट्टी की जलप्रनतबंधक शक्ती में सुधार.
• नमट्टी की घनता बढ़ाना नजस से शनक्त में सुधार। नमट्टी के
बरतन चमक्रकले बनाना।
प्राचीन मृदा के सुधारक उपाय
8
मृदा सुधारक वस्तुओं का वगीकरण
१ वृक्षों की छाल, फल और जडी बूटी
• निफला- हरीतकी, बेहड़ा (बीनभतकी) और आमला
• बेल के फल, कनपत्थ
• खक्रदर या अजुगन वृक्ष की छाल
9
२- नैसर्गगक तन्तुमय पदाथग
कपास, ऊन, तागा, नाररयल की रेषाऐं या सेंमल का कपास
10
३- नैसर्गगक पदाथग
गोबर, गुड, कच्चे नाररयल का पानी, हरी काई, पनक्षओं के अण्डे,
धान की भुसी (नछलका), नाररयल के सख्त अधजले नछलके
11
ईटें और कवेलू
यजुवेद संनहता में ईटों की ननर्मगनत की अनेक प्रक्रियाओं का वणगन
क्रदया है। धातु नपघलाने में काम आने वाली उखा (नवशेष पाि)
नजस नमट्टी से बनाते थे, उस में लोहे का चूणग, पत्थर का चूणग तथा
बकरी के बाल नमलाए जाते थे।
शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ में इसी नवषय की पुनरुनक्त है।
13
नपपल या अगरू वृक्ष की छाल पानी में उबालकर
उसका कषाय (काढा) बनाकर नमट्टी में नमलाकर
उसे हर क्रदन रौंदकर (तीस क्रदन तक) इस नमट्टी
का उपयोग ईटें या कवेलू बनाने के नलए होता
था।
सन्दभग- नशल्परत्नाकर
15
ततः क्षीरागरैरीषत्त्वनरिफलाम्बुनभः
मदगयेतन्मासमािन्तु तत्कमगकुशलैनगरैः।।१।।
४- मूर्तग ननमागण के नलए नमट्टी बनाना
दूध, दही, घी, पत्थर का और लोहे का चूणग, छालों का कषाय
नमट्टी में नमलाए।
संदभग- तन्िसमुच्चय, वास्तुनवद्या
16
सकलानधकार यह मूर्तगकला पर अत्यंत महत्त्वपूणग ग्रंथ है।
इस में नमट्टी का चयन, उस में नमलाने वाली वस्तुऍं आक्रद का
वणगन नमलता है।
17
अपरानजतपृच्छा (तेरहवी सदी) इस ग्रन्थ में सफे द, लाल
या नपली नमट्टी का उपयोग बताया है। नमट्टी में गोदुग्ध,
जवस का तेल ,गेहं और जव का आटा नमलाकर, उस में
वृक्षों की छाल का कषाय नमलाकर, उसे, गुन्धकर, गोले
बनाए।
सुखने के बाद उन्हे पीसकर, चूना और गौन्द नमलाकर
नमट्टी बनाए, ऐसा वणगन आता है।
18
५-धातु की मूर्तग बनाने का सांचा की नमट्टी
बस्तर के डोिा आक्रदवासी लोगों ने नवकनसत की हुई पध्दनत
• मोम की मूर्तग तराशना, बनाना।
• नदी की महीन रेती,कोयले का चूणग और पानी नमलाकर
इस मूर्तग पर एक परत ब्रश से चढाना।
• दुसरी परत नगली लाल नमट्टी नजस में चावल के नछलके
का चूणग नमला हो, हाथ से चढाना। नतसरी परत नगली
नमट्टी की चढ़ाना और साचे की नमट्टी में दबाना
• नपघला हुआ धातु सांचे में डालना। यह धातु मोम की
मूर्तग की जगह लेता है।
.
19
फशग बनाने योग्य नमट्टी में इसबगोल नमलाने से फशग नचकनी और मजबूत
बनती है और उसमे दरारे नही आती।
६- नमट्टी का फशग
इसबगोल
20
७- बलून में उपयोगी हलकी लकडी
अगस्त्यसंनहता में बलून में पलाश, चन्दन,
बकुल आक्रद वृक्षों के लकड़ी का प्रयोग
करने के ननदेश है।
21
८- नमट्टी के बतगन
अच्छे बतगन बनाने के नलए सत्तु का आटा, और
नाररयल का पानी नमट्टी में नमलाए (८:१ के
अनुपात में)
Fig.1f- Earthen pots
23
मृदेष्टांशं समायोज्यं,
नाररकेरफलोदकैः ।।२।।
श्रवेष्टं गुग्गुलञ्चैव कुन्दुरुष्कं तथैव च ।
९- नचनी नमट्टी के बतगन
गुग्गुल, कुन्दा घास (१:१६ सफे द नमट्टी), दही
१:११ सफे द नमट्टी)। यह नमश्रण कच्चे बतगन पर
लगाए और उसे भट्टी में पकाए.
