2. ननदेशक :- श्रीमान प्रणव
गुप्ता सर
प्रस्तुतकताय :- सुनील
शाक्य, दीपक यादव
रोल निंबर :- 1033,1010
कक्षा 10 “ए”
3. रस (काव्य शास्त्र)
श्रव्य काव्य के पठन अथवा श्रवण एवं दृश्य काव्य के दशशन तथा श्रवण में जो अलौककक आनन्द
प्राप्त होता है, वही काव्य में रस कहलाता है। रस से जजस भाव की अनुभूतत होती है वह रस
का स्थायी भाव होता है। रस, छंद और अलंकार काव्य रचना के आवश्यक अवयव होते हैं।
रस का अथश होता है तनचोड़। काव्य में जो आनन्द आता है वह ही काव्य का रस है। काव्य में
आने वाला आनन्द अथाशत् रस लौककक न होकर अलौककक होता है। रस काव्य की आत्मा
है।संस्त्कृ त में कहा गया है कक "रसात्मकम् वाक्यम् काव्यम्" अथाशत् रसयुक्त वाक्य ही काव्य है।
रस अन्त:करण की वह शजक्त है, जजसके कारण इजन्ियााँ अपना कायश करती हैं, मन कल्पना करता
है, स्त्वप्न की स्त्मृतत रहती है। रस आनंद रूप है और यही आनंद ववशाल का, ववराट का अनुभव
भी है। यही आनंद अन्य सभी अनुभवों का अततक्रमण भी है। आदमी इजन्ियों पर संयम करता है,
तो ववषयों से अपने आप हट जाता है। परंतु उन ववषयों के प्रतत लगाव नहीं छू टता। रस का प्रयोग
सार तत्त्व के अथश में चरक, सुश्रुत में ममलता है। दूसरे अथश में, अवयव तत्त्व के रूप में ममलता
है। सब कु छ नष्ट हो जाय, व्यथश हो जाय पर जो भाव रूप तथा वस्त्तु रूप में बचा रहे, वही रस
है। रस के रूप में जजसकी तनष्पवि होती है, वह भाव ही है। जब रस बन जाता है, तो भाव नहीं
रहता। के वल रस रहता है। उसकी भावता अपना रूपांतर कर लेती है। रस अपूवश की उत्पवि
है। नाट्य की प्रस्त्तुतत में सब कु छ पहले से ददया रहता है, ज्ञात रहता है, सुना हुआ या देखा हुआ
होता है। इसके बावजूद कु छ नया अनुभव ममलता है। वह अनुभव दूसरे अनुभवों को पीछे छोड़ देता
है। अके ले एक मशखर पर पहुाँचा देता है। रस का यह अपूवश रूप अप्रमेय और अतनवशचनीय है। [1]
4. ववभभन्न सन्दभों में रस का अथय
एक प्रमसद्ध सूक्त है- रसौ वै स:। अथाशत् वह परमात्मा ही रस रूप आनन्द है।
'कु मारसम्भव' में पानी, तरल और िव के अथश में रस शब्द का प्रयोग हुआ है।
'मनुस्त्मृतत' मददरा के मलए रस शब्द का प्रयोग करती है। मारा, खुराक और घूंट के
अथश में रस शब्द प्रयुक्त हुआ है। 'वैशेवषक दशशन' में चौबीस गुणों में एक गुण का
नाम रस है। रस छह माने गए हैं- कटु, अम्ल, मधुर, लवण, ततक्त और कषाय।
स्त्वाद, रूचच और इच्छा के अथश में भी कामलदास रस शब्द का प्रयोग करते हैं। प्रेम
की अनुभूतत के मलए 'कु मारसम्भव' में रस शब्द का प्रयोग हुआ है। 'रघुवंश',
आनन्द और प्रसन्नता के अथश में रस शब्द काम में लेता है। 'काव्यशास्त्र' में ककसी
कववता की भावभूमम को रस कहते हैं। रसपूणश वाक्य को काव्य कहते हैं।
भतृशहरर सार, तत्व और सवोिम भाग के अथश में रस शब्द का प्रयोग करते हैं।
'आयुवेद' में शरीर के संघटक तत्वों के मलए रस शब्द प्रयुक्त हुआ है। सप्तधातुओं
को भी रस कहते हैं। पारे को रसेश्वर अथवा रसराज कहा है। पारसमणण को रसरत्न
कहते हैं। मान्यता है कक पारसमणण के स्त्पशश से लोहा सोना बन जाता है। रसज्ञाता
को रसग्रह कहा गया है। 'उिररामचररत' में इसके मलए रसज्ञ शब्द प्रयुक्त हुआ है।
भतृशहरर काव्यममशज्ञ को रसमसद्ध कहते हैं। 'सादहत्यदपशण' प्रत्यक्षीकरण और
