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संत कबीर
संत कबीर
कबीर सन्त कवि और समाज सुधारक थे। ये ससकन्दर
लोदी के समकालीन थे। कबीर का अथथ अरबी भाषा में
महान होता है। कबीरदास भारत के भक्तत काव्य परंपरा
के महानतम कवियों में से एक थे। भारत
में धमथ, भाषा या संस्कृ तत ककसी की भी चचाथ
बबना कबीर की चचाथ के अधूरी ही रहेगी। कबीरपंथी, एक
धासमथक समुदाय जो कबीर के ससदधांतों और सिक्षाओं को
अपने जीिन िैली का आधार मानते हैं,
जीिन
कािी के इस अतखड़, तनडर एिं संत कवि का जन्म
लहरतारा के पास सन् १३९८ में ज्येष्ठ पूर्णथमा को हुआ।
जुलाहा पररिार में पालन पोषण हुआ, संत रामानंद के
सिष्य बने और अलख जगाने लगे। कबीर सधुतकड़ी भाषा
में ककसी भी सम्प्रदाय और रूढ़ियों की परिाह ककये बबना
खरी बात कहते थे। कबीर ने ढहंदू-मुसलमान सभी समाज
में व्याप्त रूढ़ििाद तथा कट्टरपंथ का खुलकर विरोध
ककया। कबीर की िाणी उनके मुखर उपदेि उनकी साखी,
रमैनी, बीजक, बािन-अक्षरी, उलटबासी में देखें जा सकते
हैं। गुरु ग्रंथ साहब में उनके २०० पद और २५० सार्खयां
हैं। कािी में रचसलत मान्यता है कक जो यहॉ मरता है
उसे मोक्ष राप्त होता है। रूढ़ि के विरोधी कबीर को यह
कै से मान्य होता। कािी छोड़ मगहर चले गये और सन्
१५१८ के आस पास िहीं देह त्याग ककया। मगहर में
कबीर की समाधध है क्जसे ढहन्दू मुसलमान दोनों पूजते
हैं।
मतभेद भरा जीिन
ढहंदी साढहत्य में कबीर का व्यक्ततत्ि अनुपम है। गोस्िामी तुलसीदास को छोड़
कर इतना मढहमामक्डडत व्यक्ततत्ि कबीर के ससिा अन्य ककसी का नहीं है।
कबीर की उत्पवि के संबंध में अनेक ककं िदक्न्तयााँ हैं। कु छ लोगों के अनुसार िे
जगदगुरु रामानन्द स्िामी के आिीिाथद से कािी की एक विधिा ब्राह्मणी के
गभथ से उत्पन्न हुए थे। ब्राह्मणी उस निजात सििु को लहरतारा ताल के पास
फें क आयी। उसे नीरु नाम का जुलाहा अपने घर ले आया। उसी ने उसका
पालन-पोषण ककया। बाद में यही बालक कबीर कहलाया। कततपय कबीर पक्न्थयों
की मान्यता है कक कबीर की उत्पवि कािी में लहरतारा तालाब में उत्पन्न कमल
के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रूप में हुई। एक राचीन ग्रंथ के अनुसार
ककसी योगी के औरस तथा रतीतत नामक देिाङ्गना के गभथ से भततराज रहलाद
ही संित् १४५५ ज्येष्ठ िुतल १५ को कबीर के रूप में रकट हुए थे।
कु छ लोगों का कहना है कक िे जन्म से मुसलमान थे और युिािस्था में स्िामी
रामानन्द के रभाि से उन्हें ढहंदू धमथ की बातें मालूम हुईं। एक ढदन, एक पहर
रात रहते ही कबीर पञ्चगंगा घाट की सीढ़ियों पर धगर पड़े। रामानन्द जी
गंगास्नान करने के सलये सीढ़ियााँ उतर रहे थे कक तभी उनका पैर कबीर के िरीर
पर पड़ गया। उनके मुख से तत्काल 'राम-राम' िब्द तनकल पड़ा। उसी राम को
कबीर ने दीक्षा-मन्र मान सलया और रामानन्द जी को अपना गुरु स्िीकार कर
सलया।
कबीर के ही िब्दों में- 'हम कासी में रकट भये हैं, रामानन्द चेताये'।
अन्य जनश्रुततयों से ज्ञात होता है कक कबीर ने ढहंदू-मुसलमान का भेद समटा कर ढहंदू-भततों
तथा मुसलमान फकीरों का सत्संग ककया और दोनों की अच्छी बातों को हृदयंगम कर सलया।
जनश्रुतत के अनुसार उन्हें एक पुर कमाल तथा पुरी कमाली थी। इतने लोगों की परिररि
करने के सलये उन्हें अपने करघे पर काफी काम करना पड़ता था। ११९ िषथ की अिस्था में
उन्होंने मगहर में देह त्याग ककया।
धमथ के रतत
साधु संतों का तो घर में जमािड़ा रहता ही था। कबीर प़िे-सलखे नहीं
थे- 'मसस कागद छू िो नहीं, कलम गही नढहं हाथ।'उन्होंने स्ियं ग्रंथ
नहीं सलखे, मुाँह से भाखे और उनके सिष्यों ने उसे सलख सलया। आप
के समस्त विचारों में रामनाम की मढहमा रततध्ितनत होती है। िे एक
ही ईश्िर को मानते थे और कमथकाडड के घोर विरोधी थे। अितार,
मूविथ, रोजा, ईद, मसक्जद, मंढदर आढद को िे नहीं मानते थे।
कबीर के नाम से समले ग्रंथों की संख्या सभन्न-सभन्न लेखों के अनुसार
सभन्न-सभन्न है। एच.एच. विल्सन के अनुसार कबीर के नाम पर आठ
ग्रंथ हैं। वििप जी.एच. िेस्टकॉट ने कबीर के ८४ ग्रंथों की सूची
रस्तुत की तो रामदास गौड़ ने 'ढहंदुत्ि' में ७१ पुस्तकें धगनायी हैं।
िाणी संग्रह
कबीर की िाणी का संग्रह 'बीजक' के नाम से रससदध है। इसके तीन भाग हैं-
रमैनी, सबद और साखी यह पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली, अिधी, पूरबी, ब्रजभाषा
आढद कई भाषाओं की र्खचड़ी है।कबीर परमात्मा को समर, माता, वपता और पतत
के रूप में देखते हैं।यही तो मनुष्य के सिाथधधक तनकट रहते हैं।
िे कभी कहते हैं-
'हरिमोि पिउ, मैं िाम की बहुरिया' तो कभी कहते हैं, 'हरि जननी मैं बा क तोिा'।
