2. नमः श्रीवर्दशधमानाय ननधधशतकलििात्मने
सािोकानाां त्रत्रिोकानाां यर्दववर्दया दर्शणायते ॥ १ ॥
सििार्श - जिनकी आत्मा ने कममरूप कलंक को नष्ट कर दिया है और जिनका
के वलज्ञान अलोक सदहत तीनों लोकों के ववषय में िपमण के समान आचरण करता है
अर्ामत् िो सवमज्ञ हैं उन अजततम तीर्ंकर श्री वर्ममानस्वामी को अर्वा अनतत
चतुष्टयरूप लक्ष्मी से वृद्धर् को प्राप्त होने वाले चौबीस तीर्ंकरों को नमस्कार करता
हूँ ।
जिस प्रकाि ित्नों की िक्षा का उर्ायभधत किण्डक-वर्टािा होता है औि वह
ित्नकिण्डक कहिाता है, उसी प्रकाि सम्यग्दर्शनादद ित्नों की िक्षा का उर्ायभधत
यह ित्नकिण्डक नाम का र्ास्त्त्र है इस र्ास्त्त्र की िचना किने के इच्छु क श्री
समन्तभद्रस्त्वामी ननववशघ्नरूर् से र्ास्त्त्र की र्रिसमाजतत आदद फि की अलभिाषा
िखकि इष्ट दे वताववर्े ष- श्रीवधशमान स्त्वामी को नमस्त्काि किते हुए कहते हैं-
अन्वयार्श -
3. दे र्यालम समीचीनां धमं कमशननबहशणम्
सांसािदुःखतः सत्त्वान् यो धित्युत्तमे सुखे ॥ २ ॥
अब नमस्त्काि किने के बाद समन्तभद्रस्त्वामी ग्रन्र् किने की प्रनतञा किते हुए धमश
का ननरुक्त अर्श बतिाते हैं -
अन्वयार्श -
सििार्श - मैं कमों का ववनाश करने वाले उस श्रेष्ठ र्मम को कहता हूँ िो िीवों को
संसार के िुुःखों से ननकालकर स्वर्म-मोक्षादिक के उत्तम सुख में र्ारण करता है-
पहुूँचा िेता है ।
4. सर्दृजष्टञानवृत्तानन धमं धमेश्वरविाः ववदुः
यदीयप्रत्यनीकानन भवजन्त भवर्र्दधनतः ॥ ३
॥
सििार्श - र्मम के स्वामी जिनेतरिेव उन सम्यग्िशमन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चाररत्र
को र्मम िानते हैं- कहते हैं जिनके ववपरीत- ममथ्यािशमन, ममथ्याज्ञान और
ममथ्याचाररत्र संसार के मार्म होते हैं ।
अब इस प्रकाि का धमश कौनसा है, यह कहते हुए धमश का वाच्यार्श बतिाते हैं-
अन्वयार्श -
6. आतते नोजच्छन्नदोषे ण सवशञे नागमे लर्ना
भववतव्यां ननयोगे न नान्यर्ा ह्याततता भवे त् ॥ ५ ॥
सििार्श - ननयम से आप्त को िोषरदहत, सवमज्ञ और आर्म का स्वामी होना
चादहए । क्योंकक अतय प्रकार से आप्तपना नहीं हो सकता ।
आगे सम्यग्दर्शन के ववषय से कहे हुए आतत का िक्षण कहते हैं-
अन्वयार्श -
8. क्षुजत्र्र्ासाििातङ्क-िन्मान्तक-भयस्त्मयाः
न िागर्दवे षमोहाश्वरच यस्त्याततः स प्रकीत्यशते ॥ ६ ॥
सििार्श - जिसके भख, प्यास, बुढ़ापा, रोर्, ितम, मृत्यु, भय, र्वम, रार्, द्वेष,
मोह और धचतता, अरनत, ननरा, ववस्मय, मि, स्वेि और खेि ये अठारह िोष नहीं
हैं वह आप्त- सच्चा िेव कहा िाता है ।
आगे , वे कौनसे दोष हैं िो आतत में नष्ट हो िाते हैं, ऐसी आर्ांका उठाकि उन
दोषों का वणशन किते हैं-
अन्वयार्श -
11. िीव सम्बन्धी (11) दोषों का ववभािन
ववस्त्मय (आश्वरचयश) = ञानाविण सांबांधी
ननद्रा = दर्शनाविण सांबांधी
भय = वीयाशन्तिाय सांबांधी
मोह = लमथ्यात्व
िाग – र्दवे ष = कषाय
स्त्मय (मद, गवश) = मान कषाय
िनत (काम ववकाि) = वे द नोकषाय
चचांता, ववषाद, खे द = सुख सांबांधी
12. दोषों के बािे में ववचािणीय
1. क्या ये दोष दोष हैं? हमें दोष िग िहे हैं?
