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Prabhunath College
P A R S A , S A R A N , ( B I H A R )
समाज के टूटते बिखरते स्वरूप को सहेजने
के लिए एकमात्र आदर्श व्यत्तित्व
परमहंस दयाल
स्वामी अद्वैतानन्द जी महाराज
पूज्य पिता स्वर्गीय श्री पंडित नवल किशोर मिश्रा एवं पूजनीय माता जी स्वर्गीय श्रीमती
अन्नपूर्णा मिश्रा जिनका गृहस्थ आश्रम का संपूर्ण जीवन मर्यादा पुरुषोत्तम की तरह व्यतीत
हुआ। मर्यादा की रक्षा के लिए दोनों पति-पत्नी की जोड़ी ने अपने संपूर्ण खुशियों एवं सुख का
त्याग कर दिया। सामूहिक रूप से देश चलाना बहुत ही आसान है लेकिन बृहद रूप वाला
संयुक्त परिवार चलाना इस पृथ्वी का बहुत ही कठिन कार्य है क्योंकि निर्माण में समस्त अपनी
व्यक्तिगत खुशियों एवं सुख सुविधाओं का तिलांजलि देकर इसमें जीना होता है जो कि आसान
कार्य नहीं। गृहस्थ आश्रम में इस तरह के जीवन जीने वालों को हमारे वेद और उपनिषद ने
गृहस्थ आश्रम का संत कहा है। पूज्य पिताजी एवं माता जी का त्याग तपस्या शब्दों से बयान
नहीं किया जा सकता यह तो हमारे समाज का हर व्यक्ति जानता है। पूजनीय माताजी एवं
पूज्य पिताजी अपने गृहस्थाश्रम में रहते हुए उन्होंने अपने माता की भक्ति, पिता की भक्ति, गुरु
की भक्ति एवं समस्त भाइयों ,बहनों एवं समाज के हर व्यक्ति को हंसकर एवं प्यार देकर अपने
जीवन में स्वागत किया। हमारे पिताजी हमेशा कहा करते थे की सुख बांटने का चीज है और
दुख को पीना है त्याग जब आपका स्वभाव बन जाता है तो दुख आपको छू भी नहीं पाती जैसे
हाथी को अपना शरीर भारी नहीं लगता है ठीक उसी प्रकार एक संयुक्त परिवार का मुखिया
अपने खून से खींच कर परिवार का निर्माण करता है तो उसे दुख का आभास नहीं होता उसे
त्याग में ही आनंद आता है हमारे पूज्य पिताजी एवं माताजी का त्याग तपस्या से बृहद परिवार
का निर्माण हुआ आज परिवार का हर सदस्य अपने व्यक्तिगत गुणों को देश में ही नहीं बल्कि
विदेशों में भी प्रभावित कर रहे हैं।
पूज्य पिता
स्वर्गीय श्री नवल किशोर मिश्रा
पूजनीय माता
स्वर्गीय श्रीमती अन्नपूर्णा मिश्रा
मनुष्य मात्र का ही समाज होता है और जब
विभिन्न दायरा बनाकर जाति एवं संप्रदाय के
आधार पर समाज का निर्माण करता है
मनुष्य समाज का मूल स्वरूप के विकृ ति के
रूप में सामने आता है जब तक आदर्श
भूमिका के रूप में व्यक्तित्व प्रस्तुत नहीं
किया जाएगा तब तक जीवन एवं समाज के
सार्थकता का विघटन को रोका नहीं जा
सकता सब को एक सूत्र में पिरोया नहीं जा
सकता यह परम सौभाग्य की बात है हमारा
भारत की मिट्टी में जन्म लिए ,ब्रह्म ज्ञानी
लोग पूरे विश्व का भ्रमण करने के बाद ज्ञान
का पताका पूरे समाज में फहराए ,जो आज
दुनिया की सभी देशों में प्रभावित हो रही है
आज साधु संतों का जो जीवन एवं कार्य एवं
उपलब्धि को सारे समाज के सामने प्रस्तुत
करें और समाज को सुंदर बनाएं तथा अपने
जीवन को सत्यापित करें ,हम दुनिया से भाग
नहीं सकते सब कु छ दुनिया के अंदर ही है
कर्म तो करना ही पड़ेगा ,मनुष्य में उतनी ही
शक्तियां है जितनी परमात्मा में है अंतर यह
है कि यह शक्तियां मनुष्य में दबी होती है
शांति की खोज आप संसार में कर रहे हैं
,संसार में शांति तो कहीं भी नहीं है हिंदू धर्म
दुनिया का सबसे पुराना और आंतरिक
अंतिम वैज्ञानिक धर्म है ,यह धर्म दुनिया को
विज्ञान दिया उसे दृष्टि दी जीने की कला
साहित्य दिया, संस्कृ ति विज्ञान दिया, विमान
का विज्ञान दिया उसे दृष्टि भी जीने की कला
दी , साहित्य दिया संस्कृ ति और विज्ञान दिया
हमारा भारत देश का मूल सेवा और त्याग
का प्रतीक है ,जिसे हम अपने महान भारत
के प्रत्येक गतिविधि के माध्यम से शिक्षा
प्रदान करते हुए आ रहे है ,मानवीय मूल्य
और सामाजिक प्रतिबद्धता के साथ भारत
देश का शिक्षा उत्कृ ष्टता का एक विशिष्ट
वातावरण पैदा करती है भविष्य का भीषण
चिंता आर्थिक सुधारों को सर्वनाश कर देती
है भारत की साधु-संतों ने का व्यक्तित्व भक्ति
प्रेम कथा के विभिन्न भाषाओं में बहा l साधु
संतों की वाणी परमानंद को जानते हैं जिस
प्रकार बूंद सागर में मिल जाता है और बूंद
सागर हो जाता है l जिसे शरीर का ज्ञान हो
जाता है उसे मृत्यु का भय भी खत्म हो जाता
है ,भारत देश की साधु-संतों का उद्देश्य
आत्मा का आत्मज्ञान प्राप्त करना आवश्यक
है, आनंद की स्वच्छता एवं व्यवहार में लाया
गया ढाल समाज को मजबूती देता हैं, भारत
के कोई भी धर्म के लोग आपस में मतभेद
रखते है और नतीजा धर्म पहले और
मनुष्यता बाद में हो जाती है l आनंद मनुष्य
स्वभाव है और आनंद की कोई जाति नहीं
होती उसका उसका कोई धर्म नहीं होता
आनंद सकारात्मकता को बढ़ावा देती है मैं
शरीर में हूं या शरीर में रहने वाला आत्मा धर्म
की जिज्ञासा अपने प्रीतम की मधुर मिलन के
लिए एक तरफ का वास्तविक स्वरूप चेतन
का अनुभव करने लगता है
प्रीतम की मधुर मिलन के लिए एक तरफ
का वास्तविक स्वरूप स्वत: प्रकाशित होता
है ,भारत देश के जितने भी साधु संत लोग हैं
उनके जीवन और कार्य को सारे समाज के
सामने उपस्थित करें और सारा समाज को
सुंदर बनाया जा सकता है भारत देश साधु
संतों का देश है यहां के ऋषि मुनि के
इतिहास के बारे में लिखना या उनके
व्यक्तित्व के बारे मे लिखना अपने आप में
महती कार्य है ज्ञान बहुत बड़ा ज्ञान है यदि
विश्व में ज्ञान का प्रकाश भारत से ही फै ला भारत की ऊर्जा उसकी अध्यात्मिक शक्ति में
निहित है बाकी सभी देशों में भारत अन्य देशों से कमजोर हो सकता है लेकिन अध्यात्म
के क्षेत्र में पूरा विश्व भारत की ओर देखता है अगर विश्व में किसी को अध्यात्म की शिक्षा
चाहिए वह फ्रांस चीन रूस अमेरिका इंग्लैंड और जापान नहीं आता है अपितु वह भारत
आता है यूरोपीय विद्वानों ने अपनी पूरी जिंदगी यहां के ज्ञान विज्ञान और भाषा सीखने में
लगा दी , पदार्थ का सबसे छोटा कण परमाणु कहलाता है
भारतीय दर्शन की
विकास यात्रा
आपको प्रारब्ध में आ गया तो कहीं जाने की
आवश्यकता नहीं है विद्वान कोई भी हो
सकता है लेकिन यह जरूरी नहीं कि वह
सत्य का आचरण करता हो बुद्ध वही है जो
सत्य का आचरण करें वैज्ञानिक इंजीनियर
अविष्कारक एडवोके ट आदि भी विद्वान है
लेकिन यह जरूरी नहीं है कि वह सभी सत्य
का पालन करते हो विद्वान और संत मैं बहुत
अंतर है ,एक विद्वान ज्ञान एवं ग्रंथों पर
आधारित है आध्यात्मिकता करनी और
कथनी का विषय है साधना से ज्ञान अपने
आप आ जाता है ,संत कबीर का उदाहरण
ले लीजिए पढ़े-लिखे नहीं थे फिर भी
अध्यात्म में सबसे आगे थे साहित्य में सदैव
राष्ट्र और समाज में नई दिशा देने का कार्य
किया है साहित्य जनमानस को सकारात्मक
सोच तथा लोक कल्याण के कार्यों के लिए
प्रेरणा देने का कार्य करता है रहा है , साहित्य
में साहित्यिक व्यक्ति के चरित्र के निर्माण में
बहुत अनोखा योगदान निभाता है ,चाहे वह
अंग्रेजी साहित्य हो या हिंदी साहित्य हो
,क्योंकि साहित्य समाज का दर्पण होता है
समाज का प्रतिबिंब होता है समाज का
मार्गदर्शक होता है समाज का लेखा-जोखा
रखा है ,किसी भी राष्ट्रीय सभ्यता की
जानकारी उनके साहित्य से प्राप्त होती है
साहित्य और समाज से वही संबंध है जो
संबंध आत्मा और शरीर में होता है साहित्य
समाज रूपी शरीर की आत्मा है ,साहित्य
अजेय , अमर है ,विद्वानों का कहना है कि
समाज और राष्ट्र नष्ट हो सकता है किंतु
साहित्यिक कभी नष्ट नहीं हो सकता है
मैं अपना अनुभव से भरा हुआ एक वक्तव्य
बता रहा हूं जब भी किसी क्षेत्र में कोई
व्यक्ति सफल होता है तो उसके पीछे कई
असफलताएं छुपी होती है यही असफलताएं
व्यक्ति के अनुभवों को योग्य बनाती है
जिनकी बदौलत वह सफलता प्राप्त करता है
कोई भी असफलता कभी बेकार नहीं जाती
है आपसी प्रेम और एक दूसरे को सम्मान
देने का प्रयास करना सफल लोकतांत्रिक
प्रक्रिया के लिए आवश्यक है आपसी कटुता
के कारण हमारी समाज की एकता को
तोड़ने की कोशिश की जाती है आप लोग
बहुत ज्ञानी हैं विश्वास करें आपका नया
विचार आपको अनुभवी बनाएगा सफलता
की नई मार्ग बनाएगा और उन में जो बाधाएं
आएंगी उनका भी हल ढूंढ लेगा यह सोचे कि
आपका विचार महत्वपूर्ण है यह आपके
वर्तमान कार्य को बेहतर ढंग से निपटाएगा
नई सोच को विकसित करने का अर्थ है
बेहतर परिणाम नई सोचा आपकी काम
काज को प्रणाली को सुधारे मैं सहयोग
करेगी उसे विकसित करेगी और इसी में
आपको सफलता मिलेगी " सच्चा प्रेम वह है
जिसमें कोई चाह न हो। जब कु छ चाहते
नहीं हैं तो ईश्वर प्रेम और गुरु प्रेम ही शेष
रहता है। परमात्मा और गुरुदेव हमसे प्रसन्न
रहें यह चाह कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त
कु छ चाह न हो। फिर प्रेम विशुद्ध हो जाता
है। गुरुजन का भी प्रेम ऐसा ही विशुद्ध होता
है।
संत जनों की शिक्षा आत्मा- परमात्मा से
संबंधित है। ईश्वर से प्रेम है तो उनके भक्तों,
उसके सभी प्रियजनों से हमारा प्रेम होता है।
उसके प्रेमियों से ईर्ष्या करें तो वह
(परमात्मा) उससे प्रसन्न नहीं होगा।
भक्ति में दीनता चाहिए, समर्पण होना
चाहिए। छुपा- छुपाया अहं भी नहीं होना
चाहिए। अहं प्रगति और प्रेम में बाधक है।
अस्तित्व समाप्त होना है। अहं सूक्ष्म है।
अपने अस्तित्व को साधना में भूलते हो। ज्ञान
सहित भूलते हैं तो यही समाधि हुई। अपना
अस्तित्व नकारते हुए अहं हटाकर समर्पण
की प्राप्ति करनी है। जब तक अहं रहेगा दूरी
बनी रहेगी। साधन- ध्यान करो, प्रेम बढ़ाओ,
चाहों को कम करो, दीनता लाओ यह हमारे
व्यवहार में आ जाए तो यही सदाचार है।
बड़ों को सम्मान, छोटों को प्रेम तथा सेवा हो,
यह शिष्टाचार है। प्रतिक्रिया होती हो,
ईर्ष्या लाते हो तो यह सदाचार में कमी है।
मिथ्या नहीं सत्य बोल रहे हो, धोखा नहीं कर
रहे हो, यह सदाचार का क्रियान्वयन है।
कथनी - करनी में अंतर नहीं रहे तो यह
सदाचार की पराकाष्ठा होगी अर्थात सदाचार
दुरुस्त हो गया। मनुष्यों में क्या चीज और
प्राणियों से अलग है? सामान्य जीवन के
भूख,प्यास, निद्रा आदि सभी प्राणियों में होते
हैं। परंतु मनुष्य के पास एक चीज विशेष
रूप से प्रदत्त है, वह है बुद्धि। उससे उसका
विकास हो सकता है, बहुत काम हो सकता
है। उससे दुनिया भर की खोज हो सकती है,
अंत:की खोज भी हो सकती है। यह बुद्धि
ईश्वरीय देन है। उसका सदुपयोग दुरुपयोग
जो भी करना चाहो करो। निर्णय भी बुद्धि से
होता है जो कार्य आत्म विकास की ओर ले
जा रहे हैं वे ठीक हैं, जो उसके विपरीत ले
जा रहे हैं वे अनुचित हैं। यदि कार्य
जनकल्याण के लिए है तो अच्छी बात है।
सभी का कल्याण होता है तो अच्छी बात है।
आत्म उत्थान की दिशा में कार्य हो रहा है तो
अच्छा है। इसके विपरीत होगा तो उससे
हानि होगी और हमारा विकास रुक जाएगा।
यह भी समझ नहीं आ रहा है तो परख के
लिए सत-असत को समझ लो। अधोगति की
ओर ले जाने वाले कार्य असत हैं। अतः
देखना है कि हमारे आत्मोथान में बाधक हैं
या सहायक हैं। यदि बाधक हैं तो गलत
हैं,यदि सहायक है तो ठीक है- उसमें निर्णय
आपको लेना होगा कि आत्मोत्थान हो रहा है
या जनकल्याण हो रहा है अथवा नहीं। यदि
नहीं हो रहा है तो ठीक नहीं है। देखना
चाहिए कि हमारी सुख सुविधाएं बढ़ेंगी या
दिक्कतें होंगी। मनुष्यों में क्या चीज और
प्राणियों से अलग है? सामान्य जीवन के
भूख,प्यास, निद्रा आदि सभी प्राणियों में होते
हैं। परंतु मनुष्य के पास एक चीज विशेष
रूप से प्रदत्त है, वह है बुद्धि। उससे उसका
विकास हो सकता है, बहुत काम हो सकता
है। उससे दुनिया भर की खोज हो सकती है,
अंत:की खोज भी हो सकती है। यह बुद्धि
ईश्वरीय देन है। उसका सदुपयोग दुरुपयोग
जो भी करना चाहो करो। निर्णय भी बुद्धि से
होता है जो कार्य आत्म विकास की ओर ले
जा रहे हैं वे ठीक हैं, जो उसके विपरीत ले
जा रहे हैं वे अनुचित हैं। यदि कार्य
जनकल्याण के लिए है तो अच्छी बात है।
सभी का कल्याण होता है तो अच्छी बात है।
आत्म उत्थान की दिशा में कार्य हो रहा है तो
अच्छा है। इसके विपरीत होगा तो उससे
हानि होगी और हमारा विकास रुक जाएगा।
यह भी समझ नहीं आ रहा है तो परख के
लिए सत-असत को समझ लो। अधोगति की
ओर ले जाने वाले कार्य असत हैं। अतः
देखना है कि हमारे आत्मोथान में बाधक हैं
या सहायक हैं। यदि बाधक हैं तो गलत
हैं,यदि सहायक है तो ठीक है- उसमें निर्णय
आपको लेना होगा कि आत्मोत्थान हो रहा है
या जनकल्याण हो रहा है अथवा नहीं। यदि
नहीं हो रहा है तो ठीक नहीं है। देखना
