SlideShare una empresa de Scribd logo
1 de 22
पञ्चाङ्ग / पंचांग / panchang
भारत मे पंचांग का अपना विविष्ट स्थान है।
भारत व्रत, त्यौहार, उत्सि, मांगविक कारेाेा का देि है। रे रहा की संस्क
ृ वत मे रचे-बसे है। पंचांग का मूि उद्देश्य
विवभन्न व्रत, त्यौहार, उत्सि, मांगविक कारेा की जांच करना है।
वहन्दू प्रणािी से पंचांग क
े विवभन्न तत्वो क
े संरोजन से िुभ और अिुभ क्षण (रोग) का गठन करना है। इसक
े
आिािा सप्ताह क
े वदन, वतवथ, रोग, नक्षत्र, करण आवद को विविष्ट गवतविविरो क
े विए वनिाेाररत
वकरे गरे उनक
े उतार-चढाि का ज्ञान है। एक िुभ समर वनिाेाररत करने क
े विए पंचांग िुद्धि मौविक
है। इसक
े अिािा अनुक
ू ि पारगमन, िुि िग्न, अिुभ रोगो की अनुपद्धस्थवत, अनुक
ू ि दिा (वहंदू प्रगवत), कताेा
का नाम, प्रस्ताि, मंत्रो का जप, गवतविवि की जगह, सामावजक रीवत-ररिाज, सगुन, श्वास क
े तरीक
े का पररक्षण
भी पंचांग की मौविकता है।
पञ्चाङ्ग पररभाषा- वजस पत्रक द्वारा किान्तगेात िार, वतवथ, रोग, नक्षत्र, करण इन पांचो का ज्ञान हो उसे पंचाग
कहते है। िैसे सौर, चांद्र, बृहस्पतस्य, सािन, नाक्षत्र इन पांच प्रकार क
े काि क
े अंगो का ज्ञान वजस पिवत से हो
उसे भी पंचांग कहते है। पंचांग का िाद्धिक अथेा है :- पञ्च + अंग अथाेात वजसक
े पांच अंग हो।इनक
े आिािा भी
पंचाग मे अरन, ऋतु, मास, पक्ष, ग्रह, ग्रहो क
े उदरास्तावद, िग्न सारवणरा, वििाहावद अनेक प्रकार क
े मुहूर्त्ेा, व्रत
त्योहारो का वदन समर, िषेा फि, रावि फि आवद अनेक जानकारररा दी रहती है।
उत्पवर्त् : िैवदक अनुष्ठानो क
े विरे समर िुद्धि और समर रखना महत्वपूणेा था और िैवदक रुग मे खगोिीर
वपण्डो पर नजर रखना और भविष्यिाणी क
े विरे समर रखना, अनुष्ठानो क
े विरे वदन और समर तर करना
ज्योवतष का क्षेत्र था। रह अध्यरन छह मे एक प्राचीन िेदांग रा िेदो से जुडी सहारक विज्ञान मे से था। प्राचीन
भारतीर संस्क
ृ वत ने िेवदक अनुष्ठानो क
े विए पिवत और वदनदिेाक (पंचांग) रखने क
े विए एक पररष्क
ृ त समर
विकवसत वकरा।
क
ु छ का मानना है वक समर रखने की रह पिवत "मेसोपोटावमरा" मे विकवसत हुई। चारनीज
रोंवकओ ओहािी का कहना है वक रह िेदांग क्षेत्र प्राचीन भारत मे िास्तविक खगोिीर अध्यरन से विकवसत
हुआ है। िैवदक ज्योवतष विज्ञान क
े ग्रंथो को दू सरी और तीसरी ितािी सीई मे चीनी भाषा मे अनुिावदत वकरा
गरा था, और खगोि विज्ञान पर ऋग्वेवदक मागेा झू वजरावनरान और झी वकरान क
े कारो मे पारे जाते हैं।
िैवदक ग्रंथो मे समर-साररणी क
े साथ-साथ सौर और चंद्रमा आंदोिनो की प्रक
ृ वत का उल्लेख वकरा गरा है।
उदाहरण क
े विए कौवितकी ब्राह्मण अध्यार 1 9.3 मे सूरेा क
े सापेक्ष स्थान मे 6 महीने क
े विए उर्त्र की वदिा मे
बदिाि, और दवक्षण मे 6 महीने क
े विए बदिाि का उल्लेख है।
भारतीर ज्योवतष गवणत पिवत का आिार भारतीर खगोि िेर्त्ाओ द्वारा ग्रह, वतवथ इत्यावद क
े विए बनारे गए
आषेा वसिांत है। और इन्ही आषेा वसिान्तो पर भारत क