Fig.1g- Ceramic pots
25
१०- नचनी नमट्टी के बतगन पर चमकाने के नलए
घी, शहद, जडी बूटी, चूणग (बेल फल, कनपत्थ और ननयागस
घास) बतगन पर लगाकर पकाए।
चीनी नमट्टी के बतगन पर चमक के नलए
27
धातु के औजार वज्र समान करिन बनाना
• औजार गहरा लाल होने तक गमग करना।
• उस पर कुछ नवशेष लेप लगाकर नवशेष द्रव (घोल) में डुबोना।
• औजारों को धार लगाना।
नवशेष लेप –कबुतर की या चूहे की नवष्ठा, ससंगों का चूणग या रुई के
पौधे का दूध.
नवनशष्ट घोल (solution) –केले के पौधे की राख नमलाया हुआ ति
28
धातु करिन बनाना
29
२ब- पत्थर तोडना
 तपन से : इस में पत्थर पर पलाश की लकनड़यां रख कर तब तक
जलाते है जब तक जलती लकड़ी का रंग गहरा रक्त ना होता है।
शीघ्र िंडा करना: जलती लकड़ी हटाकर पत्थर िंडा क्रकया जाता है।
उस के नलए उबले बेर का पानी, ति या चूने के पानी का प्रयोग करते
थे।
सन्दभग -बृहत्संनहता
30
• ननमगली के या मुंगणे(सेहजन) के बीज पानी साफ करता है।
• खस घास की जडे पानी को सुगंध देता है।
• जामुन वृक्ष की लकड़ी पानी में पैदा होने वाला शैवाल नष्ट करता है।
• तुलसी के पत्ते पानी के नवषाणु नष्ट करते है।
३-जल शुध्द करना
31
प्राचीन ग्रन्थ कादंनबनी के अनुसार कुछ वृक्ष जब संपूणग फु लों
से भर जाते है तो वे पजगन्य का आगमन सूनचत करते है। जैसे-
अमलतास का वृक्ष फूलों से भर जाता है तो ४५ क्रदनों में
पजगन्य मास शुरू होता है।
४ –पजगन्य का अनुमान
32
“वनस्पनत गुणादशग के अनुसार पालाश के फू ल बकरी के दूध में नमलाकर
उसका लेप तांबे पर तीन क्रदन लगाने से वह स्वणग जैसी चमक पाता है।
हरताल (Orpiment) बकरी के दूध में नमलाकर उसका लेप नससे पर
तीन क्रदन लगाने से वह चांदी जैसी चमक पाता है।
५ सोना या चााँदी का तामचीनी
33
जलवायु प्रनतरोधक वस्त्र – बलून के नलए
• रेशमी वस्त्र के उपर कषाय (उदुम्बर,कदम्ब की
छाल, हरीतकी, बेहड़ा) की तीन परत लगाए।
• उसके उपर उड़द दाल का लेप तीन बार लगाए।
• चीनी की चाषनी में यह वस्त्र नभगोकर सुखाये।
जलप्रनतरोधक वस्त्र
35
लकड़ी को चमकाना
कुछ वृक्षों के जैसे वट, नपपल, औदुंबर (गुलर), नबल्व
छाल का कषाय उबालकर उस में लाक्ष डालकर
पॉनलश बनाया जाता था.
रनस्सयां और डोर का संरक्षण
नाररयल तेल में पके केले नमलाकर यह नमश्रण
रनस्सयां और डोर को लगाने से वह दीघग काल तक
रटकती है।
रस्सी को सुरनक्षत करना
38
६-पत्थरों के अनतसूक्ष्म दोष को ढूाँढ़ना
पत्थरों के अनतसूक्ष्म दोष (दरारे) जो आंखों से क्रदखते नही, ऐसे
दोष ढूाँढ़ने के नलए कुछ वनस्पनत के घोलों (द्रावण) का उपयोग
होता था। नजस से ऐसे दोष जो आंखों से क्रदखने लगे।
39
द्रावण१ - नहराकस, अनतश (अतीस) और गेरु दूध में
नमलाकर पत्थर को लगाए। ऐसे करने से एक रात के
बाद दोष प्रकट होंगे।
द्रावण २- जटामांसी, नहराकस, गायिी और गंडेना
(करौंदा) दूध में नघसकर द्रावण बनाए और पत्थर को
लगाए।
द्रावण ३-वषाग जल में जटामांसी, रोग और अश्वमारी के
मूल नघसकर द्रावण बनाए और पत्थर को लगाए।
41
42
वज्रबंध, वज्रलेप तथा अष्टबंध
43
जब नसमेंट ससंथेरटक गोंद आक्रद का आनवष्कार नहीं हुआ था,
तब प्राचीन काल में मूर्तगयााँ फशग पर नचपकाने के नलए इन
पदाथों का उपयोग होता था। दनक्षण भारत के कुछ मंक्रदरों में
आज भी इस का प्रयोग होता है।
प्राचीन ग्रन्थों में इन के ननमागण के पााँच नवनधयााँ उपलब्ध है।
सानहत्य:- कच्चे फल –तेंदु और कनपत्थ, शाल्मनल के फू ल,
शल्लकी के बीज, वृक्षों की छाल-धनवन और वचा.