गुणागुण वववेचन के अथश में रस परीक्षा शब्द का प्रयोग करता है। नाटक के अथश में
रसप्रबन्ध शब्द प्रयुक्त हुआ है।
5. रस के प्रकार
रस 9 प्रकार के होते हैं -
क्रमांक रस का प्रकार स्त्थायी भाव
1. शृंगार रस रतत
2. हास्त्य रस हास
3. करुण रस शोक
4. रौि रस क्रोध
5. वीर रस उत्साह
6. भयानक रस भय
7. वीभत्स रस घृणा, जुगुप्सा
8. अद्भुत रस आश्चयश
9. शांत रस तनवेद
वात्सल्य रस को दसवााँ एवम् भजक्त को ग्यारहवााँ रस भी माना गया
है। वत्सल तथा भजक्त इनके स्त्थायी भाव हैं।
6. पाररभाविक शब्दावली
नाट्यशास्त्र में भरत मुतन ने रस की व्याख्या करते हुये कहा है -
ववभावानुभावव्यमभचाररसंयोगािरस तनष्पवि:
अथाशत ववभाव, अनुभाव, व्यमभचारी भाव के संयोग से रस की
तनष्पवि होती है। सुप्रमसद्ध सादहत्य दपशण में कहा गया है हृदय
का स्त्थायी भाव, जब ववभाव, अनुभाव और संचारी भाव का
संयोग प्राप्त कर लेता है तो रस रूप में तनष्पन्न हो जाता है।
रीततकाल के प्रमुख कवव देव ने रस की पररभाषा इन शब्दों में की
है :
जो ववभाव अनुभाव अरू, ववभचाररणु करर होई। चथतत की पूरन
वासना, सुकवव कहत रस होई॥
इस प्रकार रस के चार अंग हैं स्त्थायी भाव, ववभाव, अनुभाव और
संचारी भाव।
7. स्थायी भाव
सहृदय के अंत:करण में जो मनोववकार वासना या संस्त्कार
रूप में सदा ववद्यमान रहते हैं तथा जजन्हें कोई भी
ववरोधी या अववरोधी दबा नहीं सकता, उन्हें स्त्थायी भाव
कहते हैं।
ये मानव मन में बीज रूप में, चचरकाल तक अचंचल
होकर तनवास करते हैं। ये संस्त्कार या भावना के द्योतक
हैं। ये सभी मनुष्यों में उसी प्रकार तछपे रहते हैं जैसे
ममट्टी में गंध अववजच्छन्न रूप में समाई रहती है। ये
इतने समथश होते हैं कक अन्य भावों को अपने में ववलीन
कर लेते हैं।
इनकी संख्या 11 है - रतत, हास, शोक, उत्साह, क्रोध,
भय, जुगुप्सा, ववस्त्मय, तनवेद, वात्सल्य और ईश्वर
ववषयक प्रेम।
8. ववभाव
ववभाव का अथश है कारण। ये स्त्थायी भावों का ववभावन
करते हैं, उन्हें आस्त्वाद योग्य बनाते हैं। ये रस की उत्पवि
में आधारभूत माने जाते हैं।
ववभाव के दो भेद हैं:
आलिंबन ववभाव
भावों का उद्गम जजस मुख्य भाव या वस्त्तु के कारण
हो वह काव्य का आलंबन कहा जाता है।
आलंबन के अंतगशत आते हैं ववषय और आश्रय ।
9. वविय
जजस पार के प्रतत ककसी पार के भाव जागृत होते हैं वह ववषय है। सादहत्य
शास्त्र में इस ववषय को आलंबन ववभाव अथवा 'आलंबन' कहते हैं।
आश्रय
जजस पार में भाव जागृत होते हैं वह आश्रय कहलाता है।
उद्दीपन ववभाव
स्थायी भाव को जाग्रत रखने में सहायक कारण उद्दीपन ववभाव कहलाते
हैं।
उदाहरण स्त्वरूप (१) वीर रस के स्त्थायी भाव उत्साह के मलए सामने खड़ा
हुआ शरु आलंबन ववभाव है। शरु के साथ सेना, युद्ध के बाजे और शरु की
दपोजक्तयां, गजशना-तजशना, शस्त्र संचालन आदद उद्दीपन ववभाव हैं।
उद्दीपन ववभाव के दो प्रकार माने गये हैं:
10. आलिंबन-गत (ववियगत)
अथाशत ् आलिंबन की उक्क्तयािं और चेष्ठाएिं
बाह्य (बहहयगत)
अथायत् वातावरण से सिंबिंधित वस्तुएिं। प्राकृ नतक दृश्यों की गणना
भी इन्हीिं के अिंतयगत होती हैं।
11. अनुभाव
रतत, हास, शोक आदद स्त्थायी भावों को प्रकामशत या व्यक्त करने वाली आश्रय की चेष्टाएं
अनुभाव कहलाती हैं।
ये चेष्टाएं भाव-जागृतत के उपरांत आश्रय में उत्पन्न होती हैं इसमलए इन्हें अनुभाव कहते
हैं, अथाशत जो भावों का अनुगमन करे वह अनुभाव कहलाता है।