े विवभन्न स्थानो से कई पंचांग विवभन्न मतो अनुसार बनारे
जाते है। भारत मे आजकि जो वसिांत प्रचिन मे है उनक
े अनुसार दृश्य गणना पर ग्रह इत्यावद पंचांगो मे दविेात
स्थानो पर नही वदखते, इसका बोि प्राचीन खगोि िेर्त्ाओ को रहा होगा ! भारत िषेा िमेा प्राण देि है और
िावमेाक क
ृ त्यावद क
े विरे "आषेा वसिान्तो" पर आिाररत वतथ्यावद मान ही प्रामावणक है।
सूक्ष्मकाि का ज्ञान आिक्य है, वकन्तु वफर भी िास्तविकता क
े समीप का ज्ञान हो िही श्रेष्ठ है। प्रारः ग्रहो की गवत
मे िैिक्षण्य होने से कािांतर मे वतथ्यावद मान मे अन्तर हो जारा करता है, इसविए प्राचीन ज्योवतष ग्रन्थो मे
संसोिन होता आरा है और आज भी इसकी आिश्यकता है।
आजकि पंचांग क
े विषर मे भारत मे मतभेद चि रहे है। ितेामान समर मे प्राचीन पंचांग पिवत वसि ग्रहो क
े
संचार मे काफी अन्तर आ गरा है िे प्रत्यक्ष ग्रह से नही वमि पाते इसविए निीन िेदोिब्ध पिवत वसि सूक्ष्मासन्न
होने से िही ग्रहण करना चावहरे।
आजकि ग्रीनविच पंचांग अनुसार बने ग्रह इत्यावद जैसे पंचांग बनाने की सम्मवत कई एक विद्वानो की है और कई
एक बनाते भी है उनका मत है वक जब सब ग्रह इत्यावद प्रत्यक्ष है तो सब विषर प्रत्यक्ष वसि िेना चावहरे। परन्तु
इन पंचांगों मे भी अरनांि का मतभेद है। पाश्चात्य देिो मे सारन और भारत मे वनररण वसिांत से पंचांग बनारे
जाते है। दोनो मे अरनांि का अंतर है। वकन्तु भारत मे प्रचवित अिग-अिग वसिान्तो क
े अनुसार अरनांिो मे
अंतर है और भारत मे ही िगभग 12 प्रकार क
े अरनांि प्रचवित है।
विवभन्न मतो अनुसार 'िका: 1895 िषाेारम्भ पर अरनांि वनम्ांवकत थे।
➤ ग्रहिाघि मत 23 अंि, 41 किा, 00 विकिा, गवत 60 विकिा प्रवतिषेा।
➤ क
े तकर मत 21 अंि, 02 किा, 57 विकिा, गवत 50 विकिा 13 प्र. वि. प्रवत िषेा।
➤ मकरद्धिर मत 21 अंि, 39 किा, 36 विकिा, गवत 54 विकिा प्रवत िषेा।
➤ वसिांत सम्राट मत 20 अंि, 40 किा, 17 विकिा, गवत 51 विकिा प्रवत िषेा।
पंचांग सुिार सवमवत calendar reform committee भारतीर रावष्टिर पंचांग I N C
भारतीर स्वतंत्रता क
े बाद सन 1952 मे भारत सरकार ने एक पंचांग सुिार सवमवत calendar reform committee
का गठन मेघनाथ िाह और एन सी िावहरी की प्रमुखता मे वकरा। इसक
े वनष्कषेा अनुसार भारत सरकार ने
िक: संित को भारतीर संित की मान्यता दी और चैत्रावद को मासारम्भ माना, तदनुसार 22 माचेा 1957 से एक
चैत्र 1879 िक: गणना प्रारम्भ है। इसक
े मास तथा उनक
े वदन इस प्रकार है :-
(1) चैत्र 30 / 31* (2) िैिाख 31 (3) ज्येष्ठ 31 (4) आषाढ़ 31 (5 ) श्रािण 31 (6) भाद्रपद 31 (7) आवश्वन 3 0 (8)
कावतेाक 30 (9) अगहन 30 (10) पौष 30 (11) माघ 30 (12) फाल्गुन 30 * िीप ईरर 31
इसी सवमवत की वसफाररि अनुसार "वचत्रा पक्षीर" अरनांि को मान्य वकरा। इस अनुसार ईसिी सन 285 रा
िक: 207 मे अरनांि िून्य था अथाेात सारन और वनररण भचक्र का प्रारम्भ मेष रावि क
े िसंत संपात वबंदु से
साथ-साथ था। रह समर 22 माचेा 285 रवििार भारतीर प्रामावणक समर I S T 21 घण्टे 27 वमवनट था। इस समर