चाहिए कि हमारी सुख सुविधाएं बढ़ेंगी या
दिक्कतें होंगी। मुख्य बात यह है कि साधन
(मींस) क्या है। बुद्धि संकु चित नहीं होनी
चाहिए बल्कि विशाल होना चाहिए तो हमारे
लिए बंधन का कारण नहीं बनेगी। जो
अनावश्यक चीजें हैं उनके संग्रह का प्रयास
ठीक नहीं है, यह बुद्धि से निर्णय करेंगे। जो
हमें विशेषत: दिया गया है उससे विशेष
अपेक्षा होती है। इसका उपयोग वैज्ञानिक
खोज में, प्रकृ ति की खोज में तथा आत्म
विकास या अध्यात्म में कर सकते है लिए
बंधन का कारण नहीं बनेगी। जो अनावश्यक
चीजें हैं उनके संग्रह का प्रयास ठीक नहीं है,
यह बुद्धि से निर्णय करेंगे। जो हमें विशेषत:
दिया गया है उससे विशेष अपेक्षा होती है।
इसका उपयोग वैज्ञानिक खोज में, प्रकृ ति
की खोज में तथा आत्म विकास या अध्यात्म
में कर सकते है चाह किरण सूर्य की हो या
आशा की जब भी निकलती है तो सभी
अंधकारो को मिटा देती हैं मनुष्य प्रकृ ति का
पूर्णरूपेण अंश और व्यक्तित्व का नाम
समस्त प्रकृ तिक संख्या और प्रकृ ति मनुष्य में
हमेशा रहता है अगर हम अंधकार से प्रकाश
की ओर ले जा रहे हैं इस दिव्य प्रकाश मे हम
बिहार वासी आत्म अवलोकन करेंगे।
प्राचार्य
डॉ० पुष्प राज गौतम
सभी छात्र-छात्राओं, शिक्षकों एवं ग्रामीण लोगों के चहेते प्राचार्य
जितना आगे बढता जाता है प्रेम भी बढ़ता
जाता है और जो कु छ इच्छाएं बीज रुप में
मौजूद भी हैं वे जलकर राख हो जाती हैं।
जितनी सफाई होती जाती है उतनी ही तेजी
उसकी रफ़्तार (गति) में भी होती जाती है।
और एक दिन दोनों मिलकर एक हो जाते हैं।
यही फ़ज्ल (कृ पा) का तरीक़ा है जिसमें न
कु छ अभ्यास है न कु छ मशक्कत है और न
रियाज़त।सिर्फ प्रेम को जगाना होता है।
परमात्मा से प्रेम प्रारम्भ में बिरले ही किसी
को होता है और प्रारंभ में परमात्मा का प्रेम
प्राप्त करने का प्रयत्न करना समय का व्यर्थ
खोना है।यदि वास्तव में कोई मनुष्य
परमात्मा के प्रेम का इच्छुक है और संसार से
उदासीन हो चुका है तो सबसे सरल और
जल्दी का उपाय यह है कि ऐसे महापुरुष की
तलाश करें जो परमात्मा का सच्चा प्रेमी है।
अगर सौभाग्यवश ऐसा कोई व्यक्ति मिल
जाए तो मजबूती से उसका दामन पकड़ ले।
ऐसे सन्त का मिलना बडा मुश्किल है।अगर
न मिल सके तो किसी साधु का सहारा ले,
यानी जो इस रास्ते पर चल रहा है और कु छ
रास्ता तय कर चुका है ऐसे भक्त का सहारा
लेकर उसके आदेशों पर चले।सब तरफ़ से
तवियत को हटाकर उसकी शरण में आये।
उनमे पूरी श्रद्धा रखे कि यह समर्थ हैं और
मेरा उद्धार इनसे जरूर होगा।उनके आदेशों
को सर्वोपरि मानकर बिना किसी
हिचकिचाहट और संशय के उसका पालन
करे।चाहे वह बुद्धि तथा सांसारिक धर्मशास्त्र
के विपरीत ही क्यों न मालूम होते हों।यदि
पूरा आदेश पालन करेगा और सेवा करेगा तो
बिना परिश्रम किये बहुत शीघ्र ही उनके
बेशवहार कमाई का वारिश होगा (अमूल्य
अक्षय-प्रेम-भंडार का उत्तराधिकारी
होगा)और दुनियाँ की इच्छाओं और प्यार से
ऊपर आता जाएगा।धन-दौलत से उपराम
होकर,मन की वासनाओं को जीत लेने के
बाद बुद्धि की बारी आती है।अपनी बुद्धि को
उनकी बराबरी में तुच्छ समझे।यही सच्ची
दीनता है।बुद्धि के फं दे में न फं से वर्ना सब
करा-कराया नष्ट हो जाएगा ।
जब आत्मा के ऊपर से तमाम भोगों और वासनाओं के पर्दे हट जाते हैं और आत्मा नंगी
(पर्दा विहीन) हो जाती है तो परमात्मा का प्रेम,जो असल है,जाग उठता है ।यही परमार्थ
का बनना है।अब जीव की खिंचावट परमात्मा की ओर होती जाती है।
परम सन्त महात्मा डॉ
श्रीकृ ष्ण लाल जी
महाराज के उपदेश
सन्त-वचन भाग 2
सन्त मत का आधार गुरु-प्रेम
सम्मनित शिक्षिका
डॉ० पूनम कु मारी
दूसरे शब्दों में राष्ट्रभाषा से तात्पर्य है–किसी
राष्ट्र की जनता की भाषा। . राष्ट्रभाषा की
आवश्यकता–मनुष्य के मानसिक और
बौद्धिक विकास के लिए भी राष्ट्रभाषा
आवश्यक है।मनुष्य चाहे जितनी भी
भाषाओं का ज्ञान प्राप्त कर ले, परन्तु अपनी
भावनाओं को व्यक्त करने के लिए उसे
अपनी भाषा की शरण लेनी ही पड़ती है।
इससे उसे मानसिक सन्तोष का अनुभव
होता है। इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय एकता को
बनाए रखने के लिए भी राष्ट्रभाषा की
आवश्यकता होती है।
भारत में राष्ट्रभाषा की समस्या–स्वतन्त्रता–
प्राप्ति के बाद देश के सामने अनेक प्रकार
की समस्याएँ विकराल रूप लिए हुए थीं।
उन समस्याओं में राष्ट्रभाषा की समस्या भी
थी। कानून द्वारा भी इस समस्या का
समाधान नहीं किया जा सकता था।
इसका मुख्य कारण यह है कि भारत एक
विशाल देश है और इसमें अनेक भाषाओं को
बोलनेवाले व्यक्ति निवास करते हैं; अत:
किसी–न–किसी स्थान से कोई–न–कोई
विरोध राष्ट्रभाषा के राष्ट्रस्तरीय प्रसार में
बाधा उत्पन्न करता रहा है। इसलिए भारत में
राष्ट्रभाषा की समस्या सबसे जटिल समस्या
बन गई है।
राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को मान्यता–
संविधान का निर्माण करते समय यह प्रश्न
उठा था कि किस भाषा को राष्ट्रभाषा बनाया
जाए। प्राचीनकाल में राष्ट्र की भाषा संस्कृ त
थी। धीरे–धीरे अन्य प्रान्तीय भाषाओं की
उन्नति हुई और संस्कृ त ने अपनी पूर्व–स्थिति
को खो दिया। मुगलकाल में उर्दू का विकास
हुआ। अंग्रेजों के शासन में अंग्रेजी ही सम्पूर्ण
देश की भाषा बनी। अंग्रेजी हमारे जीवन में
इतनी बस गई कि अंग्रेजी शासन के समाप्त
हो जाने पर भी देश से अंग्रेजी के प्रभुत्व को
समाप्त नहीं किया जा सका। इसी के
प्रभावस्वरूप भारतीय संविधान द्वारा हिन्दी
को राष्ट्रभाषा घोषित कर देने पर भी उसका
समुचित उपयोग नहीं किया जा रहा है।
यद्यपि हिन्दी एवं अहिन्दी भाषा के अनेक
विद्वानों ने राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी का
समर्थन किया है, तथापि आज भी हिन्दी को
उसका गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं हो सका
है।किसी भी देश में सबसे अधिक बोली एवं
समझी जानेवाली भाषा ही वहाँ की
राष्ट्रभाषा होती है। प्रत्येक राष्ट्र का अपना
स्वतन्त्र अस्तित्व होता है, उसमें अनेक
जातियों, धर्मों एवं भाषाओं के लोग रहते हैं;
अतः राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ बनाने के लिए
एक ऐसी भाषा की आवश्यकता होती है,
जिसका प्रयोग राष्ट्र के सभी नागरिक कर
सकें तथा राष्ट्र के सभी सरकारी कार्य उसी
के माध्यम से किए जा सकें ।ऐसी व्यापक
भाषा ही राष्ट्रभाषा कही जाती है। दूसरे
शब्दों में राष्ट्रभाषा से तात्पर्य है–किसी राष्ट्र
की जनता की भाषा। . राष्ट्रभाषा की
आवश्यकता–मनुष्य के मानसिक और
बौद्धिक विकास के लिए भी राष्ट्रभाषा
आवश्यक है।मनुष्य चाहे जितनी भी
भाषाओं का ज्ञान प्राप्त कर ले, परन्तु अपनी
भावनाओं को व्यक्त करने के लिए उसे
अपनी भाषा की शरण लेनी ही पड़ती है।
इससे उसे मानसिक सन्तोष का अनुभव
होता है। इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय एकता को
बनाए रखने के लिए भी राष्ट्रभाषा की
आवश्यकता होती है। भारत में राष्ट्रभाषा की
समस्या–स्वतन्त्रता–प्राप्ति के बाद देश के
सामने अनेक प्रकार की समस्याएँ विकराल
प्रत्येक राष्ट्र का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व होता है, उसमें अनेक जातियों, धर्मों एवं भाषाओं
के लोग रहते हैं; अतः राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ बनाने के लिए एक ऐसी भाषा की
आवश्यकता होती है, जिसका प्रयोग राष्ट्र के सभी नागरिक कर सकें तथा राष्ट्र के सभी
सरकारी कार्य उसी के माध्यम से किए जा सकें ।ऐसी व्यापक भाषा ही राष्ट्रभाषा कही
जाती है।
मां की भाषा है हमारी
मातृभाषा हिंदी
रूप लिए हुए थीं। उन समस्याओं में
राष्ट्रभाषा की समस्या भी थी। कानून द्वारा
भी इस समस्या का समाधान नहीं किया जा
सकता था।
इसका मुख्य कारण यह है कि भारत एक
विशाल देश है और इसमें अनेक भाषाओं को
बोलनेवाले व्यक्ति निवास करते हैं; अत:
किसी–न–किसी स्थान से कोई–न–कोई
विरोध राष्ट्रभाषा के राष्ट्रस्तरीय प्रसार में
बाधा उत्पन्न करता रहा है। इसलिए भारत में
राष्ट्रभाषा की समस्या सबसे जटिल समस्या
बन गई है।
राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को मान्यता–
संविधान का निर्माण करते समय यह प्रश्न
उठा था कि किस भाषा को राष्ट्रभाषा बनाया
जाए। प्राचीनकाल में राष्ट्र की भाषा संस्कृ त
थी। धीरे–धीरे अन्य प्रान्तीय भाषाओं की
उन्नति हुई और संस्कृ त ने अपनी पूर्व–स्थिति
को खो दिया। मुगलकाल में उर्दू का विकास
हुआ। अंग्रेजों के शासन में अंग्रेजी ही सम्पूर्ण
देश की भाषा बनी।अंग्रेजी हमारे जीवन में
इतनी बस गई कि अंग्रेजी शासन के समाप्त
हो जाने पर भी देश से अंग्रेजी के प्रभुत्व को
समाप्त नहीं किया जा सका। इसी के
प्रभावस्वरूप भारतीय संविधान द्वारा हिन्दी
को राष्ट्रभाषा घोषित कर देने पर भी उसका
समुचित उपयोग नहीं किया जा रहा है।
यद्यपि हिन्दी एवं अहिन्दी भाषा के अनेक
विद्वानों ने राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी का
समर्थन किया है, तथापि आज भी हिन्दी को
उसका गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं हो सका
है।राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी के विकास में
उत्पन्न बाधाएँ–स्वतन्त्र भारत के संविधान में
हिन्दी को ही राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार
किया गया, परन्तु आज भी देश के अनेक
प्रान्तों ने इसे राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार
नहीं किया है। हिन्दी संसार की सबसे
अधिक सरल, मधुर एवं वैज्ञानिक भाषा है,
फिर भी हिन्दी का विरोध जारी है।हिन्दी की
प्रगति और उसके विकास की भावना का
स्वतन्त्र भारत में अभाव है। राष्ट्रभाषा के
रूप में हिन्दी की प्रगति के लिए के वल
सरकारी प्रयास ही पर्याप्त नहीं होंगे; वरन्
इसके लिए जन–सामान्य का सहयोग भी
आवश्यक है। हिन्दी के पक्ष एवं विपक्ष
सम्बन्धी विचारधारा–हिन्दी भारत के विस्तृत
क्षेत्र में बोली जानेवाली भाषा है, जिसे देश
के लगभग 35 करोड़ व्यक्ति बोलते हैं। यह
सरल तथा सुबोध है और इसकी लिपि भी
इतनी बोधगम्य है कि थोड़े अभ्यास से ही
समझ में आ जाती है। फिर भी एक वर्ग ऐसा
है, जो हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में
स्वीकार नहीं करता। इनमें अधिकांशत: वे
व्यक्ति हैं, जो अंग्रेजी के अन्धभक्त हैं या
प्रान्तीयता के समर्थक।
उनका कहना है कि हिन्दी के वल उत्तर भारत
तक ही सीमित है। उनके अनुसार यदि हिन्दी
को राष्ट्रभाषा बना दिया गया तो अन्य
प्रान्तीय भाषाएँ महत्त्वहीन हो जाएँगी। इस
वर्ग की धारणा है कि हिन्दी का ज्ञान उन्हें
प्रत्येक क्षेत्र में सफलता प्रदान नहीं कर
सकता। इस दृष्टि से इनका कथन है कि
अंग्रेजी ही विश्व की सम्पर्क भाषा है; अतः
यही राष्ट्रभाषा हो सकती है।हिन्दी के विकास
सम्बन्धी प्रयत्न–राष्ट्रभाषा हिन्दी के विकास
में जो बाधाएँ आई हैं; उन्हें दूर किया जाना
चाहिए। देवनागरी लिपि पूर्णत: वैज्ञानिक
लिपि है, किन्तु उसमें वर्णमाला, शिरोरेखा,
मात्रा आदि के कारण लेखन में गति नहीं आ
पाती। हिन्दी व्याकरण के नियम अहिन्दी–
भाषियों को बहुत कठिन लगते हैं। इनको भी
सरल बनाया जाना चाहिए, जिससे वे भी
हिन्दी सीखने में रुचि ले सकें ।
के न्द्रीय सरकार ने ‘हिन्दी निदेशालय की
स्थापना करके हिन्दी के विकास–कार्य को
गति प्रदान की है। इसके अतिरिक्त नागरी
प्रचारिणी सभा, हिन्दी–साहित्य सम्मेलन
आदि संस्थानों ने भी हिन्दी के विकास तथा
प्रचार व प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई
है।हिन्दी के प्रति हमारा कर्तव्य–हिन्दी हमारी
राष्ट्रभाषा है, उसकी उन्नति ही हमारी उन्नति
है। भारतेन्द हरिश्चन्द्र ने कहा था–निजभाषा
उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिनु निजभाषा ज्ञान के , मिटत न हिय को
सूल।।
अतः हमारा कर्त्तव्य है कि हम हिन्दी के प्रति
उदार दृष्टिकोण अपनाएँ। हिन्दी के अन्तर्गत
विभिन्न प्रान्तीय भाषाओं की सरल
शब्दावली को अपनाया जाना चाहिए। भाषा
का प्रसार नारों से नहीं होता, वह निरन्तर
परिश्रम और धैर्य से होता है। हिन्दी
व्याकरण का प्रमाणीकरण भी किया जाना
चाहिए।राष्ट्रभाषा हिन्दी का भविष्य उज्ज्वल
है। यदि हिन्दी–विरोधी अपनी स्वार्थी
भावनाओं को त्याग सकें और हिन्दीभाषी
धैर्य, सन्तोष और प्रेम से काम लें तो हिन्दी