2. सवश सांसारियों में कौन िीव सवश दोषिदहत निि
आता है?
3. सािे िगत के ईश्वरविों में कौन दोषिदहत ददखता है?
ऐसा ववचाि किें तो वास्त्तववक आतत का यर्ार्श ननणशय बनता
है
13. र्िमे ष्ठी र्िांज्योनतः वविागो ववमिः कृ ती|
सवशञोऽनाददमध्यान्तः सावशः र्ास्त्तोर्िातयते ||७||
अब र्धवाश-र्ि वविोध आदद दोषों से िदहत र्दार्ों का सच्चा उर्दे र्
दे ने वािा िो र्ास्त्ता उसके नाम की सार्शकता बताने वािा श्वरिोक कहते हैं
-
अन्वयार्श -
सििार्श - िो अर्श सदहत इन आठ नामों को सार्शक
किता है उसे र्ास्त्ता कहते हैं – र्िमे ष्ठी, र्िमज्योनत,
वविाग, ववमि, कृ नत, सवशञ, अनाददमध्याांत औि सावश
ये आठ जिसके सार्शक नाम हैं, उसी को आतत कहते हैं
14. िो र्िम र्द में जस्त्र्त हो
इन्द्राददकों के र्दवािा वांदनीय िो र्िमात्म स्त्वरूर्
में ठहिा (जस्त्र्त) है
वह र्िमे ष्ठी है |
र्िमे ष्ठी
15. र्िां अर्ाशत आविण िदहत,
ज्योनत अर्ाशत अतीजन्द्रय अनांतञान
जिसमें तीन िोक तीन काि के सभी र्दार्श युगर्त्
प्रनतत्रबजम्बत हो िहे हैं वे र्िांज्योनत हैं |
र्िांज्योनत
16. • जिसे समस्त्त र्ि द्रव्यों में िाग-र्दवे ष का अभाव
होने से वाांछा िदहत र्िम वीतिागता प्रगटी है,
• वह िैसा वस्त्तु स्त्वरूर् है उसे िाग-र्दवे ष िदहत
िानने से वविाग हैं |
वविाग
• जिनका काम क्रोधादद रूर् भाव-मि;
• ञानाविणादद रूर् अांतिांग द्रव्य-मि;
• मि मधत्रादद आददक रूर् बदहिांग द्रव्य-मि
• सभी मिों से िदहत होकि र्िमौदारिक र्िीि में
वविािमान हुए हैं वे ववमि हैं |
ववमि
17. जिन्हें कु छ किना बाकी नहीां िहा,
िो र्ुर्दध अनांत ञानाददमय अर्ने स्त्वरूर् को प्रातत
होकि
व्याचध उर्ाचध िदहत कृ तकृ त्य हुए हैं
ऐसे वे आतत कृ ती हैं|
कृ ती
18. सवश + ञ
िो इांदद्रयादी र्िद्रव्यों की सहायता िदहत,
युगर्त,
समस्त्त द्रव्य गुण र्याशयों को क्रमिदहत,
प्रत्यक्ष िानते हैं
ऐसे वे भगवान आतत ही सवशञ हैं |
सवशञ
19. • िो िीव द्रव्य की अर्े क्षा तर्ा
• ञानादद गुणों की अर्े क्षा
• आदद, मध्य औि अांत से िदहत हैं
• ऐसे वे आतत अनाददमध्याांत हैं |
अनादद
मध्याांत
• जिनके वचन व काय की प्रवृवत्त
• समस्त्त िीवों के दहत के लिए ही होती है,
• वे भगवान आतत ही सावश कहिाते हैं |
सावश
20. अनात्मार्ं ववना िागैः, र्ास्त्ता र्ाजस्त्त सतो दहतम्
ध्वनन्लर्जतर्-किस्त्र्र्ाशन्, मुििः ककमर्े क्षते ॥८॥
सििार्श - आतत भगवान ्िाग के त्रबना अर्ना प्रयोिन
न होने र्ि भी समीचीन- भव्य िीवों के दहत का उर्दे र्
दे ते हैं क्योंकक बिाने वािे के हार् के स्त्र्र्श से र्ब्द
किता हुआ मृदांग क्या अर्े क्षा िखता है ? कु छ भी नहीां
सम्यग्दर्शन के ववषयभधत आतत का स्त्वरूर् कहकि अब उसके
ववषयभधत आगम का स्त्वरूर् कहने के लिए श्वरिोक कहते हैं-
21. अनात्मार्ं= आत्मा के अर्श(स्त्वार्श, प्रयोिन) के त्रबना
र्ाजस्त्त = उर्दे र् दे ते हैं
सतोदहतम =दहत के लिए
ककसी अर्े क्षा के त्रबना ननिर्े क्ष भाव से भव्य िीवों को दहत का
उर्दे र् दे ते हैं
22. त्रबना िाग के उर्दे र् कै से दे सकते हैं?