वचत्रा नक्षत्र SPICA STAR क
े सारन वनररण दोनो की िम्बाई 180 । 00 । 03 थी। इसी वदन मध्यम सूरेा की
िम्बाई 360 अंि थी।
पंचाग सुिार सवमवत क
े सुझाि अनुसार भारत सरकार अिीन भारतीर खगोि एेे फ
े मेरीज ने अरनांि 5". 8
कम कर वचत्रा पक्षीर अरनांि को ग्रहण वकरा। इसी वसफाररस अनुसार 21 माचेा 1956 से अरनांि 23 अंि 15
किा प्रचिन मे है। इसी मे सन 1985 मे अत्यंत अल्प 0". 658 का सुिार वकरा गरा। इस प्रकार 01 जनिरी 2010
को अरनांि 24 अंि, 00 किा, 05 विकिा और गवत 50 विकिा प्रवतिषेा थी।
पंचांगीर वसिांत
भारत मे प्रारः तीन वसिांत प्रचवित है। 1 दवक्षण भारत मे आरेावसिांत, 2 मध्य भारत मे ब्रम्ह वसिांत, 3 उर्त्र
भारत मे सूरेा वसिांत और सूरेा वसिान्तानुसार बने करण ग्रंथो का। इनमे ब्रम्ह वसिांत और सूरेा वसिांत प्रारः
तुल्य ही है। वकन्तु ब्रम्ह वसिांत, िविष्ठ वसिांत, िराह वमहर, कमिाकर आवद विद्वानो क
े अनुसार रोग्य नही है।
इसविए सूरेा वसिांत पिवत वसि रा प्रत्यक्ष िेिोपिब्ध रा क
े िि सूरेा वसिान्तीर गवणत ही मान्य है।
भारत मे ग्रहिाघि, मकरंदीर, ब्रम्हपक्षीर, सौरपक्षीर, ििोपिब्ध, दृश्यपक्षीर, वचत्रापक्षीर, खगोिवसि, वनररण
भारतीर पिवतवसि इत्यावद कई प्रकार क
े पंचांग विवभन्न स्थानो से प्रकावित होते है। ग्रहिाघिी और मकरंदीर
पंचांग गवणत सरि है। समरानुसार संिोिन और मतैक्यता की आिश्यकता है। सािारण ज्योवतषी को गवणत
की अिुिता से बचने क
े विरे अपना वनकटिती पंचांग िेना चावहरे।
ितेामान मे ज्योवतष सॉफ्टिेरर का प्रचिन है। इनमे विवभन्न अरनांि दी रहती है। अतः सिेामान्य वचत्रा पक्षीर रा
एन सी िावहरी अरनांि िेना चावहरे। इनमे दैवनक पंचांग भी वदरा रहता है इसे अक्षांि, देिांि से अपने स्थान
का बना सकते है।
पंचांग पररचर
भारतीर पंचांग विदेिो क
े अिमनक almanac रा एेे फ
े मेरीज ephemeris से वभन्न प्रकार क
े होते है। इनमे से
अविकतर आषेावसिान्तो क
े अनुक
ू ि िमेाक
ृ त्योपरोगी होते है। रे पंचांग वकसी स्थान वििेष क
े अक्षांि, देिांि
द्वारा बनारे जाते है। प्ररोग मे हमेिा वनकटिती पंचांग ही िेना चावहरे। प्रत्येक पंचांग में दी विवि से उसे स्थानीर
पंचाग बना सकते है।
प्रत्येक पंचांग मे वदरे गरे वतथ्यावद मान (वतवथ, रोग, नक्षत्र, करण) सूरोदर काि से समाद्धप्त काि घटी पि
अथिा घंटा वमवनट मे वदरा रहता है। एक अहोरात्र मे दो करण होते है, पंचाग मे सूरोदर से जो प्रथम करण होता
उसका समाद्धप्त काि वदरा रहता उसक
े बाद उस वतवथ क
े वद्वतीर दि का करण होता है। वकसी-वकसी पंचाग में
दोनो करण वदरे रहते है। नक्षत्र, रोग, कारण प्रारः संक
े वतत ििो में विखे रहते है और कई क
े संक
े वतत िि
समान होते है अतएि ध्यान रखे।
इसक
े अिािा प्रत्येक वदन की चन्द्र रावि और रावि प्रिेि का समर वदरा रहता है। इसक
े साथ जहा का पंचांग
हो िहा का सूरोदर, सूराेास्त भारतीर प्रामावणक समर घंटा वमवनट मे वदरा रहता है। साथ ही विवभन्न प्रकार की