अनुभाव के दो भेद हैं - इजच्छत और अतनजच्छत।
आलंबन एवं उद्दीपन के माध्यम से अपने-अपने कारणों द्वारा उत्पन्न, भावों को बाहर
प्रकामशत करने वाली सामान्य लोक में जो कायश चेष्टाएं होती हैं, वे ही काव्य नाटक आदद
में तनबद्ध अनुभाव कहलाती हैं। उदाहरण स्त्वरूप ववरह-व्याकु ल नायक द्वारा मससककयां
भरना, ममलन के भावों में अश्रु, स्त्वेद, रोमांच, अनुराग सदहत देखना, क्रोध जागृत होने पर
शस्त्र संचालन, कठोर वाणी, आंखों का लाल हो जाना आदद अनुभाव कहे जाएंगे।
साधारण अनुभाव : अथाशत(इजच्छत अमभनय)के चार भेद हैं। 1.आंचगक 2.वाचचक 3. आहायश
4. साजत्वक। आश्रय की शरीर संबंधी चेष्टाएं आंचगक या कातयक अनुभाव है। रतत भाव के
जाग्रत होने पर भू-ववक्षेप, कटाक्ष आदद प्रयत्न पूवशक ककये गये वाग्व्यापार वाचचक अनुभाव
हैं। आरोवपत या कृ त्ररम वेष-रचना आहायश अनुभाव है। परंतु, स्त्थायी भाव के जाग्रत होने पर
स्त्वाभाववक, अकृ त्ररम, अयत्नज, अंगववकार को साजत्वक अनुभाव कहते हैं। इसके मलए
आश्रय को कोई बाह्य चेष्टा नहीं करनी पड़ती। इसमलए ये अयत्नज कहे जाते हैं। ये स्त्वत:
प्रादुभूशत होते हैं और इन्हें रोका नहीं जा सकता।
साजत्वक अनुभाव : अथाशत (अतनजच्छत)आठ भेद हैं - स्त्तंभ, स्त्वेद, रोमांच, स्त्वरभंग, वेपथु
(कम्प), वैवर्णयश, अश्रु और प्रलय।
12. सिंचारी या व्यभभचारी भाव
जो भाव के वल थोड़ी देर के मलए स्त्थायी भाव को पुष्ट करने के
तनममि सहायक रूप में आते हैं और तुरंत लुप्त हो जाते हैं, वे
संचारी भाव हैं।
संचारी शब्द का अथश है, साथ-साथ चलना अथाशत संचरणशील
होना, संचारी भाव स्त्थायी भाव के साथ संचररत होते हैं, इनमें
इतना सामशथ्य होता है कक ये प्रत्येक स्त्थायी भाव के साथ उसके
अनुकू ल बनकर चल सकते हैं। इसमलए इन्हें व्यमभचारी भाव भी
कहा जाता है।
संचारी या व्यमभचारी भावों की संख्या ३३ मानी गयी है - तनवेद,
ग्लातन, शंका, असूया, मद, श्रम, आलस्त्य, दीनता, चचंता, मोह,
स्त्मृतत, धृतत, व्रीड़ा, चापल्य, हषश, आवेग, जड़ता, गवश, ववषाद,
औत्सुक्य, तनिा, अपस्त्मार (ममगी), स्त्वप्न, प्रबोध, अमषश
(असहनशीलता), अवदहत्था (भाव का तछपाना), उग्रता, मतत,
व्याचध, उन्माद, मरण, रास और ववतकश ।
13. पररचय
भरतमुतन (2-3 शती ई.) ने काव्य के आवश्यक तत्व के रूप में रस की
प्रततष्ठा करते हुए शृंगार, हास्त्य, रौि, करुण, वीर, अद्भुत, बीभत्स तथा
भयानक नाम से उसके आठ भेदों का स्त्पष्ट उल्लेख ककया है तथा
कततपय पंजक्तयों के आधार पर ववद्वानों की कल्पना है कक उन्होंने शांत
नामक नवें रस को भी स्त्वीकृ तत दी है। इन्हीं नौ रसों की संज्ञा है नवरस।
ववभावानुभाव-संचारीभाव के संयोग से इन रसों की तनष्पवि होती है।
प्रत्येक रस का स्त्थायीभाव अलग-अलग तनजश्चत है। उसी की ववभावादद
संयोग से पररपूणश होनेवाली तनववशघ्न-प्रतीतत-ग्राह्य अवस्त्था रस कहलाती
है। शृंगार का स्त्थायी रतत, हास्त्य का हास, रौि का क्रोध, करुण का शोक,
वीर का उत्साह, अद्भुत का ववस्त्मय, बीभत्स का जुगुप्सा, भयानक का
भय तथा शांत का स्त्थायी शम या तनवेद कहलाता है। भरत ने आठ रसों
के देवता क्रमश: ववष्णु, प्रमथ, रुि, यमराज, इंि, ब्रह्मा, महाकाल तथा
कालदेव को माना है। शांत रस के देवता नारायण, और उसका वणश कुं देटु
बताया जाता है। प्रथम आठ रसों के क्रमश: श्याम, मसत, रक्त, कपोत,