िैसे त्रबना िाग के
मे घ दे र्ों में बिसते हैं
वृक्ष फि आदद दे ते हैं
नददयाां बहती हैं
समुद्र ित्न आदद दे ता है
र्ृथ्वी धान्य आदद दे ती है
कतर्वृक्ष इजच्छत फि दे ता है
चचांतामणण चचांनतत फि दे ती है
वैसे ही त्रबना िाग के आतत उर्दे र् दे ते हैं
23. कफि भी कै से ?
स्त्वयां के वचन योग से
र्धवश में भाई हुई र्ुभ भावनाओां के बि से
भव्य िीवों के भाग्य से
क्योंकक ‘र्िोर्कािाय दह सताां चे जष्टतम्’
सज्िनों की सािी चे ष्टाएां र्िोर्काि के लिए ही
होती है
24. आततोर्ञमनुतिङ्घ्यमृष्टे ष्टवविोधकम ्
तत्त्वोर्दे र्कृ त्सावं र्ास्त्त्रां कार्र्घ्टनम्॥९॥
सििार्श - वह र्ास्त्त्र सवशप्रर्म आतत भगवान ्के र्दवािा कहा हुआ
है, इन्द्राददक दे वों के र्दवािा ग्रहण किने योग्य है अर्वा अन्य
वाददयों के र्दवािा िो अखण्डनीय है, प्रत्यक्ष तर्ा अनुमानादद के
वविोध से िदहत है, तत्त्वों का उर्दे र् किने वािा है, सबका
दहतकािी है औि लमथ्यामागश का ननिाकिण किने वािा है
वह र्ास्त्त्र कै सा होता है जिसकी िचना आतत भगवान ्के र्दवािा
हुई है, यह बतिाते हुए र्ास्त्त्र का िक्षण कहते हैं-
अन्वयार्श -
25. र्ास्त्त्र की ववर्े षता
आततोर्ञ • आतत (अिहांत) के र्दवािा कहा गया
अनुिांघ्य • वादी – प्रनतवादी के र्दवािा खांडनीय नहीां है
ृष्टे ष्ट-
अवविोधक
• प्रत्यक्ष औि अनुमानादद से बाचधत नहीां है
तत्त्वोर्दे र्कृ त् • तत्त्व का उर्दे र् दे ने वािा है
सावश • सवश िीवों के दहत के लिए है
कार्र्-घ्टन • लमथ्या मागश का ननषे ध किने वािा है
26. प्रत्यक्ष (ृष्ट) से बाचधत कर्न अनुमान (इष्ट) से बाचधत कर्न
ब्रह्मा, महे र् आदद सवशञ हैं
र्र्ु बलि में धमश होता है
वर्तिों की तृजतत के लिए
माांस दान में धमश है
िीव का अजस्त्तत्व नहीां है
...आदद
ईश्वरवि कृ त यह सृजष्ट है
स्त्वगश-निक नहीां होते
कमश का अभाव है
सवस्त्त्र मुजक्त होती है
कोई सवशञ नहीां होता
...आदद
आगम प्रत्यक्ष औि अनुमान से बाचधत नहीां होता
27. तत्त्वोर्दे र्कृ त्
तत्त्व = यर्ावत ्, उर्दे र् = कर्न, कृ त ्= ककया हुआ
अर्ाशत्िैसे र्दार्ों का स्त्वरूर् है, वैसा ही कहने वािा हो
वह यर्ार्श आगम नहीां है
जिससे स्त्व-र्ि का ननणशय ना हो सके
जिसमें हे य-उर्ादे य, कृ त्य-अकृ त्य, भक्ष्य-अभक्ष्य, दे व-कु दे व,
धमश-अधमश आदद का सच्चा वस्त्तु स्त्वरूर् ना कहा गया हो
जिसमें सांसाि में भ्रमाने वािी अने क असत्य कर्ाओां को ही
कहा गया हो
28. अनुिांघ्य है – वाददयों र्दवािा उतिांघ्य नहीां है
क्यों ?
प्रत्यक्ष औि अनुमान से अवविोधी है
वह भी कै से ?
क्योंकक तत्त्वोर्दे र् किने वािा है
अर्ाशत्यर्ावत स्त्वरूर् का कहने वािा है अत:
अवविोधी है
29. अतः आगम ‘सावश’ है
त्रबना तत्त्व रूर् हुए सावश
कै से होगा?