कृनत – यह सब पदाथग पानी में डालकर कषाय एक अष्टमांश
होने तक उबाले। उस में श्रीवत्सक, लोहबान (रक्तबोळ),
गुग्गुल, भल्लातक, कुंदरू, अतसी का गोंद, बेलफल का मगज
नमलाए। ऐसा वज्रबंध हजार साल तक काम करता है।
बृहत संनहता में वर्णगत प्रथम नवनध
44
बृहत संहहता मे वहणित प्रथम हवधी
45
नवनध १ – नशल्परत्नाकर
सामग्री- तेंदु के कच्चे फल, (Diospyros malabarica)
कनपत्थ (Feronia elephantum), शाल्मली के फू ल
(Morus Acedosa), शल्लकी के बीज (Boswellia
serrata), धनवन वृक्ष की छाल और वचा (Orris root).
वज्रबंध नवनध २ -वराहनमनहर
सामुग्री- लाख, कुंदरू, काजल, गुग्गुल, कनपत्थ, बेलफल,
नागफल, मजंष्ट, ,नीम वृक्ष के बीज, महुआ के फू ल आक्रद का
अन्तभागव होता है।
कृनत –नवनध के समान
47
वज्रबंध नवधी ३ - मयमतम्
48
वज्रबंध नवनध ३ -वराहनमनहर
इसे वज्रलेप या वज्रताल भी कहते है।
इस में ,
• गाय, भैस या बकरे के ससंग का चूणग
• गधे के बाल
• मृत भैसे का नगला चमड़ा
• नीम वृक्ष के बीज, कनपत्थ का मगज
यह नमश्रण पानी में उबालकर एक अष्टमांश शेष रहने तक
पकाया जाता है।
49
वज्रबंध नवधी ३ -वराहनमनहर
50
वज्रबंध नवनध ४ - मयमुनी
इस में ८ भाग सीसा, २ भाग कांसा और १ भाग लोहे का चूणग
होता है। इसी को वज्रसंघात कहते है।
51
केरल की अष्टबंध नवनध
इसमे आठ घटककों का उपयोग होताहै.
# क
े रल की नदी भरतपुझा में पाए जानेवाले
52
शंखचूणग देवदार वृक्ष का गोंद
मंजुफल कपास के तन्तु
लाख मध्यम आकार के कङ्कर #
आवला लघु आकार के कङ्कर #
• यह नमश्रण चार या पांच व्यनक्तयों व्दारा लगातार कुटा
जाता है।
• कुटने के नलए इमली के लकड़ी के दस क्रकलो वजन के हतौडों
का उपयोग होता है।
• कुटने से यह नमश्रण मुलायम और उष्ण होता जाता है।
• एक क्रकलो अष्टबन्ध बनाने में एक लक्ष बार नमश्रण को नपटना
पडता है।
53
नशरस-Hide Glue
यह मरे हुए भैंस के चमड़े से बनाया जाता था। चमड़ा मख्खन जैसे
मुलायम होने तक पानी में पकाया जाता था। ऐसे टुकडे गोंद में नमलाकर
प्रयोग करते थे।
नशल्परत्न इस ग्रंथ में चूने से नवनभन्न प्रकार के मसाले कैसे
बनाने इस की नवनधयााँ बताई है।
प्रथम नवनध –पके केले, कपास के तन्तु और एलो (aloevera)
संनमश्र कर, चूने में नमलाए।
८ चूने का मसाला –(मॉटगर)
55
चूने का मसाला
56
नव्दतीय नवनध – इस में शंख और सीप जलाकर चूना (सुधा)
बनाया जाता है। इस में बाररक बालू, गुड का पानी और कच्चे केले
का चूणग नमलाकर (४:२:१ का अनुपात में), २८ क्रदन लकड़ी के
बतगन में रखा जाता है। बाद में महीन लेप बनाया जाता था।
तृतीय नवनध – दूध, दनध, नभगोई हुई, नपसी उडद डाल, पके केले,
नाररयल पानी, चूने में नमलाकर पॅस्टर क्रकया जाता था। ऐसा
पॅस्टर जल अवरोधक होने से छ्त पे लगाया जाता था।
57
सनला या पुट्टी
58
दनध दुग्धं माषजूषं गुडाज्यं कदलीफलैः।।
नानलकेराम्रफलयोजगलैश्चैतत्प्रकल्पयेद् ।
आज्यञ्च कदली पङ्कनानलकेराम्बुमाषयुक् ।।
चतुथग नवनध- इस नवनध में चूने में घी, नाररयल
का पानी, उडद डाल, निफला आक्रद चीजें नमलाई
जाती थी।
जलप्रनतरोधक चूना
60
क्षीराङ्गं त्वक्कषायञ्च क्षीरं दनधः ततो गुडं ।
नपनच्छलं निफलाम्बुश्च त्र्यंशाक्रदकनमदं िमात् ।।
E-Base coat for Cave Paintings
गुफाऍं नमश्रण द्रव्य
अजंिा नचकनी नमट्टी, गोबर, चावल के नछलके और
चूना .
सशंगेरी सफे द नमट्टी, चावल के नछलके और चूना
बाघा लाल नमट्टी, मुंग डाल नपसी हुई, चूना और
ताग के तन्तु.