गौर, पीत, नील तथा कृ ष्ण वणश माने गए हैं।
14. रस की उत्पवि
भरत ने प्रथम आठ रसों में शृंगार, रौि, वीर तथा वीभत्स को प्रधान मानकर क्रमश: हास्त्य, करुण,
अद्भुत तथा भयानक रस की उत्पवि मानी है। शृंगार की अनुकृ तत से हास्त्य, रौि तथा वीर कमश के
पररणामस्त्वरूप करुण तथा अद्भुत एवं वीभत्स दशशन से भयानक उत्पन्न होता है। अनुकृ तत का
अथश, अमभनवगुप्त (11वीं शती) के शब्दों में आभास है, अत: ककसी भी रस का आभास हास्त्य का
उत्पादक हो सकता है। ववकृ त वेशालंकारादद भी हास्त्योत्पादक होते हैं। रौि का कायश ववनाश होता है,
अत: उससे करुण की तथा वीरकमश का कताश प्राय: अशक्य कायों को भी करते देखा जाता है, अत:
उससे अद्भुत की उत्पवि स्त्वाभाववक लगती है। इसी प्रकार बीभत्सदशशन से भयानक की उत्पवि भी
संभव है। अके ले स्त्मशानादद का दशशन भयोत्पादक होता है। तथावप यह उत्पवि मसद्धांत आत्यंततक नहीं
कहा जा सकता, क्योंकक परपक्ष का रौि या वीर रस स्त्वपक्ष के मलए भयानक की सृजष्ट भी कर सकता
है और बीभत्सदशशन से शांत की उत्पवि भी संभव है। रौि से भयानक, शृंगार से अद्भुत और वीर तथा
भयानक से करुण की उत्पवि भी संभव है। वस्त्तुत: भरत का अमभमत स्त्पष्ट नहीं है। उनके
पश्चात ् धनंजय (10वीं शती) ने चचि की ववकास, ववस्त्तार, ववक्षोभ तथा ववक्षेप नामक चार अवस्त्थाएाँ
मानकर शृंगार तथा हास्त्य को ववकास, वीर तथा अद्भुत को ववस्त्तार, बीभत्स तथा भयानक को ववक्षोभ
और रौि तथा करुण को ववक्षेपावस्त्था से संबंचधत माना है। ककं तु जो ववद्वान ् के वल िुतत, ववस्त्तार तथा
ववकास नामक तीन ही अवस्त्थाएाँ मानते हैं उनका इस वगीकरण से समाधान न होगा। इसी प्रकार यदद
शृंगार में चचि की िववत जस्त्थतत, हास्त्य तथा अद्भुत में उसका ववस्त्तार, वीर तथा रौि में उसकी दीजप्त
तथा बीभत्स और भयानक में उसका संकोच मान लें तो भी भरत का क्रम ठीक नहीं बैठता। एक
जस्त्थतत के साथ दूसरी जस्त्थतत की उपजस्त्थतत भी असंभव नहीं है। अद्भुत और वीर में ववस्त्तार के साथ
दीजप्त तथा करुण में िुतत और संकोच दोनों हैं। किर भी भरतकृ त संबंध स्त्थापन से इतना संके त
अवश्य ममलता है कक कचथत रसों में परस्त्पर उपकारकताश ववद्यमान है और वे एक दूसरे के ममर तथा
सहचारी हैं।
15. रसों का परस्पर ववरोि
ममरता के समान ही इन रसों की प्रयोगजस्त्थतत के अनुसार इनके ववरोध
की कल्पना भी की गई है। ककस रसववशेष के साथ ककन अन्य रसों का
तुरंत वणशन आस्त्वाद में बाधक होगा, यह ववरोधभावना इसी ववचार पर
आधाररत है। करुण, बीभत्स, रौि, वीर और भयानक से शृंगार का;
भयानक और करुण से हास्त्य का; हास्त्य और शृंगार से करुण का; हास्त्य,
शृंगार और भयानक से रौि का; शृंगार, वीर, रौि, हास्त्य और शात से
भयानक का; भयानक और शांत से वीर का; वीर, शृंगार, रौि, हास्त्य और
भयानक से शांत का ववरोध माना जाता है। यह ववरोध आश्रय ऐक्य,
आलंबन ऐक्य अथवा नैरंतयश के कारण उपजस्त्थत होता है। प्रबंध काव्य में
ही इस ववरोध की संभावना रहती है। मुक्तक में प्रसंग की छंद के साथ
ही समाजप्त हो जाने से इसका भय नहीं रहता है। लेखक को ववरोधी रसों
का आश्रय तथा आलंबनों को पृथक-पृथक रखकर अथवा दो ववरोधी रसों
के बीच दोनों के ममर रस को उपजस्त्थत करके या प्रधान रस की अपेक्षा
