2. महादेवी जी की शिक्षा इंदौर में शमिन स्कू ल से प्रारम्भ हुई
साथ ही संस्कृ त, अंग्रेजी, संगीत तथा चित्रकला की शिक्षा
अध्यापकों द्वारा घर पर ही दी जाती रही।
महादेवी जी ने १९१९ में क्रास्थवेट कॉलेज इलाहाबाद में प्रवेि
शलया और कॉलेज के छात्रावास में रहने लगीं। १९२१ में
महादेवी जी ने आठवीं कक्षा में प्रान्त भर में प्रथम स्थान
प्राप्त ककया। यहीं पर उन्होंने अपने काव्य जीवन की िुरुआत
की। वे सात वर्ष की अवस्था से ही कववता शलखने लगी थीं
और १९२५ तक जब उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ष की, वे
एक सफल कवययत्री के रूप में प्रशसद्ध हो िुकी थीं। ववशभन्न
पत्र-पत्रत्रकाओं में आपकी कववताओं का प्रकािन होने लगा था।
कालेज में सुभद्रा कु मारी िौहान के साथ उनकी घयनष्ठ
शमत्रता हो गई। सुभद्रा कु मारी िौहान महादेवी जी का हाथ
पकड़ कर सखखयों के बीि में ले जाती और कहतीं ― “सुनो,
ये कववता भी शलखती हैं”। १९३२ में जब उन्होंने इलाहाबाद
ववश्वववद्यालय से संस्कृ त में एम॰ए॰ पास ककया तब तक
उनके दो कववता संग्रह नीहार तथा रश्श्म प्रकाशित हो िुके
3. सन् १९१६ में उनके बाबा श्री बााँके ववहारी ने इनका
वववाह बरेली के पास नबाव गंज कस्बे के यनवासी श्री स्वरूप
नारायर् वमाष से कर ट्रदया, जो उस समय दसवीं कक्षा के
ववद्याथी थे। श्री वमाष इण्टर करके लखनऊ मेडिकल
कॉलेज में बोडििंग हाउस में रहने लगे। महादेवी जी उस समय
क्रास्थवेट कॉलेज इलाहाबाद के छात्रावास में थीं। श्रीमती
महादेवी वमाष को वववाट्रहत जीवन से ववरश्तत थी
कारर् कु छ भी रहा हो पर श्री स्वरूप नारायर् वमाष से कोई
वैमनस्य नहीं था। सामान्य स्त्री-पुरुर् के रूप में उनके सम्बंध
मधुर ही रहे। दोनों में कभी-कभी पत्रािार भी होता था। यदा-
कदा श्री वमाष इलाहाबाद में उनसे शमलने भी आते थे। श्री
वमाष ने महादेवी जी के कहने पर भी दूसरा वववाह नहीं ककया।
4. महादेवी जी का जीवन तो एक संन्याशसनी का
जीवन था ही। उन्होंने जीवन भर श्वेत वस्त्र
पहना, तख्त पर सोईं और कभी िीिा नहीं देखा।
सन् १९६६ में पयत की मृत्यु के बाद वे स्थाई रूप
से इलाहाबाद में रहने लगीं।
कार्यक्षेत्र ….
महादेवी का कायषक्षेत्र लेखन, संपादन और अध्यापन रहा।
उन्होंने इलाहाबाद में प्रयाग मट्रहला ववद्यापीठ के ववकास
में महत्वपूर्ष योगदान ककया। यह कायष अपने समय में
मट्रहला-शिक्षा के क्षेत्र में क्रांयतकारी कदम था। इसकी वे
प्रधानािायष एवं कु लपयत भी रहीं। १९३२ में उन्होंने
मट्रहलाओं की प्रमुख पत्रत्रका ‘िााँद’ का कायषभार संभाला
5. १९३० में नीहार, १९३२ में रश्श्म, १९३४ में नीरजा,
तथा १९३६ में सांध्यगीत नामक उनके िार कववता
संग्रह प्रकाशित हुए। १९३९ में इन िारों काव्य संग्रहों
को उनकी कलाकृ यतयों के साथ वृहदाकार
में यामा िीर्षक से प्रकाशित ककया गया।
उन्होंने गद्य, काव्य, शिक्षा और चित्रकला सभी क्षेत्रों
में नए आयाम स्थावपत ककये। इसके अयतररतत
उनकी 18 काव्य और गद्य कृ यतयां हैं श्जनमें मेरा
पररवार, स्मृयत की रेखाएं, पथ के साथी, िृंखला की
कडड़यााँ और अतीत के िलचित्र प्रमुख हैं। सन १९५५
में महादेवी जी ने इलाहाबाद में साट्रहत्यकार
संसद की स्थापना की और पं इलािंद्र जोिी के
सहयोग से साट्रहत्यकार का संपादन संभाला।
6. यह इस संस्था का मुखपत्र था। उन्होंने भारत में
मट्रहला कवव सम्मेलनों की नीव रखी। इस प्रकार का
पहला अखखल भारतवर्ीय कवव सम्मेलन १५ अप्रैल
१९३३ को सुभद्रा कु मारी िौहान की अध्यक्षता में
प्रयाग मट्रहला ववद्यापीठ में संपन्न हुआ। वे ट्रहंदी
साट्रहत्य में रहस्यवाद की प्रवयतषका भी मानी जाती
हैं। महादेवी बौद्ध धमष से बहुत प्रभाववत थीं।