भाषा भारत के लिए समस्या न बनकर
राष्ट्रीय जीवन का आदर्श बन जाएगी।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी हिन्दी को
राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने की
आवश्यकता के सन्दर्भ में कहा था– “मैं
हमेशा यह मान रहा हूँ कि हम किसी भी
हालत में प्रान्तीय भाषाओं को नुकसान
पहुंचाना या मिटाना नहीं चाहते।
हमारा मतलब तो सिर्फ यह है कि विभिन्न
प्रान्तों के पारस्परिक सम्बन्ध के लिए हम
हिन्दी–भाषा सीखें। ऐसा कहने से हिन्दी के
प्रति हमारा कोई पक्षपात प्रकट नहीं होता।
हिन्दी को हम राष्ट्रभाषा मानते हैं। वही भाषा
राष्ट्रभाषा बन सकती है, जिसे सर्वाधिक
संख्या में लोग जानते–बोलते हों और जो
सीखने में सुगम हो।”
प्राचार्य
डॉ० पुष्प राज गौतम
किसी भी प्रकार की विद्या हो अथवा ज्ञान
हो, उसे किसी दक्ष गुरु से ही सीखना
चाहिए। जप, तप, यज्ञ, दान आदि में भी गुरु
का दिशा निर्देशन जरूरी है कि इनकी विधि
क्या है? अविधिपूर्वक किए गए सभी शुभ
कर्म भी व्यर्थ ही सिद्ध होते हैं जिनका कोई
उचित फल नहीं मिलता। स्वयं की अहंकार
की दृष्टि से किए गए सभी उत्तम माने जाने
वाले कर्म भी मनुष्य के पतन का कारण बन
जाते हैं। भौतिकवाद में भी गुरू की
आवश्यकता होती है। सबसे बड़ा तीर्थ तो
गुरुदेव ही हैं जिनकी कृ पा से फल अनायास
ही प्राप्त हो जाते हैं। गुरुदेव का निवास
स्थान शिष्य के लिए तीर्थ स्थल है। उनका
चरणामृत ही गंगा जल है। वह मोक्ष प्रदान
करने वाला है। गुरु से इन सबका फल
अनायास ही मिल जाता है। मनुष्य का
अज्ञान यही है कि उसने भौतिक जगत को
ही परम सत्य मान लिया है और उसके मूल
कारण चेतन को भुला दिया है जबकि सृष्टि
की समस्त क्रियाओं का मूल चेतन शक्ति ही
है। चेतन मूल तत्व को न मान कर जड़ शक्ति
को ही सब कु छ मान लेनाअज्ञानता है। इस
अज्ञान का नाश कर परमात्मा का ज्ञान
कराने वाले गुरू ही होते हैं। किसी गुरु से
ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रथम आवश्यकता
समर्पण की होती है। समर्पण भाव से ही गुरु
का प्रसाद शिष्य को मिलता है। शिष्य को
अपना सर्वस्व श्री गुरु देव के चरणों में
समर्पित कर देना चाहिए। इसी संदर्भ में यह
उल्लेख किया गया है यह तन विष की
बेलरी, और गुरू अमृत की खान, शीश दियां
जो गुरू मिले तो भी सस्ता जान। गुरु ज्ञान
गुरु से भी अधिक महत्वपूर्ण है। प्राय: शिष्य
गुरु को मानते हैं पर उनके संदेशों को नहीं
मानते। इसी कारण उनके जीवन में और
समाज में अशांति बनी रहती है। गुरु के
वचनों पर शंका करना शिष्यत्व पर कलंक
है। जिस दिन शिष्य ने गुरु को मानना शुरू
किया उसी दिन से उसका उत्थान शुरू शुरू
हो जाता है और जिस दिन से शिष्य ने गुरु
के प्रति शंका करनी शुरू की, उसी दिन से
शिष्य का पतन शुरू हो जाता है सद्गुरु एक
ऐसी शक्ति है जो शिष्य की सभी प्रकार के
मनुष्य रूप में नारायण ही हैं। मैं उनके चरण कमलों की वन्दना करता हूँ। जैसे सूर्य के
निकलने पर अन्धेरा नष्ट हो जाता है, वैसे ही उनके वचनों से मोहरूपी अन्धकार का नाश
हो जाता है।
गुरुदेव तुम्हारे चरणों
मे सतकोटि प्रणाम
हमारा है।
शिक्षिका
पल्लवी कु मारी
कि ताप-शाप से रक्षा करती है। शरणा गत
शिष्य के दैहिक, दैविक, भौतिक कष्टों को
दूर करने एवं उसे बैकुं ठ धाम में पहुंचाने का
दायित्व गुरु का होता है। आनन्द अनुभूति
का विषय है। बाहर की वस्तुएँ सुख दे
सकती हैं किन्तु इससे मानसिक शांति नहीं
मिल सकती। शांति के लिए गुरु चरणों में
आत्म समर्पण परम आवश्यक है। सदैव
गुरुदेव का ध्यान करने से जीव नारायण
स्वरूप हो जाता है। वह कहीं भी रहता हो,
फिर भी मुक्त ही है। ब्रह्म निराकार है।
इसलिए उसका ध्यान करना कठिन है। ऐसी
स्थिति में सदैव गुरुदेव का ही ध्यान करते
रहना चाहिए। गुरुदेव नारायण स्वरूप हैं।
इसलिए गुरु का नित्य ध्यान करते रहने से
सभी साधनों को छोड़कर के वल नारायण
स्वरूप गुरु की शरणगत हो जाना चाहिए। वे
उसके सभी पापों का नाश कर देंगे। शोक
नहीं करना चाहिए।
जिनके दर्शन मात्र से मन प्रसन्न होता है,
अपने आप धैर्य और शांति आ जाती हैं, वे
परम गुरु हैं। जिनकी रग-रग में ब्रह्म का तेज
व्याप्त है, जिनका मुख मण्डल तेजोमय हो
चुका है, उनके मुख मण्डल से ऐसी आभा
निकलती है कि जो भी उनके समीप जाता है
वह उस तेज से प्रभावित हुए बिना नहीं रह
सकता। उस गुरु के शरीर से निकलती वे
अदृश्य किरणें समीपवर्ती मनुष्यों को ही नहीं
अपितु पशु पक्षियों को भी आनन्दित एवं
मोहित कर देती है। उनके दर्शन मात्र से ही
मन में बड़ी प्रसनन्ता व शांति का अनुभव
होता है। मन की संपूर्ण उद्विग्नता समाप्त हो
जाती है।
ज्ञान व्यक्ति के नजरिए को व्यापक बनाता है विचारों को विस्तार करता है और व्यवहार को निखार ता है ज्ञान जीवन
में व्याप्त भ्रम और गलतफमिया को दूर करता है उत्साह और उत्सुकता बढ़ाता है और मन के भ्रम को दूर करता है
बुद्धि के कहने में मत चलो।अगर गुरु मौज़ूद नहीं हैं तो अपने बड़े भाई से मदद लो। संतों की वाणी देखो।जितनी
किताबें संतों ने लिखी हैं, जिनमें उनकी वाणी है उनको देखो। सभी संत जो गुज़र चुके , चाहे वह किसी भी मत के हों
हमारे गुरु हैं। गुरु के कहने पर चलने में ही भलाई है।मैंने अपने तज़ुर्बे से देखा है कि जहां मैंने गुरु का कहना नहीं
माना वहीं धोखा खाया। मेरी जिंदगी के तज़ुर्बे का तुम भी फायदा उठाओ। गुरु के कहने पर सख्ती से चलो चाहे
कितनी भी मुश्किलें सामने आएं। किसी भी लोकतांत्रिक देश में सबसे प्रथम और सबसे बड़ा पद राष्ट्रपति का होता है
लेकिन दुनिया यह समझ ले शिक्षक से बड़ा पद इस संसार में बना ही नहीं अब तक महामहिम रामनाथ कोविंद अपने
बीएनएसडी इंटर कॉलेज कानपुर गए और प्रोटोकॉल को तोड़कर अपने गुरुजनों का सम्मान कै से किया यह आज के
छात्रों को सीखना चाहिए
सम्मनित शिक्षिका
डॉ० पूनम कु मारी
डॉक्टर पुष्पराज गौतम सभी छात्र
छात्राओं के चहेते प्राचार्य
इसलिए सदा अच्छा सोचिए और खुश रहे
हंसते रहिए सदा मुस्कु राते रहिए बड़े भाई
आप मैं बहुत सारी ऊर्जा है आप मैं ऊर्जा
रूपी दिव्य प्रकाश में अपने आप को
अवलोकन करते हुए सकारात्मक सोच ते
हुए आगे बढ़ते रहना चाहिए अपने पिता के
रास्ते पर चलकर मिलो दूरी तय करने के
बाद आगे बढ़ते जाना है और सफलता पा
लेना है क्योंकि आप में ऊर्जा का भंडार है
इसी तरह आगे बढ़ते जाना है
एक प्रचलित कथा के अनुसार किसी गांव में
एक संत का आगमन हुआ। संत बहुत ही
सरल स्वभाव के थे। उनके पास आने लोगों
को ज्ञान की सही बातें बताते थे। इस कारण
गांव में उनकी ख्याति काफी फै ल गई थी।
संत की प्रसिद्धि देखकर एक पंडित उनसे
घृणा करने लगा। पंडित को डर था कि अगर
संत के पास सभी लोग जाने लगेंगे तो
उसका धंधा चौपट हो जाएगा। इसीलिए
पंडित ने गांव में संत के लिए गलत बातें
फै लाना शुरू कर दी। एक दिन संत के शिष्य
को ये मालूम हुआ तो वह क्रोधित हो गया।
शिष्य तुरंत ही अपने गुरु के पास आया और
बोला कि गुरुदेव वह पंडित आपके बारे झूठी
बातें फै ला रहा है। हमें उसे जवाब देना
चाहिए। संत ने कहा कि तुम गुस्सा न करो,
क्योंकि अगर उसे जवाब देंगे तो क्या ये बातें
फै लना बंद हो जाएंगी? ये बातें तो होती
रहेंगी। इसीलिए हमें उसे जवाब देने में समय
बर्बाद नहीं करना चाहिए। संत ने शिष्य को
समझाया कि जब हाथी चलता है तो कु त्ते
भौंकते ही हैं। अगर हाथी उन कु त्तों से लड़ने
लगेगा तो उसका ही कद छोटा हो जाएगा,
वह कु त्तों के समान माना जाएगा। इसीलिए
हाथी कु त्तों के भौंकने पर ध्यान नहीं देता है।
वह आराम से अपने रास्ते चलते रहता है। ये
बातें सुनकर शिष्य का क्रोध शांत हो गया।
हमें बुराई करने वालों को जवाब देने में समय
बर्बाद नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने
पर हमारा ही नुकसान है। हमें सिर्फ अपने
काम पर ध्यान देना चाहिए। बुराई करने वाले
लोग कभी शांत नहीं हो सकते हैं। इसीलिए
ऐसी बातों पर क्रोधित नहीं होना चाहिए इस
दुनिया में हर सफलता की शुरुआत एक
सृजनशील विचार से होती है सबसे पहले
विचार आता है फिर उसमें विश्वास की
ताकत डाली जाती है विचार को फलीभूत
करने के साधन निर्मित होते हैं और अंततः
विचार भौतिक आकार ले लेता है ऐसा माना
जाता है विचार ही हमारी असली दौलत है
जो कभी खत्म नहीं होती विचारों में असीम
शक्ति छिपी होती है विचारों से आप अपने
परिस्थितियां बदल सकते हैं समस्याएं
सुलझा सकते हैं दुनिया की हर चीज पहले
इंसान की कल्पनाओं में जन्म लेती है
आपकी सफलता का आधार आपका
नजरिया है यदि आपका नजरिया आशावादी
है तो जीवन के सभी रास्ते आपके लिए खुले
हैं हमेशा अपनी आशावादी सोच बनाएं बड़ा
सोचिए और स्वयं पर विश्वास करें अपना
नजरिया बदल कर हम अपनी वर्तमान
परिस्थितियों में मनचाहा बदलाव ला सकते
हैं यदि हम अपने बारे में एक सकारात्मक
छवि बना ले तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होगा
आप ठीक वैसा ही जीवन जीना आरंभ कर
देंगे जैसा कि आप जीना चाहते है वास्तव में
हमारी सोच का एक बड़ा सिद्धांत है विस्तार
आप जिस विचार पर अपना ध्यान कें द्रित
करेंगे वह फै लता जाएगा बढ़ता चला जाएगा
मन में उठा कोई विचार या ख्याल
उर्जा रूपी प्रकाश में
अवलोकन करते हुए सकारात्मक
सोचना चाहिए
सोच का प्रभाव मन पर होता है मन का प्रभाव तन पर होता है तन और मन दोनों का
प्रभाव सारी जीवन पर होता है
नकारात्मक हो सकता है लेकिन उसके प्रति
आपकी प्रतिक्रिया सकारात्मक होनी चाहिए
अगर आप सोचना शुरु कर देंगे जीवन में
सकारात्मक शक्तियां सक्रिय हो उठेगीबहुत-
से दार्शनिकों का मानना है कि सृष्टि का
आधार ही विचार है मनुष्य के पास उपलब्ध
प्रत्येक वस्तु का जन्म विचार की कोख से ही
होता है विचारों से ही मानव जाति विकसित
होती आई है
आत्मविश्वास को विकसित करना भी एक
कला है जिसे आसानी से सीखा जा सकता
है हम जैसा सोचते हैं या विचार करते हैं
हमारे मन में ठीक वैसा ही भाव पैदा होता है
शिक्षिका
निधि राय
पद्म का अर्थ है- ‘कमल का पुष्प’। चूंकि
सृष्टि-रचयिता ब्रह्माजी ने भगवान नारायण
के नाभि-कमल से उत्पन्न होकर सृष्टि-रचना
संबंधी ज्ञान का विस्तार किया था, इसलिए
इस पुराण को पद्म पुराण की संज्ञा दी गई है।
माता सर्वतीर्थ मयी और पिता सम्पूर्ण
देवताओं का स्वरूप हैं इसलिए सभी प्रकार
से यत्नपूर्वक माता-पिता का पूजन करना
चाहिए। जो माता-पिता की प्रदक्षिणा करता
है, उसके द्वारा सातों द्वीपों से युक्त पृथ्वी की
परिक्रमा हो जाती है। माता-पिता अपनी
संतान के लिए जो क्लेश सहन करते हैं,
उसके बदले पुत्र यदि सौ वर्ष माता-पिता की
सेवा करे, तब भी वह इनसे उऋण नहीं हो
सकता।
नास्ति मातृसमा छाया, नास्ति मातृसमा
गतिः।
हम सभी का जीवन हमारे माता- पिता की
देन ही हैं. ईश्वर द्वारा प्रदत्त बेशकीमती
उपहारों में से एक हमारे माँ बाप होते हैं. हमें
अपने जीवन के प्रत्येक मोड़ पर उनके साथ
और आशीर्वाद की जरूरत रहती हैं. जब से
इस धरती पर हमारा अस्तित्व शुरू होता हैं,
उससे पूर्व नौ माह तक माँ हमें अपने गर्भ में
रखती हैं पोषण देती हैं तथा पाल पोषकर
बड़ा करती हैं. के वल माँ बाप ही बिना किसी
पूर्व शर्त के हमारी देखभाल करते है तथा
खुद हजारों कष्ट सहनकर भी हमें पैरों पर
खड़ा होने के लायक बनाते हैं. हमारा भी
उनके प्रति दायित्व हैं कि हम अपने माता-
पिता का सम्मान करें उनकी के यर करें.माँ
को ममता और प्यार की प्रतिमूर्ति कहा जाता
हैं, वह अपनी सन्तान को सबसे बढ़कर लाड
दुलार देकर संरक्षण देती हैं, माँ की गोदी में
बालक स्वयं को सबसे अधिक सुरक्षित और
गौरवशाली महसूस करता हैं. हमारे माता-
पिता सदैव हमारी सफलता और सम्रद्धि की
कामना करते हैं. हमारी ख़ुशी और सफलता
में ही उनकी ख़ुशी दिखती हैं. अपने जीवन
के सर्वोच्च सुखो का बलिदान देकर यहाँ तक
कि स्वयं भूखे पेट सोकर माँ बाप अपनी
सन्तान का पालन पोषण करते हैं.एक
बालक के जीवन में सबसे महत्वपूर्ण
योगदान माता-पिता का होता हैं, भले ही वे
बालक बड़े होकर उनका सम्मान आदर व
सेवा करे या नहीं करें. परन्तु वे सदैव उन्हें
सुभाशीष ही देते हैं. बालक मानसिक और
शारीरिक रूप से समग्र विकास को प्राप्त
करें इसके लिए अभावों में गुजारा करके भी
अभिभावक झूठी मुस्कान के जरिये भी
अपनी सन्तान को अभाव का आभास नहीं
होने देते हैं.