अंगरस का संचारीवत् उपजस्त्थत करके इस ववरोध से उत्पन्न आस्त्वाद-
व्याघात को उपजस्त्थत होने से बचा लेना चादहए।
16. रस की आस्वादनीयता
रस की आस्त्वादनीयता का ववचार करते हुए उसे ब्रह्मानंद सहोदर, स्त्वप्रकाशानंद,
ववलक्षण आदद बताया जाता है और इस आधार पर सभी रसों को आनंदात्मक माना
गया है। भट्टनायक(10वीं शती ई.) ने सत्वोिैक के कारण ममत्व-परत्व-हीन
दशा, अमभनवगुप्त (11वीं शती ई.) ने तनववशघ्न प्रतीतत तथा आनंदवधशन (9 श. उिर)
ने करुण में माधुयश तथा आिशता की अवजस्त्थत बताते हुए शृंगार, ववप्रलंभ तथा करुण
को उिरोिर प्रकषशमय बताकर सभी रसों की आनंदस्त्वरूपता की ओर ही संके त ककया
है। ककं तु अनुकू लवेदनीयता तथा प्रततकू लवेदनीयता के आधार पर भावों का वववेचन
करके रुिभट्ट (9 से 11वीं शती ई. बीच) रामचंि गुणचंि (12वीं श.ई.), हररपाल, तथा
धनंजय ने और दहंदी में आचायश रामचंि शुक्ल ने रसों का सुखात्मक तथा दु:खात्मक
अनुभूततवाला माना है। अमभनवगुप्त ने इन सबसे पहले ही "अमभनवभारती" में
"सुखदु:खस्त्वभावों रस:" मसद्धात को प्रस्त्तुत कर ददया था। सुखात्मक रसों में शृंगार,
वीर, हास्त्य, अद्भुत तथा शांत की और दु:खात्मक में करुण, रौि, बीभत्स तथा
भयानक की गणना की गई। "पानकरस" का उदाहरण देकर जैसे यह मसद्ध ककया गया
कक गुड़ ममररच आदद को ममचश्रत करके बनाए जानेवाले पानक रस में अलग-अलग
वस्त्तुओं का खट्टा मीठापन न मालूम होकर एक ववचचर प्रकार का आस्त्वाद ममलता है,
उसी प्रकार यह भी कहा गया कक उस वैचचत्र्य में भी आनुपाततक ढंग से कभी खट्टा,
कभी ततक्त और इसी प्रकार अन्य प्रकार का स्त्वाद आ ही जाता है।
17. मधुसूदन सरस्त्वती का कथन है कक रज अथवा तम की अपेक्षा सत्व को प्रधान
मान लेने पर भी यह तो मानना ही चादहए कक अंशत: उनका भी आस्त्वाद बना
रहता है। आचायश शुक्ल का मत है कक हमें अनुभूतत तो वणणशत भाव की ही
होती है और भाव सुखात्मक दु:खात्मक आदद प्रकार के हैं, अतएव रस भी दोनों
प्रकार का होगा। दूसरी ओर रसों को आनंदात्मक मानने के पक्षपाती सहृदयों को
ही इसका प्रमण मानते हैं और तकश का सहारा लेते हैं कक दु:खदायी वस्त्तु भी
यदद अपनी वप्रय है तो सुखदायी ही प्रतीत होती है। जैसे, रततके मल के समय
स्त्री का नखक्षतादद से यों तो शरीर पीड़ा ही अनुभव होती है, ककं तु उस समय
वह उसे सुख ही मानती है। भोज (11वीं शती ई.) तथा ववश्वनाथ (14वीं शती
ई.) की इस धारणा के अततररक्त स्त्वयं मधुसूदन सरस्त्वती रसों को लौककक
भावों की अनुभूतत से मभन्न और ववलक्षण मानकर इनकी आनंदात्मकता का
समथशन करते है और अमभनवगुप्त वीतववघ्नप्रतीत वताकर इस धारणा को
स्त्पष्ट करते हैं कक उसी भाव का अनुभव भी यदद त्रबना ववचमलत हुए और
ककसी बाहरी अथवा अंतरोद्भूत अंतराय के त्रबना ककया जाता है तो वह सह्य
होने के कारण आनंदात्मक ही कहलाता है। यदद दु:खात्मक ही मानें तो किर
शृंगार के ववप्रलंभ भेद को भी दु:खात्मक ही मानें तो किर शृंगार के ववप्रलंभ
भेद को भी दु:खात्मक ही क्यों न माना जाए? इस प्रकार के अनेक तकश देकर
रसों की आनंदरूपता मसद्ध की जाती है। अंग्रेजी में ट्रैजेडी से ममलनेवाले आनंद
का भी अनेक प्रकार से समाधान ककया गया है और मराठी लेखकों ने भी रसों
की आनंदरूपता के संबंध में पयाशप्त मभन्न धारणाएाँ प्रस्त्तुत की हैं।
18. रसों का राजा कौन है?