और कभी "बडा हुआ तो तया हुआ जैसै"
उस समय ढहंदू जनता पर मुक्स्लम आतंक का कहर छाया हुआ था। कबीर ने
अपने पंथ को इस ढंग से सुतनयोक्जत ककया क्जससे मुक्स्लम मत की ओर झुकी
हुई जनता सहज ही इनकी अनुयायी हो गयी। उन्होंने अपनी भाषा सरल और
सुबोध रखी ताकक िह आम आदमी तक पहुाँच सके । इससे दोनों सम्प्रदायों के
परस्पर समलन में सुविधा हुई। इनके पंथ मुसलमान-संस्कृ तत और गोभक्षण के
विरोधी थे। कबीर को िांततमय जीिन वरय था और िे अढहंसा, सत्य, सदाचार
आढद गुणों के रिंसक थे। अपनी सरलता, साधु स्िभाि तथा संत रिृवि के
कारण आज विदेिों में भी उनका समादर हो रहा है।
िृदधािस्था में यि और कीविथ की मार ने उन्हें बहुत कष्ट ढदया। उसी हालत में
उन्होंने बनारस छोड़ा और आत्मतनरीक्षण तथा आत्मपरीक्षण करने के सलये देि
के विसभन्न भागों की याराएाँ कीं इसी क्रम में िे कासलंजर क्जले के वपथौराबाद
िहर में पहुाँचे। िहााँ रामकृ ष्ण का छोटा सा मक्न्दर था। िहााँ के संत भगिान्
गोस्िामी के क्जज्ञासु साधक थे ककं तु उनके तकों का अभी तक पूरी तरह
समाधान नहीं हुआ था। संत कबीर से उनका विचार-वितनमय हुआ। कबीर की
एक साखी ने उन के मन पर गहरा असर ककया-
'बन ते भागा बबहरे पड़ा, करहा अपनी बान। करहा बेदन कासों कहे, को करहा को
जान।।'
िन से भाग कर बहेसलये के दिारा खोये हुए गड्ढे में धगरा हुआ हाथी अपनी
व्यथा ककस से कहे ?
सारांि यह कक धमथ की क्जज्ञासा सें रेररत हो कर भगिान गोसाई अपना घर
छोड़ कर बाहर तो तनकल आये और हररव्यासी सम्प्रदाय के गड्ढे में धगर कर
अके ले तनिाथससत हो कर असंिादय क्स्थतत में पड़ चुके हैं।
मूविथ पूजा को लक्ष्य करते हुए उन्होंने एक साखी हाक्जर कर दी-
पाहन पूजे हरर समलैं, तो मैं पूजौं पहार। िा ते तो चाकी भली, पीसी खाय संसार।।
कबीर के राम
कबीर के राम तो अगम हैं और संसार के कण-कण में विराजते हैं।
कबीर के राम इस्लाम के एके श्िरिादी, एकसिािादी खुदा भी नहीं हैं।
इस्लाम में खुदा या अल्लाह को समस्त जगत एिं जीिों से सभन्न एिं
परम समथथ माना जाता है। पर कबीर के राम परम समथथ भले हों,
लेककन समस्त जीिों और जगत से सभन्न तो कदावप नहीं हैं। बक्ल्क
इसके विपरीत िे तो सबमें व्याप्त रहने िाले रमता राम हैं। िह कहते
हैं
व्यापक ब्रह्म सबतनमैं एकै , को पंडडत को जोगी। रािण-राि किनसूं
किन िेद को रोगी।
कबीर राम की ककसी खास रूपाकृ तत की कल्पना नहीं करते, तयोंकक
रूपाकृ तत की कल्पना करते ही राम ककसी खास ढााँचे (फ्रे म) में बाँध
जाते, जो कबीर को ककसी भी हालत में मंजूर नहीं। कबीर राम की
अिधारणा को एक सभन्न और व्यापक स्िरूप देना चाहते थे। इसके
कु छ वििेष कारण थे, क्जनकी चचाथ हम इस लेख में आगे करेंगे।
ककन्तु इसके बािजूद कबीर राम के साथ एक व्यक्ततगत पाररिाररक ककस्म
का संबंध जरूर स्थावपत करते हैं। राम के साथ उनका रेम उनकी अलौककक
और मढहमािाली सिा को एक क्षण भी भुलाए बगैर सहज रेमपरक
मानिीय संबंधों के धरातल पर रततक्ष्ठत है।
कबीर नाम में विश्िास रखते हैं, रूप में नहीं। हालााँकक भक्तत-संिेदना के
ससदधांतों में यह बात सामान्य रूप से रततक्ष्ठत है कक ‘नाम रूप से ब़िकर
है’, लेककन कबीर ने इस सामान्य ससदधांत का क्रांततधमी उपयोग ककया।
कबीर ने राम-नाम के साथ लोकमानस में िताक्ब्दयों से रचे-बसे संक्श्लष्ट
भािों को उदाि एिं व्यापक स्िरूप देकर उसे पुराण-रततपाढदत ब्राह्मणिादी
विचारधारा के खााँचे में बााँधे जाने से रोकने की कोसिि की।
कबीर के राम तनगुथण-सगुण के भेद से परे हैं। दरअसल उन्होंने अपने राम
को िास्र-रततपाढदत अितारी, सगुण, िचथस्ििील िणाथश्रम व्यिस्था के
संरक्षक राम से अलग करने के सलए ही ‘तनगुथण राम’ िब्द का रयोग
ककया–‘तनगुथण राम जपहु रे भाई।’ इस ‘तनगुथण’ िब्द को लेकर भ्रम में पड़ने
की जरूरत नहीं। कबीर का आिय इस िब्द से ससफथ इतना है कक ईश्िर को
ककसी नाम, रूप, गुण, काल आढद की सीमाओं में बााँधा नहीं जा सकता। जो
सारी सीमाओं से परे हैं और कफर भी सिथर हैं, िही कबीर के तनगुथण राम हैं।
इसे उन्होंने ‘रमता राम’ नाम ढदया है।
अपने राम को तनगुथण वििेषण देने के बािजूद कबीर उनके साथ मानिीय रेम संबंधों
की तरह के ररश्ते की बात करते हैं। कभी िह राम को माधुयथ भाि से अपना रेमी या
पतत मान लेते हैं तो कभी दास्य भाि से स्िामी। कभी-कभी िह राम को िात्सल्य मूततथ
के रूप में मााँ मान लेते हैं और खुद को उनका पुर। तनगुथण-तनराकार ब्रह्म के साथ भी
इस तरह का सरस, सहज, मानिीय रेम कबीर की भक्तत की विलक्षणता है। यह
दुविधा और समस्या दूसरों को भले हो सकती है कक क्जस राम के साथ कबीर इतने