हमारी भारतीय सनातन संस्कृ ति प्रत्येक
बालक को अपने माता-पिता के प्रति सम्मान
करने, सवेरे उठकर उनके चरण छू कर
आशीर्वाद लेने के संस्कार देता हैं. हमारी
प्राचीन शिक्षा में पेरेंट्स और बड़े बूढों को
सम्मान देने की परम्परा और आदर्श उस दौर
के समाज में थे. मगर आधुनिक पाश्चात्य
विचारों से प्रेरित हमारी शिक्षा व्यवस्था में
बच्चों और पेरेंट्स के उन गहरे रिश्तों को
परिभाषित करने में पूर्णतया विफल रही हैं.
निसंदेह मैं और आप आज जो कु छ भी हैं
वह हमारे माता-पिता की देन हैं, हमारी
कामयाबी और जीवन के इस सफर में बूढ़े
माँ बाप ने हाडतोड़ पसीने की कमाई की
बदौलत हैं. उनका ऋण सम्भवतया कभी
अदा नहीं किया जा सके गा. फिर भी एक
पुत्र या पुत्री के रूप में हमें अपने कर्तव्यों/
दायित्वों का भली प्रकार के निर्वहन करना
महर्षि वेदव्यास द्वारा संस्कृ त भाषा में रचित 18 पुराणों में से एक ‘पद्म पुराण’ है, जिसे
ग्रंथ कहा जाता है। समस्त अठारह पुराणों की गणना में यह पुराण द्वितीय स्थान पर है
और श्लोक संख्या में भी इसे दूसरा स्थान प्राप्त है।
माता सर्वतीर्थ मई व
पिता सम्पूर्ण देवताओं
का है स्वरूप
चाहिए. हमारी युवा पीढ़ी आज दिग्भ्रमित
प्रतीत होती हैं, इसका प्रमाण आज के
वृद्धाश्रम हैं.ये ओल्ड ऐज होम की व्यवस्था
कभी भी हमारे समाज का अंग नहीं थी.मगर
जब बेटे बेटियों ने पेरेंट्स के महत्व और
उनके ऋण को भुलाया तो आज ये सामान्य
हैं. असहाय हालात में वृद्ध माता-पिता को
घर से लज्जित कर निकाल दिया जाता हैं,
बीबी के कहने के कारण या इन्हें बोझ
समझकर न के वल आज के युवा अपनों से
दूर होते हैं बल्कि अपने बच्चों को दादी दादी
के सुख से भी अलाहदा कर रहे हैं. हमें
विचार करना चाहिए, आज जो व्यवहार हम
अपने पेरेंट्स के प्रति कर रहे हैं कल यही
लौटकर आपकी संताने आपके संग करेगी,
तब अपनी हाय पुकार किसे सुनाएगे.
इसलिए हम अपनी जड़ों को कभी न काटे
यदि माता पिता को सम्मान न दे सके तो
कम से कम उन्हें अपमानित भी नहीं करना
चाहिए.हम पर माता-पिता का पहला ऋण
तो यह हैं कि उन्होंने हमें जन्म दिया, हम
आज दुनिया में हैं तो अपने पेरेंट्स की
बदौलत ही हैं. हमें ताउम्र उनका सम्मान
करना होगा, नौ महीनों तक अपनी कोख में
जगह देने वाली माँ को हमने कितना सताया
होगा उसे क्या क्या कष्ट नहीं दिया होगा.
खुद गीले वस्त्र पर सोकर अपने लाल को
सूखे बिछोने पर सुलाने वाली माँ के अपनत्व
का कर्ज अदा करना तो दूर उनके बलिदान
को समझना भी बड़ी बात हैं.
भलेही आज हम सुख सम्पन्नता के दौर में
जी रहे हैं, मगर सदा से ऐसा नहीं था. जीवन
का गुजारा करना बड़ा प्रश्न था. रोजगार
बेहद सिमित थे, जल भरने के लिए कोसो
दूर जाना पड़ता था. वे हमारे माता पिता ही
हैं जो मुश्किल से पेट काटकर हमें बड़ा करते
हैं. कई बार खुद भूखे रहकर भी हमें बड़ा
करते हैं. उनके जीवन के सपने हमसे जुड़
जाते हैं. वे अपनी समस्त आशाएं अपनी
सन्तान से लगा देते हैं, कि हमारा बेटा/ बेटी
बड़ा होगा तो हम सुकू न से जी सके गे. मगर
जो औलादे पैरों पर खड़ी होने पर अपने
कर्ज को पूरा करना तो दूर उन्हें सम्मान से
जीवन जीने भी नहीं देती उन्हें धिक्कार हैं.l
जब हम माँ की गोदी से बाहर आए तो हमारे
मम्मी पापा ने हमारी हर एक इच्छा ख़ुशी का
पूरा ख्याल रखा और उसको सम्मान दिया.
अंगुली पकड़कर चलना सिखाया अपने
कं धों पर बिठाकर स्कू ल लेकर गये. खिलौने
से लेकर हर वह चीज दी जो हमें बड़ी प्रिय
थी. विडम्बना तो देखिये हम थोड़ों बड़े क्या
हो जाते हैं अपने ही पेरेंट्स को यह कहकर
चुप करा देते हैं कि आपकों क्या पता आप
जानते ही क्या हैं. भले मानस यदि वो नहीं
जानते तो तुम कै से जानते हो, जिस इन्सान
ने आपकों अंगुली पकड़कर खड़े होना और
चलना सिखाया आज उसी इन्सान से कहते
हैं आपकों क्या पता.कोई भी बालक
बालिका किशोर होने तक माता-पिता पर
पूर्णतया निर्भर होता हैं, अमूमन वह विद्रोह
भी नहीं करता हैं. मगर जब जैसे ही मध्य
किशोरावस्था में पहुँचता है तो सही गलत की
समझ भुलाकर चंचलता अपना लेता हैं. माई
लाइफ माई वे यानी उसे अपनी मर्जी से
जीना अच्छा लगता हैं. मगर ये काल माता-
पिता के लिए बेहद चिंताओं वाला होता हैं.
इस उम्रः में माँ बाप अपने बेटे व बेटी का
ख़ास ख्याल करना पड़ता हैं, जरा सी चूक
भी उन्हें गलत राह पर ले जाती हैं. बच्चें इतने
बड़े भी हो चुके होते हैं अब उन्हें डांट
फटकार से भी परहेज किया जाता हैं. इस
आयु में बच्चों को स्व नियंत्रण रखते हुए
अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन करते
हुए अध्ययन पर प्रमुखता से ध्यान दिया
जाना चाहिए.यह बात कभी किसी को
सिखाई नहीं जा सकती कि आपकों अपने
बड़ों, वृद्धों या माता -पिता का सम्मान किस
तरह करना चाहिए. यह व्यक्ति के उनके प्रति
नजरिये पर निर्भर करता हैं और वह
वास्तविक व्यवहार भी उसी के अनुरूप कर
सके गा. बताने के लिए ऐसी हजारों बाते हो
सकती हैं जो आपकों अपने माता पिता के
सम्मान में करनी चाहिए, मगर औपचारिकता
के दायरे से बाहर आकर हमें दिल से उनके
लिए कु छ करना चाहिए क्योंकि वो उस
सम्मान रिस्पेक्ट के हकदार हैं. एक सरल सा
फं डा हैं. आप अपने माता पिता के लिए
सिर्फ इतना ही करिये जितना आप अपनी
संतान से अपने लिए अपेक्षा करते हैं. इसमें
कई बातें हो सकती हैं. जैसे वो आपकों
सम्मान दे, आपकी हरेक आज्ञा का पालन
करें. आपकी राय ले, प्रशंसा करें आपके
साथ समय बिताएं, आपकी समस्त
मनोकामनाओं को पूर्ण करने के प्रयत्न करे.
आपसे मधुर रिश्ते रखे और दिल से निभाएं
ये सभी व्यवहार यदि आप अपने बेटे/ बेटी
से चाहते हैं तो आपका यह दायित्व हैं कि
आप आज से ही अपने माता पिता के लिए
ये काम जरुर करना आरम्भ कर देवे.lबहुत
से लोग ऐसे होते है जिन्हें माँ या पापा अथवा
दोनों नसीब नहीं होते हैं. सही मायनों में
पेरेंट्स के होने का महत्व उन्हें ही पता चलता
हैं. हमें ईश्वर स्वरूप माता पिता मिले हैं
उनके पास अथाह प्यार और आशीर्वाद का
खजाना हैं. हम उनकी सेवा करते रहे. उन्हें
यथेष्ठ सम्मान प्रदान करें.


डॉ० विद्यापति गौतम
कृ ष्ण को जीना शुरु हो सके गा ।कृ ष्ण को
जिआ जा सके गा ।कृ ष्ण इस पृथ्वी के पूरे
जीवन को पूरा ही स्वीकार करते है ।वे किसी
परलोक में जीने वाले व्यक्ति नहीं, इस पृथ्वी
पर, इसी लोक में जीनेवाले व्यक्ति हैं । बुध्द,
महावीर का मोक्ष इस पृथ्वी के पार कहीं दूर
है, कृ ष्ण का मोक्ष इसी पृथ्वी पर यहीं और
अभी है
कृ ष्ण शब्द का अर्थ होता है, कें द्र। कृ ष्ण
शब्द का अर्थ होता है, जो आकृ ष्ट करे, जो
आकर्षित करे; सेंटर ऑफ ग्रेविटेशन, कशिश
का कें द्र। कृ ष्ण शब्द का अर्थ होता है जिस
पर सारी चीजें खिंचती हों। जो कें द्रीय चुंबक
का काम करे। प्रत्येक व्यक्ति का जन्म एक
अर्थ में कृ ष्ण का जन्म है, क्योंकि हमारे
भीतर जो आत्मा है, वह कशिश का कें द्र है।
वह सेंटर ऑफ ग्रेविटेशन है जिस पर सब
चीजें खिँचती हैं और आकृ ष्ट होती हैं।शरीर
खिँचकर उसके आसपास निर्मित होता है,
परिवार खिँचकर उसके आसपास निर्मित
होता है, समाज खिँचकर उसके आसपास
निर्मित होता है, जगत खिँचकर उसके
आसपास निर्मित होता है। वह जो हमारे
भीतर कृ ष्ण का कें द्र है, आकर्षण का जो
गहरा बिंदु है, उसके आसपास सब घटित
होता है। तो जब भी कोई व्यक्ति जन्मता है,
तो एक अर्थ में कृ ष्ण ही जन्मता है वह जो
बिंदु है आत्मा का, आकर्षण का, वह जन्मता
है, और उसके बाद सब चीजें उसके
आसपास निर्मित होनी शुरू होती हैं। उस
कृ ष्ण बिंदु के आसपास क्रिस्टलाइजेशन
शुरू होता है और व्यक्तित्व निर्मित होता है।
इसलिए कृ ष्ण का जन्म एक व्यक्ति विशेष
का जन्म मात्र नहीं है, बल्कि व्यक्ति मात्र का
जन्म है।कृ ष्ण का जन्म होता है अँधेरी रात
में, अमावस में। सभी का जन्म अँधेरी रात में
होता है और अमावस में होता है। असल में
जगत की कोई भी चीज उजाले में नहीं
जन्मती, सब कु छ जन्म अँधेरे में ही होता है।
एक बीज भी फू टता है तो जमीन के अँधेरे में
जन्मता है। फू ल खिलते हैं प्रकाश में, जन्म
अँधेरे में होता है।असल में जन्म की प्रक्रिया
इतनी रहस्यपूर्ण है कि अँधेरे में ही हो सकती
है। आपके भीतर भी जिन चीजों का जन्म
होता है, वे सब गहरे अंधकार में, गहन
अंधकार में होती है। एक कविता जन्मती है,
तो मन के बहुत अचेतन अंधकार में जन्मती
है। बहुत अनकांशस डार्क नेस में पैदा होती
है। एक चित्र का जन्म होता है, तो मन की
बहुत अतल गहराइयों में जहाँ कोई रोशनी
नहीं पहुँचती जगत की, वहाँ होता है।
समाधि का जन्म होता है, ध्यान का जन्म
होता है, तो सब गहन अंधकार में। गहन
अंधकार से अर्थ है, जहाँ बुद्धि का प्रकाश
जरा भी नहीं पहुँचता। जहाँ सोच-समझ में
कु छ भी नहीं आता, हाथ को हाथ नहीं
सूझता है। कृ ष्ण का जन्म जिस रात में हुआ,
कहानी कहती है कि हाथ को हाथ नहीं सूझ
रहा था, इतना गहन अंधकार था। लेकिन
इसमें विशेषता खोजने की जरूरत नहीं है।
यह जन्म की सामान्य प्रक्रिया है।कृ ष्ण सांवरे
थे, ऐसा नहीं है। हमने इतना ही कहा है
सांवरा कह कर, कि कृ ष्ण के सौंदर्य में बड़ी
गहराई थी; जैसे गहरी नदी में होती है, जहां
जल सांवरा हो जाता है। यह सौंदर्य देह का
ही सौंदर्य नहीं था–यह हमारा मतलब है।
सांवरा हमारा प्रतीक है इस बात का कि यह
सौंदर्य शरीर का ही नहीं था, यह सौंदर्य मन
का था; मन का ही नहीं था; यह सौंदर्य
आत्मा का था। यह सौंदर्य इतना गहरा था,
महत्वपूर्ण व्यक्ति अपने समय के बहुत पहले पैदा हो जाता है ।कृ ष्ण अपने समय के कम
से कम पाँच हजार वर्ष पहले पैदा हुए ।अतीत कृ ष्ण को समझने योग्य नहीं हो सका ।
शायद आनेवालेभविष्य में कृ ष्ण को समझने में हम योग्य हो सकें गे ।,
संपूर्ण कलाओं से पूर्ण
परब्रह्म, अद्भुत, अद्वैत
श्री कृ ष्ण
उस गहराई के कारण चेहरे पर सांवरापन
था। सौंदर्य अनंत गहराई लिए था।यह
तुम्हारा मोर के पंखों से बना हुआ मुकु ट, यह
तुम्हारा सुंदर मुकु ट, जिसमें सारे रंग समाएं
हैं! वही प्रतीक है। मोर के पंखों से बनाया
गया मुकु ट प्रतीक है इस बात का कि कृ ष्ण
में सारे रंग समाए हैं। महावीर में एक रंग है,
बुद्ध में एक रंग है, राम में एक रंग है–कृ ष्ण में
सब रंग हैं। इसलिए कृ ष्ण को हमने
पूर्णावतार कहा है…सब रंग हैं। इस जगत की
कोई चीज कृ ष्ण को छोड़नी नहीं पड़ी है।
सभी को आत्मसात कर लिया है। कृ ष्ण
इंद्रधनुष हैं, जिसमें प्रकाश के सभी रंग हैं।
कृ ष्ण त्यागी नहीं हैं। कृ ष्ण भोगी नहीं हैं।
कृ ष्ण ऐसे त्यागी हैं जो भोगी हैं। कृ ष्ण ऐसे
भोगी हैं जो त्यागी हैं। कृ ष्ण हिमालय नहीं
भाग गए हैं, बाजार में हैं। युद्ध के मैदान पर
हैं। और फिर भी कृ ष्ण के हृदय में हिमालय
है। वही एकांत! वही शांति! अपूर्व सन्नाटा!
