अनेकता में एकता
जी.. लगता होगा आपको कक उक्तत यह पुरानी,
हााँ.. यह तो विशेषता है भारत देश की |
ओह.. छात्रािस्था में हमने भी थी यही पढ़ी,
खूब ललखा था ननबन्ध आचाययजी बोले ‘उत्तम’ |
आगे चलकर अपनाया था अध्यापन,
तब भी पीसा पुन: वपसा हुआ आटा |
भाग लेने के ललए भाषण प्रनतयोगगता में
ददया ललखकर, करिाई तैयारी |
जीत आते छात्र मेरे, होती बहुत खुशी |
गूाँज में ताललयों की, खुद को खो जाती |
पर सोचने लगती कक अनुगचत काम कर गई,
हम कहते न थकते पर ... अनेकता में एकता |
“सत्यम ् िद” को ददया पलट यों ‘सत्यम ् िध’,
अनादद काल से चल रहा यह लसललसला |
बोलते कु छ हैं, करते हैं और कु छ,
पन्ने इनतहास के हमें जो बता रहे,|
िे तो लभन्न हैं सियथा इस उक्तत से,
पहले की घटनाएाँ नछपी हैं अंधकार में,
उजाले की प्रथम ककरण में ददखा हमें,
आया इक जत्था मध्य एलशया से,
िास कर रहे प्राचीन ननिालसयों को भारत में,
धर दबोच बनाया दस्यु अपने,
हम कहते न थकते पर ... अनेकता में एकता |
अपनों में ही नछड़ा युद्ध घोर,
लोग असंख्य मरे, कु रुक्षेत्र का हुआ नाम |
कौन ककसका, कै सा नाता, कहााँ का ररश्ता ?
मर लमटे, लमट्टी पर हक जमाने !
कु छ ने पाया तो कु छ ने खोया,
बाद की बात तो और ही अनोखी !
बड़े-छोटे बने शासक अनेकानेक,
लभड़े आपस में िजह बबन, सैननक ही नहीं,
जनता ननरीह भी मरी, जले गााँि-नगर
हुईं इमारतें धराशायी, जन-धन की हुई हानन |
हम कहते न थकते पर ... अनेकता में एकता !
न होने से एकता, सहनशीलता आये पराए |
जड़ें जमीं उनकी, कारण था एक मात्र स्िाथय हमारा |
किर पलट घूमा इनतहास का पन्ना
िही युद्ध, िही नरसंहार िही तोड़ िोड़
बीच में धमय को भी लमला स्थान खास |
बारी बारी से ककया धमों ने हमारी धरती पर शासन |
किर िही घमासान, हुआ लोगों पर अत्याचार
कइयों ने धमय बदलकर जान अपनी बचाई,
कई मर लमटे अटल रहकर आदशयिादी
हम कहते न थकते पर ... अनेकता में एकता !
अंत में आये अंग्रेज़ भारत भूलम पर,
बोले व्यापार करने के ललए के िल |
घीरे-घीरे हमारे शासकों की मानलसक
क्स्थनत पढ़ी उन्होंने, पता चला
कु छ ही ददनों में मात्र आाँिले की टोकरी यह,
मन में बसा है स्िाथय, के िल स्िाथय,
लालच, लोभ लसिा इन भािों गुणों के
न ही ममत्ि है, न प्रेम है, न गिय है
पर हााँ ! घमण्ड है, औरों को ड़ुबोने की ताक है |
हम कहते न थकते पर ... अनेकता में एकता !
आज बाप का राज्य नछना, तो कल बेटे का लसंहासन
न चाचा रहा, न ताऊ, न भतीजा रहा,
न भानजा, सभी मरे, ककले टूटे, महल हुए
मदटयामेट, शोषण हुआ खूब लोगों का |
सारा भारत देश हुआ गुलाम, माललक बने अंग्रेज़ |
हमारे हीरे लुटे, ‘कोदहनूर’ हमारा, मंद
रोशनी में बबखेर रहा उजली ककरणें |
ताज में बेबस हो बैठा है अंग्रेज़ शासकों के ,
लगा देखकर मुझे कक कै द में आाँसू बहा रहा |
याद कर अपनी क्स्थनत पुरानी-जन्मभूलम की
कारण तया था, संसार भर को विददत है |
हम कहते न थकते पर ... अनेकता में एकता !
जब नछन गया सियस्ि अपना तब,
जगे भारतीय, तन-मन-धन
क्षीण पड़ गया तब, स्िदेश प्रेम का िू टा अंकु र
लमले सब साथ, भूले उत्तर-दक्तखन का भेद
भेद जानत-धमय का भी लमट चला,
पूरब के हाथ पक्श्चम से जुड़े, आपसी झगड़े भूल चले
न आया भाषा-बोली का बीच में कोई सिाल,
लमलकर चले सब आज़ादी के ललए लड़ने |
राष्ट्रवपता गााँधीजी के पीछे था पूरा भारत
कई शहीद हुए, अनगगनत प्राणों की आहुनत चढ़ी
हााँ, तब थी सच में अनेकता में एकता !
कु छ समय तक तो रही एकता स्ितंत्रता के बाद,
रगों में बह रहे खून का अपना स्िभाि
किर जगा, अब तो बस ‘एकता’ पनाह पा गई है
कोश में शब्दों के , प्रांत एक दूसरे से लड़ रहा
पानी को ले नददयों के , तो और कोई भाषा
को ले उलझ रहा, अड़ रहा न सीखने की बात ले
हाय! ककतना संकु गचत हो गया मानि मन
किर से इस भूलम में हो रहा तमाशा,
यही है आज के मानि की ददनचयाय
लौट रहे हम भारतीय प्राचीन तम-युग में |
अपनी मज़ी का माललक हरेक मानि, तया होगा आगे
न कोई यहााँ ज्योनतषी पूिायनुमान कर सके , न स्ियं भगिान भी
अरे कु छ स्ियं तो कहते कक है नहीं भगिान !
हम कहते न थकते पर ... अनेकता में एकता !
जी हााँ, मैंने देखा जहााँ तक पाया कक एकता है मौजूद
भारतीय क्स्त्रयों, युिनतयों के पहनािे ओढ़ािे में
कदठन है पहचानना, भारतीय परंपरा को खोजना
तौर तरीका अपना, रहन-सहन बबल्कु ल खो बैठ ं
नख से लशखा तक, विलायती िेश-भूषा
भूल गईं कन्यायें अपनी भाषा-बोली,
परंपरागत ररिाज़ों को समझती हैं अपमान,
आज द्रौपदी होती तो हार मानता दु:शासन,
खींच हटाने को कोई लंबा चीर न पाकर |
क्षमा करें, बुरा न मानें यह है मेरी मन की बात
आप मानें न मानें यही आज का हाल
इस बात में मौजूद है अनेकता में एकता
आज के भारत की विशेषता !
एवपक चैनल में प्रनतददन प्रसाररत ऐनतहालसक सीररयल एकांत और रतत देखने
के बाद लगता है कक मनुष्ट्य ककतना नघनौना और दहंसक पशु है |