अनन्य, मानिीय संबंधपरक रेम करते हों, िह भला तनगुथण कै से हो सकते हैं, पर खुद
कबीर के सलए यह समस्या नहीं है।
िह कहते भी हैं
“संतौ, धोखा कासूं कढहये। गुनमैं तनरगुन, तनरगुनमैं गुन, बाट छांडड़ तयूं बढहसे!” नहीं
है।
रोफे सर महािीर सरन जैन ने कबीर के राम एिं कबीर की साधना के संबंध में अपने
विचार व्यतत करते हुए कहा है : " कबीर का सारा जीिन सत्य की खोज तथा असत्य
के खंडन में व्यतीत हुआ। कबीर की साधना ‘‘मानने से नहीं, ‘‘जानने से आरम्प्भ होती
है। िे ककसी के सिष्य नहीं, रामानन्द दिारा चेताये हुए चेला हैं।उनके सलए राम रूप
नहीं है, दिरथी राम नहीं है, उनके राम तो नाम साधना के रतीक हैं। उनके राम ककसी
सम्प्रदाय, जातत या देि की सीमाओं में कै द नहीं है। रकृ तत के कण-कण में, अंग-अंग
में रमण करने पर भी क्जसे अनंग स्पिथ नहीं कर सकता, िे अलख, अविनािी, परम
तत्ि ही राम हैं। उनके राम मनुष्य और मनुष्य के बीच ककसी भेद-भाि के कारक नहीं
हैं। िे तो रेम तत्ि के रतीक हैं। भाि से ऊपर उठकर महाभाि या रेम के आराध्य हैं
ः -
‘रेम जगािै विरह को, विरह जगािै पीउ, पीउ जगािै जीि
को, जोइ पीउ सोई जीउ' - जो पीउ है, िही जीि है। इसी
कारण उनकी पूरी साधना ‘‘हंस उबारन आए की साधना
है। इस हंस का उबारना पोधथयों के प़िने से नहीं हो
सकता, ढाई आखर रेम के आचरण से ही हो सकता है।
धमथ ओ़िने की चीज नहीं है, जीिन में आचरण करने की
सतत सत्य साधना है। उनकी साधना रेम से आरम्प्भ
होती है। इतना गहरा रेम करो कक िही तुम्प्हारे सलए
परमात्मा हो जाए। उसको पाने की इतनी उत्कडठा हो
जाए कक सबसे िैराग्य हो जाए, विरह भाि हो जाए तभी
उस ध्यान समाधध में पीउ जाग्रत हो सकता है। िही पीउ
तुम्प्हारे अन्तथमन में बैठे जीि को जगा सकता है। जोई
पीउ है सोई जीउ है। तब तुम पूरे संसार से रेम करोगे,
तब संसार का रत्येक जीि तुम्प्हारे रेम का पार बन
जाएगा। सारा अहंकार, सारा दिेष दूर हो जाएगा। कफर
महाभाि जगेगा। इसी महाभाि से पूरा संसार वपउ का घर
हो जाता है।
मीरा बाई
मीिाबाई कृ ष्ण-भक्तत िाखा की रमुख कितयरी हैं। उनका
जन्म १५०४ ईस्िी में जोधपुर के पास मेड्ता ग्राम मे हुआ
था कु ड्की में मीरा बाई का नतनहाल था। उनके वपता का
नाम रत्नससंह था। उनके पतत कुं िर भोजराज उदयपुर
के महाराणा सांगा के पुर थे। वििाह के कु छ समय बाद
ही उनके पतत का देहान्त हो गया। पतत की मृत्यु के बाद
उन्हे पतत के साथ सती करने का रयास ककया गया
ककन्तु मीरां इसके सलए तैयार नही हुई | िे संसार की
ओर से विरतत हो गयीं और साधु-संतों की संगतत में
हररकीतथन करते हुए अपना समय व्यतीत करने लगीं।
कु छ समय बाद उन्होंने घर का त्याग कर ढदया और
तीथाथटन को तनकल गईं। िे बहुत ढदनों तक िृन्दािन में
रहीं और कफर दिाररका चली गईं। जहााँ संित १५६० ईस्िी
में िो भगिान कृ ष्ण कक मूततथ मे समा गई । मीरा बाई
ने कृ ष्ण-भक्तत के स्फु ट पदों की रचना की है।
मीरा बाई
जीिन पररचय
कृ ष्णभक्तत िाखा की ढहंदी की महान कितयरी हैं। उनकी
कविताओं में स्री पराधीनता के रती एक गहरी टीस है, जो
भक्तत के रंग में रंग कर और गहरी हो गयी है।[1]मीरांबाई का
जन्म संित् 1504 में जोधपुर में कु रकी नामक गााँि में हुआ
था।[2] इनका वििाह उदयपुर के महाराणा कु मार भोजराज के
साथ हुआ था। ये बचपन से ही कृ ष्णभक्तत में रुधच लेने लगी
थीं वििाह के थोड़े ही ढदन के बाद उनके पतत का स्िगथिास हो
गया था। पतत के परलोकिास के बाद इनकी भक्तत ढदन-
रततढदन ब़िती गई। ये मंढदरों में जाकर िहााँ मौजूद कृ ष्णभततों
के सामने कृ ष्णजी की मूततथ के आगे नाचती रहती थीं।
मीरांबाईका कृ ष्णभक्तत में नाचना और गाना राज पररिार को
अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कई बार मीराबाई को विष देकर
मारने की कोसिि की। घर िालों के इस रकार के व्यिहार से
परेिान होकर िह दिारका और िृंदािन गईं। िह जहााँ जाती थीं,
िहााँ लोगों का सम्प्मान समलता था। लोग आपको देवियों के जैसा
प्यार और सम्प्मान देते थे। इसी दौरान उन्होंने तुलसीदास को
पर सलखा था :-
स्िक्स्त श्री तुलसी कु लभूषण दूषन- हरन गोसाई। बारढहं बार रनाम
करहूाँ अब हरहूाँ सोक- समुदाई।। घर के स्िजन हमारे जेते सबन्ह
उपाधध ब़िाई। साधु- सग अरु भजन करत माढहं देत कलेस महाई।। मेरे
माता- वपता के समहौ, हररभततन्ह सुखदाई। हमको कहा उधचत कररबो
है, सो सलर्खए समझाई।।
मीराबाई के पर का जबाि तुलसी दास ने इस रकार ढदया:-
जाके वरय न राम बैदेही। सो नर तक्जए कोढट बैरी सम जदयवप परम
सनेहा।। नाते सबै राम के मतनयत सुह्मद सुसंख्य जहााँ लौ। अंजन
