नौबतखाने में इबादत

नौबतखाने में इबादत
यतीन्द्र ममश्र
नौबतखाने में इबादत
• इनका जन्द्म 1977 में अयोध्या, उत्तर प्रदेश में हुआ। इन्द्होने
लखनऊ मिश्वमिद्यालय, लखनऊ से महिंदी में एम.ए मकया। ये
आजकल स्ितिंत्र लेखन के साथ अर्धिामषधक समहत पमत्रका
का सम्पादन कर रहे हैं। सन 1999 में सामहत्य और कलाओिंके
सिंिध्दधन और अनुशलीन के मलए एक सािंस्कृ मतक न्द्यास
‘मिमला देिी फाउिंडेशन’ का सिंचालन भी कर रहे हैं।
काव्य सिंग्रह – यदा-कदा, अयोध्या तथा अन्द्य कमिताएँ, ड्योढ़ी पर
आलाप।
पुस्तक – मिररजा
पुरस्कार – भारत भूषण अग्रिाल कमिता सम्मान, हेमिंत स्मृमत कमिता
पुरस्कार, ऋतुराज पुरस्कार आमद।
नौबतखाने में इबादत
नौबतखाने में इबादत
उस्ताद मबमस्मल्ला खाँ
o जन्द्म: 21 माचध, 1916 - मृत्यु: 21
अिस्त, 2006
o महन्द्दुस्तान के प्रख्यात शहनाई िादक थे।
उनका जन्द्म डुमराँि, मबहार में हुआ था।
सन् 2001 में उन्द्हें भारत के सिोच्च
सम्मान भारत रत्न से सम्मामनत मकया
िया।
o िह तीसरे भारतीय सिंिीतकार थे मजन्द्हें
भारत रत्न से सम्मामनत मकया िया है।
नौबतखाने में इबादत
शहनाई भारत के सबसे
लोकप्रिय वाद्ययंत्र में से एक
है प्रिसका ियोग शास्त्रीय
संगीत से लेकर हर तरह के
संगीत में प्रकया िाता है।
स्वगीय उस्ताद प्रबप्रस्मल्ला
खां भारत में शहनाई के
सबसे िप्रसद्ध वादक समझे
िाते हैं।
• अम्मीरुद्दीन उर्फध मबमस्मल्लाह खाँ का जन्द्म मबहार में डुमराँि के एक
सिंिीत प्रेमी पररिार में हुआ। इनके बडे भाई का नाम शम्सुद्दीन था जो
उम्र में उनसे तीन िषध बडे थे। इनके परदादा उस्ताद सलार हुसैन खाँ
डुमराँि के मनिासी थे। इनके मपता का नाम पैग़म्बरबख़्श खाँ तथा माँ
ममट्ठन थीं। पािंच-छह िषध होने पर िे डुमराँि छोडकर अपने नमनहाल
काशी आ िए। िहािं उनके मामा सामदक हुसैन और अलीबक्श तथा
नाना रहते थे जो की जाने माने शहनाईिादक थे। िे लोि बाला जी
के मिंमदर की ड्योढ़ी पर शहनाई बजाकर अपनी मदनचयाध का आरम्भ
करते थे। िे मिमभन्द्न ररयासतों के दरबार में बजाने का काम करते थे।
पिंचििंिा घाट पर
पर मस्थत 'बाला
जी' मिंमदर
• नमनहाल में 14 साल की उम्र से ही मबमस्मल्लाह खाँ ने बाला जी के मिंमदर
में ररयाज़ करना शुरू कर मदया। उन्द्होंने िहािं जाने का ऐसा रास्ता चुना जहाँ
उन्द्हें रसूलन और बतूलन बाई की िीत सुनाई देती मजससे उन्द्हें खुशी
ममलती। अपने साक्षात्कारों में भी इन्द्होनें स्िीकार मकया की बचपन में
इनलोिों ने इनका सिंिीत के प्रमत प्रेम पैदा करने में भूममका मनभायी। भले
ही िैमदक इमतहास में शहनाई का मजक्र ना ममलता हो परन्द्तु मिंिल कायों में
इसका उपयोि प्रमतमित करता है अथाधत यह मिंिल ध्िमन का सम्पूरक है।