61
चूने का अस्तर
62
९- प्राकृनतक रंग
ननर्मगनत के सौंदयग में वृनध्द और वस्तु को सुरनक्षत करना।
• ववष्णुधमोत्तरपुराण
• चित्रसूयय
• मानसोल्लास
संबनधत संदभग
रङ्गों के मुख्य उपयोग
मूल रङ्ग
सफे द, पीला, लाल, काला और नीला यह पांच मूल रङ्ग है। इन
से अननगनत नमश्र रङ्ग बनाए जाते है।
नसतवणं पीतवणं रक्तवणगञ्च कज्जलं ।
एतानन शुद्धवणागनन नीलवणं तथैव च ।।
नवष्णुधमौत्तर पुराण- अ. २७
सफे द रंग – यह सफे द नमट्टी, चूना, शंख या सीप से बनाते है। ऐसे रंग नीम
वृक्ष के गोंद में या कवि के साथ नमलाए जाते है। उपयोग के पूवग उबलते
पानी में डालकर घोल बनाया जाता है।
पीला रंग हररद्रु नामके लकड़ी से या पीली नमट्टी से बनाया जाता था।
लाल रंग- चसंदूर, गेरू चमट्टी या लाख से बनाया
जाता था।
कृ ष्ण रंग- तेल या घी का ददया जला कर उस का
धुआ चमट्टी क
े बतयन में एकवत्रत दकया जाता था।
चनला रंग – यह चनले खचनज पदाथों से बनाया जाता
था।
स्वणय रंग – यह सोने क
े वरक़ से बनाया जाता था।
प्राकृनतक रंग
ऐसे रंग बनाने के नलए कुछ वृक्षों की लकड़ी पानी के
साथ कुटी जाती थी। नमश्रण छान के नमट्टी के बतगन
में रखा जाता था।
प्राकृनतक रंग
68
भूगभग जल की खोज के अपारंपाररक पध्दनत में वृक्ष की टहनी,
अवलंब आक्रद का उपयोग होता है। इस पध्दनत को डॉउस ंग
कहते है।
जो नशशु ऊध्वग शीषग जनम लेता है, उस में कुछ चुंबकीय शनक्त
होती है। इस का उपयोग भूगभग जल अन्वेषण में सहायक होता
है।
69
१०- भुगभगजल की खोज
एक प्राचीन वनस्पती जन्य,पैरों में लगाने वाले लेप से
भुगभग जल की खोज संभव होती है। यह लेप कुछ वनस्पनत
के बीज और मूल गोमूि में नघसकर बनाया जाता था।
70
प्राचीन ग्रन्थ ‘’मन्िशास्त्र‘’ में इस का वणगन नमलता
है।
प्रत्यक्ष प्रमाण
अ- गढ़ी के नलए नमट्टी
स्थानीय नमट्टी, गोबर, महीन बालू, चूना, बेलफल का मगज और ताग के
तन्तु इन सब का नमश्रण पानी नमलाकर, तीस क्रदन पैर से रोंदते थे। इस
सानहत्य से बने नमट्टी के रटले पत्थर समान हो जाते है।
.
72
ब- चूने से बना फशग
सतरवी सदी में ननर्मगत केरल के पद्मनाथपूर राजमहल की फशग बनाते
समय चूना, ताड़ी, अण्डे की सफेदी, जले हुए नररयल के कवच और कुछ
अज्ञात वनस्पनत के नमश्रण का उपयोग हुआ था। चार सौ वषग पश्चात् भी
यह फशग नशशे के समान क्रदखती है।
73
इस प्रस्तुनत से यह ननष्कषग ननकाले जा सकते है की,
• प्राचीन भारत में वृक्षनवद्या का ज्ञान अनभयान्ताओं को अवश्य होता था।
• आधुननक युग के उन्नत सानहत्य जैसे नसमेंट, प्लास्टर, कांच, रबर इत्याक्रद सस्ते
दामों में उपलब्ध होने से अनेक प्राचीन पदाथग कालबाह्य हो गये है।
•परन्तु भारत की धरोहर वास्तुओं के दीघागयुष्य का रहस्य, उच्च वास्तु सानहत्य
का चयन तथा ननमागण पध्दनत इन में नछपा है।
ननष्कषग
74
सकलानधकार-अगस्त्य मुनन शतपथब्राह्मण
नशल्परत्न -श्रीकुमार शुरलयजुवेदसंनहता
तन्िसमुच्चय वास्तुनवद्या
नवष्णुधमोत्तरपुराण बृहतसंनहता-वराहनमनहर
अपरानजतपृच्छा ऋग्वेद
मानसोल्लास –राजा सोमेश्वर मयमत
प्राचीन सन्दभग
76

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  • 1. संकलन डॉ.अशोक नेने सेवाननवृत्त प्राध्यापक व्हीएनआयटी नागपूर nene_ashok@yahoo.com प्राचीन भारतीय वृक्षनवद्या