कहा आाँर्ख जो फू टे, बहुतक कहो कहां लौ।।
मीरा दिारा रधचत ग्रंथ
मीराबाई ने चार ग्रंथों की रचना की--
-नरसी का मायरा - गीत गोविंद टीका - राग गोविंद - राग सोरठ के
पद
इसके अलािा मीराबाई के गीतों का संकलन "मीरांबाई की पदािली'
नामक ग्रन्थ में ककया गया है।
मीराबाई की भक्तत
मीरा की भक्तत में माधुयथ- भाि काफी हद तक पाया जाता था। िह
अपने इष्टदेि कृ ष्ण की भािना वरयतम या पतत के रुप में करती थी।
उनका मानना था कक इस संसार में कृ ष्ण के अलािा कोई पुरुष है ही
नहीं। कृ ष्ण के रुप की दीिानी थी--
बसो मेरे नैनन में नंदलाल। मोहनी मूरतत, सााँिरर, सुरतत नैना
बने विसाल।। अधर सुधारस मुरली बाजतत, उर बैजंती माल।
क्षुद्र घंढटका कढट- तट सोसभत, नूपुर िब्द रसाल। मीरा रभु
संतन सुखदाई, भतत बछल गोपाल।।
मीराबाई रैदास को अपना गुरु मानते हुए कहती हैं -
गुरु समसलया रैदास दीन्ही ज्ञान की गुटकी।
इन्होंने अपने बहुत से पदों की रचना राजस्थानी समधश्रत भाषा
में की है। इसके अलािा कु छ वििुदध साढहक्त्यक ब्रजभाषा में
भी सलखा है। इन्होंने जन्मजात कवितयरी न होने के बािजूद
भक्तत की भािना में कवितयरी के रुप में रससदधध रदान की।
मीरा के विरह गीतों में समकालीन कवियों की अपेक्षा अधधक
स्िाभाविकता पाई जाती है। इन्होंने अपने पदों में श्रृंगार और
िांत रस का रयोग वििेष रुप से ककया है।
मन रे पासस हरर के चरन। सुभग सीतल कमल- कोमल बरविध
- ज्िाला- हरन। जो चरन रह्मलाद परसे इंद्र- पदिी- हान।।
क्जन चरन ध्रुि अटल कींन्हों रार्ख अपनी सरन। क्जन चरन
ब्राह्मांड मेंथ्यों नखससखौ श्री भरन।। क्जन चरन रभु परस
लतनहों तरी गौतम धरतन। क्जन चरन धरथो गोबरधन गरब-
मधिा- हरन।। दास मीरा लाल धगरधर आजम तारन
तnathanaरन।।
मीिाबाई का घि से ननका ा
जाना
मीराबाई का कृष्णभक्ति में नाचना और गाना राज पररवार को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कई बार
मीराबाई को क्तवष देकर मारने की कोक्तिि की। घर वालों के इस प्रकार के व्यवहार से परेिान होकर
वह द्वारका और वृृंदावन गई ृं। वह जहााँ जाती थीं, वहााँ लोगों का सम्मान क्तमलता था। लोग आपको
देक्तवयों के जैसा प्यार और सम्मान देते थे। इसी दौरान उन्होंने तुलसीदास को पत्र क्तलखा था :-
स्िक्स्त श्री तुलसी कु लभूषण दूषन- हरन गोसाई।
बारढहं बार रनाम करहूाँ अब हरहूाँ सोक- समुदाई।।
घर के स्िजन हमारे जेते सबन्ह उपाधध ब़िाई।
साधु- सग अरु भजन करत माढहं देत कलेस महाई।।
मेरे माता- वपता के समहौ, हररभततन्ह सुखदाई।
हमको कहा उधचत कररबो है, सो सलर्खए समझाई।।
जाके वरय न राम बैदेही।
सो नर तक्जए कोढट बैरी सम जदयवप परम सनेहा।।
नाते सबै राम के मतनयत सुह्मद सुसंख्य जहााँ लौ।
अंजन कहा आाँर्ख जो फू टे, बहुतक कहो कहां लौ।।
मीिा द्वािा िचित ग्रंथ
मीराबाई ने चार ग्रृंथों की रचना की--
- बरसी का मायरा
- गीत गोक्तवृंद टीका
- राग गोक्तवृंद
- राग सोरठ के पद
इसके अलावा मीराबाई के गीतों का सृंकलन "मीराबाई की पदावली' नामक ग्रन्थ में क्तकया
गया है।
मीिाबाई की भक्तत
मीरा की भक्ति में माधुयय- भाव काफी हद तक पाया जाता था। वह अपने इष्टदेव कृष्ण की भावना क्तप्रयतम
या पक्तत के रुप में करती थी। उनका मानना था क्तक इस सृंसार में कृष्ण के अलावा कोई पुरुष है ही नहीं।
कृष्ण के रुप की दीवानी थी--
बसो मेरे नैनन में नंदलाल।
मोहनी मूरतत, सााँिरर, सुरतत नैना बने विसाल।।
अधर सुधारस मुरली बाजतत, उर बैजंती माल।
क्षुद्र घंढटका कढट- तट सोसभत, नूपुर िब्द रसाल।
मीरा रभु संतन सुखदाई, भतत बछल गोपाल।।
मीराबाई रैदास को अपना गुरु मानते हुए कहती हैं -
गुरु समसलया रैदास दीन्ही ज्ञान की गुटकी।
इन्होंने अपने बहुत से पदों की रचना राजस्थानी समधश्रत भाषा में ही है।
इसके अलािा कु छ वििुदध साढहक्त्यक ब्रजभाषा में भी सलखा है। इन्होंने
जन्मजात कवितयरी न होने के बािजूद भक्तत की भािना में कवितयरी के रुप
में रससदधध रदान की। मीरा के विरह गीतों में समकालीन कवियों की अपेक्षा
अधधक स्िाभाविकता पाई जाती है। इन्होंने अपने पदों में श्रृंगार और िांत
रस
का रयोग वििेष रुप से ककया है।
इनके एक पद --
मन रे पासस हरर के चरन।
सुभग सीतल कमल- कोमल बरविध - ज्िाला- हरन।
जो चरन रह्मलाद परसे इंद्र- पदिी- हान।।
क्जन चरन ध्रुि अटल कींन्हों रार्ख अपनी सरन।
क्जन चरन ब्राह्मांड मेंथ्यों नखससखौ श्री भरन।।
क्जन चरन रभु परस लतनहों तरी गौतम धरतन।
क्जन चरन धरथो गोबरधन गरब- मधिा- हरन।।
दास मीरा लाल धगरधर आजम तारन तरन।।