मबमस्मल्लाह खाँ ने अस्सी िषध के हो जाने के िाबजूद हमेशा पाँचो िक्त
िाली नमाज में शहनाई के सच्चे सुर को पाने की प्राथधना में मबताया।
मुहरधम के दसों मदन मबमस्मल्लाह खाँ अपने पूरे खानदान के साथ ना तो
शहनाई बजाते थे और ना ही मकसी कायधक्रम में भाि लेते। आठिीं तारीख
को िे शहनाई बजाते और दालमिंडी से फातमान की आठ मकलोमीटर की
दुरी तक भींिी आँखों से नोहा बजाकर मनकलते हुए सबकी आँखों को
मभिंिो देते।
• फु रसत के समय िे उस्ताद और अब्बाजान को काम याद कर अपनी पसिंद की
सुलोचना िीताबाली जैसी अमभनेमत्रयों की देखी मफल्मों को याद करते थे। िे
अपनी बचपन की घटनाओिंको याद करते की कै से िे छु पकर नाना को शहनाई
बजाते हुए सुनाता तथा बाद में उनकी ‘मीठी शहनाई’ को ढूिंढने के मलए एक-एक
कर शहनाई को फें कते और कभी मामा की शहनाई पर पत्थर पटककर दाद देते।
बचपन के समय िे मफल्मों के बडे शौक़ीन थे, उस समय थडध क्लास का मटकट
छः पैसे का ममलता था मजसे पूरा करने के मलए िो दो पैसे मामा से, दो पैसे
मौसी से और दो पैसे नाना से लेते थे मफर बाद में घिंटों लाइन में लिकर मटकट
खरीदते थे। बाद में िे अपनी पसिंदीदा अमभनेत्री सुलोचना की मफल्मों को देखने
के मलए िे बालाजी मिंमदर पर शहनाई बजाकर कमाई करते। िे सुलोचना की
कोई मफल्म ना छोडते तथा कु लसुम की देसी घी िाली दूकान पर कचौडी
खाना ना भूलते।
सुलोचना कचौडी
• काशी के सिंिीत आयोजन में िे अिश्य भाि लेते। यह आयोजन कई
िषों से सिंकटमोचन मिंमदर में हनुमान जयिंती के अिसर हो रहा था
मजसमे शास्त्रीय और उपशास्त्रीय िायन-िादन की सभा होती है।
मबमस्मल्लाह खाँ जब काशी के बाहर भी रहते तब भी िो मिश्वनाथ
और बालाजी मिंमदर की तरफ मुँह करके बैठते और अपनी शहनाई भी
उस तरफ घुमा मदया करते। ििंिा, काशी और शहनाई उनका जीिन थे।
काशी का स्थान सदा से ही मिमशष्ट रहा है, यह सिंस्कृ मत की पाठशाला
है। मबमस्मल्लाह खाँ के शहनाई के र्ुनों की दुमनया दीिानी हो
जाती थी।
ििंिा
शहनाई
काशी
• सन 2000 के बाद पक्का महाल से मलाई-बफध िालों के जाने से,
देसी घी तथा कचौडी-जलेबी में पहले जैसा स्िाद ना होने के
कारण उन्द्हें इनकी कमी खलती। िे नए िायकों और िादकों में घटती
आस्था और ररयाज़ों का महत्ि के प्रमत मचिंमतत थे। मबमस्मल्लाह खाँ
हमेशा से दो कौमों की एकता और भाईचारे के साथ रहने की प्रेरणा
देते रहे। नब्बे िषध की उम्र में 21 अिस्त 2006 को उन्द्हने दुमनया से
मिदा ली । िे भारतरत्न, अनेकों मिश्वमिद्यालय की मानद उपामर्याँ ि
सिंिीत नाटक अकादमी पुरस्कार तथा पद्ममिभूषण जैसे पुरस्कारों से
जाने नहीं जाएँिे बमल्क अपने अजेय सिंिीतयात्रा के नायक के रूप में
पहचाने जाएँिे।
सिंिीत नाटक अकादमी भारतरत्न पद्ममिभूषण