प्राय: रसों के ववमभन्न नामों की औपाचधक या औपचाररक सिा मानकर
पारमाचथशक रूप में रस को एक ही मानने की धारणा प्रचमलत रही है। भारत ने
"न दह रसादृते कजश्चदप्यथश : प्रवतशत" पंजक्त में "रस" शब्द का एक वचन में
प्रयोग ककया है और अमभनवगुप्त ने उपररमलणखत धारणा व्यक्त की
है। भोज ने शृंगार को ही एकमार रस मानकर उसकी सवशथैव मभन्न व्याख्या
की है,ववश्वनाथ की अनुसार नारायण पंडडत चमत्कारकारी अद्भुत को ही
एकमार रस मानते हैं, क्योंकक चमत्कार ही रसरूप होता है। भवभूतत (8वीं
शती ई.) ने करुण को ही एकमार रस मानकर उसी से सबकी उत्पवि बताई है
और भरत के "स्त्वं स्त्वं तनममिमासाद्य शांताद्भाव: प्रवतशते, पुनतनशममिापाये च
शांत एवोपलीयते" - (नाट्यशास्त्र 6/108) वक्तव्य के आधार पर शांत को ही
एकमार रस माना जा सकता है। इसी प्रकार उत्साह तथा ववस्त्मय की
सवशरससंचारी जस्त्थतत के आधार पर उन्हें भी अन्य सब रसों के मूल में माना
जा सकता है। रस आस्त्वाद और आनंद के रूप में एक अखंड अनुभूतत मार हैं,
यह एक पक्ष है और एक ही रस से अन्य रसों का उद्भव हुआ है यह दूसरा
पक्ष है।
19. रसाप्राधान्य के ववचार में रसराजता की समस्त्या उत्पन्न की है।
भरत समस्त्त शुचच, उज्वल, मेध्य और दलनीय को शृंगार मानते हैं,
"अजग्नपुराण" (11वीं शती) शृंगार को ही एकमार रस बताकर अन्य
सबको उसी के भेद मानता है, भोज शृंगार को ही मूल और एकमार
रस मानते हैं, परंतु उपलब्ध मलणखत प्रमाण के आधार पर "रसराज"
शब्द का प्रयोग "उज्ज्वलनीलमणण" में भजक्तरस के मलए ही ददखाई
देता है। दहंदी में के शवदास (16वीं शती ई.) शृंगार को रसनायक
और देव कवव (18वीं शती ई.) सब रसों का मूल मानते हैं।
"रसराज" संज्ञा का शृंगार के मलए प्रयोग मततराम (18वीं शती ई.)
द्वारा ही ककया गया ममलता है। दूसरी ओर बनारसीदास (17वीं
शती ई.) "समयसार" नाटक में "नवमों सांत रसतन को नायक" की
घोषणा करते हैं। रसराजता की स्त्वीकृ तत व्यापकता, उत्कट
आस्त्वाद्यता, अन्य रसों को अंतभूशत करने की क्षमता सभी
संचाररयों तथा साजत्वकों को अंत:सात ् करने की शजक्त
सवशप्राणणसुलभत्व तथा शीघ्रग्राह्यता आदद पर तनभशर है। ये सभी
बातें जजतनी अचधक और प्रबल शृंगार में पाई जाती हैं, उतनी अन्य
रसों में नहीं। अत: रसराज वही कहलाता है।
20. शृिंगार रस
ववचारको ने रौद्र तथा करुण को छोड़कर शेि रसों का भी वणयन ककया है। इनमें सबसे ववस्तृत
वणयन शृिंगार का ही ठहरता है। शृिंगार मुख्यत: सिंयोग तथा ववप्रलिंभ या ववयोग के नाम से दो
भागों में ववभाक्जत ककया जाता है, ककिं तु िनिंजय आहद कु छ ववद्वान् ववप्रलिंभ के पूवायनुराग भेद
को सिंयोग-ववप्रलिंभ-ववरहहत पूवायवस्था मानकर अयोग की सिंज्ञा देते हैं तथा शेि ववप्रयोग तथा
सिंभोग नाम से दो भेद और करते हैं। सिंयोग की अनेक पररक्स्थनतयों के आिार पर उसे अगणेय
मानकर उसे के वल आश्रय भेद से नायकारब्ि, नानयकारब्ि अथवा उभयारब्ि, प्रकाशन के ववचार
से प्रच्छन्न तथा प्रकाश या स्पष्ट और गुप्त तथा प्रकाशनप्रकार के ववचार से सिंक्षक्षप्त, सिंकीणय,
सिंपन्नतर तथा समृद्धिमान नामक भेद ककए जाते हैं तथा ववप्रलिंभ के पूवायनुराग या
अभभलािहेतुक, मान या ईश्र्याहेतुक, प्रवास, ववरह तथा करुण वप्रलिंभ नामक भेद ककए गए हैं।
"काव्यप्रकाश" का ववरहहेतुक नया है और शापहेतुक भेद प्रवास के ही अिंतगयत गृहीत हो सकता
है, "साहहत्यदपयण" में करुण ववप्रलिंभ की कल्पना की गई है। पूवायनुराग कारण की दृक्ष्ट से