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  • 3. संत कबीर कबीर सन्त कवि और समाज सुधारक थे। ये ससकन्दर लोदी के समकालीन थे। कबीर का अथथ अरबी भाषा में महान होता है। कबीरदास भारत के भक्तत काव्य परंपरा के महानतम कवियों में से एक थे। भारत में धमथ, भाषा या संस्कृ तत ककसी की भी चचाथ बबना कबीर की चचाथ के अधूरी ही रहेगी। कबीरपंथी, एक धासमथक समुदाय जो कबीर के ससदधांतों और सिक्षाओं को अपने जीिन िैली का आधार मानते हैं,
  • 4. जीिन कािी के इस अतखड़, तनडर एिं संत कवि का जन्म लहरतारा के पास सन् १३९८ में ज्येष्ठ पूर्णथमा को हुआ। जुलाहा पररिार में पालन पोषण हुआ, संत रामानंद के सिष्य बने और अलख जगाने लगे। कबीर सधुतकड़ी भाषा में ककसी भी सम्प्रदाय और रूढ़ियों की परिाह ककये बबना खरी बात कहते थे। कबीर ने ढहंदू-मुसलमान सभी समाज में व्याप्त रूढ़ििाद तथा कट्टरपंथ का खुलकर विरोध ककया। कबीर की िाणी उनके मुखर उपदेि उनकी साखी, रमैनी, बीजक, बािन-अक्षरी, उलटबासी में देखें जा सकते हैं। गुरु ग्रंथ साहब में उनके २०० पद और २५० सार्खयां हैं। कािी में रचसलत मान्यता है कक जो यहॉ मरता है उसे मोक्ष राप्त होता है। रूढ़ि के विरोधी कबीर को यह कै से मान्य होता। कािी छोड़ मगहर चले गये और सन् १५१८ के आस पास िहीं देह त्याग ककया। मगहर में कबीर की समाधध है क्जसे ढहन्दू मुसलमान दोनों पूजते हैं।
  • 5. मतभेद भरा जीिन ढहंदी साढहत्य में कबीर का व्यक्ततत्ि अनुपम है। गोस्िामी तुलसीदास को छोड़ कर इतना मढहमामक्डडत व्यक्ततत्ि कबीर के ससिा अन्य ककसी का नहीं है। कबीर की उत्पवि के संबंध में अनेक ककं िदक्न्तयााँ हैं। कु छ लोगों के अनुसार िे जगदगुरु रामानन्द स्िामी के आिीिाथद से कािी की एक विधिा ब्राह्मणी के गभथ से उत्पन्न हुए थे। ब्राह्मणी उस निजात सििु को लहरतारा ताल के पास फें क आयी। उसे नीरु नाम का जुलाहा अपने घर ले आया। उसी ने उसका पालन-पोषण ककया। बाद में यही बालक कबीर कहलाया। कततपय कबीर पक्न्थयों की मान्यता है कक कबीर की उत्पवि कािी में लहरतारा तालाब में उत्पन्न कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रूप में हुई। एक राचीन ग्रंथ के अनुसार ककसी योगी के औरस तथा रतीतत नामक देिाङ्गना के गभथ से भततराज रहलाद ही संित् १४५५ ज्येष्ठ िुतल १५ को कबीर के रूप में रकट हुए थे। कु छ लोगों का कहना है कक िे जन्म से मुसलमान थे और युिािस्था में स्िामी रामानन्द के रभाि से उन्हें ढहंदू धमथ की बातें मालूम हुईं। एक ढदन, एक पहर रात रहते ही कबीर पञ्चगंगा घाट की सीढ़ियों पर धगर पड़े। रामानन्द जी गंगास्नान करने के सलये सीढ़ियााँ उतर रहे थे कक तभी उनका पैर कबीर के िरीर पर पड़ गया। उनके मुख से तत्काल 'राम-राम' िब्द तनकल पड़ा। उसी राम को कबीर ने दीक्षा-मन्र मान सलया और रामानन्द जी को अपना गुरु स्िीकार कर सलया।
  • 6. कबीर के ही िब्दों में- 'हम कासी में रकट भये हैं, रामानन्द चेताये'। अन्य जनश्रुततयों से ज्ञात होता है कक कबीर ने ढहंदू-मुसलमान का भेद समटा कर ढहंदू-भततों तथा मुसलमान फकीरों का सत्संग ककया और दोनों की अच्छी बातों को हृदयंगम कर सलया। जनश्रुतत के अनुसार उन्हें एक पुर कमाल तथा पुरी कमाली थी। इतने लोगों की परिररि करने के सलये उन्हें अपने करघे पर काफी काम करना पड़ता था। ११९ िषथ की अिस्था में उन्होंने मगहर में देह त्याग ककया। धमथ के रतत साधु संतों का तो घर में जमािड़ा रहता ही था। कबीर प़िे-सलखे नहीं थे- 'मसस कागद छू िो नहीं, कलम गही नढहं हाथ।'उन्होंने स्ियं ग्रंथ नहीं सलखे, मुाँह से भाखे और उनके सिष्यों ने उसे सलख सलया। आप के समस्त विचारों में रामनाम की मढहमा रततध्ितनत होती है। िे एक ही ईश्िर को मानते थे और कमथकाडड के घोर विरोधी थे। अितार, मूविथ, रोजा, ईद, मसक्जद, मंढदर आढद को िे नहीं मानते थे। कबीर के नाम से समले ग्रंथों की संख्या सभन्न-सभन्न लेखों के अनुसार सभन्न-सभन्न है। एच.एच. विल्सन के अनुसार कबीर के नाम पर आठ ग्रंथ हैं। वििप जी.एच. िेस्टकॉट ने कबीर के ८४ ग्रंथों की सूची रस्तुत की तो रामदास गौड़ ने 'ढहंदुत्ि' में ७१ पुस्तकें धगनायी हैं।