तारीखे रहती है। अविकतर पंचांगो मे उस वदन का प्रातः स्पस्ट रवि, वदनमान, रावत्रमान, वमश्रमान आवद तथा
उसी कािम मे आगे व्रतावद, मुहूतेा, ग्रहो का रावि रा नक्षत्र प्रिेि का समर ि उदर अस्त, िक्री-मागी आवद
जानकारररा दी रहती है।
अवितर पंचांग प्रत्येक पृष्ठ पर 15 वदन (पावक्षक) का पंचांग देते है, सबसे ऊपर माह, पक्ष, संित, िक:, अंग्रेजी
तारीख, सूरेा का अरन, गोि, ऋतु आवद वदरा रहता है। क
ु छ पंचागो मे प्रवतवदन और क
ु छ मे सातवदन
(साप्तावहक) ग्रह स्पस्ट वदए रहते है। क
ु छ पंचांग वमश्रकाि और क
ु छ अन्य इष्ट क
े ग्रह देते है। ग्रहो की दैवनक
गवत, उदरास्त, िक्री-मागी, नक्षत्र प्रिेि आवद भी देते है।
क
ु छ पंचाग दैवनक िग्न प्रिेि, चंद्र क
े निमांि प्रिेि का समर, संक्रावत फि, ग्रह का निांि चरण प्रिेि, िर,
क्रांवत, दैवनक रोग, ग्रहण, आवद देते है। इसक
े अिािा कई पंचांग सूरेा क्रांवत साररणी, विवभन्न स्थानो की िग्न
साररणी, दिम साररणी, साम्पवतक काि, अरनांि, मुहूतेा, िषेा फि, रावि फि, व्रत का वनणेार इत्यावद देते है।
⊛ पंचांग मे िृद्धि वतवथ विखकर दू सरे वदन का नक्षत्र, रोग, करण विखते है वकन्तु क्षर वतवथ क
े िि विख देते है
उसक
े आगे क
ु छ नहींविखते है।
⊛ जब एक ही वदन में दो वतवथ सम्मवित हो तो जो वतवथ सूरोदर क
े समर हो उसका मान विखकर आगे क
े
कािम मे नक्षत्र आवद का मान विखते है। उसक
े नीचे क
ु छ पंचांग सम्मवित (वििोम) वतवथ का मान विखकर
िही िार और नक्षत्रावद क
ु छ नही विखते है।
⊛ प्रत्येक पंचांग मे उसमे समािेि वकरे गरे विषरो की जानकारी दी रहती है उसे देख िेना आिश्यक है।
⊛ पंचांगों मे प्ररुक्त सांक
े वतक िि :
वद. मा. = वदनमान। वत. = वतवथ। घ. = घटी। प. = पि। वि. = विपि। घं. = घण्टा। वम. = वमवनट। से. =
सेकण्ड। न. = नक्षत्र। रो. = रोग। क. = करण। अं. = अंग्रेजी तारीख। रा. = राष्टिीर (भारतीर)
तारीख। भा. ता. = भारतीर तारीख। ता. = तारीख। ई. = ईसिी। सू. उ. = सूरेा उदर। र. उ. = रवि
उदर। सू. अ. = सूरेा अस्त। र. अ. = रवि अस्त। वम. मा. = वमश्रमान (मध्यरावत्र) पू. = पूिेा। प. = पवश्चम। उ. =
उर्त्र। द. = दवक्षण। भ. = भद्रा। उ. उपरान्त। ि. = िक्री। मा. = मागी। िू. = िून्य। अ. = अमृत। ब. =बंगिा।
प्रा. स्प. सू. = प्रातः स्पस्ट सूरेा। मेषाक
ेा = मेष मे अक
ेा । ि. िषेा। मा. = मास। वद. = वदन। मा. मागी। ि. = िक्री।
पाश्चात्य पंचांग - अिमनक almanac रा एेे फ
े मेरीज ephemeris
रह इंग्लैंड मे ग्र्रीनविच की िेििािा observatory क
े आिार पर तैरार वकरा जाता है। इसमे
हषेाि, न्येपचुन, प्लूटो ग्रह की स्थवत भी दी रहती है। ग्रह और रावि क
े नाम की जगह उनक
े वचन्ह वदए रहते है।
दृवष्ट aspect आवद भी वचन्ह मे वदरे जाते है।
➧ अिमनक आंकड़े : प्रत्येक 12. 5 वमवनट मे सॅटॅिाइट से प्रसाररत और जी पी एस ररसीिर से प्राप्त आंकड़े होते
है, रे स्थूि होते है। रे आंकड़े कई महीनो तक माने जाते है।
➧ एेे फ