30. आगम ‘सावश’ है
उतिांघ्य होने र्ि सवशञ काचर्त नहीां हो सकता
प्रत्यक्ष-अनुमान से अवविोधी हुए त्रबना अनुिांघ्य नहीां होता
त्रबना तत्त्व रूर् हुए प्रत्यक्ष अनुमान से अवविोधी नहीां हो सकता
त्रबना तत्त्वरूर् हुए सावश नहीां हो सकता
32. इतना समझ में ना आये , तो
तब भी इतनी तो र्िीक्षा किना ही कक
िो यर्ार्श र्ास्त्त्र होगा उसमें ये कर्न मुख्य होंगे :
िागादद ववषय-कषाय कै से घटें – लमटे
समस्त्त िीवों की दया कै से र्ािी िाए
33. ववषयार्ावर्ातीतो ननिािम्भोऽर्रिग्रहः
ञानध्यानतर्ोित्न स्त्तर्स्त्वी स
प्रर्स्त्यते ॥१०॥
सििार्श - िो ववषयों की आर्ा के वर् से िदहत हो, आिम्भिदहत
हो, र्रिग्रह िदहत हो औि ञान, ध्यान तर्ा तर्रूर्ी ित्नों से
सदहत हो वह गुरु प्रर्ांसनीय है
अब इसके र्श्वरचात्सम्यग्दर्शन के ववषयभधत तर्ोभृतगुरु का
िक्षण कहते हैं-
अन्वयार्श -
34. गुरु
• िो ववषयों की आर्ा के वर् से िदहत होववषयार्ावर्ातीत
• सांिम्भ, समािम्भ, आिम्भरूर् दहांसादी कायों
से िदहत हो
ननिािम्भो
• अन्तिांग औि बदहिांग र्रिग्रह से िदहत होंअर्रिग्रह
• ञान, ध्यान तर्ा तर्रूर्ी ित्नों से सदहत होञान-ध्यान-तर्ो-ित्न
40. *जो१०उपिासकरे,िि गुरु िै ।
*जोिस्त्र सवितिो,िि गुरु िै ।
*जोगंडा -ताबीजदेते िै,िि गुरु िै ।
*जोर्ात्र एकबारभोजिकरते िैं,िि गुरु िै ।
*जो२८र्ुलगुण का सम्यकपालिकरते िैं,िि गुरु िै ।
*जोर्ात्र िग्ि रिते िैं,िि गुरु िै ।
*वजिसे िर् जैि वशक्षाग्रिण करते िैं,िि गुरु िै ।
41. इदमे वे ृर्मे वतत्त्वांनान्यन्नचान्यर्ा
इत्यकम्र्ायसाम्भोवत्सन्मागेऽसांर्यारुचचः॥१
१॥
सििार्श - आतत, आगम औि तर्स्त्वी रूर् तत्त्व अर्वा
िीवािीवादद तत्त्व यही है, ऐसा ही है, अन्य नहीां है, इस तिह
समीचीन मोक्षमागश के ववषय में िोहे के र्ानी के समान ननश्वरचि
श्रर्दधा ननःर्ांककतत्त्व गुण है ॥
अब सम्यग्दर्शन के ननःर्ांककतत्व नामक गुण का स्त्वरूर्
बतिाते हुए कहते हैं-
अन्वयार्श -
42. सम्यक््ि के ८ अंग
वििःशंवकत
वििःकांवक्षत
विविववचवक्सा
अर्ूढ़दृवि
उपगूिि
वथिवतकरण
िा्सल्य
प्रभाििा
49. कमशर्िवर्े सान्ते दुःखैिन्तरितोदये
र्ार्बीिे सुखे ऽनास्त्र्ाश्रर्दधानाकाङ्क्षणास्त्मृता॥१२
॥
सििार्श - कमों के अर्ीन, अतत से सदहत, िुुःखों से ममधश्रत अर्वा बाधर्त और
पाप के कारण ववषयसम्भतर्ी सुख में िो अरुधचपणम श्रद्र्ा है वह ननुःकांक्षक्षतत्व
नाम का र्ुण माना र्या है ।
सम्यग्दर्शन के ननःकाांक्षक्षतत्व गुण को ददखिाते हैं-
अन्वयार्श -
50. धर्व सेििकरके उसके बदले र्ें सांसाररकसुखों
की इच्छा िकरिावििःकांवक्षत अंग किलाता िै
िृष भि-सुख-िांछा भािै।
वििःकांवक्षत अंग
51. काांक्षा ३ प्रकाि की होती है
इहिोक
इस िोक
धमश से
सांर्दा
प्रातत होंवे
र्ििोक
र्ििोक में
भोग,
दे वर्दादद
होंवे
कु धमश
तार्सी
का धमश
िनों से
होने से मैं
धािण कि
52. काांक्षा क्यों नहीां किना चादहये ?
यदद काांक्षा के त्रबना
कु छ लमि सकता है
काांक्षा क्यों किना?
