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कर्मण्येवाधिकारस्ते
वननता ठक्कय Page 1
E-mail : vanitaa.thakkar@gmail.com
कर्मण्येवाधिकारस्ते
(1) कृ ष्ण कहााँ हैं ?
सन ् 1988 के प्रथभ नतभाहे की एक सुहानी सुफह की भॊगर फेरा भें भेयी एक
जैन सहेरी के घय कु छ साध्ववमों के शुबागभन का ऩावन अवसय था । जैन
साधु-साववी फहुधा ऩैदर ही आवागभन कयते हैं । अऩनी सहेरी के कहने ऩय
3-4 ककरोमभटय की दूयी ऩय ध्थथत एक मजभान के घय से साध्ववमों को मरवाने
जा यहे छोटे-से दर भें भैं बी शामभर हो गई । एक वमोवृवध साववीजी को
सम्बारकय राने भें दर के अन्म सदथम धीये-धीये चरकय आ यहे थे औय एक
मुवा साववीजी को रेकय आगे चर रेने को भुझसे कहा गमा । साववीजी फड़ी
पू ती से तेज़ कदभ फढ़ा यही थीॊ । साथ ही भुझसे फातें बी कयने रगीॊ । भेया
नाभ, अभ्मास, आदद की जानकायी ऩाकय उन्हें ऩता चरा कक भैं जैन नहीॊ हूॉ ।
“तुभ दहन्दू हो ? ओह ! तुम्हाये कृ ष्ण बगवान तो नकक भें हैं ! ….”
भेये अन्दय की थतब्धता ने आश्चमक-मभश्रित नम्रता के साथ ऐसी फातों से भेयी
अनमबऻता से उन्हें अवगत कयामा, तो उन्होंने कभक के मसदधाॊत के अनुसाय ऐसा
हुआ है, मह भुझे फतामा ।
कृ ष्ण ! कृ ष्ण ! कृ ष्ण ! कृ ष्ण ! ….
कभक के मसदधाॊत की गहन-गूढ़ फातों से भेयी सयर साधायण सभझ का मह
प्रथभ ऩरयचम था । अऩने कथन को सभझाने के मरए साववीजी ने भुझसे उस
सभम कु छ कहा था, जो भुझे शब्दश: माद नहीॊ है । ऩय कृ ष्ण के ध्जस
अवथथा भें औय जहाॉ होने की फात साववीजी ने कही, वह फात आज तक भेयी
आथथा औय ववश्वास के धयातर ऩय ऩग धयने से कोसों दूय है । सृध्ष्ट के
अणु-ऩयभाणु भें ववदमभान सवकव्माऩी कृ ष्ण कहाॉ नहीॊ हैं ? औय “नकक ” क्मा है ?
कृ ष्ण की अनुऩध्थथनत का भ्रभ ?! ऩय हय जगह, हय सभम कृ ष्ण “ददखते”
कहाॉ हैं ? बक्त का बोरा भन कहता है – “कृ ष्ण सूदूय वैकुॊ ठ भें हैं ….” औय
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उस दू….य फैठे, सवकऻ, सवकव्माऩी “कृ ष्ण” के “कभों” का हभ ववश्रेषण कयते हैं ।
क्मों ?
बायत की ऩावन बूमभ ऩय िी याभ, िी ़ृ ष्ण, गौतभ फुदध, भहावीय थवाभी, जैसी
ववबूनतमों ने जन्भ मरमा, मह हभाये मरए अत्मॊत गौयव की फात है । उनके
चैतन्म की ददव्म आबा, उनकी शाश्वत धभकप्रबा हभायी अदववतीम सॊथकृ नत की
अभूल्म धयोहय है । ऐसी ववबूनतमों की अरौककक ददव्मता एकरूऩ, अखॊड औय
सवकव्माऩी होती है जो न के वर सभथत भानवजानत, अवऩतु सम्ऩूणक सृध्ष्ट की
असीभता भें ननयॊतय व्माप्त औय प्रवादहत होती है । ककसी एक जनसभुदाम मा
सभूह मा प्रदेश तक ही उनकी कृ ऩा मा करूणा मा अऩनत्व सीमभत नहीॊ होते ।
गौतभ फुदध औय िी भहावीय थवाभी को बी िी याभ औय िी कृ ष्ण की ही
बाॉनत बगवान िी ववष्णु के अवताय भाना गमा है । शाश्वती की ध्जस
अरौककक बूमभका ऩय आरूढ़ होकय कृ ष्ण ने िीभद बगवद गीता का ऻान प्रदान
ककमा था, उसे सभझने की हभायी ऺभता का हभने कै सा औय ककतना ववश्रेषण