े मेरीज आंकड़े : प्रत्येक 30 सेकण्ड मे सॅटॅिाइट से प्रसाररत और जी पी एस ररसीिर से प्राप्त आंकड़े होते
है, रे सूक्ष्म होते है। रे 30 वमवनट ही मान्य होते है
⊛ सािन वदन apparent day- इसमे सूरेा क
े मध्यान्ह से दू सरे वदन क
े मध्यान्ह तक का समर सािन वदन
कहिाता है। इसका मान कम-ज्यादा होता रहता है अतः मध्यम मान वनकि कर वदरा जाता है।
⊛ मध्यम सािन वदन - इसका काि 24 घण्टा होता है। सूरेा की गवत 59'-8" मानकर सूरेा विषुििृर्त् घूमता है ऐसा
माना गरा है। रह मध्यम सूरेा मध्यान्ह मे आकर अस्त होता है दू सरे वदन वफर उदर होकर वफर मध्यान्ह मे आता
है. अतः एक मध्यान्ह से दू सरे वदन की मध्यान्ह तक 24 घण्टा मानते है।
⊛ नाक्षत्र वदन sidereal day - मध्यान्ह मे तारा आवद उदर होकर मध्यान्ह तक आने का समर नाक्षत्र वदन रा
नाक्षत्र काि कहिाता है। इस नाक्षत्र काि को ही साम्पावर्त्क काि sidereal time कहते है। िेििािा मे देखने
को रह घवड़राि रहती है। सम्पावतक काि पृथ्वी की दैवनक गवत से बनता है। रह सािन काि मान से 23
घण्टा 56 वमवनट 4. 40906 सेकण्ड का होता है। रह हमेिा एकसा रहता है।
⊛ मध्यम सूरेा - इसका उदर ठीक 6 बजे, 12 बजे मध्यान, 18 बजे अस्त होता है।
संित्सर
संित्सर िैवदक सावहत्य जैसे ऋग्वेद और अन्य प्राचीन ग्रंथों मे "िषेा" क
े विए संस्क
ृ त िि है। मध्यरुगीन सावहत्य
मे, एक संित्सर "बृहस्पवत िषेा" को संदवभेात करता है, जो एक िषेा बृहस्पवत ग्रह की सापेक्ष द्धस्थवत क
े आिार पर
होता है।
प्राचीन पाठ सूरेा वसिांत अनुसार बृहस्पवत िषेा की गणना 361.026721 वदन रा पृथ्वी आिाररत सौर िषेा की
तुिना मे 4.232 वदन कम है। इस अंतर क
े विए आिश्यक है वक प्रत्येक 85 सौर िषेा (~ 86 जोविरन िषेा) मे
िगभग एक बार, नावमत संित्सर मे से एक को वनकािा जाता है (एक छारा िषेा क
े रूप मे छोड़ वदरा जाता है)
इससे दोनो क
ै िेंडर समक्रवमक हो जाते है। हािांवक, समक्रवमक का वििरण उर्त्र और दवक्षण भारतीर क
ै िेंडर
क
े बीच थोड़ा वभन्न होता है। संित्सरो का क्रम चांद्र िषेा और बृहस्पवत मत मे एक जैसा ही रहता है। संित्सरो का
महत्व पंचांग मे िषेा क
े नामकरण तथा उनक
े नाम अनुसार िषेा क
े फि मे वििेष है। संित्सर 60 होते है और ब्रम्ह
विंिवतका, विष्णु विंिवतका, चन्द्र विंिवतका प्रत्येक मे 20 संित्सर होते है।
ब्रम्हविंिवतका विष्णुविंिवतका चन्द्रविंिवतका
01 प्रभि 21 सिेाजीत 41 प्लिङ्ग
02 विभि 22 सिेािारी 42 कीिक
03 िुक्ल 23 विरोिी 43 सौम्य
04 प्रमोद 24 विक
ृ त 44 सािारण
05 प्रजापवत 25 खर 45 विरोिक
ृ त
06 अंवगरा 26 नंदन 46 पररिािी
07 श्रीमुख 27 विजर 47 प्रमादी
08 भाि 28 जर 48 आनि
09 रुिा 29 मन्मथ 49 राक्षस
10 िाता 30 दुमुेाख 50 नि
11 ईश्वर 31 हेमिम्ब 51 वपंगि
12 बहुिान्य 32 वििम्ब 52 कािरुक्त
13 प्रमाथी 33 विकारी 53 वसिाथेा
14 विक्रम 34 ििेारी 54 रौद्र
15 िृष 35 प्लि 55 दुमेावत
16 वचत्रभानु 36 िुभक
ृ त 56 दुिवभ
17 सुभानु 37 िोभन 57 रुविरोदारी