कृ ष्ण अदभुत अद्वैत हैं। चुना नहीं है कृ ष्ण ने
कु छ। सभी रंगों को स्वीकार किया है,
क्योंकि सभी रंग परमात्मा के हैं।कृ ष्ण कहते
हैं, योग तो कर्म की कु शलता है। असल में
जब जिंदगी अभिनय हो जाती है, तो दंश
चला जाता है, पीड़ा चली जाती है, कांटा
चला जाता है, फू ल ही रह जाता है, जब
अभिनय ही करना है तो क्रोध का किसलिए
करना, जब अभिनय ही करना है तो प्रेम का
ही किया जा सकता है। क्रोध का अभिनय
करने का क्या प्रयोजन है? जब अभिनय ही
करना है तो फिर क्रोध का सिर्फ पागल
अभिनय करेंगे। जब अभिनय ही करना है तो
प्रेम का ही हो सकता है। जब सपना ही
देखना है तो दीनता-दरिद्रता का क्यों देखना,
सम्राट होने का देखा जा सकता है।वे एक
सिद्ध हैं, जीवन की कला के एक पारंगत
और निपुण कलाकार। और जो भी वह इस
सिद्धावस्था में, मन की चरम अवस्था में
कहते हैं तुम्हे अहंकारपूर्ण लग सकता है, पर
ऐसा है नहीं। कठिनाई यह है कि कृ ष्ण को
उसी भाषाई "मैं" का प्रयोग करना पड़ता है
जिसका तुम करते हो। लेकिन उनके "मैं" के
प्रयोग में और तुम्हारे "मैं" के प्रयोग में बहुत
अंतर है। जब तुम "मैं" का प्रयोग करते हो,
तब उस का अर्थ है वह जो शरीर में कै द है
परमहंसहं दयाल स्वामी अद्वैतानन्द जी महाराज
परमहंसहं दयाल स्वामी अद्वैतानन्द जी महाराज
परमहंसहं दयाल स्वामी अद्वैतानन्द जी महाराज
परमहंसहं दयाल स्वामी अद्वैतानन्द जी महाराज
परमहंसहं दयाल स्वामी अद्वैतानन्द जी महाराज
परमहंसहं दयाल स्वामी अद्वैतानन्द जी महाराज
परमहंसहं दयाल स्वामी अद्वैतानन्द जी महाराज
परमहंसहं दयाल स्वामी अद्वैतानन्द जी महाराज
परमहंसहं दयाल स्वामी अद्वैतानन्द जी महाराज
परमहंसहं दयाल स्वामी अद्वैतानन्द जी महाराज
परमहंसहं दयाल स्वामी अद्वैतानन्द जी महाराज
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  • 1. Prabhunath College P A R S A , S A R A N , ( B I H A R ) समाज के टूटते बिखरते स्वरूप को सहेजने के लिए एकमात्र आदर्श व्यत्तित्व परमहंस दयाल स्वामी अद्वैतानन्द जी महाराज
  • 2. पूज्य पिता स्वर्गीय श्री पंडित नवल किशोर मिश्रा एवं पूजनीय माता जी स्वर्गीय श्रीमती अन्नपूर्णा मिश्रा जिनका गृहस्थ आश्रम का संपूर्ण जीवन मर्यादा पुरुषोत्तम की तरह व्यतीत हुआ। मर्यादा की रक्षा के लिए दोनों पति-पत्नी की जोड़ी ने अपने संपूर्ण खुशियों एवं सुख का त्याग कर दिया। सामूहिक रूप से देश चलाना बहुत ही आसान है लेकिन बृहद रूप वाला संयुक्त परिवार चलाना इस पृथ्वी का बहुत ही कठिन कार्य है क्योंकि निर्माण में समस्त अपनी व्यक्तिगत खुशियों एवं सुख सुविधाओं का तिलांजलि देकर इसमें जीना होता है जो कि आसान कार्य नहीं। गृहस्थ आश्रम में इस तरह के जीवन जीने वालों को हमारे वेद और उपनिषद ने गृहस्थ आश्रम का संत कहा है। पूज्य पिताजी एवं माता जी का त्याग तपस्या शब्दों से बयान नहीं किया जा सकता यह तो हमारे समाज का हर व्यक्ति जानता है। पूजनीय माताजी एवं पूज्य पिताजी अपने गृहस्थाश्रम में रहते हुए उन्होंने अपने माता की भक्ति, पिता की भक्ति, गुरु की भक्ति एवं समस्त भाइयों ,बहनों एवं समाज के हर व्यक्ति को हंसकर एवं प्यार देकर अपने जीवन में स्वागत किया। हमारे पिताजी हमेशा कहा करते थे की सुख बांटने का चीज है और दुख को पीना है त्याग जब आपका स्वभाव बन जाता है तो दुख आपको छू भी नहीं पाती जैसे हाथी को अपना शरीर भारी नहीं लगता है ठीक उसी प्रकार एक संयुक्त परिवार का मुखिया अपने खून से खींच कर परिवार का निर्माण करता है तो उसे दुख का आभास नहीं होता उसे त्याग में ही आनंद आता है हमारे पूज्य पिताजी एवं माताजी का त्याग तपस्या से बृहद परिवार का निर्माण हुआ आज परिवार का हर सदस्य अपने व्यक्तिगत गुणों को देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी प्रभावित कर रहे हैं। पूज्य पिता स्वर्गीय श्री नवल किशोर मिश्रा पूजनीय माता स्वर्गीय श्रीमती अन्नपूर्णा मिश्रा
  • 3.
  • 4. मनुष्य मात्र का ही समाज होता है और जब विभिन्न दायरा बनाकर जाति एवं संप्रदाय के आधार पर समाज का निर्माण करता है मनुष्य समाज का मूल स्वरूप के विकृ ति के रूप में सामने आता है जब तक आदर्श भूमिका के रूप में व्यक्तित्व प्रस्तुत नहीं किया जाएगा तब तक जीवन एवं समाज के सार्थकता का विघटन को रोका नहीं जा सकता सब को एक सूत्र में पिरोया नहीं जा सकता यह परम सौभाग्य की बात है हमारा भारत की मिट्टी में जन्म लिए ,ब्रह्म ज्ञानी लोग पूरे विश्व का भ्रमण करने के बाद ज्ञान का पताका पूरे समाज में फहराए ,जो आज दुनिया की सभी देशों में प्रभावित हो रही है आज साधु संतों का जो जीवन एवं कार्य एवं उपलब्धि को सारे समाज के सामने प्रस्तुत करें और समाज को सुंदर बनाएं तथा अपने जीवन को सत्यापित करें ,हम दुनिया से भाग नहीं सकते सब कु छ दुनिया के अंदर ही है कर्म तो करना ही पड़ेगा ,मनुष्य में उतनी ही शक्तियां है जितनी परमात्मा में है अंतर यह है कि यह शक्तियां मनुष्य में दबी होती है शांति की खोज आप संसार में कर रहे हैं ,संसार में शांति तो कहीं भी नहीं है हिंदू धर्म दुनिया का सबसे पुराना और आंतरिक अंतिम वैज्ञानिक धर्म है ,यह धर्म दुनिया को विज्ञान दिया उसे दृष्टि दी जीने की कला साहित्य दिया, संस्कृ ति विज्ञान दिया, विमान का विज्ञान दिया उसे दृष्टि भी जीने की कला दी , साहित्य दिया संस्कृ ति और विज्ञान दिया हमारा भारत देश का मूल सेवा और त्याग का प्रतीक है ,जिसे हम अपने महान भारत के प्रत्येक गतिविधि के माध्यम से शिक्षा प्रदान करते हुए आ रहे है ,मानवीय मूल्य और सामाजिक प्रतिबद्धता के साथ भारत देश का शिक्षा उत्कृ ष्टता का एक विशिष्ट वातावरण पैदा करती है भविष्य का भीषण चिंता आर्थिक सुधारों को सर्वनाश कर देती है भारत की साधु-संतों ने का व्यक्तित्व भक्ति प्रेम कथा के विभिन्न भाषाओं में बहा l साधु संतों की वाणी परमानंद को जानते हैं जिस प्रकार बूंद सागर में मिल जाता है और बूंद सागर हो जाता है l जिसे शरीर का ज्ञान हो जाता है उसे मृत्यु का भय भी खत्म हो जाता है ,भारत देश की साधु-संतों का उद्देश्य आत्मा का आत्मज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है, आनंद की स्वच्छता एवं व्यवहार में लाया गया ढाल समाज को मजबूती देता हैं, भारत के कोई भी धर्म के लोग आपस में मतभेद रखते है और नतीजा धर्म पहले और मनुष्यता बाद में हो जाती है l आनंद मनुष्य स्वभाव है और आनंद की कोई जाति नहीं होती उसका उसका कोई धर्म नहीं होता आनंद सकारात्मकता को बढ़ावा देती है मैं शरीर में हूं या शरीर में रहने वाला आत्मा धर्म की जिज्ञासा अपने प्रीतम की मधुर मिलन के लिए एक तरफ का वास्तविक स्वरूप चेतन का अनुभव करने लगता है प्रीतम की मधुर मिलन के लिए एक तरफ का वास्तविक स्वरूप स्वत: प्रकाशित होता है ,भारत देश के जितने भी साधु संत लोग हैं उनके जीवन और कार्य को सारे समाज के सामने उपस्थित करें और सारा समाज को सुंदर बनाया जा सकता है भारत देश साधु संतों का देश है यहां के ऋषि मुनि के इतिहास के बारे में लिखना या उनके व्यक्तित्व के बारे मे लिखना अपने आप में महती कार्य है ज्ञान बहुत बड़ा ज्ञान है यदि विश्व में ज्ञान का प्रकाश भारत से ही फै ला भारत की ऊर्जा उसकी अध्यात्मिक शक्ति में निहित है बाकी सभी देशों में भारत अन्य देशों से कमजोर हो सकता है लेकिन अध्यात्म के क्षेत्र में पूरा विश्व भारत की ओर देखता है अगर विश्व में किसी को अध्यात्म की शिक्षा चाहिए वह फ्रांस चीन रूस अमेरिका इंग्लैंड और जापान नहीं आता है अपितु वह भारत आता है यूरोपीय विद्वानों ने अपनी पूरी जिंदगी यहां के ज्ञान विज्ञान और भाषा सीखने में लगा दी , पदार्थ का सबसे छोटा कण परमाणु कहलाता है भारतीय दर्शन की विकास यात्रा आपको प्रारब्ध में आ गया तो कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है विद्वान कोई भी हो सकता है लेकिन यह जरूरी नहीं कि वह सत्य का आचरण करता हो बुद्ध वही है जो सत्य का आचरण करें वैज्ञानिक इंजीनियर अविष्कारक एडवोके ट आदि भी विद्वान है लेकिन यह जरूरी नहीं है कि वह सभी सत्य का पालन करते हो विद्वान और संत मैं बहुत अंतर है ,एक विद्वान ज्ञान एवं ग्रंथों पर आधारित है आध्यात्मिकता करनी और कथनी का विषय है साधना से ज्ञान अपने आप आ जाता है ,संत कबीर का उदाहरण ले लीजिए पढ़े-लिखे नहीं थे फिर भी अध्यात्म में सबसे आगे थे साहित्य में सदैव राष्ट्र और समाज में नई दिशा देने का कार्य किया है साहित्य जनमानस को सकारात्मक सोच तथा लोक कल्याण के कार्यों के लिए प्रेरणा देने का कार्य करता है रहा है , साहित्य में साहित्यिक व्यक्ति के चरित्र के निर्माण में बहुत अनोखा योगदान निभाता है ,चाहे वह अंग्रेजी साहित्य हो या हिंदी साहित्य हो ,क्योंकि साहित्य समाज का दर्पण होता है समाज का प्रतिबिंब होता है समाज का मार्गदर्शक होता है समाज का लेखा-जोखा रखा है ,किसी भी राष्ट्रीय सभ्यता की जानकारी उनके साहित्य से प्राप्त होती है साहित्य और समाज से वही संबंध है जो संबंध आत्मा और शरीर में होता है साहित्य समाज रूपी शरीर की आत्मा है ,साहित्य अजेय , अमर है ,विद्वानों का कहना है कि समाज और राष्ट्र नष्ट हो सकता है किंतु साहित्यिक कभी नष्ट नहीं हो सकता है
  • 5. मैं अपना अनुभव से भरा हुआ एक वक्तव्य बता रहा हूं जब भी किसी क्षेत्र में कोई व्यक्ति सफल होता है तो उसके पीछे कई असफलताएं छुपी होती है यही असफलताएं व्यक्ति के अनुभवों को योग्य बनाती है जिनकी बदौलत वह सफलता प्राप्त करता है कोई भी असफलता कभी बेकार नहीं जाती है आपसी प्रेम और एक दूसरे को सम्मान देने का प्रयास करना सफल लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए आवश्यक है आपसी कटुता के कारण हमारी समाज की एकता को तोड़ने की कोशिश की जाती है आप लोग बहुत ज्ञानी हैं विश्वास करें आपका नया विचार आपको अनुभवी बनाएगा सफलता की नई मार्ग बनाएगा और उन में जो बाधाएं आएंगी उनका भी हल ढूंढ लेगा यह सोचे कि आपका विचार महत्वपूर्ण है यह आपके वर्तमान कार्य को बेहतर ढंग से निपटाएगा नई सोच को विकसित करने का अर्थ है बेहतर परिणाम नई सोचा आपकी काम काज को प्रणाली को सुधारे मैं सहयोग करेगी उसे विकसित करेगी और इसी में आपको सफलता मिलेगी " सच्चा प्रेम वह है जिसमें कोई चाह न हो। जब कु छ चाहते नहीं हैं तो ईश्वर प्रेम और गुरु प्रेम ही शेष रहता है। परमात्मा और गुरुदेव हमसे प्रसन्न रहें यह चाह कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त कु छ चाह न हो। फिर प्रेम विशुद्ध हो जाता है। गुरुजन का भी प्रेम ऐसा ही विशुद्ध होता है। संत जनों की शिक्षा आत्मा- परमात्मा से संबंधित है। ईश्वर से प्रेम है तो उनके भक्तों, उसके सभी प्रियजनों से हमारा प्रेम होता है। उसके प्रेमियों से ईर्ष्या करें तो वह (परमात्मा) उससे प्रसन्न नहीं होगा। भक्ति में दीनता चाहिए, समर्पण होना चाहिए। छुपा- छुपाया अहं भी नहीं होना चाहिए। अहं प्रगति और प्रेम में बाधक है। अस्तित्व समाप्त होना है। अहं सूक्ष्म है। अपने अस्तित्व को साधना में भूलते हो। ज्ञान सहित भूलते हैं तो यही समाधि हुई। अपना अस्तित्व नकारते हुए अहं हटाकर समर्पण की प्राप्ति करनी है। जब तक अहं रहेगा दूरी बनी रहेगी। साधन- ध्यान करो, प्रेम बढ़ाओ, चाहों को कम करो, दीनता लाओ यह हमारे व्यवहार में आ जाए तो यही सदाचार है। बड़ों को सम्मान, छोटों को प्रेम तथा सेवा हो, यह शिष्टाचार है। प्रतिक्रिया होती हो, ईर्ष्या लाते हो तो यह सदाचार में कमी है। मिथ्या नहीं सत्य बोल रहे हो, धोखा नहीं कर रहे हो, यह सदाचार का क्रियान्वयन है। कथनी - करनी में अंतर नहीं रहे तो यह सदाचार की पराकाष्ठा होगी अर्थात सदाचार दुरुस्त हो गया। मनुष्यों में क्या चीज और प्राणियों से अलग है? सामान्य जीवन के भूख,प्यास, निद्रा आदि सभी प्राणियों में होते हैं। परंतु मनुष्य के पास एक चीज विशेष रूप से प्रदत्त है, वह है बुद्धि। उससे उसका विकास हो सकता है, बहुत काम हो सकता है। उससे दुनिया भर की खोज हो सकती है, अंत:की खोज भी हो सकती है। यह बुद्धि ईश्वरीय देन है। उसका सदुपयोग दुरुपयोग जो भी करना चाहो करो। निर्णय भी बुद्धि से होता है जो कार्य आत्म विकास की ओर ले जा रहे हैं वे ठीक हैं, जो उसके विपरीत ले जा रहे हैं वे अनुचित हैं। यदि कार्य जनकल्याण के लिए है तो अच्छी बात है। सभी का कल्याण होता है तो अच्छी बात है। आत्म उत्थान की दिशा में कार्य हो रहा है तो अच्छा है। इसके विपरीत होगा तो उससे हानि होगी और हमारा विकास रुक जाएगा। यह भी समझ नहीं आ रहा है तो परख के लिए सत-असत को समझ लो। अधोगति की ओर ले जाने वाले कार्य असत हैं। अतः देखना है कि हमारे आत्मोथान में बाधक हैं या सहायक हैं। यदि बाधक हैं तो गलत हैं,यदि सहायक है तो ठीक है- उसमें निर्णय आपको लेना होगा कि आत्मोत्थान हो रहा है या जनकल्याण हो रहा है अथवा नहीं। यदि नहीं हो रहा है तो ठीक नहीं है। देखना चाहिए कि हमारी सुख सुविधाएं बढ़ेंगी या दिक्कतें होंगी। मनुष्यों में क्या चीज और प्राणियों से अलग है? सामान्य जीवन के भूख,प्यास, निद्रा आदि सभी प्राणियों में होते हैं। परंतु मनुष्य के पास एक चीज विशेष रूप से प्रदत्त है, वह है बुद्धि। उससे उसका विकास हो सकता है, बहुत काम हो सकता है। उससे दुनिया भर की खोज हो सकती है, अंत:की खोज भी हो सकती है। यह बुद्धि ईश्वरीय देन है। उसका सदुपयोग दुरुपयोग जो भी करना चाहो करो। निर्णय भी बुद्धि से होता है जो कार्य आत्म विकास की ओर ले जा रहे हैं वे ठीक हैं, जो उसके विपरीत ले जा रहे हैं वे अनुचित हैं। यदि कार्य जनकल्याण के लिए है तो अच्छी बात है। सभी का कल्याण होता है तो अच्छी बात है। आत्म उत्थान की दिशा में कार्य हो रहा है तो अच्छा है। इसके विपरीत होगा तो उससे हानि होगी और हमारा विकास रुक जाएगा। यह भी समझ नहीं आ रहा है तो परख के लिए सत-असत को समझ लो। अधोगति की ओर ले जाने वाले कार्य असत हैं। अतः देखना है कि हमारे आत्मोथान में बाधक हैं या सहायक हैं। यदि बाधक हैं तो गलत हैं,यदि सहायक है तो ठीक है- उसमें निर्णय आपको लेना होगा कि आत्मोत्थान हो रहा है या जनकल्याण हो रहा है अथवा नहीं। यदि नहीं हो रहा है तो ठीक नहीं है। देखना चाहिए कि हमारी सुख सुविधाएं बढ़ेंगी या दिक्कतें होंगी। मुख्य बात यह है कि साधन (मींस) क्या है। बुद्धि संकु चित नहीं होनी चाहिए बल्कि विशाल होना चाहिए तो हमारे लिए बंधन का कारण नहीं बनेगी। जो अनावश्यक चीजें हैं उनके संग्रह का प्रयास ठीक नहीं है, यह बुद्धि से निर्णय करेंगे। जो हमें विशेषत: दिया गया है उससे विशेष अपेक्षा होती है। इसका उपयोग वैज्ञानिक खोज में, प्रकृ ति की खोज में तथा आत्म विकास या अध्यात्म में कर सकते है लिए बंधन का कारण नहीं बनेगी। जो अनावश्यक चीजें हैं उनके संग्रह का प्रयास ठीक नहीं है, यह बुद्धि से निर्णय करेंगे। जो हमें विशेषत: दिया गया है उससे विशेष अपेक्षा होती है। इसका उपयोग वैज्ञानिक खोज में, प्रकृ ति की खोज में तथा आत्म विकास या अध्यात्म में कर सकते है चाह किरण सूर्य की हो या आशा की जब भी निकलती है तो सभी अंधकारो को मिटा देती हैं मनुष्य प्रकृ ति का पूर्णरूपेण अंश और व्यक्तित्व का नाम समस्त प्रकृ तिक संख्या और प्रकृ ति मनुष्य में हमेशा रहता है अगर हम अंधकार से प्रकाश की ओर ले जा रहे हैं इस दिव्य प्रकाश मे हम बिहार वासी आत्म अवलोकन करेंगे। प्राचार्य डॉ० पुष्प राज गौतम
  • 6. सभी छात्र-छात्राओं, शिक्षकों एवं ग्रामीण लोगों के चहेते प्राचार्य
  • 7.