  • 7. िाणी संग्रह कबीर की िाणी का संग्रह 'बीजक' के नाम से रससदध है। इसके तीन भाग हैं- रमैनी, सबद और साखी यह पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली, अिधी, पूरबी, ब्रजभाषा आढद कई भाषाओं की र्खचड़ी है।कबीर परमात्मा को समर, माता, वपता और पतत के रूप में देखते हैं।यही तो मनुष्य के सिाथधधक तनकट रहते हैं। िे कभी कहते हैं- 'हरिमोि पिउ, मैं िाम की बहुरिया' तो कभी कहते हैं, 'हरि जननी मैं बा क तोिा'। और कभी "बडा हुआ तो तया हुआ जैसै" उस समय ढहंदू जनता पर मुक्स्लम आतंक का कहर छाया हुआ था। कबीर ने अपने पंथ को इस ढंग से सुतनयोक्जत ककया क्जससे मुक्स्लम मत की ओर झुकी हुई जनता सहज ही इनकी अनुयायी हो गयी। उन्होंने अपनी भाषा सरल और सुबोध रखी ताकक िह आम आदमी तक पहुाँच सके । इससे दोनों सम्प्रदायों के परस्पर समलन में सुविधा हुई। इनके पंथ मुसलमान-संस्कृ तत और गोभक्षण के विरोधी थे। कबीर को िांततमय जीिन वरय था और िे अढहंसा, सत्य, सदाचार आढद गुणों के रिंसक थे। अपनी सरलता, साधु स्िभाि तथा संत रिृवि के कारण आज विदेिों में भी उनका समादर हो रहा है।
  • 8. िृदधािस्था में यि और कीविथ की मार ने उन्हें बहुत कष्ट ढदया। उसी हालत में उन्होंने बनारस छोड़ा और आत्मतनरीक्षण तथा आत्मपरीक्षण करने के सलये देि के विसभन्न भागों की याराएाँ कीं इसी क्रम में िे कासलंजर क्जले के वपथौराबाद िहर में पहुाँचे। िहााँ रामकृ ष्ण का छोटा सा मक्न्दर था। िहााँ के संत भगिान् गोस्िामी के क्जज्ञासु साधक थे ककं तु उनके तकों का अभी तक पूरी तरह समाधान नहीं हुआ था। संत कबीर से उनका विचार-वितनमय हुआ। कबीर की एक साखी ने उन के मन पर गहरा असर ककया- 'बन ते भागा बबहरे पड़ा, करहा अपनी बान। करहा बेदन कासों कहे, को करहा को जान।।' िन से भाग कर बहेसलये के दिारा खोये हुए गड्ढे में धगरा हुआ हाथी अपनी व्यथा ककस से कहे ? सारांि यह कक धमथ की क्जज्ञासा सें रेररत हो कर भगिान गोसाई अपना घर छोड़ कर बाहर तो तनकल आये और हररव्यासी सम्प्रदाय के गड्ढे में धगर कर अके ले तनिाथससत हो कर असंिादय क्स्थतत में पड़ चुके हैं। मूविथ पूजा को लक्ष्य करते हुए उन्होंने एक साखी हाक्जर कर दी- पाहन पूजे हरर समलैं, तो मैं पूजौं पहार। िा ते तो चाकी भली, पीसी खाय संसार।।
  • 9. कबीर के राम कबीर के राम तो अगम हैं और संसार के कण-कण में विराजते हैं। कबीर के राम इस्लाम के एके श्िरिादी, एकसिािादी खुदा भी नहीं हैं। इस्लाम में खुदा या अल्लाह को समस्त जगत एिं जीिों से सभन्न एिं परम समथथ माना जाता है। पर कबीर के राम परम समथथ भले हों, लेककन समस्त जीिों और जगत से सभन्न तो कदावप नहीं हैं। बक्ल्क इसके विपरीत िे तो सबमें व्याप्त रहने िाले रमता राम हैं। िह कहते हैं व्यापक ब्रह्म सबतनमैं एकै , को पंडडत को जोगी। रािण-राि किनसूं किन िेद को रोगी। कबीर राम की ककसी खास रूपाकृ तत की कल्पना नहीं करते, तयोंकक रूपाकृ तत की कल्पना करते ही राम ककसी खास ढााँचे (फ्रे म) में बाँध जाते, जो कबीर को ककसी भी हालत में मंजूर नहीं। कबीर राम की अिधारणा को एक सभन्न और व्यापक स्िरूप देना चाहते थे। इसके कु छ वििेष कारण थे, क्जनकी चचाथ हम इस लेख में आगे करेंगे।
  • 10. ककन्तु इसके बािजूद कबीर राम के साथ एक व्यक्ततगत पाररिाररक ककस्म का संबंध जरूर स्थावपत करते हैं। राम के साथ उनका रेम उनकी अलौककक और मढहमािाली सिा को एक क्षण भी भुलाए बगैर सहज रेमपरक मानिीय संबंधों के धरातल पर रततक्ष्ठत है। कबीर नाम में विश्िास रखते हैं, रूप में नहीं। हालााँकक भक्तत-संिेदना के ससदधांतों में यह बात सामान्य रूप से रततक्ष्ठत है कक ‘नाम रूप से ब़िकर है’, लेककन कबीर ने इस सामान्य ससदधांत का क्रांततधमी उपयोग ककया। कबीर ने राम-नाम के साथ लोकमानस में िताक्ब्दयों से रचे-बसे संक्श्लष्ट भािों को उदाि एिं व्यापक स्िरूप देकर उसे पुराण-रततपाढदत ब्राह्मणिादी विचारधारा के खााँचे में बााँधे जाने से रोकने की कोसिि की। कबीर के राम तनगुथण-सगुण के भेद से परे हैं। दरअसल उन्होंने अपने राम को िास्र-रततपाढदत अितारी, सगुण, िचथस्ििील िणाथश्रम व्यिस्था के संरक्षक राम से अलग करने के सलए ही ‘तनगुथण राम’ िब्द का रयोग ककया–‘तनगुथण राम जपहु रे भाई।’ इस ‘तनगुथण’ िब्द को लेकर भ्रम में पड़ने की जरूरत नहीं। कबीर का आिय इस िब्द से ससफथ इतना है कक ईश्िर को ककसी नाम, रूप, गुण, काल आढद की सीमाओं में बााँधा नहीं जा सकता। जो सारी सीमाओं से परे हैं और कफर भी सिथर हैं, िही कबीर के तनगुथण राम हैं। इसे उन्होंने ‘रमता राम’ नाम ढदया है।