  • 2. प्राचीन भारतीय नशल्पशास्त्र के अन्तगगत दस शास्त्र, बत्तीस नवद्याऐं और चौसष्ट कलाओं का समावेश होता था। यह सवग नवषय एक दुसरे से जुड़े हुए है। “वृक्षनवद्या के अनभयानन्िकी उपयोग’’ इस नवषय पर सेकडों सन्दभग उपलब्ध है। 2
  • 3. वृक्ष-वनस्पनत के पञ्चाङ्ग फु ल,पत्ते, बीज, टहननयााँ और जड का उपयोग अनेक अनभयानन्िकी क्रियाओं में होता था एवं आज भी होता है। 3
  • 4. 4
  • 5. वृक्ष-वनस्पनत के पञ्चाङ्ग के नवनवध उपयोग के ननम्न प्रकार है- • कुम्हारी नमट्टी के गुणों में सुधार • लोहे के औजारों को धार लगाना • पानी को शुध्द करना • पजगन्य का अनुमान • चााँदी या तांबे की वस्तुओं पर स्वणग या रजत की तामचीनी 5
  • 6. • पत्थर में पायी जाने वाली सूक्ष्म दरारों का अन्वेषण • वज्रबन्ध की ननर्मगनत • कॉंक्रिट और प्लास्टर बनाने में चूने का उपयोग • मूलभूत रंग और रोगन (वारननश) • भूगभग जल खोजने सहाय्यक जडी बूटी की मेहंदी 6
  • 7. नस्थरीकरण की हुई नमट्टी, कच्ची या पकी हुई ईटें, कवेलू, नमट्टी के बतगन बनाना, नचनी नमट्टी के बतगन, या दीवाले बनाने आक्रद काम में आती है। १ कुम्हारी नमट्टी के गुणों में सुधार 7
  • 8. मृदा सुधारक वस्तुओं के फायदे • कम पानी का उपयोग करके नमट्टी के गुणों मे सुधार. • नमट्टी की जलप्रनतबंधक शक्ती में सुधार. • नमट्टी की घनता बढ़ाना नजस से शनक्त में सुधार। नमट्टी के बरतन चमक्रकले बनाना। प्राचीन मृदा के सुधारक उपाय 8
  • 9. मृदा सुधारक वस्तुओं का वगीकरण १ वृक्षों की छाल, फल और जडी बूटी • निफला- हरीतकी, बेहड़ा (बीनभतकी) और आमला • बेल के फल, कनपत्थ • खक्रदर या अजुगन वृक्ष की छाल 9
  • 10. २- नैसर्गगक तन्तुमय पदाथग कपास, ऊन, तागा, नाररयल की रेषाऐं या सेंमल का कपास 10
  • 11. ३- नैसर्गगक पदाथग गोबर, गुड, कच्चे नाररयल का पानी, हरी काई, पनक्षओं के अण्डे, धान की भुसी (नछलका), नाररयल के सख्त अधजले नछलके 11
  • 13. यजुवेद संनहता में ईटों की ननर्मगनत की अनेक प्रक्रियाओं का वणगन क्रदया है। धातु नपघलाने में काम आने वाली उखा (नवशेष पाि) नजस नमट्टी से बनाते थे, उस में लोहे का चूणग, पत्थर का चूणग तथा बकरी के बाल नमलाए जाते थे। शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ में इसी नवषय की पुनरुनक्त है। 13
  • 14. नपपल या अगरू वृक्ष की छाल पानी में उबालकर उसका कषाय (काढा) बनाकर नमट्टी में नमलाकर उसे हर क्रदन रौंदकर (तीस क्रदन तक) इस नमट्टी का उपयोग ईटें या कवेलू बनाने के नलए होता था। सन्दभग- नशल्परत्नाकर
  • 16. ४- मूर्तग ननमागण के नलए नमट्टी बनाना दूध, दही, घी, पत्थर का और लोहे का चूणग, छालों का कषाय नमट्टी में नमलाए। संदभग- तन्िसमुच्चय, वास्तुनवद्या 16
  • 17. सकलानधकार यह मूर्तगकला पर अत्यंत महत्त्वपूणग ग्रंथ है। इस में नमट्टी का चयन, उस में नमलाने वाली वस्तुऍं आक्रद का वणगन नमलता है। 17
  • 18. अपरानजतपृच्छा (तेरहवी सदी) इस ग्रन्थ में सफे द, लाल या नपली नमट्टी का उपयोग बताया है। नमट्टी में गोदुग्ध, जवस का तेल ,गेहं और जव का आटा नमलाकर, उस में वृक्षों की छाल का कषाय नमलाकर, उसे, गुन्धकर, गोले बनाए। सुखने के बाद उन्हे पीसकर, चूना और गौन्द नमलाकर नमट्टी बनाए, ऐसा वणगन आता है। 18