18 तारण 38 क्रोिी 58 रक्ताक्ष
19 पावथेाि 39 विश्वािसु 59 क्रोिन
20 व्यर 40 पराभि 60 क्षर
संित्सर की गणना
१ िवििाहन िक: मे 12 जोड़कर 60 का भाग दे, जो िेष बचे िह उपरोक्त क्रम मे संित्सर होता है। इसकी
गणना चैत्र िुक्ल प्रवतप्रदा िक: िषेा से होती है।
२ विक्रम संित मे 9 जोड़कर 60 का भाग दे, जो िेष बचे िह उपरोक्त क्रम मे संित्सर होता है। इसकी गणना
विक्रम सम्वत अनुसार होती है। जैसे कही चैत्र से तो कही कावतेाक होती है।
३ बृहस्पवत मत से गणना िक: को दो जगह रखकर 22 से गुना करे, वफर पहिे गुणन फि मे 4251 जोड़कर
1875 का भाग दे िद्धब्ध अंक को दू सरी जगह की संख्या मे जोड़ना रोगफि मे 60 का भाग देना जो िेष बचे िही
बृहस्पवत मत से गत संित्सर होगा, उससे आगे का जन्म संित्सर होगा।
संित्सर का भोग्य - पहिी जगह क
े िेष मे 12 का गुणा कर 1875 का भाग दे, िद्धब्ध माह होगे िेष मे 30 का गुणा
करे रोगफि मे 1875 का भाग दे िद्धब्ध वदन होगे। इसे 12 माह मे से घटाने पर भोग्य काि होगा।
िषेा काि प्रकार
रो तो सूराेावद रद्धििि काि सात प्रकार क
े होते है परन्तु व्यिहार मे क
े िि पांच प्रकार क
े आते है। 1 सौर, 2
चांद्र, 3 सािन, 4 नाक्षत्र 5 बृहस्पतस्य।
1 सौर काि - प्रत्येक नक्षत्र क
े साथ सूरेा से जो काि में वििक्षणता आती है िह सौर काि है।
2 चांद्र काि - चंद्र क
े िुक्ल से जो काि मे हावन िृद्धि होती है उसे चंद्र काि कहते है।
3 सािन काि - सूरेा क
े उदर अस्त से जो काि मे वििक्षणता आती है उसे सािन काि कहते है। रह सामान्यतरा
िषेा कहिाता है।
4 नाक्षत्र काि - प्रत्येक नक्षत्र क
े साथ चन्द्रमा से काि में जो वििक्षणता आती है उसे नक्षत्र काि कहते है।
5 बृहस्पवत काि - गुरु ग्रह क
े नक्षत्रो क
े साथ जो काि मे वििक्षणता आती है उसे बृहस्पवत काि कहते है।
सौर िषेा - सूरेा क
े द्वादि रावि 360 अंि क
े भोग से एक सौर िषेा होता है। रह सूरेा की गवत पर आिाररत है।
इसका प्रारम्भ सारन सूरेा की मेष संक्रांवत रा िैिाखी से होता है। एक सम्पूणेा िषेा 365 वदन, 15 घटी, 22 पि,
52. 30 विपि अथिा 365 वदन, 6 घण्टा 9 वमवनट, 9 सेकण्ड का होता है।
चांद्र िषेा - रह चन्द्रमा की गवत पर आिाररत होता है। रह 360 वतवथ का होता है। एक चान्द्र िषेा मे 354 अहोरात्र
रा सािन होते है। रह सौर िषेा से कम वदनो का है।
चंद्र नक्षत्र िषेा - रह चन्द्रमा क
े 27 नक्षत्रो को भोगने से बनता है। एक चांद्र नक्षत्र िषेा 327 वदन, 10 घंटा, 38
वमवनट, 18. 12 सेकण्ड का होता है।
सािन िषेा - रह 360 वदन-रात / सािन / अहोरात्र का एक िषेा है। एक अहोरात्र 60 घटी रा 24 घण्टे का होता है।
बृहस्पतस्य िषेा - रह मध्यम बृहस्पवत क
े एक रावि का भोग काि समर है। रह 361 अहोरात्र का होता है। इसे
संित्सर भी कहते है। संित्सर 60 होते है।
िषेामान - ितेामान िोि अनुसार एक िषेा 365 वदन, 6 घण्टा, 9 वमवनट, 10.5 सेक
ं ड का होता है। अन्य वसिान्तो
अनुसार िषेामान वनम्ानुसार है :-
मत वदिस घटी पि विपि प्र. वि.