  • 8.
  • 9.
  • 10.
  • 11.
  • 12.
  • 13. जितना आगे बढता जाता है प्रेम भी बढ़ता जाता है और जो कु छ इच्छाएं बीज रुप में मौजूद भी हैं वे जलकर राख हो जाती हैं। जितनी सफाई होती जाती है उतनी ही तेजी उसकी रफ़्तार (गति) में भी होती जाती है। और एक दिन दोनों मिलकर एक हो जाते हैं। यही फ़ज्ल (कृ पा) का तरीक़ा है जिसमें न कु छ अभ्यास है न कु छ मशक्कत है और न रियाज़त।सिर्फ प्रेम को जगाना होता है। परमात्मा से प्रेम प्रारम्भ में बिरले ही किसी को होता है और प्रारंभ में परमात्मा का प्रेम प्राप्त करने का प्रयत्न करना समय का व्यर्थ खोना है।यदि वास्तव में कोई मनुष्य परमात्मा के प्रेम का इच्छुक है और संसार से उदासीन हो चुका है तो सबसे सरल और जल्दी का उपाय यह है कि ऐसे महापुरुष की तलाश करें जो परमात्मा का सच्चा प्रेमी है। अगर सौभाग्यवश ऐसा कोई व्यक्ति मिल जाए तो मजबूती से उसका दामन पकड़ ले। ऐसे सन्त का मिलना बडा मुश्किल है।अगर न मिल सके तो किसी साधु का सहारा ले, यानी जो इस रास्ते पर चल रहा है और कु छ रास्ता तय कर चुका है ऐसे भक्त का सहारा लेकर उसके आदेशों पर चले।सब तरफ़ से तवियत को हटाकर उसकी शरण में आये। उनमे पूरी श्रद्धा रखे कि यह समर्थ हैं और मेरा उद्धार इनसे जरूर होगा।उनके आदेशों को सर्वोपरि मानकर बिना किसी हिचकिचाहट और संशय के उसका पालन करे।चाहे वह बुद्धि तथा सांसारिक धर्मशास्त्र के विपरीत ही क्यों न मालूम होते हों।यदि पूरा आदेश पालन करेगा और सेवा करेगा तो बिना परिश्रम किये बहुत शीघ्र ही उनके बेशवहार कमाई का वारिश होगा (अमूल्य अक्षय-प्रेम-भंडार का उत्तराधिकारी होगा)और दुनियाँ की इच्छाओं और प्यार से ऊपर आता जाएगा।धन-दौलत से उपराम होकर,मन की वासनाओं को जीत लेने के बाद बुद्धि की बारी आती है।अपनी बुद्धि को उनकी बराबरी में तुच्छ समझे।यही सच्ची दीनता है।बुद्धि के फं दे में न फं से वर्ना सब करा-कराया नष्ट हो जाएगा । जब आत्मा के ऊपर से तमाम भोगों और वासनाओं के पर्दे हट जाते हैं और आत्मा नंगी (पर्दा विहीन) हो जाती है तो परमात्मा का प्रेम,जो असल है,जाग उठता है ।यही परमार्थ का बनना है।अब जीव की खिंचावट परमात्मा की ओर होती जाती है। परम सन्त महात्मा डॉ श्रीकृ ष्ण लाल जी महाराज के उपदेश सन्त-वचन भाग 2 सन्त मत का आधार गुरु-प्रेम सम्मनित शिक्षिका डॉ० पूनम कु मारी
  • 14. दूसरे शब्दों में राष्ट्रभाषा से तात्पर्य है–किसी राष्ट्र की जनता की भाषा। . राष्ट्रभाषा की आवश्यकता–मनुष्य के मानसिक और बौद्धिक विकास के लिए भी राष्ट्रभाषा आवश्यक है।मनुष्य चाहे जितनी भी भाषाओं का ज्ञान प्राप्त कर ले, परन्तु अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए उसे अपनी भाषा की शरण लेनी ही पड़ती है। इससे उसे मानसिक सन्तोष का अनुभव होता है। इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने के लिए भी राष्ट्रभाषा की आवश्यकता होती है। भारत में राष्ट्रभाषा की समस्या–स्वतन्त्रता– प्राप्ति के बाद देश के सामने अनेक प्रकार की समस्याएँ विकराल रूप लिए हुए थीं। उन समस्याओं में राष्ट्रभाषा की समस्या भी थी। कानून द्वारा भी इस समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता था। इसका मुख्य कारण यह है कि भारत एक विशाल देश है और इसमें अनेक भाषाओं को बोलनेवाले व्यक्ति निवास करते हैं; अत: किसी–न–किसी स्थान से कोई–न–कोई विरोध राष्ट्रभाषा के राष्ट्रस्तरीय प्रसार में बाधा उत्पन्न करता रहा है। इसलिए भारत में राष्ट्रभाषा की समस्या सबसे जटिल समस्या बन गई है। राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को मान्यता– संविधान का निर्माण करते समय यह प्रश्न उठा था कि किस भाषा को राष्ट्रभाषा बनाया जाए। प्राचीनकाल में राष्ट्र की भाषा संस्कृ त थी। धीरे–धीरे अन्य प्रान्तीय भाषाओं की उन्नति हुई और संस्कृ त ने अपनी पूर्व–स्थिति को खो दिया। मुगलकाल में उर्दू का विकास हुआ। अंग्रेजों के शासन में अंग्रेजी ही सम्पूर्ण देश की भाषा बनी। अंग्रेजी हमारे जीवन में इतनी बस गई कि अंग्रेजी शासन के समाप्त हो जाने पर भी देश से अंग्रेजी के प्रभुत्व को समाप्त नहीं किया जा सका। इसी के प्रभावस्वरूप भारतीय संविधान द्वारा हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित कर देने पर भी उसका समुचित उपयोग नहीं किया जा रहा है। यद्यपि हिन्दी एवं अहिन्दी भाषा के अनेक विद्वानों ने राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी का समर्थन किया है, तथापि आज भी हिन्दी को उसका गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं हो सका है।किसी भी देश में सबसे अधिक बोली एवं समझी जानेवाली भाषा ही वहाँ की राष्ट्रभाषा होती है। प्रत्येक राष्ट्र का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व होता है, उसमें अनेक जातियों, धर्मों एवं भाषाओं के लोग रहते हैं; अतः राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ बनाने के लिए एक ऐसी भाषा की आवश्यकता होती है, जिसका प्रयोग राष्ट्र के सभी नागरिक कर सकें तथा राष्ट्र के सभी सरकारी कार्य उसी के माध्यम से किए जा सकें ।ऐसी व्यापक भाषा ही राष्ट्रभाषा कही जाती है। दूसरे शब्दों में राष्ट्रभाषा से तात्पर्य है–किसी राष्ट्र की जनता की भाषा। . राष्ट्रभाषा की आवश्यकता–मनुष्य के मानसिक और बौद्धिक विकास के लिए भी राष्ट्रभाषा आवश्यक है।मनुष्य चाहे जितनी भी भाषाओं का ज्ञान प्राप्त कर ले, परन्तु अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए उसे अपनी भाषा की शरण लेनी ही पड़ती है। इससे उसे मानसिक सन्तोष का अनुभव होता है। इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने के लिए भी राष्ट्रभाषा की आवश्यकता होती है। भारत में राष्ट्रभाषा की समस्या–स्वतन्त्रता–प्राप्ति के बाद देश के सामने अनेक प्रकार की समस्याएँ विकराल प्रत्येक राष्ट्र का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व होता है, उसमें अनेक जातियों, धर्मों एवं भाषाओं के लोग रहते हैं; अतः राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ बनाने के लिए एक ऐसी भाषा की आवश्यकता होती है, जिसका प्रयोग राष्ट्र के सभी नागरिक कर सकें तथा राष्ट्र के सभी सरकारी कार्य उसी के माध्यम से किए जा सकें ।ऐसी व्यापक भाषा ही राष्ट्रभाषा कही जाती है। मां की भाषा है हमारी मातृभाषा हिंदी रूप लिए हुए थीं। उन समस्याओं में राष्ट्रभाषा की समस्या भी थी। कानून द्वारा भी इस समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता था। इसका मुख्य कारण यह है कि भारत एक विशाल देश है और इसमें अनेक भाषाओं को बोलनेवाले व्यक्ति निवास करते हैं; अत: किसी–न–किसी स्थान से कोई–न–कोई विरोध राष्ट्रभाषा के राष्ट्रस्तरीय प्रसार में बाधा उत्पन्न करता रहा है। इसलिए भारत में राष्ट्रभाषा की समस्या सबसे जटिल समस्या बन गई है। राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को मान्यता– संविधान का निर्माण करते समय यह प्रश्न उठा था कि किस भाषा को राष्ट्रभाषा बनाया जाए। प्राचीनकाल में राष्ट्र की भाषा संस्कृ त थी। धीरे–धीरे अन्य प्रान्तीय भाषाओं की उन्नति हुई और संस्कृ त ने अपनी पूर्व–स्थिति को खो दिया। मुगलकाल में उर्दू का विकास हुआ। अंग्रेजों के शासन में अंग्रेजी ही सम्पूर्ण देश की भाषा बनी।अंग्रेजी हमारे जीवन में इतनी बस गई कि अंग्रेजी शासन के समाप्त हो जाने पर भी देश से अंग्रेजी के प्रभुत्व को समाप्त नहीं किया जा सका। इसी के प्रभावस्वरूप भारतीय संविधान द्वारा हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित कर देने पर भी उसका समुचित उपयोग नहीं किया जा रहा है। यद्यपि हिन्दी एवं अहिन्दी भाषा के अनेक विद्वानों ने राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी का समर्थन किया है, तथापि आज भी हिन्दी को उसका गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं हो सका है।राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी के विकास में उत्पन्न बाधाएँ–स्वतन्त्र भारत के संविधान में
  • 15. हिन्दी को ही राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया गया, परन्तु आज भी देश के अनेक प्रान्तों ने इसे राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार नहीं किया है। हिन्दी संसार की सबसे अधिक सरल, मधुर एवं वैज्ञानिक भाषा है, फिर भी हिन्दी का विरोध जारी है।हिन्दी की प्रगति और उसके विकास की भावना का स्वतन्त्र भारत में अभाव है। राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी की प्रगति के लिए के वल सरकारी प्रयास ही पर्याप्त नहीं होंगे; वरन् इसके लिए जन–सामान्य का सहयोग भी आवश्यक है। हिन्दी के पक्ष एवं विपक्ष सम्बन्धी विचारधारा–हिन्दी भारत के विस्तृत क्षेत्र में बोली जानेवाली भाषा है, जिसे देश के लगभग 35 करोड़ व्यक्ति बोलते हैं। यह सरल तथा सुबोध है और इसकी लिपि भी इतनी बोधगम्य है कि थोड़े अभ्यास से ही समझ में आ जाती है। फिर भी एक वर्ग ऐसा है, जो हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार नहीं करता। इनमें अधिकांशत: वे व्यक्ति हैं, जो अंग्रेजी के अन्धभक्त हैं या प्रान्तीयता के समर्थक। उनका कहना है कि हिन्दी के वल उत्तर भारत तक ही सीमित है। उनके अनुसार यदि हिन्दी को राष्ट्रभाषा बना दिया गया तो अन्य प्रान्तीय भाषाएँ महत्त्वहीन हो जाएँगी। इस वर्ग की धारणा है कि हिन्दी का ज्ञान उन्हें प्रत्येक क्षेत्र में सफलता प्रदान नहीं कर सकता। इस दृष्टि से इनका कथन है कि अंग्रेजी ही विश्व की सम्पर्क भाषा है; अतः यही राष्ट्रभाषा हो सकती है।हिन्दी के विकास सम्बन्धी प्रयत्न–राष्ट्रभाषा हिन्दी के विकास में जो बाधाएँ आई हैं; उन्हें दूर किया जाना चाहिए। देवनागरी लिपि पूर्णत: वैज्ञानिक लिपि है, किन्तु उसमें वर्णमाला, शिरोरेखा, मात्रा आदि के कारण लेखन में गति नहीं आ पाती। हिन्दी व्याकरण के नियम अहिन्दी– भाषियों को बहुत कठिन लगते हैं। इनको भी सरल बनाया जाना चाहिए, जिससे वे भी हिन्दी सीखने में रुचि ले सकें । के न्द्रीय सरकार ने ‘हिन्दी निदेशालय की स्थापना करके हिन्दी के विकास–कार्य को गति प्रदान की है। इसके अतिरिक्त नागरी प्रचारिणी सभा, हिन्दी–साहित्य सम्मेलन आदि संस्थानों ने भी हिन्दी के विकास तथा प्रचार व प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।हिन्दी के प्रति हमारा कर्तव्य–हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है, उसकी उन्नति ही हमारी उन्नति है। भारतेन्द हरिश्चन्द्र ने कहा था–निजभाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल। बिनु निजभाषा ज्ञान के , मिटत न हिय को सूल।। अतः हमारा कर्त्तव्य है कि हम हिन्दी के प्रति उदार दृष्टिकोण अपनाएँ। हिन्दी के अन्तर्गत विभिन्न प्रान्तीय भाषाओं की सरल शब्दावली को अपनाया जाना चाहिए। भाषा का प्रसार नारों से नहीं होता, वह निरन्तर परिश्रम और धैर्य से होता है। हिन्दी व्याकरण का प्रमाणीकरण भी किया जाना चाहिए।राष्ट्रभाषा हिन्दी का भविष्य उज्ज्वल है। यदि हिन्दी–विरोधी अपनी स्वार्थी भावनाओं को त्याग सकें और हिन्दीभाषी धैर्य, सन्तोष और प्रेम से काम लें तो हिन्दी भाषा भारत के लिए समस्या न बनकर राष्ट्रीय जीवन का आदर्श बन जाएगी। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता के सन्दर्भ में कहा था– “मैं हमेशा यह मान रहा हूँ कि हम किसी भी हालत में प्रान्तीय भाषाओं को नुकसान पहुंचाना या मिटाना नहीं चाहते। हमारा मतलब तो सिर्फ यह है कि विभिन्न प्रान्तों के पारस्परिक सम्बन्ध के लिए हम हिन्दी–भाषा सीखें। ऐसा कहने से हिन्दी के प्रति हमारा कोई पक्षपात प्रकट नहीं होता। हिन्दी को हम राष्ट्रभाषा मानते हैं। वही भाषा राष्ट्रभाषा बन सकती है, जिसे सर्वाधिक संख्या में लोग जानते–बोलते हों और जो सीखने में सुगम हो।” प्राचार्य डॉ० पुष्प राज गौतम