  • 19. ५-धातु की मूर्तग बनाने का सांचा की नमट्टी बस्तर के डोिा आक्रदवासी लोगों ने नवकनसत की हुई पध्दनत • मोम की मूर्तग तराशना, बनाना। • नदी की महीन रेती,कोयले का चूणग और पानी नमलाकर इस मूर्तग पर एक परत ब्रश से चढाना। • दुसरी परत नगली लाल नमट्टी नजस में चावल के नछलके का चूणग नमला हो, हाथ से चढाना। नतसरी परत नगली नमट्टी की चढ़ाना और साचे की नमट्टी में दबाना • नपघला हुआ धातु सांचे में डालना। यह धातु मोम की मूर्तग की जगह लेता है। . 19
  • 20. फशग बनाने योग्य नमट्टी में इसबगोल नमलाने से फशग नचकनी और मजबूत बनती है और उसमे दरारे नही आती। ६- नमट्टी का फशग इसबगोल 20
  • 21. ७- बलून में उपयोगी हलकी लकडी अगस्त्यसंनहता में बलून में पलाश, चन्दन, बकुल आक्रद वृक्षों के लकड़ी का प्रयोग करने के ननदेश है। 21
  • 22. ८- नमट्टी के बतगन अच्छे बतगन बनाने के नलए सत्तु का आटा, और नाररयल का पानी नमट्टी में नमलाए (८:१ के अनुपात में) Fig.1f- Earthen pots
  • 24. ९- नचनी नमट्टी के बतगन गुग्गुल, कुन्दा घास (१:१६ सफे द नमट्टी), दही १:११ सफे द नमट्टी)। यह नमश्रण कच्चे बतगन पर लगाए और उसे भट्टी में पकाए. Fig.1g- Ceramic pots
  • 25. 25
  • 26. १०- नचनी नमट्टी के बतगन पर चमकाने के नलए घी, शहद, जडी बूटी, चूणग (बेल फल, कनपत्थ और ननयागस घास) बतगन पर लगाकर पकाए।
  • 27. चीनी नमट्टी के बतगन पर चमक के नलए 27
  • 28. धातु के औजार वज्र समान करिन बनाना • औजार गहरा लाल होने तक गमग करना। • उस पर कुछ नवशेष लेप लगाकर नवशेष द्रव (घोल) में डुबोना। • औजारों को धार लगाना। नवशेष लेप –कबुतर की या चूहे की नवष्ठा, ससंगों का चूणग या रुई के पौधे का दूध. नवनशष्ट घोल (solution) –केले के पौधे की राख नमलाया हुआ ति 28
  • 30. २ब- पत्थर तोडना  तपन से : इस में पत्थर पर पलाश की लकनड़यां रख कर तब तक जलाते है जब तक जलती लकड़ी का रंग गहरा रक्त ना होता है। शीघ्र िंडा करना: जलती लकड़ी हटाकर पत्थर िंडा क्रकया जाता है। उस के नलए उबले बेर का पानी, ति या चूने के पानी का प्रयोग करते थे। सन्दभग -बृहत्संनहता 30
  • 31. • ननमगली के या मुंगणे(सेहजन) के बीज पानी साफ करता है। • खस घास की जडे पानी को सुगंध देता है। • जामुन वृक्ष की लकड़ी पानी में पैदा होने वाला शैवाल नष्ट करता है। • तुलसी के पत्ते पानी के नवषाणु नष्ट करते है। ३-जल शुध्द करना 31
  • 32. प्राचीन ग्रन्थ कादंनबनी के अनुसार कुछ वृक्ष जब संपूणग फु लों से भर जाते है तो वे पजगन्य का आगमन सूनचत करते है। जैसे- अमलतास का वृक्ष फूलों से भर जाता है तो ४५ क्रदनों में पजगन्य मास शुरू होता है। ४ –पजगन्य का अनुमान 32
  • 33. “वनस्पनत गुणादशग के अनुसार पालाश के फू ल बकरी के दूध में नमलाकर उसका लेप तांबे पर तीन क्रदन लगाने से वह स्वणग जैसी चमक पाता है। हरताल (Orpiment) बकरी के दूध में नमलाकर उसका लेप नससे पर तीन क्रदन लगाने से वह चांदी जैसी चमक पाता है। ५ सोना या चााँदी का तामचीनी 33
  • 34. जलवायु प्रनतरोधक वस्त्र – बलून के नलए • रेशमी वस्त्र के उपर कषाय (उदुम्बर,कदम्ब की छाल, हरीतकी, बेहड़ा) की तीन परत लगाए। • उसके उपर उड़द दाल का लेप तीन बार लगाए। • चीनी की चाषनी में यह वस्त्र नभगोकर सुखाये।
  • 36. लकड़ी को चमकाना कुछ वृक्षों के जैसे वट, नपपल, औदुंबर (गुलर), नबल्व छाल का कषाय उबालकर उस में लाक्ष डालकर पॉनलश बनाया जाता था.