काांक्षावान
के र्दवािा ननांददत
53. चक्रिती की संपदा, इन्द्र सरीखे भोग।
काकिीट सर् वगित िैं सम्यग्दृिी लोग॥
सम्यग्दृष्टि की भावना
57. सििार्श - िो दृजष्ट, िुुःखों के मार्म स्वरूप
ममथ्यािशमनादिरूप कु मार्म में और कु मार्म में जस्र्त िीव में
भी मानमसक सम्मनत से रदहत शारीररक सम्पकम से रदहत
और वाचननक प्रशंसा से रदहत है वह मढ़ता रदहत दृजष्ट
अर्ामत् अमढ़दृजष्ट नामक र्ुण कहा िाता है ।
अन्वयार्श - (या दृजष्ट:) िो दृजष्ट, (िु:खानां) िुुःखों के (पधर्)
मार्म स्वरूप (कापर्े) ममथ्यािशमनादिरूप कु मार्म में और
(कापर्स्ते अवप) कु मार्म में जस्र्त िीव में भी (असम्मनत:)
मानमसक सम्मनत से रदहत (असंपृवत्त:) शारीररक सम्पकम से
रदहत और (अनुत्कीनतम:) वाचननक प्रशंसा से रदहत है वह
(अमढ़दृजष्ट:) मढ़ता रदहत दृजष्ट अर्ामत ् अमढ़दृजष्ट नामक
र्ुण (उच्यते) कहा िाता है ।
58. स्त्वयां र्ुर्दधस्त्य मागशस्त्य, बािार्क्तिनाश्रयाम्
वाच्यताां यत्प्रमािशजन्त, तर्दवदन्त्युर्गधहनम्॥१५॥
इसके आगे सम्यग्दर्शन के उर्गधहन गुण का
प्रनतर्ादन किते हुए हैं-
59. सििार्श - स्वभाव से ननममल रत्नत्रयरूप मार्म की अज्ञानी
तर्ा असमर्म मनुष्यों के आश्रय से होने वाली ननतिा को
िो प्रमाजिमत करते हैं- िर करते हैं उनके उस प्रमािमन को
उपर्हन र्ुण कहते हैं ।
अन्वयार्श -(स्वयं) स्वभाव से (शुद्र्स्य) ननममल (मार्मस्य)
रत्नत्रयरूप मार्म की (बालाशक्तिनाश्रयाम्) अज्ञानी तर्ा
असमर्म मनुष्यों के आश्रय से होने वाली (वाच ्यतां) ननतिा को
(यत्) िो (प्रमािमजतत) प्रमाजिमत करते हैं—िर करते हैं (तत्)
उनके उस प्रमािमन को (उपर्हनम्) उपर्हन र्ुण (विजतत)
कहते हैं ।
62. सििार्श - र्ममस्नेही िनों के द्वारा सम्यग्िशमन से अर्वा
चाररत्र से भी ववचमलत होते हुए पुरुषों का किर से पहले की तरह
जस्र्त करना जस्र्नतकरण र्ुण कहा िाता है ।
अन्वयार्श - (र्ममवत ्सलैं:) र्ममस्नेही िनों के द्वारा (िशमनात ्)
सम्यग्िशमन से (वा) अर्वा (चरणात ् अवप) चाररत्र से भी
(चलतां) ववचमलत होते हुए पुरुषों का (व्रत ्यवस्र्ापनं) किर से
पहले की तरह जस्र्त करना (स्र्तीकरणं) जस्र्नतकरण र्ुण
(उच ्यते) कहा िाता है ।
63. क्यों श्रर्दधा / चारित्र से चलित हो िाता है?
बाह्य कािण अांतिांग कािण
64. कै से जस्त्र्नतकिण किना
मधुि उर्दे र् दे कि
आहाि-र्ानी, वस्त्त्र, िीववका, मकान बतशन आदद दे कि अर्वा
व्यवस्त्र्ा किवाकि
जिस प्रकाि जस्त्र्िता हो, उस प्रकाि दान, सन्मान आदद उर्ाय
किके
65. यह सब ककस प्रकाि किना?
प्रीनतर्धवशक
सन्मान से
मधुिता से
धमश-वत्सिता के र्दवािा
एहसान से नहीां,
दीनता से नहीां
कठोिता से नहीां
66. ककसके प्रनत किना
र्ि िीवों के प्रनत
घि के िोग
कु टुम्बी िन
अन्य साधमी
स्त्व के प्रनत
67. कब किना?