  • 16. किसी भी प्रकार की विद्या हो अथवा ज्ञान हो, उसे किसी दक्ष गुरु से ही सीखना चाहिए। जप, तप, यज्ञ, दान आदि में भी गुरु का दिशा निर्देशन जरूरी है कि इनकी विधि क्या है? अविधिपूर्वक किए गए सभी शुभ कर्म भी व्यर्थ ही सिद्ध होते हैं जिनका कोई उचित फल नहीं मिलता। स्वयं की अहंकार की दृष्टि से किए गए सभी उत्तम माने जाने वाले कर्म भी मनुष्य के पतन का कारण बन जाते हैं। भौतिकवाद में भी गुरू की आवश्यकता होती है। सबसे बड़ा तीर्थ तो गुरुदेव ही हैं जिनकी कृ पा से फल अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं। गुरुदेव का निवास स्थान शिष्य के लिए तीर्थ स्थल है। उनका चरणामृत ही गंगा जल है। वह मोक्ष प्रदान करने वाला है। गुरु से इन सबका फल अनायास ही मिल जाता है। मनुष्य का अज्ञान यही है कि उसने भौतिक जगत को ही परम सत्य मान लिया है और उसके मूल कारण चेतन को भुला दिया है जबकि सृष्टि की समस्त क्रियाओं का मूल चेतन शक्ति ही है। चेतन मूल तत्व को न मान कर जड़ शक्ति को ही सब कु छ मान लेनाअज्ञानता है। इस अज्ञान का नाश कर परमात्मा का ज्ञान कराने वाले गुरू ही होते हैं। किसी गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रथम आवश्यकता समर्पण की होती है। समर्पण भाव से ही गुरु का प्रसाद शिष्य को मिलता है। शिष्य को अपना सर्वस्व श्री गुरु देव के चरणों में समर्पित कर देना चाहिए। इसी संदर्भ में यह उल्लेख किया गया है यह तन विष की बेलरी, और गुरू अमृत की खान, शीश दियां जो गुरू मिले तो भी सस्ता जान। गुरु ज्ञान गुरु से भी अधिक महत्वपूर्ण है। प्राय: शिष्य गुरु को मानते हैं पर उनके संदेशों को नहीं मानते। इसी कारण उनके जीवन में और समाज में अशांति बनी रहती है। गुरु के वचनों पर शंका करना शिष्यत्व पर कलंक है। जिस दिन शिष्य ने गुरु को मानना शुरू किया उसी दिन से उसका उत्थान शुरू शुरू हो जाता है और जिस दिन से शिष्य ने गुरु के प्रति शंका करनी शुरू की, उसी दिन से शिष्य का पतन शुरू हो जाता है सद्गुरु एक ऐसी शक्ति है जो शिष्य की सभी प्रकार के मनुष्य रूप में नारायण ही हैं। मैं उनके चरण कमलों की वन्दना करता हूँ। जैसे सूर्य के निकलने पर अन्धेरा नष्ट हो जाता है, वैसे ही उनके वचनों से मोहरूपी अन्धकार का नाश हो जाता है। गुरुदेव तुम्हारे चरणों मे सतकोटि प्रणाम हमारा है। शिक्षिका पल्लवी कु मारी कि ताप-शाप से रक्षा करती है। शरणा गत शिष्य के दैहिक, दैविक, भौतिक कष्टों को दूर करने एवं उसे बैकुं ठ धाम में पहुंचाने का दायित्व गुरु का होता है। आनन्द अनुभूति का विषय है। बाहर की वस्तुएँ सुख दे सकती हैं किन्तु इससे मानसिक शांति नहीं मिल सकती। शांति के लिए गुरु चरणों में आत्म समर्पण परम आवश्यक है। सदैव गुरुदेव का ध्यान करने से जीव नारायण स्वरूप हो जाता है। वह कहीं भी रहता हो, फिर भी मुक्त ही है। ब्रह्म निराकार है। इसलिए उसका ध्यान करना कठिन है। ऐसी स्थिति में सदैव गुरुदेव का ही ध्यान करते रहना चाहिए। गुरुदेव नारायण स्वरूप हैं। इसलिए गुरु का नित्य ध्यान करते रहने से सभी साधनों को छोड़कर के वल नारायण स्वरूप गुरु की शरणगत हो जाना चाहिए। वे उसके सभी पापों का नाश कर देंगे। शोक नहीं करना चाहिए। जिनके दर्शन मात्र से मन प्रसन्न होता है, अपने आप धैर्य और शांति आ जाती हैं, वे परम गुरु हैं। जिनकी रग-रग में ब्रह्म का तेज व्याप्त है, जिनका मुख मण्डल तेजोमय हो चुका है, उनके मुख मण्डल से ऐसी आभा निकलती है कि जो भी उनके समीप जाता है वह उस तेज से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। उस गुरु के शरीर से निकलती वे अदृश्य किरणें समीपवर्ती मनुष्यों को ही नहीं अपितु पशु पक्षियों को भी आनन्दित एवं मोहित कर देती है। उनके दर्शन मात्र से ही मन में बड़ी प्रसनन्ता व शांति का अनुभव होता है। मन की संपूर्ण उद्विग्नता समाप्त हो जाती है।
  • 17. ज्ञान व्यक्ति के नजरिए को व्यापक बनाता है विचारों को विस्तार करता है और व्यवहार को निखार ता है ज्ञान जीवन में व्याप्त भ्रम और गलतफमिया को दूर करता है उत्साह और उत्सुकता बढ़ाता है और मन के भ्रम को दूर करता है बुद्धि के कहने में मत चलो।अगर गुरु मौज़ूद नहीं हैं तो अपने बड़े भाई से मदद लो। संतों की वाणी देखो।जितनी किताबें संतों ने लिखी हैं, जिनमें उनकी वाणी है उनको देखो। सभी संत जो गुज़र चुके , चाहे वह किसी भी मत के हों हमारे गुरु हैं। गुरु के कहने पर चलने में ही भलाई है।मैंने अपने तज़ुर्बे से देखा है कि जहां मैंने गुरु का कहना नहीं माना वहीं धोखा खाया। मेरी जिंदगी के तज़ुर्बे का तुम भी फायदा उठाओ। गुरु के कहने पर सख्ती से चलो चाहे कितनी भी मुश्किलें सामने आएं। किसी भी लोकतांत्रिक देश में सबसे प्रथम और सबसे बड़ा पद राष्ट्रपति का होता है लेकिन दुनिया यह समझ ले शिक्षक से बड़ा पद इस संसार में बना ही नहीं अब तक महामहिम रामनाथ कोविंद अपने बीएनएसडी इंटर कॉलेज कानपुर गए और प्रोटोकॉल को तोड़कर अपने गुरुजनों का सम्मान कै से किया यह आज के छात्रों को सीखना चाहिए सम्मनित शिक्षिका डॉ० पूनम कु मारी डॉक्टर पुष्पराज गौतम सभी छात्र छात्राओं के चहेते प्राचार्य
  • 18. इसलिए सदा अच्छा सोचिए और खुश रहे हंसते रहिए सदा मुस्कु राते रहिए बड़े भाई आप मैं बहुत सारी ऊर्जा है आप मैं ऊर्जा रूपी दिव्य प्रकाश में अपने आप को अवलोकन करते हुए सकारात्मक सोच ते हुए आगे बढ़ते रहना चाहिए अपने पिता के रास्ते पर चलकर मिलो दूरी तय करने के बाद आगे बढ़ते जाना है और सफलता पा लेना है क्योंकि आप में ऊर्जा का भंडार है इसी तरह आगे बढ़ते जाना है एक प्रचलित कथा के अनुसार किसी गांव में एक संत का आगमन हुआ। संत बहुत ही सरल स्वभाव के थे। उनके पास आने लोगों को ज्ञान की सही बातें बताते थे। इस कारण गांव में उनकी ख्याति काफी फै ल गई थी। संत की प्रसिद्धि देखकर एक पंडित उनसे घृणा करने लगा। पंडित को डर था कि अगर संत के पास सभी लोग जाने लगेंगे तो उसका धंधा चौपट हो जाएगा। इसीलिए पंडित ने गांव में संत के लिए गलत बातें फै लाना शुरू कर दी। एक दिन संत के शिष्य को ये मालूम हुआ तो वह क्रोधित हो गया। शिष्य तुरंत ही अपने गुरु के पास आया और बोला कि गुरुदेव वह पंडित आपके बारे झूठी बातें फै ला रहा है। हमें उसे जवाब देना चाहिए। संत ने कहा कि तुम गुस्सा न करो, क्योंकि अगर उसे जवाब देंगे तो क्या ये बातें फै लना बंद हो जाएंगी? ये बातें तो होती रहेंगी। इसीलिए हमें उसे जवाब देने में समय बर्बाद नहीं करना चाहिए। संत ने शिष्य को समझाया कि जब हाथी चलता है तो कु त्ते भौंकते ही हैं। अगर हाथी उन कु त्तों से लड़ने लगेगा तो उसका ही कद छोटा हो जाएगा, वह कु त्तों के समान माना जाएगा। इसीलिए हाथी कु त्तों के भौंकने पर ध्यान नहीं देता है। वह आराम से अपने रास्ते चलते रहता है। ये बातें सुनकर शिष्य का क्रोध शांत हो गया। हमें बुराई करने वालों को जवाब देने में समय बर्बाद नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने पर हमारा ही नुकसान है। हमें सिर्फ अपने काम पर ध्यान देना चाहिए। बुराई करने वाले लोग कभी शांत नहीं हो सकते हैं। इसीलिए ऐसी बातों पर क्रोधित नहीं होना चाहिए इस दुनिया में हर सफलता की शुरुआत एक सृजनशील विचार से होती है सबसे पहले विचार आता है फिर उसमें विश्वास की ताकत डाली जाती है विचार को फलीभूत करने के साधन निर्मित होते हैं और अंततः विचार भौतिक आकार ले लेता है ऐसा माना जाता है विचार ही हमारी असली दौलत है जो कभी खत्म नहीं होती विचारों में असीम शक्ति छिपी होती है विचारों से आप अपने परिस्थितियां बदल सकते हैं समस्याएं सुलझा सकते हैं दुनिया की हर चीज पहले इंसान की कल्पनाओं में जन्म लेती है आपकी सफलता का आधार आपका नजरिया है यदि आपका नजरिया आशावादी है तो जीवन के सभी रास्ते आपके लिए खुले हैं हमेशा अपनी आशावादी सोच बनाएं बड़ा सोचिए और स्वयं पर विश्वास करें अपना नजरिया बदल कर हम अपनी वर्तमान परिस्थितियों में मनचाहा बदलाव ला सकते हैं यदि हम अपने बारे में एक सकारात्मक छवि बना ले तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होगा आप ठीक वैसा ही जीवन जीना आरंभ कर देंगे जैसा कि आप जीना चाहते है वास्तव में हमारी सोच का एक बड़ा सिद्धांत है विस्तार आप जिस विचार पर अपना ध्यान कें द्रित करेंगे वह फै लता जाएगा बढ़ता चला जाएगा मन में उठा कोई विचार या ख्याल उर्जा रूपी प्रकाश में अवलोकन करते हुए सकारात्मक सोचना चाहिए सोच का प्रभाव मन पर होता है मन का प्रभाव तन पर होता है तन और मन दोनों का प्रभाव सारी जीवन पर होता है नकारात्मक हो सकता है लेकिन उसके प्रति आपकी प्रतिक्रिया सकारात्मक होनी चाहिए अगर आप सोचना शुरु कर देंगे जीवन में सकारात्मक शक्तियां सक्रिय हो उठेगीबहुत- से दार्शनिकों का मानना है कि सृष्टि का आधार ही विचार है मनुष्य के पास उपलब्ध प्रत्येक वस्तु का जन्म विचार की कोख से ही होता है विचारों से ही मानव जाति विकसित होती आई है आत्मविश्वास को विकसित करना भी एक कला है जिसे आसानी से सीखा जा सकता है हम जैसा सोचते हैं या विचार करते हैं हमारे मन में ठीक वैसा ही भाव पैदा होता है शिक्षिका निधि राय
  • 19. पद्म का अर्थ है- ‘कमल का पुष्प’। चूंकि सृष्टि-रचयिता ब्रह्माजी ने भगवान नारायण के नाभि-कमल से उत्पन्न होकर सृष्टि-रचना संबंधी ज्ञान का विस्तार किया था, इसलिए इस पुराण को पद्म पुराण की संज्ञा दी गई है। माता सर्वतीर्थ मयी और पिता सम्पूर्ण देवताओं का स्वरूप हैं इसलिए सभी प्रकार से यत्नपूर्वक माता-पिता का पूजन करना चाहिए। जो माता-पिता की प्रदक्षिणा करता है, उसके द्वारा सातों द्वीपों से युक्त पृथ्वी की परिक्रमा हो जाती है। माता-पिता अपनी संतान के लिए जो क्लेश सहन करते हैं, उसके बदले पुत्र यदि सौ वर्ष माता-पिता की सेवा करे, तब भी वह इनसे उऋण नहीं हो सकता। नास्ति मातृसमा छाया, नास्ति मातृसमा गतिः। हम सभी का जीवन हमारे माता- पिता की देन ही हैं. ईश्वर द्वारा प्रदत्त बेशकीमती उपहारों में से एक हमारे माँ बाप होते हैं. हमें अपने जीवन के प्रत्येक मोड़ पर उनके साथ और आशीर्वाद की जरूरत रहती हैं. जब से इस धरती पर हमारा अस्तित्व शुरू होता हैं, उससे पूर्व नौ माह तक माँ हमें अपने गर्भ में रखती हैं पोषण देती हैं तथा पाल पोषकर बड़ा करती हैं. के वल माँ बाप ही बिना किसी पूर्व शर्त के हमारी देखभाल करते है तथा खुद हजारों कष्ट सहनकर भी हमें पैरों पर खड़ा होने के लायक बनाते हैं. हमारा भी उनके प्रति दायित्व हैं कि हम अपने माता- पिता का सम्मान करें उनकी के यर करें.माँ को ममता और प्यार की प्रतिमूर्ति कहा जाता हैं, वह अपनी सन्तान को सबसे बढ़कर लाड दुलार देकर संरक्षण देती हैं, माँ की गोदी में बालक स्वयं को सबसे अधिक सुरक्षित और गौरवशाली महसूस करता हैं. हमारे माता- पिता सदैव हमारी सफलता और सम्रद्धि की कामना करते हैं. हमारी ख़ुशी और सफलता में ही उनकी ख़ुशी दिखती हैं. अपने जीवन के सर्वोच्च सुखो का बलिदान देकर यहाँ तक कि स्वयं भूखे पेट सोकर माँ बाप अपनी सन्तान का पालन पोषण करते हैं.