  • 37. रनस्सयां और डोर का संरक्षण नाररयल तेल में पके केले नमलाकर यह नमश्रण रनस्सयां और डोर को लगाने से वह दीघग काल तक रटकती है।
  • 39. ६-पत्थरों के अनतसूक्ष्म दोष को ढूाँढ़ना पत्थरों के अनतसूक्ष्म दोष (दरारे) जो आंखों से क्रदखते नही, ऐसे दोष ढूाँढ़ने के नलए कुछ वनस्पनत के घोलों (द्रावण) का उपयोग होता था। नजस से ऐसे दोष जो आंखों से क्रदखने लगे। 39
  • 40. द्रावण१ - नहराकस, अनतश (अतीस) और गेरु दूध में नमलाकर पत्थर को लगाए। ऐसे करने से एक रात के बाद दोष प्रकट होंगे। द्रावण २- जटामांसी, नहराकस, गायिी और गंडेना (करौंदा) दूध में नघसकर द्रावण बनाए और पत्थर को लगाए। द्रावण ३-वषाग जल में जटामांसी, रोग और अश्वमारी के मूल नघसकर द्रावण बनाए और पत्थर को लगाए।
  • 41. 41
  • 42. 42
  • 43. वज्रबंध, वज्रलेप तथा अष्टबंध 43 जब नसमेंट ससंथेरटक गोंद आक्रद का आनवष्कार नहीं हुआ था, तब प्राचीन काल में मूर्तगयााँ फशग पर नचपकाने के नलए इन पदाथों का उपयोग होता था। दनक्षण भारत के कुछ मंक्रदरों में आज भी इस का प्रयोग होता है। प्राचीन ग्रन्थों में इन के ननमागण के पााँच नवनधयााँ उपलब्ध है।
  • 44. सानहत्य:- कच्चे फल –तेंदु और कनपत्थ, शाल्मनल के फू ल, शल्लकी के बीज, वृक्षों की छाल-धनवन और वचा. कृनत – यह सब पदाथग पानी में डालकर कषाय एक अष्टमांश होने तक उबाले। उस में श्रीवत्सक, लोहबान (रक्तबोळ), गुग्गुल, भल्लातक, कुंदरू, अतसी का गोंद, बेलफल का मगज नमलाए। ऐसा वज्रबंध हजार साल तक काम करता है। बृहत संनहता में वर्णगत प्रथम नवनध 44
  • 45. बृहत संहहता मे वहणित प्रथम हवधी 45
  • 46. नवनध १ – नशल्परत्नाकर सामग्री- तेंदु के कच्चे फल, (Diospyros malabarica) कनपत्थ (Feronia elephantum), शाल्मली के फू ल (Morus Acedosa), शल्लकी के बीज (Boswellia serrata), धनवन वृक्ष की छाल और वचा (Orris root).
  • 47. वज्रबंध नवनध २ -वराहनमनहर सामुग्री- लाख, कुंदरू, काजल, गुग्गुल, कनपत्थ, बेलफल, नागफल, मजंष्ट, ,नीम वृक्ष के बीज, महुआ के फू ल आक्रद का अन्तभागव होता है। कृनत –नवनध के समान 47
  • 48. वज्रबंध नवधी ३ - मयमतम् 48
  • 49. वज्रबंध नवनध ३ -वराहनमनहर इसे वज्रलेप या वज्रताल भी कहते है। इस में , • गाय, भैस या बकरे के ससंग का चूणग • गधे के बाल • मृत भैसे का नगला चमड़ा • नीम वृक्ष के बीज, कनपत्थ का मगज यह नमश्रण पानी में उबालकर एक अष्टमांश शेष रहने तक पकाया जाता है। 49
  • 50. वज्रबंध नवधी ३ -वराहनमनहर 50
  • 51. वज्रबंध नवनध ४ - मयमुनी इस में ८ भाग सीसा, २ भाग कांसा और १ भाग लोहे का चूणग होता है। इसी को वज्रसंघात कहते है। 51
  • 52. केरल की अष्टबंध नवनध इसमे आठ घटककों का उपयोग होताहै. # क े रल की नदी भरतपुझा में पाए जानेवाले 52 शंखचूणग देवदार वृक्ष का गोंद मंजुफल कपास के तन्तु लाख मध्यम आकार के कङ्कर # आवला लघु आकार के कङ्कर #
  • 53. • यह नमश्रण चार या पांच व्यनक्तयों व्दारा लगातार कुटा जाता है। • कुटने के नलए इमली के लकड़ी के दस क्रकलो वजन के हतौडों का उपयोग होता है। • कुटने से यह नमश्रण मुलायम और उष्ण होता जाता है। • एक क्रकलो अष्टबन्ध बनाने में एक लक्ष बार नमश्रण को नपटना पडता है। 53
  • 54. नशरस-Hide Glue यह मरे हुए भैंस के चमड़े से बनाया जाता था। चमड़ा मख्खन जैसे मुलायम होने तक पानी में पकाया जाता था। ऐसे टुकडे गोंद में नमलाकर प्रयोग करते थे।
  • 55. नशल्परत्न इस ग्रंथ में चूने से नवनभन्न प्रकार के मसाले कैसे बनाने इस की नवनधयााँ बताई है। प्रथम नवनध –पके केले, कपास के तन्तु और एलो (aloevera) संनमश्र कर, चूने में नमलाए। ८ चूने का मसाला –(मॉटगर) 55
  • 57. नव्दतीय नवनध – इस में शंख और सीप जलाकर चूना (सुधा) बनाया जाता है। इस में बाररक बालू, गुड का पानी और कच्चे केले का चूणग नमलाकर (४:२:१ का अनुपात में), २८ क्रदन लकड़ी के बतगन में रखा जाता है। बाद में महीन लेप बनाया जाता था। तृतीय नवनध – दूध, दनध, नभगोई हुई, नपसी उडद डाल, पके केले, नाररयल पानी, चूने में नमलाकर पॅस्टर क्रकया जाता था। ऐसा पॅस्टर जल अवरोधक होने से छ्त पे लगाया जाता था। 57