गुणश्रवण, प्रत्यक्षदशयन, धचत्रदशयन, स्वप्न तथा इिंद्रजाल-दशयन-जन्य एविं राग क्स्थरता और चमक
के आिार पर नीली, कु सुिंभ तथा मिंक्जष्ठा नामक भेदों में बााँटा जाता है। "अलिंकारकौस्तुभ" में
शीघ्र नष्ट होनेवाले तथा शोभभत न होनेवाले राग को "हाररद्र" नाम से चौथा बताया है, क्जसे
उनका टीकाकार "श्यामाराग" भी कहता है। पूवायनुराग का दश कामदशाएाँ - अभभलाि, धचिंता,
अनुस्मृनत, गुणकीतयन, उद्वेग, ववलाप, व्याधि, जड़ता तथा मरण (या अप्रदश्र्य होने के कारण
उसके स्थान पर मूच्र्छा) - मानी गई हैं, क्जनके स्थान पर कहीिं अपने तथा कहीिं दूसरे के मत के
रूप में ववष्णुिमोिरपुराण, दशरूपक की अवलोक टीका, साहहत्यदपयण, प्रतापरुद्रीय तथा
सरस्वतीकिं ठाभरण तथा काव्यदपयण में ककिं धचत् पररवतयन के साथ चक्षुप्रीनत, मन:सिंग, स्मरण,
ननद्राभिंग, तनुता, व्यावृवि, लज्जानाश, उन्माद, मूच्र्छा तथा मरण का उल्लेख ककया गया है।
21. शारदातनय (13वीं शती) ने इच्छा तथा उत्कं ठा को जोड़कर तथा ववद्यानाथ
(14वीं शती पूवाशधश) ने स्त्मरण के स्त्थान पर संकल्प लाकर और प्रलाप तथा
संज्वर को बढाकर इनकी संख्या 12 मानी है। यह युजक्तयुक्त नहीं है और
इनका अंतभाशव हो सकता है। मान-ववप्रलंभ प्रणय तथा ईष्र्या के ववचार से
दो प्रकार का तथा मान की जस्त्थरता तथा अपराध की गंभीरता के ववचार से
लघु, मध्यम तथा गुरु नाम से तीन प्रकार का, प्रवासववप्रलंभ कायशज,
शापज, साँभ्रमज नाम से तीन प्रकार का और कायशज के यस्त्यत्प्रवास या
भववष्यत् गच्छत्प्रवास या वतशमान तथा गतप्रवास या भववष्यत् गच्छत्प्रवास
या वतशमान तथा गतप्रवास या भूतप्रवास, शापज के तािूप्य तथा वैरूप्य,
तथा संभ्रमज के उत्पात, वात, ददव्य, मानुष तथा परचक्रादद भेद के कारण
कई प्रकार का होता है। ववरह गुरुजनादद की समीपता के कारण पास रहकर
भी नातयका तथा नायक के संयोग के होने का तथा करुण ववप्रलंभ मृत्यु के
अनंतर भी पुनजीवन द्वारा ममलन की आशा बनी रहनेवाले ववयोग को
कहते हैं। शृंगार रस के अंतगशत नातयकालंकार, ऋतु तथा प्रकृ तत का भी
वणशन ककया जाता है। एक उदाहरण है-
राम को रूप तनहारतत जानकी कं गन के नग की परछाही ।याते सबे सुख
भूमल गइ कर तेकक रही पल तारतत नाही ।।
22. हास्य रस
हास्त्यरस के ववभावभेद से आत्मस्त्थ तथा परस्त्थ एवं हास्त्य के ववकासववचार से
जस्त्मत, हमसत, ववहमसत, उपहमसत, अपहमसत तथा अततहमसत भेद करके उनके भी
उिम, मध्यम तथा अधम प्रकृ तत भेद से तीन भेद करते हुए उनके अंतगशत पूवोक्त
क्रमश: दो-दो भेदों को रखा गया है। दहंदी में के शवदास तथा एकाध अन्य लेखक ने
के वल मंदहास, कलहास, अततहास तथा पररहास नामक चार ही भेद ककए हैं। अंग्रेजी
के आधार पर हास्त्य के अन्य अनेक नाम भी प्रचमलत हो गए हैं। वीर रस के के वल
युद्धवीर, धमशवीर, दयावीर तथा दानवीर भेद स्त्वीकार ककए जाते हैं। उत्साह को
आधार मानकर पंडडतराज (17वीं शती मध्य) आदद ने अन्य अनेक भेद भी ककए हैं।
अद्भुत रस के भरत ददव्य तथा आनंदज और वैष्णव आचायश दृष्ट, श्रुत, संकीततशत
तथा अनुममत नामक भेद करते हैं। बीभत्स भरत तथा धनंजय के अनुसार शुद्ध,
क्षोभन तथा उद्वेगी नाम से तीन प्रकार का होता है और भयानक कारणभेद से
व्याजजन्य या भ्रमजतनत, अपराधजन्य या काल्पतनक तथा ववरामसतक या वास्त्तववक
नाम से तीन प्रकार का और स्त्वतनष्ठ परतनष्ठ भेद से दो प्रकार का माना जाता है।
शांत का कोई भेद नहीं है। के वल रुिभट्ट ने अवश्य वैराग्य, दोषतनग्रह, संतोष तथा
