2. • यह आत्मा किसी िाल में भी न तो जन्मता है और
न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होिर किर होने
वाला ही है क्योंकि यह अजन्मा, ननत्य, सनातन
और पुरातन है, शरीर िे मारे जाने पर भी यह नहीीं
मारा जाता ॥2.20॥
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3. • अजुुन बोले- हे श्रीिृ ष्ण! जो योग में श्रद्धा रखने वाला है, किन्तु सींयमी नहीीं है, इस
िारण जजसिा मन अन्तिाल में योग से ववचललत हो गया है, ऐसा साधि योग िी
लसद्धध िो अथाुत भगवत्साक्षात्िार िो न प्राप्त होिर किस गनत िो प्राप्त होता है
॥6.37॥
• हे महाबाहो! क्या वह भगवत्प्राजप्त िे मागु में मोहहत और आश्रयरहहत पुरुष निन्न-
लभन्न बादल िी भााँनत दोनों ओर से भ्रष्ट होिर नष्ट तो नहीीं हो जाता? ॥6.38॥
• हे श्रीिृ ष्ण! मेरे इस सींशय िो सम्पूणु रूप से िेदन िरने िे ललए आप ही योग्य हैं
क्योंकि आपिे लसवा दूसरा इस सींशय िा िेदन िरने वाला लमलना सींभव नहीीं है
॥6.39॥
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4. • श्री भगवान बोले- हे पाथु! उस पुरुष िा न तो इस लोि में नाश होता है और न परलोि में ही
क्योंकि हे प्यारे! आत्मोद्धार िे ललए अथाुत भगवत्प्राजप्त िे ललए िमु िरने वाला िोई भी
मनुष्य दुगुनत िो प्राप्त नहीीं होता॥6.40॥
• योगभ्रष्ट पुरुष पुण्यवानों िे लोिों िो अथाुत स्वगाुहद उत्तम लोिों िो प्राप्त होिर उनमें
बहुत वषों ति ननवास िरिे किर शुद्ध आचरण वाले श्रीमान पुरुषों िे घर में जन्म लेता
है॥6.41॥
• अथवा वैराग्यवान पुरुष उन लोिों में न जािर ज्ञानवान योधगयों िे ही िु ल में जन्म लेता
है, परन्तु इस प्रिार िा जो यह जन्म है, सो सींसार में ननिःसींदेह अत्यन्त दुलुभ है॥6.42॥
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5. • वह (यहााँ 'वह' शब्द से श्रीमानों िे घर में जन्म लेने
वाला योगभ्रष्ट पुरुष समझना चाहहए।) श्रीमानों िे
घर में जन्म लेने वाला योगभ्रष्ट पराधीन हुआ भी
उस पहले िे अभ्यास से ही ननिःसींदेह भगवान िी
ओर आिवषुत किया जाता है तथा समबुद्धध रूप
योग िा जजज्ञासु भी वेद में िहे हुए सिाम िमों िे
िल िो उल्लींघन िर जाता है ॥6.44॥
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6. • परन्तु प्रयत्नपूवुि अभ्यास िरने वाला योगी तो
वपिले अनेि जन्मों िे सींस्िारबल से इसी जन्म
में सींलसद्ध होिर सम्पूणु पापों से रहहत हो किर
तत्िाल ही परमगनत िो प्राप्त हो जाता है ॥6.45॥
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7. • बहुत जन्मो िे अींत िे जन्म में तत्व ज्ञान िो
प्राप्त पुरुष, सब िु ि वासुदेव ही हैं- इस प्रिार
मुझिो भजता है, वह महात्मा अत्यन्त दुलुभ है
॥7.19॥
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