ककमा है ? अऩनी अनुकू रता के अनुसाय कृ ष्ण की फातों का अथकघटन कयके
अऩने कभों का वहन कय यहे अऩने आऩ से औय ऩरयध्थथनत से कहीॊ खेर यहे,
तो कहीॊ झूझ यहे भानव जीवन का अवरोकन कबी ववथभमकायी, कबी योचक,
कबी प्रेयणादामी, तो कबी अत्मॊत कष्टदामक ददखाई ददमा है । औय अक्सय
ऐसा रगा है कक िीकृ ष्ण एक ऐसी ववबूनत हैं ध्जन्हें सवाकश्रधक गरत सभझा
तमा है । “प्रेभ” औय “धभक” ऐसे शब्दों भें से हैं जो सवाकश्रधक गरत सभझे गए
हैं । प्रेभ अश्रधकाय औय कतकव्मों की चक्की भे वऩस-वऩस कय कहीॊ थवच्छन्दता
तो कहीॊ वववशता फन कय यह जाता है । सम्फन्धों भें अऩेऺाओॊ का सॊतुरन
क्षऺण औय अध्थथय / अथथाई / अल्ऩजीवी होने के आबास प्रफर हो यहे हैं ।
धभक ऩहचान की अन्धी होड़ का वाहक भात्र फना यह गमा रगता है । धभक
अॊतजाकगृनत का उत्सव है, अॊतमाकत्रा औय अॊतशोध को उज्जवर फनाने वारा
अनुऩभ ऻानस्रोत है, जो भानवजीवन को ऩयभ तत्त्व से जोड़कय उसे साथकक
फनाता है । िीकृ ष्ण के जीवन सन्देश, उनके धभक सन्देश भें प्रेभ, करूणा,
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कर्त्कव्मफोध, सत्म, ननष्ठा, दऺता, िेष्ठता, जैसे जीवन के हय आमाभ का वववेक-
सबय सभुश्रचत सभावेश है । फचऩन भें सुनी एक कहानी माद आती है – कु छ
अन्धे एक हाथी के ऩास ऩहुॉचे । ऩता चरा, वे एक हाथी के साभने खड़े हैं ।
एक अऩने सभीऩ ध्थथत हाथी के ऩाॉव को छू कय फोरा – “ओह ! हाथी तो खम्फे
जैसा है ! ….” दूसया हाथी की सूॉड़ छू कय फोरा – “नहीॊ, नहीॊ ! हाथी तो भोटी
यथसी जैसा है ! ….” तीसया हाथी के कान छू कय फोरा – “हाथी तो सूऩ जैसा है
….” चौथा हाथी की ऩूॊछ ऩकड़कय फोरा – हाथी तो ऩतरी यथसी के सभान है !
….” कृ ष्ण को औय उनके भावमभ से जीवन को सभझने की हभायी चेष्टाएॉ
ऐसी ही तो हैं ! औय ऐसी कहीॊ कच्ची, तो कहीॊ ओछी सभझ के मभथ्मामबभान
भें चूय भानव जीवन भेथ्मु आनोल्ड की कववता “डॉवय फीच” भें वर्णकत
अध्न्धमायी यण्बूमभ के सभान फन जाता है, जहाॉ अऩने ऩयामे की ऩहचान को
भोहताज हय कोई अन्धाधून्ध अऩनी तरवाय से वाय कयता यहता है – कबी
कऩट का वाय, तो कबी रारच का वाय, …. अऩने नाभ ऩय छर-कऩट, दहॊसा औय
अन्माम होते देखकय अनासक्त, अमरप्त कृ ष्ण दु:खी न सही, खुश तो अवश्म
नहीॊ होते होंगे, चाहे उन्हें सुदूय वैकुॊ ठ भें ववयाजभन भान जाए मा ककसी बक्त के
ननश्छर हृदम भें आसीन हुआ भाना जाए ।

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  • 2. कर्मण्येवाधिकारस्ते वननता ठक्कय Page 2 E-mail : vanitaa.thakkar@gmail.com उस दू….