अर्ने आचश्रत िीवों को िब
धमश से ववचलित िानो, तब
अन्य िीवों का यर्ा अवसि
ककसी के प्रार्शना किने र्ि
स्त्वयां का जस्त्र्नतकिण
प्रनतददन किना
स्त्वयां को िाांचते िहना
68. क्यों किना
स्त्वयां धमश में जस्त्र्त िहने के लिए
स्त्वयां को अन्य ने धमश में जस्त्र्त किाया है, उस उर्काि के
लिए
सम्यग्दर्शन की ववर्ुर्दचध के लिए
70. अन्वयार्श - स्वयधर््यान्प्रनत—अर्ने सहधमी बन्धु के
समधह में िहने वािे िोगों के प्रनत (सर्दभासवनार्ा) अच्छे
भावों से सदहत औि (अर्ैतकै तवा) माया से िदहत
(यर्ायोग्यां) उनकी योग्यता के अनुसाि (प्रनतर्वत्त:)
आदि सत्काि आदद किना (वात्यि ्यां) वात्सतय गुण
(अलभिर््यते ) कहा िाता है
सििार्श - अर्ने सहधमी बन्धुओां के समधह में िहने वािों
को स्त्वयधथ्य कहते हैं इन सहधलमशयों के प्रनत सर्दभावना
सदहत अर्ाशत्सििभाव से मायाचाि िदहत, यर्ायोग्य-
हार् िोडऩा, सम्मुख िाना, प्रर्ांसा के वचन कहना तर्ा
योग्य उर्किण आदद दे कि िो आदि सत्काि ककया
िाता है, वह वात्सतयगुण कहिाता है
71. वात्सतय अांग
स्त्वयां के यधर् के प्रनत
सर्दभाव से एवां त्रबना कर्ट के
यर्ायोग्य
प्रनतर्वत्त किना
वात्सतय अांग कहिाता है
73. प्रनतर्वत्त ककसे कहते हैं?
ववनय, आदि, सम्मान, र्धिा, सत्काि
िैसे मुननिाि के प्रनत
उठ कि खड़े होना, आगे िे ने िाना, उर्ासना किना, र्ोषण किना,
सत्काि किना, अांिलि बाांधना, ग्रहण किना, उच्च आसन दे ना आदद
74. ककस प्रकाि प्रनतर्वत्त किना
हि एक के प्रनत समानरूर् से ?
नहीां, यर्ायोग्य
अर्ाशत ्िो जिस र्द के योग्य हो, वैसी
िैसे मुननिाि के प्रनत नमोस्त्तु,
आनयशका, ऐिक के प्रनत वांदालम
क्षुतिक, क्षुजतिका के प्रनत इच्छालम
75. ककस भावर्धवशक किना?
यह सब धमश प्रे म से ,
ननष्कर्ट भाव से किना
यर्ा गौ - वत्स भाव
76. तो क्या ववधलमशयों से र्दवे ष किें?
कदावर् नहीां
78. सििार्श - अज्ञानरूपी अतर्कार के ववस्तार को िर कर अपनी
शजक्त के अनुसार जिनशासन के माहात्म्य को प्रकट करना
प्रभावनार्ुण है।
अन्वयार्श - अञाांननतलमिव ्याजततम्—अज्ञानरूपी अतर्कार के
ववस्तार को (अपाकृ त ्यं) िर कर (यर्ायर्ं) अपनी शजक्त के
अनुसार (जिनशासनमाहात ्म्यप्रकाश:) जिनशासन के माहात्म्य
को प्रकट करना( प्रभवना) प्रभावना र्ुण (स्यात्) है।
79. तावदञ्िनचौिोऽङ्गे ततोऽनन्तमनतः स्त्मृता
उर्ददायनस्त्तृतीये ऽवर् तुिीये िे वती मता ॥ १९ ॥
ततो जिने न्द्रभक्तोऽन्यो वारिषे णस्त्ततः र्िः
ववष्णुश्वरच वज्रनामा च र्े षयोिशक्ष्यताां गताः ॥२०॥
अब ऊर्ि कहे हुए नन:र्ङ्ककतत्वादद आठ गुणों में
कौन र्ुरुष ककस गुण के र्दवािा प्रलसर्दध हुआ है,
यह ददखिाते हुए दो श्वरिोक कहते हैं-
80. अन्वयार्श - तावत्—क्रम से (प्रर्मे) प्रर्म अङ्र् में
(अञ्िनचोर:) अञ्िन चोर (स्मृत:) स्मृत है । (तत:)
तिनततर द्ववतीय अंर् में (अनततमत) अनततमती (स्मृता)
स्मृत है । (तृतये अवप अंर्े) तृतीय अङ्र् में (उद्िायन:)
उद्िायन नाम का रािा (मत:) माना र्या है । (तुरीये)
चतुर्म अङ्र् में (रेवती) रेवतीरानी (मता) मानी र्ई है ।
(तत:) तिनततर पञ्चम अङ्र् में (जिनेतरभक्त:)
जिनेतरभक्त सेठ, (तत: अतय:) उसके बाि छठे अङ्र् में
(वाररषेण:) वाररषेण रािकु मार, (तत: पर:) उसके बाि
(शेषयो:) सप्तम और अष्टम अङ्र् में (ववष्णुश्च)
ववष्णुकु मार मुनन और (वज्रनामा च) वज्रकु मार मुनन
,लक्ष्यतां र्तौ:) प्रमसद्धर् को प्राप्त हुए हैं ।
81. सििार्श - क्रम से प्रर्म अङ्र् में अञ्िन चोर स्मृत है।
तिनततर द्ववतीय अंर् में अनततमती स्मृत है। तृतीय
अङ्र् में उद्िायन नाम का रािा माना र्या है।चतुर्म अङ्र्
में रेवती रानी मानी र्ई है। तिनततर पञ्चम अङ्र् में
जिनेतरभक्त सेठ, उसके बाि छठे अङ्र् में वाररषेण
रािकु मार, उसके बाि सप्तम और अष्टम अङ्र् में
ववष्णुकु मार मुनन और वज्रकु मार मुनन प्रमसद्धर् को प्राप्त
हुए हैं।
82. नाङ्गहीनमिां छे त्तुां दर्शनां िन्मसन्तनतम ्
न दह मन्त्रोऽक्षिन्यधनो ननहजन्त ववषवे दनाम ्॥२१॥
आगे यही भाव दर्ाशते हुए कहते हैं-
83. सििार्श - र्णर्रादिक िेव, चाण्डाल कु ल में उत्पतन हुए
भी सम्यग्िशमन से युक्त िीव को भस्म से आच्छादित
अंर्ारे के भीतरी भार् के समान तेि से युक्त आिरणीय
िानते हैं।
अन्वयार्श - अांगहीनां—अंर्ों से हीन (िशमनं) सम्यग्िशमन
(ितमसततनतम्) संसार की सततनत को (छेत्तुं) छेिने में (
अलं न) समर्म नहीं है (दह) क्योंकक (अक्षरतयुन:) एक अक्षर
से भी हन (मतत्र:) मतत्र (ववषवेिनां) ववष क पीड़ा को (न
ननहजतत) नष्ट नहीं करता है
84. आर्गासागिस्त्नानमुच्चयः लसकताश्वरमनाम ्
चगरिर्ातोऽजग्नर्ातश्वरच िोकमधढां ननगर्दयते ॥२२॥
कै सा सम्यग्दर्शन सांसाि के उच्छे द का कािण होता
है? यह बतिाने के लिए कहा िाता है ‘त्रत्रमधढार्ोढां’
तीन प्रकाि की मधढताओां से िदहत उन मधढताओां में
प्रर्म िोकमधढता को कहते हैं-
85. सििार्श - र्मम समझकर निी और समुर में स्नान करना,
बाल और पत्र्रों का ढेर लर्ाना, पवमत से धर्रना और अधि
में पडऩा लोकमढ़ता कहलाती है।
अन्वयार्श - (आपर्ा सार्र स्नानं) र्मम समझकर निी और
समुर में स्नान करना, (मसकताश्मनां) बाल और पत्र्रों का
(उच्चय:) ढेर लर्ाना, (धर्ररपात:) पवमत से धर्रना, (च) और
(अजग्नपात:) अजग्न में पड़ना (लोकमढ़ं) लोकमढ़ता
(ननर्द्यते) कहलाती है।
87. सििार्श - वरिान प्राप्त करने की इच्छा से आशा से युक्त
हो रार्द्वेष से ममलन िेवों की िो आरार्ना की िाती है,
वह िेवमढता कही िाती है।
अन्वयार्श - (वरोपमलप्सया) वरिान प्राप्त करने की इच्छा
से (आशावान ्) आशा से युक्त हो (रार्द्वेषमलमसा:) रार्-
द्वेष से ममलन (िेवता:) िेवों की (यत ्) िो (उपासीत)
आरार्ना की िाती है, (तत ्) वह (िेवतामढं) िेवमढ़ता
(उच्यते) कही िाती है ।
89. सििार्श - पररिह, आरम्भ और दहंसा से सदहत तर्ा
संसारभ्रमण के कारणभत कायों में लीन अतय कु मलङ्धर्यों
को अिसर करना, पाषजण्डमढ़ता-र्ुरुमढ़ता िाननी चादहये।
अन्वयार्श - (सितर्ारम्भ दहंसानां) पररिह, आरम्भ और
दहंसा से सदहत तर्ा (संसारावतमवनतमनाम्) संसारभ्रमण के
कारणभत कायों में लीन (पाषजण्डनां) अतय कु मलङ्धर्यों को
(पुरस्कार:) अिसर करना, (पाषजण्डमोहनं) पाषजण्डमढ़ता-