तत्वसाक्षात्कार नाम से इसके चार भेद ददए हैं जो साधन मार के नाम है और
इनकी संख्या बढाई भी जा सकती है।
23. शान्त रस
शांत रस का उल्लेख यहााँ कु छ दृजष्टयों से और आवश्यक है। इसके स्त्थायीभाव के
संबंध में ऐकमत्य नहीं है। कोई शम को और कोई तनवेद को स्त्थायी मानता है।
रुिट (9 ई.) ने "सम्यक् ज्ञान" को, आनंदवधशन ने "तृष्णाक्षयसुख" को, तथा अन्यों
ने "सवशचचिवृविप्रशम", तनववशशेषचचिवृवि, "घृतत" या "उत्साह" को स्त्थायीभाव माना।
अमभनवगुप्त ने "तत्वज्ञान" को स्त्थायी माना है। शांत रस का नाट्य में प्रयोग करने
के संबंध में भी वैमत्य है। ववरोधी पक्ष इसे ववकक्रयाहीन तथा प्रदशशन में कदठन
मानकर ववरोध करता है तो समथशक दल का कथन है कक चेष्टाओं का उपराम
प्रदमशशत करना शांत रस का उद्देश्य नहीं है, वह तो पयंतभूमम है। अतएव पार की
स्त्वभावगत शांतत एवं लौककक दु:ख सुख के प्रतत ववराग के प्रदशशन से ही काम चल
सकता है। नट भी इन बातों को और इनकी प्राजप्त के मलए ककए गए प्रयत्नों को
ददखा सकता है और इस दशा में संचाररयों के ग्रहण करने में भी बाधा नहीं होगी।
सवेंदिय उपराम न होने पर संचारी आदद हो ही सकते हैं। इसी प्रकार यदद शांत शम
अवस्त्थावाला है तो रौि, भयानक तथा वीभत्स आदद कु छ रस भी ऐसे हैं जजनके
स्त्थायीभाव प्रबुद्ध अवस्त्था में प्रबलता ददखाकर शीघ्र ही शांत होने लगते हैं। अतएव
जैसे उनका प्रदशशन प्रभावपूणश रूप में ककया जाता है, वैसे ही इसका भी हो सकता
है। जैसे मरण जैसी दशाओं का प्रदशशन अन्य स्त्थानों पर तनवषद्ध है वैसे ही उपराम
की पराकाष्ठा के प्रदशशन से यहााँ भी बचा जा सकता है।
24. रसों का अन्तभायव आहद
स्त्थायीभावों के ककसी ववशेष लक्षण अथवा रसों के ककसी भाव की
समानता के आधार पर प्राय: रसों का एक दूसरे में अंतभाशव करने, ककसी
स्त्थायीभाव का ततरस्त्कार करके नवीन स्त्थायी मानने की प्रवृवि भी यदा-
कदा ददखाई पड़ी है। यथा, शांत रस और दयावीर तथा वीभत्स में से
दयावीर का शांत में अंतभाशव तथा बीभत्स स्त्थायी जुगुप्सा को शांत का
स्त्थायी माना गया है। "नागानंद" नाटक को कोई शांत का और कोई
दयावीर रस का नाटक मानता है। ककं तु यदद शांत के तत्वज्ञानमूलक
ववराम और दयावीर के करुणाजतनत उत्साह पर ध्यान ददया जाए तो दोनों
में मभन्नता ददखाई देगी। इसी प्रकार जुगुप्सा में जो ववकषशण है वह शांत
में नहीं रहता। शांत राग-द्वेष दोनों से परे समावस्त्था और
तत्वज्ञानसंमममलत रस है जजसमें जुगुप्सा संचारी मार बन सकती है। ठीक
ऐसे जैसे करुण में भी सहानुभूतत का संचार रहता है और दयावीर में भी,
ककं तु करुण में शोक की जस्त्थतत है और दयावीर में सहानुभूततप्रेररत
आत्मशजक्तसंभूत आनंदरूप उत्साह की।
25. अथवा, जैसे रौद्र और युद्िवीर दोनों का आलिंबन शत्रु
है, अत: दोनों में क्रोि की मात्रा रहती है, परिंतु रौद्र में
रहनेवाली प्रमोदप्रनतकू ल तीक्ष्णता और अवववेक और
युद्िवीर में उत्सह की उत्फु ल्लता और वववेक रहता है।
क्रोि में शत्रुववनाश में प्रनतशोि की भावना रहती है
और वीर में िैयय और उदारता। अतएव इनका परस्पर
अिंतभायव सिंभव नहीिं। इसी प्रकार "अिंमिय" को वीर का
स्थायी मानना भी उधचत नहीिं, क्योंकक अमिय ननिंदा,
अपमान या आक्षेपाहद के कारण धचि के अभभननवेश
या स्वाभभमानावबोि के रूप में प्रकट होता है, ककिं तु
वीररस के दयावीर, दानवीर, तथा िमयवीर नामक भेदों
में इस प्रकार की भावना नहीिं रहती।