1 आरेा वसिांत 365 15 31 30 00
2 सूरेा वसिांत िराह वमवहर 365 15 31 31 24
3 पोविि वसिांत 365 15 30 00 00
4 िोमेि वसिांत 365 14 48 00 00
5 वसिांत विरोमवण 365 15 30 22 30
6 ब्रम्हगुप्त वसिांत 365 15 30 22 30
7 ग्रह िाघि 365 15 31 30 00
8 सन वसिान्त सारन 365 15 02 53 00
9 आिुवनक िोि 365 15 22 56 37
सूरेा से अरन
सूरेा भी अपनी पररवि पर चक्कर िगा रहा है इसी िजह से िषेा मे दो अरन उर्त्रारण (सौम्यारन) और
दवक्षणारन (राम्यारन) होते है। स्थूि मान से प्रत्येक अरन छह माह का होता है। पंचाग कारो और ज्योवतष
कारो मे इनका बहुत महत्व है।
उर्त्रारण - इसे सौम्यारन भी कहते है। सूरेा क
े मकर से वमथुन रावि तक पररभ्रमण का काि उर्त्रारण है।
इसका काि सारन सूरेा की मकर संक्रावत 22 वदसम्बर से कक
ेा संक्रांवत तक होता है। रह समर देिताओ का वदन
और राक्षसो की रावत्र का है। उर्त्रारण मे सभी िुभ कारेा, गृह प्रिेि, वििाह, देि प्रवतष्ठा, िावमेाक क
ृ त्य, दीक्षा,
मुण्डन, रज्ञोपिीत संस्कार, विक्षा आवद िुभ है।
उर्त्रारण फिादेि - वजसकी मृत्यु उर्त्रारण में होती है उसे मोक्ष की प्राद्धप्त होती है, ऐसा िास्त्रो का मत है ।
पौरावणकता अनुसार महाभारत मे भीष्म वपतामह ने अपने प्राण उर्त्रारण मे त्यागे थे। उर्त्रारण मे जन्म िेने
िािा जातक प्रसन्नवचर्त्, िावमेाक, पवतव्रता, सुिर, तथा वििेकी होता है। उसे क
ु टुंब सुख, श्रेष्ठ भाराेा तथा पुत्र की
प्राद्धप्त होती है। ऐसा जातक हमेिा सदाचारी, श्रिािान, दीघाेारु होता है।
दवक्षणारन - इसे राम्यारन भी कहते है। सूरेा क
े कक
ेा रावि से िनु भ्रमण का समर दवक्षणारन है। इसका काि
सारन सूरेा की कक
ेा संक्रांवत 21 जून से मकर संक्रांवत तक होता है। इस समर असुरो का वदन और सुरो की रावत्र
होती है। इसमे समस्त अिुभ कारेा सफि होते है।
दवक्षणारन फिादेि - जातक क
े मन का रहस्य पाना मुद्धिि है। इसमे उत्पन्न जातक आिोचक, अपनी चीजो
और पैसो को सम्हाि कर रखने िािा, क
ृ षक, भागीदारी से उन्नवत करने िािा, पिु पािक, अच्छे भोजन और
अच्छे िस्त्र क
े प्रवत वििेष रुवचिान होता है।
ऋतुऐ
सामान्यतरा िषेा मे तीन ऋतुऐ होती है िषाेा, िीत, ग्रीष्म। वकन्तु सारन सूरेा क
े मकरावद दो-दो रावि भोग क
े
कारण छह ऋतुऐ होती है। (1) 10 -11 मकर-क
ु म्भ विविर, (2) 12-1 मीन-मेष िसन्त, (3) 2-3 िृषभ-वमथुन ग्रीष्म,
(4) 4-5 कक
ेा -वसंह िषाेा, (5) 6-7 कन्या तुिा िरद, (6) 8-9 िृवश्चक-िनु हेमन्त।
जातक फिादेि
1 विविर ऋतु - जातक परोपकारी, न्यारवप्रर, वमतभाषी, अविक वमत्र िािा, अपमान नही सहने िािा, जि वप्रर,
सुिर स्वरुप, स्वस्थ, वििम्ब से कारेा करने िािा, सािु हृदरी, कामी होता है।
2 िसन्त ऋतु - जातक पुष्ट िरीरी, स्वस्थ स्नारु िािा, तीव्र घ्राण िद्धक्त िािा, उद्योगी, मनस्वी, तेजस्वी, बहुत कारेा
करने िािा, देिाटन करने िािा, रसो का ज्ञाता होता है।
3 ग्रीष्म ऋतु - जातक क्रि िरीरी, भोगी, िेखक, स्वाध्यारी, प्रिास का िौकीन, बहुत कारेा प्रारम्भ करने िािा,
क्रोिहीन, क्षुिातुर, कामी, िाम्बाकद, िठ, सुखी-दु:खी, अपवित्र होता है।
4 िषाेा ऋतु - जातक ईमिी, आिंिा, दही आवद खट्टे पदाथो का िौकीन, माता से वििेष प्रेमिान, गुणी, भोगी,
राजमान्य, वजतेद्धन्द्रर, चतुर, मतिबी होता है।
5 हेमन्त ऋतु - जातक कामिासना रुक्त, व्यसनी, पेट रोगी, श्रिािान, हीरे जिाहरात का िौकीन, पररिार