र्ुरुमढ़ता (ज्ञेयं) िाननी चादहये।
90. ञानां र्धिाां कु िां िानतां, बिमृर्दचधां तर्ो वर्ुः
अष्टावाचश्रत्य माननत्वां स्त्मयमाहुगशतस्त्मयाः॥२५॥
अबस्त्मय- गवश क्या है औि वह ककतने प्रकाि का
है? यह कहते हैं-
91. सििार्श - ज्ञान, पिा, कु ल, िानत, बल, ऋद्धर्, तप और
शरीर इन आठ का आश्रय लेकर र्ववमत होने को र्वम से
रदहत र्णर्रादिक र्वम- मि कहते हैं।
अन्वयार्श - (ज्ञानं) ज्ञान, (पिां) पिा, (कु लं) कु ल, (िानतं)
िानत, (बलं) बल, (ऋद्धर्) ऋद्धर्, (तप:) तप और (वपु:)
शरीर इन (अष्टौ) आठ का (आधश्रत्य) आश्रय लेकर
(मानत्वं) र्ववमत होने को (र्तस्मया:) र्वम से रदहत
र्णर्रादिक (स्मयं) र्वम-मि (आहु:) कहते हैं ।
92. स्त्मये न योऽन्यानत्ये नत धमशस्त्र्ान् गववशतार्यः
सोऽत्ये नत धमशमात्मीयां, न धमो धालमशकै ववशना॥२६॥
आठ प्रकाि के मद से प्रवृवत्त किने वािे र्ुरुष के
क्या दोष उत्र्न्न होता है? यह ददखिाते हुए कहते
हैं-
93. सििार्श - उपयुमक्त मि से र्ववमत धचत्त होता हुआ िो पुरुष
रत्नत्रयरूप र्मम में जस्र्त अतय िीवों को नतरस्कृ त करता
है, वह अपने र्मम को नतरस्कृ त करता है, क्योंकक
र्मामत्माओं के बबना र्मम नहीं होता।
अन्वयार्श - (स्यमेन) उपयुमक्त मि से (र्ववमताशय:)
र्ववमतधचत्त होता हुआ (य:) िो पुरुष (र्ममस्र्ान ्) रत्नत्रयरूप
र्मम में जस्र्त (अतयान ्) अतय िीवों को (अत्येनत) नतरस्कृ त
करता है, सो वह (आत्मीयं) अपने (र्मं) र्मम को (अत्येनत)
नतरस्कृ त करता है, क्योंकक (र्ामममकै ववमना) र्मामत्माओं के
बबना (र्मम:) र्मम (न) नहीं होता ।
94. यदद र्ार्ननिोधोऽन्यसम्र्दा ककां प्रयोिनम ्
अर् र्ार्ास्रवोऽस्त्त्यन्यसम्र्दा ककां प्रयोिनम्॥२७॥
कु ि, ऐश्वरवयश आदद से सम्र्न्न मनुष्यों के र्दवािा
मद का ननषे ध ककस प्रकाि ककया िा सकता है, यह
कहते हैं-
95. सििार्श - यदि पाप को रोकने वाला रत्नत्रय र्मम है तो
अतय सम्पवत्त से क्या प्रयोिन है? यदि पाप का आस्रव है
तो अतय सम्पवत्त से क्या प्रयोिन है?
अन्वयार्श - (यदि) यदि (पापननरोर्:) पाप को रोकने वाला
रत्नत्रय र्मम (अजस्त) है (तदहम) तो (अतयसम्पिा) अतय
सम्पवत्त से (ककं प्रयोिनम्) क्या प्रयोिन है ? (अर्) यदि
(पापास्रव) पाप का आस्रव (अजस्त) है (तदहम) तो (अतय
सम्पिा) अतय सम्पवत्त से (ककं प्रयोिनम्) क्या प्रयोिन है?
Notas del editor
अनिष्ट की प्राप्ति वह खेद है
मनोज्ञ वस्तुओं में परम प्रीति रति है
इष्ट के वियोग में विक्लव भाव (घबराहट) विषाद या उद्वेग है
चिंता अशुभ रूप से आर्त और रौद्र रूप है
टिप्पणी : अव्रती सम्यग्दृष्टि जीव भोगों को कभी भी आदरणीय नहीं मानते; किन्तु जिसप्रकार कोई बन्दी कारागृह में (इच्छा न होने पर भी) दुःख सहन करता है, उसीप्रकार वे अपने पुरुषार्थ की निर्बलता से गृहस्थदशा में रहते हैं, किन्तु रुचिपूर्वक भोगों की इच्छा नहीं करते; इसलिये उन्हें निःशंकित और निःकांक्षित अंग होने में कोई बाधा नहीं आती ।
स्वयं का स्थितिकरण – १२ भावनाओं के चिंतन से, उपदेश श्रवण करके, जिन भक्ति द्वारा, प्रथमानुयोग के द्वारा आदि