  • 11. अपने राम को तनगुथण वििेषण देने के बािजूद कबीर उनके साथ मानिीय रेम संबंधों की तरह के ररश्ते की बात करते हैं। कभी िह राम को माधुयथ भाि से अपना रेमी या पतत मान लेते हैं तो कभी दास्य भाि से स्िामी। कभी-कभी िह राम को िात्सल्य मूततथ के रूप में मााँ मान लेते हैं और खुद को उनका पुर। तनगुथण-तनराकार ब्रह्म के साथ भी इस तरह का सरस, सहज, मानिीय रेम कबीर की भक्तत की विलक्षणता है। यह दुविधा और समस्या दूसरों को भले हो सकती है कक क्जस राम के साथ कबीर इतने अनन्य, मानिीय संबंधपरक रेम करते हों, िह भला तनगुथण कै से हो सकते हैं, पर खुद कबीर के सलए यह समस्या नहीं है। िह कहते भी हैं “संतौ, धोखा कासूं कढहये। गुनमैं तनरगुन, तनरगुनमैं गुन, बाट छांडड़ तयूं बढहसे!” नहीं है। रोफे सर महािीर सरन जैन ने कबीर के राम एिं कबीर की साधना के संबंध में अपने विचार व्यतत करते हुए कहा है : " कबीर का सारा जीिन सत्य की खोज तथा असत्य के खंडन में व्यतीत हुआ। कबीर की साधना ‘‘मानने से नहीं, ‘‘जानने से आरम्प्भ होती है। िे ककसी के सिष्य नहीं, रामानन्द दिारा चेताये हुए चेला हैं।उनके सलए राम रूप नहीं है, दिरथी राम नहीं है, उनके राम तो नाम साधना के रतीक हैं। उनके राम ककसी सम्प्रदाय, जातत या देि की सीमाओं में कै द नहीं है। रकृ तत के कण-कण में, अंग-अंग में रमण करने पर भी क्जसे अनंग स्पिथ नहीं कर सकता, िे अलख, अविनािी, परम तत्ि ही राम हैं। उनके राम मनुष्य और मनुष्य के बीच ककसी भेद-भाि के कारक नहीं हैं। िे तो रेम तत्ि के रतीक हैं। भाि से ऊपर उठकर महाभाि या रेम के आराध्य हैं ः -
  • 12. ‘रेम जगािै विरह को, विरह जगािै पीउ, पीउ जगािै जीि को, जोइ पीउ सोई जीउ' - जो पीउ है, िही जीि है। इसी कारण उनकी पूरी साधना ‘‘हंस उबारन आए की साधना है। इस हंस का उबारना पोधथयों के प़िने से नहीं हो सकता, ढाई आखर रेम के आचरण से ही हो सकता है। धमथ ओ़िने की चीज नहीं है, जीिन में आचरण करने की सतत सत्य साधना है। उनकी साधना रेम से आरम्प्भ होती है। इतना गहरा रेम करो कक िही तुम्प्हारे सलए परमात्मा हो जाए। उसको पाने की इतनी उत्कडठा हो जाए कक सबसे िैराग्य हो जाए, विरह भाि हो जाए तभी उस ध्यान समाधध में पीउ जाग्रत हो सकता है। िही पीउ तुम्प्हारे अन्तथमन में बैठे जीि को जगा सकता है। जोई पीउ है सोई जीउ है। तब तुम पूरे संसार से रेम करोगे, तब संसार का रत्येक जीि तुम्प्हारे रेम का पार बन जाएगा। सारा अहंकार, सारा दिेष दूर हो जाएगा। कफर महाभाि जगेगा। इसी महाभाि से पूरा संसार वपउ का घर हो जाता है।
  • 14. मीिाबाई कृ ष्ण-भक्तत िाखा की रमुख कितयरी हैं। उनका जन्म १५०४ ईस्िी में जोधपुर के पास मेड्ता ग्राम मे हुआ था कु ड्की में मीरा बाई का नतनहाल था। उनके वपता का नाम रत्नससंह था। उनके पतत कुं िर भोजराज उदयपुर के महाराणा सांगा के पुर थे। वििाह के कु छ समय बाद ही उनके पतत का देहान्त हो गया। पतत की मृत्यु के बाद उन्हे पतत के साथ सती करने का रयास ककया गया ककन्तु मीरां इसके सलए तैयार नही हुई | िे संसार की ओर से विरतत हो गयीं और साधु-संतों की संगतत में हररकीतथन करते हुए अपना समय व्यतीत करने लगीं। कु छ समय बाद उन्होंने घर का त्याग कर ढदया और तीथाथटन को तनकल गईं। िे बहुत ढदनों तक िृन्दािन में रहीं और कफर दिाररका चली गईं। जहााँ संित १५६० ईस्िी में िो भगिान कृ ष्ण कक मूततथ मे समा गई । मीरा बाई ने कृ ष्ण-भक्तत के स्फु ट पदों की रचना की है। मीरा बाई
  • 15. जीिन पररचय कृ ष्णभक्तत िाखा की ढहंदी की महान कितयरी हैं। उनकी कविताओं में स्री पराधीनता के रती एक गहरी टीस है, जो भक्तत के रंग में रंग कर और गहरी हो गयी है।[1]मीरांबाई का जन्म संित् 1504 में जोधपुर में कु रकी नामक गााँि में हुआ था।[2] इनका वििाह उदयपुर के महाराणा कु मार भोजराज के साथ हुआ था। ये बचपन से ही कृ ष्णभक्तत में रुधच लेने लगी थीं वििाह के थोड़े ही ढदन के बाद उनके पतत का स्िगथिास हो गया था। पतत के परलोकिास के बाद इनकी भक्तत ढदन- रततढदन ब़िती गई। ये मंढदरों में जाकर िहााँ मौजूद कृ ष्णभततों के सामने कृ ष्णजी की मूततथ के आगे नाचती रहती थीं। मीरांबाईका कृ ष्णभक्तत में नाचना और गाना राज पररिार को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कई बार मीराबाई को विष देकर मारने की कोसिि की। घर िालों के इस रकार के व्यिहार से परेिान होकर िह दिारका और िृंदािन गईं। िह जहााँ जाती थीं, िहााँ लोगों का सम्प्मान समलता था। लोग आपको देवियों के जैसा प्यार और सम्प्मान देते थे। इसी दौरान उन्होंने तुलसीदास को पर सलखा था :-