एक बालक के जीवन में सबसे महत्वपूर्ण योगदान माता-पिता का होता हैं, भले ही वे बालक बड़े होकर उनका सम्मान आदर व सेवा करे या नहीं करें. परन्तु वे सदैव उन्हें सुभाशीष ही देते हैं. बालक मानसिक और शारीरिक रूप से समग्र विकास को प्राप्त करें इसके लिए अभावों में गुजारा करके भी अभिभावक झूठी मुस्कान के जरिये भी अपनी सन्तान को अभाव का आभास नहीं होने देते हैं. हमारी भारतीय सनातन संस्कृ ति प्रत्येक बालक को अपने माता-पिता के प्रति सम्मान करने, सवेरे उठकर उनके चरण छू कर आशीर्वाद लेने के संस्कार देता हैं. हमारी प्राचीन शिक्षा में पेरेंट्स और बड़े बूढों को सम्मान देने की परम्परा और आदर्श उस दौर के समाज में थे. मगर आधुनिक पाश्चात्य विचारों से प्रेरित हमारी शिक्षा व्यवस्था में बच्चों और पेरेंट्स के उन गहरे रिश्तों को परिभाषित करने में पूर्णतया विफल रही हैं. निसंदेह मैं और आप आज जो कु छ भी हैं वह हमारे माता-पिता की देन हैं, हमारी कामयाबी और जीवन के इस सफर में बूढ़े माँ बाप ने हाडतोड़ पसीने की कमाई की बदौलत हैं. उनका ऋण सम्भवतया कभी अदा नहीं किया जा सके गा. फिर भी एक पुत्र या पुत्री के रूप में हमें अपने कर्तव्यों/ दायित्वों का भली प्रकार के निर्वहन करना महर्षि वेदव्यास द्वारा संस्कृ त भाषा में रचित 18 पुराणों में से एक ‘पद्म पुराण’ है, जिसे ग्रंथ कहा जाता है। समस्त अठारह पुराणों की गणना में यह पुराण द्वितीय स्थान पर है और श्लोक संख्या में भी इसे दूसरा स्थान प्राप्त है। माता सर्वतीर्थ मई व पिता सम्पूर्ण देवताओं का है स्वरूप चाहिए. हमारी युवा पीढ़ी आज दिग्भ्रमित प्रतीत होती हैं, इसका प्रमाण आज के वृद्धाश्रम हैं.ये ओल्ड ऐज होम की व्यवस्था कभी भी हमारे समाज का अंग नहीं थी.मगर जब बेटे बेटियों ने पेरेंट्स के महत्व और उनके ऋण को भुलाया तो आज ये सामान्य हैं. असहाय हालात में वृद्ध माता-पिता को घर से लज्जित कर निकाल दिया जाता हैं, बीबी के कहने के कारण या इन्हें बोझ समझकर न के वल आज के युवा अपनों से दूर होते हैं बल्कि अपने बच्चों को दादी दादी के सुख से भी अलाहदा कर रहे हैं. हमें विचार करना चाहिए, आज जो व्यवहार हम अपने पेरेंट्स के प्रति कर रहे हैं कल यही लौटकर आपकी संताने आपके संग करेगी, तब अपनी हाय पुकार किसे सुनाएगे. इसलिए हम अपनी जड़ों को कभी न काटे यदि माता पिता को सम्मान न दे सके तो कम से कम उन्हें अपमानित भी नहीं करना चाहिए.हम पर माता-पिता का पहला ऋण तो यह हैं कि उन्होंने हमें जन्म दिया, हम आज दुनिया में हैं तो अपने पेरेंट्स की बदौलत ही हैं. हमें ताउम्र उनका सम्मान करना होगा, नौ महीनों तक अपनी कोख में जगह देने वाली माँ को हमने कितना सताया होगा उसे क्या क्या कष्ट नहीं दिया होगा. खुद गीले वस्त्र पर सोकर अपने लाल को सूखे बिछोने पर सुलाने वाली माँ के अपनत्व का कर्ज अदा करना तो दूर उनके बलिदान को समझना भी बड़ी बात हैं. भलेही आज हम सुख सम्पन्नता के दौर में जी रहे हैं, मगर सदा से ऐसा नहीं था. जीवन का गुजारा करना बड़ा प्रश्न था. रोजगार बेहद सिमित थे, जल भरने के लिए कोसो दूर जाना पड़ता था. वे हमारे माता पिता ही हैं जो मुश्किल से पेट काटकर हमें बड़ा करते हैं. कई बार खुद भूखे रहकर भी हमें बड़ा करते हैं. उनके जीवन के सपने हमसे जुड़ जाते हैं. वे अपनी समस्त आशाएं अपनी सन्तान से लगा देते हैं, कि हमारा बेटा/ बेटी बड़ा होगा तो हम सुकू न से जी सके गे. मगर जो औलादे पैरों पर खड़ी होने पर अपने कर्ज को पूरा करना तो दूर उन्हें सम्मान से जीवन जीने भी नहीं देती उन्हें धिक्कार हैं.l जब हम माँ की गोदी से बाहर आए तो हमारे
  • 20. मम्मी पापा ने हमारी हर एक इच्छा ख़ुशी का पूरा ख्याल रखा और उसको सम्मान दिया. अंगुली पकड़कर चलना सिखाया अपने कं धों पर बिठाकर स्कू ल लेकर गये. खिलौने से लेकर हर वह चीज दी जो हमें बड़ी प्रिय थी. विडम्बना तो देखिये हम थोड़ों बड़े क्या हो जाते हैं अपने ही पेरेंट्स को यह कहकर चुप करा देते हैं कि आपकों क्या पता आप जानते ही क्या हैं. भले मानस यदि वो नहीं जानते तो तुम कै से जानते हो, जिस इन्सान ने आपकों अंगुली पकड़कर खड़े होना और चलना सिखाया आज उसी इन्सान से कहते हैं आपकों क्या पता.कोई भी बालक बालिका किशोर होने तक माता-पिता पर पूर्णतया निर्भर होता हैं, अमूमन वह विद्रोह भी नहीं करता हैं. मगर जब जैसे ही मध्य किशोरावस्था में पहुँचता है तो सही गलत की समझ भुलाकर चंचलता अपना लेता हैं. माई लाइफ माई वे यानी उसे अपनी मर्जी से जीना अच्छा लगता हैं. मगर ये काल माता- पिता के लिए बेहद चिंताओं वाला होता हैं. इस उम्रः में माँ बाप अपने बेटे व बेटी का ख़ास ख्याल करना पड़ता हैं, जरा सी चूक भी उन्हें गलत राह पर ले जाती हैं. बच्चें इतने बड़े भी हो चुके होते हैं अब उन्हें डांट फटकार से भी परहेज किया जाता हैं. इस आयु में बच्चों को स्व नियंत्रण रखते हुए अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन करते हुए अध्ययन पर प्रमुखता से ध्यान दिया जाना चाहिए.यह बात कभी किसी को सिखाई नहीं जा सकती कि आपकों अपने बड़ों, वृद्धों या माता -पिता का सम्मान किस तरह करना चाहिए. यह व्यक्ति के उनके प्रति नजरिये पर निर्भर करता हैं और वह वास्तविक व्यवहार भी उसी के अनुरूप कर सके गा. बताने के लिए ऐसी हजारों बाते हो सकती हैं जो आपकों अपने माता पिता के सम्मान में करनी चाहिए, मगर औपचारिकता के दायरे से बाहर आकर हमें दिल से उनके लिए कु छ करना चाहिए क्योंकि वो उस सम्मान रिस्पेक्ट के हकदार हैं. एक सरल सा फं डा हैं. आप अपने माता पिता के लिए सिर्फ इतना ही करिये जितना आप अपनी संतान से अपने लिए अपेक्षा करते हैं. इसमें कई बातें हो सकती हैं. जैसे वो आपकों सम्मान दे, आपकी हरेक आज्ञा का पालन करें. आपकी राय ले, प्रशंसा करें आपके साथ समय बिताएं, आपकी समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण करने के प्रयत्न करे. आपसे मधुर रिश्ते रखे और दिल से निभाएं ये सभी व्यवहार यदि आप अपने बेटे/ बेटी से चाहते हैं तो आपका यह दायित्व हैं कि आप आज से ही अपने माता पिता के लिए ये काम जरुर करना आरम्भ कर देवे.lबहुत से लोग ऐसे होते है जिन्हें माँ या पापा अथवा दोनों नसीब नहीं होते हैं. सही मायनों में पेरेंट्स के होने का महत्व उन्हें ही पता चलता हैं. हमें ईश्वर स्वरूप माता पिता मिले हैं उनके पास अथाह प्यार और आशीर्वाद का खजाना हैं. हम उनकी सेवा करते रहे. उन्हें यथेष्ठ सम्मान प्रदान करें. डॉ० विद्यापति गौतम
  • 21. कृ ष्ण को जीना शुरु हो सके गा ।कृ ष्ण को जिआ जा सके गा ।कृ ष्ण इस पृथ्वी के पूरे जीवन को पूरा ही स्वीकार करते है ।वे किसी परलोक में जीने वाले व्यक्ति नहीं, इस पृथ्वी पर, इसी लोक में जीनेवाले व्यक्ति हैं । बुध्द, महावीर का मोक्ष इस पृथ्वी के पार कहीं दूर है, कृ ष्ण का मोक्ष इसी पृथ्वी पर यहीं और अभी है कृ ष्ण शब्द का अर्थ होता है, कें द्र। कृ ष्ण शब्द का अर्थ होता है, जो आकृ ष्ट करे, जो आकर्षित करे; सेंटर ऑफ ग्रेविटेशन, कशिश का कें द्र। कृ ष्ण शब्द का अर्थ होता है जिस पर सारी चीजें खिंचती हों। जो कें द्रीय चुंबक का काम करे। प्रत्येक व्यक्ति का जन्म एक अर्थ में कृ ष्ण का जन्म है, क्योंकि हमारे भीतर जो आत्मा है, वह कशिश का कें द्र है। वह सेंटर ऑफ ग्रेविटेशन है जिस पर सब चीजें खिँचती हैं और आकृ ष्ट होती हैं।शरीर खिँचकर उसके आसपास निर्मित होता है, परिवार खिँचकर उसके आसपास निर्मित होता है, समाज खिँचकर उसके आसपास निर्मित होता है, जगत खिँचकर उसके आसपास निर्मित होता है। वह जो हमारे भीतर कृ ष्ण का कें द्र है, आकर्षण का जो गहरा बिंदु है, उसके आसपास सब घटित होता है। तो जब भी कोई व्यक्ति जन्मता है, तो एक अर्थ में कृ ष्ण ही जन्मता है वह जो बिंदु है आत्मा का, आकर्षण का, वह जन्मता है, और उसके बाद सब चीजें उसके आसपास निर्मित होनी शुरू होती हैं। उस कृ ष्ण बिंदु के आसपास क्रिस्टलाइजेशन शुरू होता है और व्यक्तित्व निर्मित होता है। इसलिए कृ ष्ण का जन्म एक व्यक्ति विशेष का जन्म मात्र नहीं है, बल्कि व्यक्ति मात्र का जन्म है।कृ ष्ण का जन्म होता है अँधेरी रात में, अमावस में। सभी का जन्म अँधेरी रात में होता है और अमावस में होता है। असल में जगत की कोई भी चीज उजाले में नहीं जन्मती, सब कु छ जन्म अँधेरे में ही होता है। एक बीज भी फू टता है तो जमीन के अँधेरे में जन्मता है। फू ल खिलते हैं प्रकाश में, जन्म अँधेरे में होता है।असल में जन्म की प्रक्रिया इतनी रहस्यपूर्ण है कि अँधेरे में ही हो सकती है। आपके भीतर भी जिन चीजों का जन्म होता है, वे सब गहरे अंधकार में, गहन अंधकार में होती है। एक कविता जन्मती है, तो मन के बहुत अचेतन अंधकार में जन्मती है। बहुत अनकांशस डार्क नेस में पैदा होती है। एक चित्र का जन्म होता है, तो मन की बहुत अतल गहराइयों में जहाँ कोई रोशनी नहीं पहुँचती जगत की, वहाँ होता है। समाधि का जन्म होता है, ध्यान का जन्म होता है, तो सब गहन अंधकार में। गहन अंधकार से अर्थ है, जहाँ बुद्धि का प्रकाश जरा भी नहीं पहुँचता। जहाँ सोच-समझ में कु छ भी नहीं आता, हाथ को हाथ नहीं सूझता है। कृ ष्ण का जन्म जिस रात में हुआ, कहानी कहती है कि हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था, इतना गहन अंधकार था। लेकिन इसमें विशेषता खोजने की जरूरत नहीं है। यह जन्म की सामान्य प्रक्रिया है।कृ ष्ण सांवरे थे, ऐसा नहीं है। हमने इतना ही कहा है सांवरा कह कर, कि कृ ष्ण के सौंदर्य में बड़ी गहराई थी; जैसे गहरी नदी में होती है, जहां जल सांवरा हो जाता है। यह सौंदर्य देह का ही सौंदर्य नहीं था–यह हमारा मतलब है। सांवरा हमारा प्रतीक है इस बात का कि यह सौंदर्य शरीर का ही नहीं था, यह सौंदर्य मन का था; मन का ही नहीं था; यह सौंदर्य आत्मा का था। यह सौंदर्य इतना गहरा था, महत्वपूर्ण व्यक्ति अपने समय के बहुत पहले पैदा हो जाता है ।कृ ष्ण अपने समय के कम से कम पाँच हजार वर्ष पहले पैदा हुए ।अतीत कृ ष्ण को समझने योग्य नहीं हो सका । शायद आनेवालेभविष्य में कृ ष्ण को समझने में हम योग्य हो सकें गे ।, संपूर्ण कलाओं से पूर्ण परब्रह्म, अद्भुत, अद्वैत श्री कृ ष्ण उस गहराई के कारण चेहरे पर सांवरापन था। सौंदर्य अनंत गहराई लिए था।यह तुम्हारा मोर के पंखों से बना हुआ मुकु ट, यह तुम्हारा सुंदर मुकु ट, जिसमें सारे रंग समाएं हैं! वही प्रतीक है। मोर के पंखों से बनाया गया मुकु ट प्रतीक है इस बात का कि कृ ष्ण में सारे रंग समाए हैं। महावीर में एक रंग है, बुद्ध में एक रंग है, राम में एक रंग है–कृ ष्ण में सब रंग हैं। इसलिए कृ ष्ण को हमने पूर्णावतार कहा है…सब रंग हैं। इस जगत की कोई चीज कृ ष्ण को छोड़नी नहीं पड़ी है। सभी को आत्मसात कर लिया है। कृ ष्ण इंद्रधनुष हैं, जिसमें प्रकाश के सभी रंग हैं। कृ ष्ण त्यागी नहीं हैं। कृ ष्ण भोगी नहीं हैं। कृ ष्ण ऐसे त्यागी हैं जो भोगी हैं। कृ ष्ण ऐसे भोगी हैं जो त्यागी हैं। कृ ष्ण हिमालय नहीं भाग गए हैं, बाजार में हैं। युद्ध के मैदान पर हैं। और फिर भी कृ ष्ण के हृदय में हिमालय है। वही एकांत! वही शांति! अपूर्व सन्नाटा! कृ ष्ण अदभुत अद्वैत हैं। चुना नहीं है कृ ष्ण ने कु छ। सभी रंगों को स्वीकार किया है, क्योंकि सभी रंग परमात्मा के हैं।कृ ष्ण कहते हैं, योग तो कर्म की कु शलता है। असल में जब जिंदगी अभिनय हो जाती है, तो दंश चला जाता है, पीड़ा चली जाती है, कांटा चला जाता है, फू ल ही रह जाता है, जब अभिनय ही करना है तो क्रोध का किसलिए करना, जब अभिनय ही करना है तो प्रेम का ही किया जा सकता है। क्रोध का अभिनय करने का क्या प्रयोजन है? जब अभिनय ही करना है तो फिर क्रोध का सिर्फ पागल अभिनय करेंगे। जब अभिनय ही करना है तो प्रेम का ही हो सकता है। जब सपना ही देखना है तो दीनता-दरिद्रता का क्यों देखना, सम्राट होने का देखा जा सकता है।वे एक सिद्ध हैं, जीवन की कला के एक पारंगत और निपुण कलाकार। और जो भी वह इस सिद्धावस्था में, मन की चरम अवस्था में कहते हैं तुम्हे अहंकारपूर्ण लग सकता है, पर ऐसा है नहीं। कठिनाई यह है कि कृ ष्ण को उसी भाषाई "मैं" का प्रयोग करना पड़ता है जिसका तुम करते हो। लेकिन उनके "मैं" के प्रयोग में और तुम्हारे "मैं" के प्रयोग में बहुत अंतर है। जब तुम "मैं" का प्रयोग करते हो, तब उस का अर्थ है वह जो शरीर में कै द है