य फैठे, सवकऻ, सवकव्माऩी “कृ ष्ण” के “कभों” का हभ ववश्रेषण कयते हैं । क्मों ? बायत की ऩावन बूमभ ऩय िी याभ, िी ़ृ ष्ण, गौतभ फुदध, भहावीय थवाभी, जैसी ववबूनतमों ने जन्भ मरमा, मह हभाये मरए अत्मॊत गौयव की फात है । उनके चैतन्म की ददव्म आबा, उनकी शाश्वत धभकप्रबा हभायी अदववतीम सॊथकृ नत की अभूल्म धयोहय है । ऐसी ववबूनतमों की अरौककक ददव्मता एकरूऩ, अखॊड औय सवकव्माऩी होती है जो न के वर सभथत भानवजानत, अवऩतु सम्ऩूणक सृध्ष्ट की असीभता भें ननयॊतय व्माप्त औय प्रवादहत होती है । ककसी एक जनसभुदाम मा सभूह मा प्रदेश तक ही उनकी कृ ऩा मा करूणा मा अऩनत्व सीमभत नहीॊ होते । गौतभ फुदध औय िी भहावीय थवाभी को बी िी याभ औय िी कृ ष्ण की ही बाॉनत बगवान िी ववष्णु के अवताय भाना गमा है । शाश्वती की ध्जस अरौककक बूमभका ऩय आरूढ़ होकय कृ ष्ण ने िीभद बगवद गीता का ऻान प्रदान ककमा था, उसे सभझने की हभायी ऺभता का हभने कै सा औय ककतना ववश्रेषण ककमा है ? अऩनी अनुकू रता के अनुसाय कृ ष्ण की फातों का अथकघटन कयके अऩने कभों का वहन कय यहे अऩने आऩ से औय ऩरयध्थथनत से कहीॊ खेर यहे, तो कहीॊ झूझ यहे भानव जीवन का अवरोकन कबी ववथभमकायी, कबी योचक, कबी प्रेयणादामी, तो कबी अत्मॊत कष्टदामक ददखाई ददमा है । औय अक्सय ऐसा रगा है कक िीकृ ष्ण एक ऐसी ववबूनत हैं ध्जन्हें सवाकश्रधक गरत सभझा तमा है । “प्रेभ” औय “धभक” ऐसे शब्दों भें से हैं जो सवाकश्रधक गरत सभझे गए हैं । प्रेभ अश्रधकाय औय कतकव्मों की चक्की भे वऩस-वऩस कय कहीॊ थवच्छन्दता तो कहीॊ वववशता फन कय यह जाता है । सम्फन्धों भें अऩेऺाओॊ का सॊतुरन क्षऺण औय अध्थथय / अथथाई / अल्ऩजीवी होने के आबास प्रफर हो यहे हैं । धभक ऩहचान की अन्धी होड़ का वाहक भात्र फना यह गमा रगता है । धभक अॊतजाकगृनत का उत्सव है, अॊतमाकत्रा औय अॊतशोध को उज्जवर फनाने वारा अनुऩभ ऻानस्रोत है, जो भानवजीवन को ऩयभ तत्त्व से जोड़कय उसे साथकक फनाता है । िीकृ ष्ण के जीवन सन्देश, उनके धभक सन्देश भें प्रेभ, करूणा,
  • 3. कर्मण्येवाधिकारस्ते वननता ठक्कय Page 3 E-mail : vanitaa.thakkar@gmail.com कर्त्कव्मफोध, सत्म, ननष्ठा, दऺता, िेष्ठता, जैसे जीवन के हय आमाभ का वववेक- सबय सभुश्रचत सभावेश है । फचऩन भें सुनी एक कहानी माद आती है – कु छ अन्धे एक हाथी के ऩास ऩहुॉचे । ऩता चरा, वे एक हाथी के साभने खड़े हैं । एक अऩने सभीऩ ध्थथत हाथी के ऩाॉव को छू कय फोरा – “ओह ! हाथी तो खम्फे जैसा है ! ….” दूसया हाथी की सूॉड़ छू कय फोरा – “नहीॊ, नहीॊ ! हाथी तो भोटी यथसी जैसा है ! ….” तीसया हाथी के कान छू कय फोरा – “हाथी तो सूऩ जैसा है ….” चौथा हाथी की ऩूॊछ ऩकड़कय फोरा – हाथी तो ऩतरी यथसी के सभान है ! ….” कृ ष्ण को औय उनके भावमभ से जीवन को सभझने की हभायी चेष्टाएॉ ऐसी ही तो हैं ! औय ऐसी कहीॊ कच्ची, तो कहीॊ ओछी सभझ के मभथ्मामबभान भें चूय भानव जीवन भेथ्मु आनोल्ड की कववता “डॉवय फीच” भें वर्णकत अध्न्धमायी यण्बूमभ के सभान फन जाता है, जहाॉ अऩने ऩयामे की ऩहचान को भोहताज हय कोई अन्धाधून्ध अऩनी तरवाय से वाय कयता यहता है – कबी कऩट का वाय, तो कबी रारच का वाय, …. अऩने नाभ ऩय छर-कऩट, दहॊसा औय अन्माम होते देखकय अनासक्त, अमरप्त कृ ष्ण दु:खी न सही, खुश तो अवश्म नहीॊ होते होंगे, चाहे उन्हें सुदूय वैकुॊ ठ भें ववयाजभन भान जाए मा ककसी बक्त के ननश्छर हृदम भें आसीन हुआ भाना जाए ।