  • 16. स्िक्स्त श्री तुलसी कु लभूषण दूषन- हरन गोसाई। बारढहं बार रनाम करहूाँ अब हरहूाँ सोक- समुदाई।। घर के स्िजन हमारे जेते सबन्ह उपाधध ब़िाई। साधु- सग अरु भजन करत माढहं देत कलेस महाई।। मेरे माता- वपता के समहौ, हररभततन्ह सुखदाई। हमको कहा उधचत कररबो है, सो सलर्खए समझाई।। मीराबाई के पर का जबाि तुलसी दास ने इस रकार ढदया:- जाके वरय न राम बैदेही। सो नर तक्जए कोढट बैरी सम जदयवप परम सनेहा।। नाते सबै राम के मतनयत सुह्मद सुसंख्य जहााँ लौ। अंजन कहा आाँर्ख जो फू टे, बहुतक कहो कहां लौ।। मीरा दिारा रधचत ग्रंथ मीराबाई ने चार ग्रंथों की रचना की-- -नरसी का मायरा - गीत गोविंद टीका - राग गोविंद - राग सोरठ के पद इसके अलािा मीराबाई के गीतों का संकलन "मीरांबाई की पदािली' नामक ग्रन्थ में ककया गया है। मीराबाई की भक्तत मीरा की भक्तत में माधुयथ- भाि काफी हद तक पाया जाता था। िह अपने इष्टदेि कृ ष्ण की भािना वरयतम या पतत के रुप में करती थी। उनका मानना था कक इस संसार में कृ ष्ण के अलािा कोई पुरुष है ही नहीं। कृ ष्ण के रुप की दीिानी थी--
  • 17. बसो मेरे नैनन में नंदलाल। मोहनी मूरतत, सााँिरर, सुरतत नैना बने विसाल।। अधर सुधारस मुरली बाजतत, उर बैजंती माल। क्षुद्र घंढटका कढट- तट सोसभत, नूपुर िब्द रसाल। मीरा रभु संतन सुखदाई, भतत बछल गोपाल।। मीराबाई रैदास को अपना गुरु मानते हुए कहती हैं - गुरु समसलया रैदास दीन्ही ज्ञान की गुटकी। इन्होंने अपने बहुत से पदों की रचना राजस्थानी समधश्रत भाषा में की है। इसके अलािा कु छ वििुदध साढहक्त्यक ब्रजभाषा में भी सलखा है। इन्होंने जन्मजात कवितयरी न होने के बािजूद भक्तत की भािना में कवितयरी के रुप में रससदधध रदान की। मीरा के विरह गीतों में समकालीन कवियों की अपेक्षा अधधक स्िाभाविकता पाई जाती है। इन्होंने अपने पदों में श्रृंगार और िांत रस का रयोग वििेष रुप से ककया है। मन रे पासस हरर के चरन। सुभग सीतल कमल- कोमल बरविध - ज्िाला- हरन। जो चरन रह्मलाद परसे इंद्र- पदिी- हान।। क्जन चरन ध्रुि अटल कींन्हों रार्ख अपनी सरन। क्जन चरन ब्राह्मांड मेंथ्यों नखससखौ श्री भरन।। क्जन चरन रभु परस लतनहों तरी गौतम धरतन। क्जन चरन धरथो गोबरधन गरब- मधिा- हरन।। दास मीरा लाल धगरधर आजम तारन तnathanaरन।।
  • 18. मीिाबाई का घि से ननका ा जाना मीराबाई का कृष्णभक्ति में नाचना और गाना राज पररवार को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कई बार मीराबाई को क्तवष देकर मारने की कोक्तिि की। घर वालों के इस प्रकार के व्यवहार से परेिान होकर वह द्वारका और वृृंदावन गई ृं। वह जहााँ जाती थीं, वहााँ लोगों का सम्मान क्तमलता था। लोग आपको देक्तवयों के जैसा प्यार और सम्मान देते थे। इसी दौरान उन्होंने तुलसीदास को पत्र क्तलखा था :- स्िक्स्त श्री तुलसी कु लभूषण दूषन- हरन गोसाई। बारढहं बार रनाम करहूाँ अब हरहूाँ सोक- समुदाई।। घर के स्िजन हमारे जेते सबन्ह उपाधध ब़िाई। साधु- सग अरु भजन करत माढहं देत कलेस महाई।। मेरे माता- वपता के समहौ, हररभततन्ह सुखदाई। हमको कहा उधचत कररबो है, सो सलर्खए समझाई।।
  • 19. जाके वरय न राम बैदेही। सो नर तक्जए कोढट बैरी सम जदयवप परम सनेहा।। नाते सबै राम के मतनयत सुह्मद सुसंख्य जहााँ लौ। अंजन कहा आाँर्ख जो फू टे, बहुतक कहो कहां लौ।। मीिा द्वािा िचित ग्रंथ मीराबाई ने चार ग्रृंथों की रचना की-- - बरसी का मायरा - गीत गोक्तवृंद टीका - राग गोक्तवृंद - राग सोरठ के पद इसके अलावा मीराबाई के गीतों का सृंकलन "मीराबाई की पदावली' नामक ग्रन्थ में क्तकया गया है।
  • 20. मीिाबाई की भक्तत मीरा की भक्ति में माधुयय- भाव काफी हद तक पाया जाता था। वह अपने इष्टदेव कृष्ण की भावना क्तप्रयतम या पक्तत के रुप में करती थी। उनका मानना था क्तक इस सृंसार में कृष्ण के अलावा कोई पुरुष है ही नहीं। कृष्ण के रुप की दीवानी थी-- बसो मेरे नैनन में नंदलाल। मोहनी मूरतत, सााँिरर, सुरतत नैना बने विसाल।। अधर सुधारस मुरली बाजतत, उर बैजंती माल। क्षुद्र घंढटका कढट- तट सोसभत, नूपुर िब्द रसाल। मीरा रभु संतन सुखदाई, भतत बछल गोपाल।। मीराबाई रैदास को अपना गुरु मानते हुए कहती हैं - गुरु समसलया रैदास दीन्ही ज्ञान की गुटकी।
  • 21. इन्होंने अपने बहुत से पदों की रचना राजस्थानी समधश्रत भाषा में ही है। इसके अलािा कु छ वििुदध साढहक्त्यक ब्रजभाषा में भी सलखा है। इन्होंने जन्मजात कवितयरी न होने के बािजूद भक्तत की भािना में कवितयरी के रुप में रससदधध रदान की। मीरा के विरह गीतों में समकालीन कवियों की अपेक्षा अधधक स्िाभाविकता पाई जाती है। इन्होंने अपने पदों में श्रृंगार और िांत रस का रयोग वििेष रुप से ककया है। इनके एक पद -- मन रे पासस हरर के चरन। सुभग सीतल कमल- कोमल बरविध - ज्िाला- हरन। जो चरन रह्मलाद परसे इंद्र- पदिी- हान।। क्जन चरन ध्रुि अटल कींन्हों रार्ख अपनी सरन। क्जन चरन ब्राह्मांड मेंथ्यों नखससखौ श्री भरन।। क्जन चरन रभु परस लतनहों तरी गौतम धरतन। क्जन चरन धरथो गोबरधन गरब- मधिा- हरन।। दास मीरा लाल धगरधर आजम तारन तरन।।