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नौबतखाने में इबादत

  • 3. • इनका जन्द्म 1977 में अयोध्या, उत्तर प्रदेश में हुआ। इन्द्होने लखनऊ मिश्वमिद्यालय, लखनऊ से महिंदी में एम.ए मकया। ये आजकल स्ितिंत्र लेखन के साथ अर्धिामषधक समहत पमत्रका का सम्पादन कर रहे हैं। सन 1999 में सामहत्य और कलाओिंके सिंिध्दधन और अनुशलीन के मलए एक सािंस्कृ मतक न्द्यास ‘मिमला देिी फाउिंडेशन’ का सिंचालन भी कर रहे हैं।
  • 4. काव्य सिंग्रह – यदा-कदा, अयोध्या तथा अन्द्य कमिताएँ, ड्योढ़ी पर आलाप। पुस्तक – मिररजा पुरस्कार – भारत भूषण अग्रिाल कमिता सम्मान, हेमिंत स्मृमत कमिता पुरस्कार, ऋतुराज पुरस्कार आमद।
  • 7. उस्ताद मबमस्मल्ला खाँ o जन्द्म: 21 माचध, 1916 - मृत्यु: 21 अिस्त, 2006 o महन्द्दुस्तान के प्रख्यात शहनाई िादक थे। उनका जन्द्म डुमराँि, मबहार में हुआ था। सन् 2001 में उन्द्हें भारत के सिोच्च सम्मान भारत रत्न से सम्मामनत मकया िया। o िह तीसरे भारतीय सिंिीतकार थे मजन्द्हें भारत रत्न से सम्मामनत मकया िया है।
  • 9. शहनाई भारत के सबसे लोकप्रिय वाद्ययंत्र में से एक है प्रिसका ियोग शास्त्रीय संगीत से लेकर हर तरह के संगीत में प्रकया िाता है। स्वगीय उस्ताद प्रबप्रस्मल्ला खां भारत में शहनाई के सबसे िप्रसद्ध वादक समझे िाते हैं।
  • 10. • अम्मीरुद्दीन उर्फध मबमस्मल्लाह खाँ का जन्द्म मबहार में डुमराँि के एक सिंिीत प्रेमी पररिार में हुआ। इनके बडे भाई का नाम शम्सुद्दीन था जो उम्र में उनसे तीन िषध बडे थे। इनके परदादा उस्ताद सलार हुसैन खाँ डुमराँि के मनिासी थे। इनके मपता का नाम पैग़म्बरबख़्श खाँ तथा माँ ममट्ठन थीं। पािंच-छह िषध होने पर िे डुमराँि छोडकर अपने नमनहाल काशी आ िए। िहािं उनके मामा सामदक हुसैन और अलीबक्श तथा नाना रहते थे जो की जाने माने शहनाईिादक थे। िे लोि बाला जी के मिंमदर की ड्योढ़ी पर शहनाई बजाकर अपनी मदनचयाध का आरम्भ करते थे। िे मिमभन्द्न ररयासतों के दरबार में बजाने का काम करते थे।
  • 11. पिंचििंिा घाट पर पर मस्थत 'बाला जी' मिंमदर
  • 12. • नमनहाल में 14 साल की उम्र से ही मबमस्मल्लाह खाँ ने बाला जी के मिंमदर में ररयाज़ करना शुरू कर मदया। उन्द्होंने िहािं जाने का ऐसा रास्ता चुना जहाँ उन्द्हें रसूलन और बतूलन बाई की िीत सुनाई देती मजससे उन्द्हें खुशी ममलती। अपने साक्षात्कारों में भी इन्द्होनें स्िीकार मकया की बचपन में इनलोिों ने इनका सिंिीत के प्रमत प्रेम पैदा करने में भूममका मनभायी। भले ही िैमदक इमतहास में शहनाई का मजक्र ना ममलता हो परन्द्तु मिंिल कायों में इसका उपयोि प्रमतमित करता है अथाधत यह मिंिल ध्िमन का सम्पूरक है। मबमस्मल्लाह खाँ ने अस्सी िषध के हो जाने के िाबजूद हमेशा पाँचो िक्त िाली नमाज में शहनाई के सच्चे सुर को पाने की प्राथधना में मबताया। मुहरधम के दसों मदन मबमस्मल्लाह खाँ अपने पूरे खानदान के साथ ना तो शहनाई बजाते थे और ना ही मकसी कायधक्रम में भाि लेते। आठिीं तारीख को िे शहनाई बजाते और दालमिंडी से फातमान की आठ मकलोमीटर की दुरी तक भींिी आँखों से नोहा बजाकर मनकलते हुए सबकी आँखों को मभिंिो देते।
  • 13. • फु रसत के समय िे उस्ताद और अब्बाजान को काम याद कर अपनी पसिंद की सुलोचना िीताबाली जैसी अमभनेमत्रयों की देखी मफल्मों को याद करते थे। िे अपनी बचपन की घटनाओिंको याद करते की कै से िे छु पकर नाना को शहनाई बजाते हुए सुनाता तथा बाद में उनकी ‘मीठी शहनाई’ को ढूिंढने के मलए एक-एक कर शहनाई को फें कते और कभी मामा की शहनाई पर पत्थर पटककर दाद देते। बचपन के समय िे मफल्मों के बडे शौक़ीन थे, उस समय थडध क्लास का मटकट छः पैसे का ममलता था मजसे पूरा करने के मलए िो दो पैसे मामा से, दो पैसे मौसी से और दो पैसे नाना से लेते थे मफर बाद में घिंटों लाइन में लिकर मटकट खरीदते थे। बाद में िे अपनी पसिंदीदा अमभनेत्री सुलोचना की मफल्मों को देखने के मलए िे बालाजी मिंमदर पर शहनाई बजाकर कमाई करते। िे सुलोचना की कोई मफल्म ना छोडते तथा कु लसुम की देसी घी िाली दूकान पर कचौडी खाना ना भूलते।
  • 15. • काशी के सिंिीत आयोजन में िे अिश्य भाि लेते। यह आयोजन कई िषों से सिंकटमोचन मिंमदर में हनुमान जयिंती के अिसर हो रहा था मजसमे शास्त्रीय और उपशास्त्रीय िायन-िादन की सभा होती है। मबमस्मल्लाह खाँ जब काशी के बाहर भी रहते तब भी िो मिश्वनाथ और बालाजी मिंमदर की तरफ मुँह करके बैठते और अपनी शहनाई भी उस तरफ घुमा मदया करते। ििंिा, काशी और शहनाई उनका जीिन थे। काशी का स्थान सदा से ही मिमशष्ट रहा है, यह सिंस्कृ मत की पाठशाला है। मबमस्मल्लाह खाँ के शहनाई के र्ुनों की दुमनया दीिानी हो जाती थी।
  • 17. • सन 2000 के बाद पक्का महाल से मलाई-बफध िालों के जाने से, देसी घी तथा कचौडी-जलेबी में पहले जैसा स्िाद ना होने के कारण उन्द्हें इनकी कमी खलती। िे नए िायकों और िादकों में घटती आस्था और ररयाज़ों का महत्ि के प्रमत मचिंमतत थे। मबमस्मल्लाह खाँ हमेशा से दो कौमों की एकता और भाईचारे के साथ रहने की प्रेरणा देते रहे। नब्बे िषध की उम्र में 21 अिस्त 2006 को उन्द्हने दुमनया से मिदा ली । िे भारतरत्न, अनेकों मिश्वमिद्यालय की मानद उपामर्याँ ि सिंिीत नाटक अकादमी पुरस्कार तथा पद्ममिभूषण जैसे पुरस्कारों से जाने नहीं जाएँिे बमल्क अपने अजेय सिंिीतयात्रा के नायक के रूप में पहचाने जाएँिे।
  • 18. सिंिीत नाटक अकादमी भारतरत्न पद्ममिभूषण