  • 58. सनला या पुट्टी 58 दनध दुग्धं माषजूषं गुडाज्यं कदलीफलैः।। नानलकेराम्रफलयोजगलैश्चैतत्प्रकल्पयेद् । आज्यञ्च कदली पङ्कनानलकेराम्बुमाषयुक् ।।
  • 59. चतुथग नवनध- इस नवनध में चूने में घी, नाररयल का पानी, उडद डाल, निफला आक्रद चीजें नमलाई जाती थी।
  • 60. जलप्रनतरोधक चूना 60 क्षीराङ्गं त्वक्कषायञ्च क्षीरं दनधः ततो गुडं । नपनच्छलं निफलाम्बुश्च त्र्यंशाक्रदकनमदं िमात् ।।
  • 61. E-Base coat for Cave Paintings गुफाऍं नमश्रण द्रव्य अजंिा नचकनी नमट्टी, गोबर, चावल के नछलके और चूना . सशंगेरी सफे द नमट्टी, चावल के नछलके और चूना बाघा लाल नमट्टी, मुंग डाल नपसी हुई, चूना और ताग के तन्तु. 61
  • 63. ९- प्राकृनतक रंग ननर्मगनत के सौंदयग में वृनध्द और वस्तु को सुरनक्षत करना। • ववष्णुधमोत्तरपुराण • चित्रसूयय • मानसोल्लास संबनधत संदभग रङ्गों के मुख्य उपयोग
  • 64. मूल रङ्ग सफे द, पीला, लाल, काला और नीला यह पांच मूल रङ्ग है। इन से अननगनत नमश्र रङ्ग बनाए जाते है। नसतवणं पीतवणं रक्तवणगञ्च कज्जलं । एतानन शुद्धवणागनन नीलवणं तथैव च ।। नवष्णुधमौत्तर पुराण- अ. २७
  • 65. सफे द रंग – यह सफे द नमट्टी, चूना, शंख या सीप से बनाते है। ऐसे रंग नीम वृक्ष के गोंद में या कवि के साथ नमलाए जाते है। उपयोग के पूवग उबलते पानी में डालकर घोल बनाया जाता है। पीला रंग हररद्रु नामके लकड़ी से या पीली नमट्टी से बनाया जाता था।
  • 66. लाल रंग- चसंदूर, गेरू चमट्टी या लाख से बनाया जाता था। कृ ष्ण रंग- तेल या घी का ददया जला कर उस का धुआ चमट्टी क े बतयन में एकवत्रत दकया जाता था। चनला रंग – यह चनले खचनज पदाथों से बनाया जाता था। स्वणय रंग – यह सोने क े वरक़ से बनाया जाता था।
  • 67. प्राकृनतक रंग ऐसे रंग बनाने के नलए कुछ वृक्षों की लकड़ी पानी के साथ कुटी जाती थी। नमश्रण छान के नमट्टी के बतगन में रखा जाता था।
  • 69. भूगभग जल की खोज के अपारंपाररक पध्दनत में वृक्ष की टहनी, अवलंब आक्रद का उपयोग होता है। इस पध्दनत को डॉउस ंग कहते है। जो नशशु ऊध्वग शीषग जनम लेता है, उस में कुछ चुंबकीय शनक्त होती है। इस का उपयोग भूगभग जल अन्वेषण में सहायक होता है। 69 १०- भुगभगजल की खोज
  • 70. एक प्राचीन वनस्पती जन्य,पैरों में लगाने वाले लेप से भुगभग जल की खोज संभव होती है। यह लेप कुछ वनस्पनत के बीज और मूल गोमूि में नघसकर बनाया जाता था। 70
  • 71. प्राचीन ग्रन्थ ‘’मन्िशास्त्र‘’ में इस का वणगन नमलता है।
  • 72. प्रत्यक्ष प्रमाण अ- गढ़ी के नलए नमट्टी स्थानीय नमट्टी, गोबर, महीन बालू, चूना, बेलफल का मगज और ताग के तन्तु इन सब का नमश्रण पानी नमलाकर, तीस क्रदन पैर से रोंदते थे। इस सानहत्य से बने नमट्टी के रटले पत्थर समान हो जाते है। . 72
  • 73. ब- चूने से बना फशग सतरवी सदी में ननर्मगत केरल के पद्मनाथपूर राजमहल की फशग बनाते समय चूना, ताड़ी, अण्डे की सफेदी, जले हुए नररयल के कवच और कुछ अज्ञात वनस्पनत के नमश्रण का उपयोग हुआ था। चार सौ वषग पश्चात् भी यह फशग नशशे के समान क्रदखती है। 73
  • 74. इस प्रस्तुनत से यह ननष्कषग ननकाले जा सकते है की, • प्राचीन भारत में वृक्षनवद्या का ज्ञान अनभयान्ताओं को अवश्य होता था। • आधुननक युग के उन्नत सानहत्य जैसे नसमेंट, प्लास्टर, कांच, रबर इत्याक्रद सस्ते दामों में उपलब्ध होने से अनेक प्राचीन पदाथग कालबाह्य हो गये है। •परन्तु भारत की धरोहर वास्तुओं के दीघागयुष्य का रहस्य, उच्च वास्तु सानहत्य का चयन तथा ननमागण पध्दनत इन में नछपा है। ननष्कषग 74
  • 75. सकलानधकार-अगस्त्य मुनन शतपथब्राह्मण नशल्परत्न -श्रीकुमार शुरलयजुवेदसंनहता तन्िसमुच्चय वास्तुनवद्या नवष्णुधमोत्तरपुराण बृहतसंनहता-वराहनमनहर अपरानजतपृच्छा ऋग्वेद मानसोल्लास –राजा सोमेश्वर मयमत प्राचीन सन्दभग
  • 76. 76