पािक, व्यापारी, क
ृ षक, िन-िान्य रुक्त, तेजस्वी, िोक मान्य होता है।
6 िरद ऋतु - जातक रोगी, आध्यद्धिक, सत्संगी, कारेा क
ु िि, पुष्ट िरीरी, रोगी, तेजहीन, भरभीत, वनष्ठ
ू र, छोटी
और मोटी गदेान िािा, िोभी, अंत मे संसार से विरक्त होता है।
मास
मेषावद राविरो मे सूरेा क
े रहने से वजस-वजस चंद्र मास में अमािस्या होती है, िे क्रम से 12 मास होते है। इनक
े
नाम इस प्रकार है :- 1-चैत्र 2-िैिाख, 3-ज्येष्ठ, 4-आषाढ़, 5-श्रािण, 6-भाद्र, 7-आवश्वन, 8-कावतेाक, 9-मागेािीषेा, 10-
पौष, 11-माघ, 12-फाल्गुन।
इनका नाम सादृश्य है और इनसे कोन से वदन कोन सा नक्षत्र होगा, इसका अनुमान कर सकते है। वजस मॉस
की पूवणेामा पर जो नक्षत्र होता है उससे उस मास का नाम वनवश्चत वकरा गरा है। जैसे चैत्र मास की पूवणेामा पर
वचत्रा नक्षत्र होने से चैत्र नामकरण हुआ। इसी प्रकार अन्य नक्षत्रो से विवभन्न मास का नाम वनवश्चत वकरा गरा है।
इन्हे नक्षत्र संज्ञक मास भी कहते है।
िैवदक मास - तैवर्त्रीर संवहता मे 12 महीनो क
े नाम मिु, मािि, िुक्र, िुवच, नभस, नभस्य, इष, ऊजेा, सहस,
सहस्य, तपस, तपस्य आरे है।
इसी प्रकार ईसिी सन क
े 12 महीनो क
े नाम 1- जनिरी, 2- फरिरी, 3- माचेा, 4- अप्रैि, 5- मई, 6- जून, 7- जुिाई,
8- अगस्त, 9- वसतम्बर, 10- अक्ट
ू म्बर, 11- निम्बर, 12- वदसम्बर। इन महीनो और ईसिी सन को अंतराेाष्टिीर
मान्यता है।
मासज्ञान
1 चांद्र मास - िुक्ल पक्ष की प्रवतपदा से क
ृ ष्ण पक्ष की अमािश्या तक एक चान्द्र मास होता है।
2 सौर मास - सूरेा की एक रावि संक्रमण से दू सरी रावि संक्रमण तक का समर सौर मास है।
3 सािन मास - क
ृ ष्ण पक्ष की प्रवतपदा से िुक्ल पक्ष की पूवणेामा तक का सािन मास है।
4 नक्षत्र मास - नक्षत्र से नक्षत्र तक चंद्र भ्रमण का समर चैत्रावद नक्षत्र मास कहिाता है।
कारेा भेद से मास ज्ञान - वििाहावद कारो मे सौर मास, रज्ञावद मे सािन मास रा सािन संज्ञक मास, वपतृ कारेा मे
चांद्र संज्ञक मास, व्रतावद मे नक्षत्र संज्ञक मास ग्रहण करना चावहरे।
चंद्र मास वनणेार - चांद्र मास दो प्रकार का होता है। 1- अमांत 2- पूवणेामान्त
1- अमांत मास - रह िुक्ल प्रवतपदा से क
ृ ष्ण अमािस्या तक होता है। रह समस्त दवक्षण भारत तथा महाराष्टि मे
प्रचवित है।
2- पूवणेामान्त मास - रह क
ृ ष्ण प्रवतपदा से िुक्ल पूवणेामा तक होता है। रह समस्त उर्त्र भारत में प्रचवित है।
➧ वटप्पणी :- अमांत और पूवणेामान्त मास मे उर्त्र भारत मे मास गणना मे एक माह का अंतर आ जाता है। उर्त्र
भारत मे चैत्र क
ृ ष्ण हुआ तो दवक्षण भारत मे फाल्गुन क
ृ ष्ण कहेगे। अतः दवक्षण भारत रा महाराष्टि मे क
ृ ष्ण पक्ष मे
एक माह का अंतर होता है जबवक िुक्ल पक्ष मे कोई अंतर नही होता है।
क्षरमास ि मिमास ज्ञान
इसक
े वनणेार मे चंद्र मास विरा जाता है। वजस मास मे सूरेा की संक्रावत नही हो अथाेात वजस मास मे सूरेा की रावि
पररितेान नही हो िह अविमास रा मिमास कहिाता है। वजस मास में सूरेा की दो संक्राद्धन्त हो जार िह क्षरमास
होता है। क्षरमास कभी-कभी होता है। रह क
े िि कावतेाक, अगहन, पौष माह मे ही होता है।
सौर मास और चांद्र मास क
े िषेा मे िगभग दस वदिस का अंतर है। इस अंतर को दू र करने का उपार नही वकरा
होता तो चांद्र मास का कोई वठकाना नही रहता, गवमेारो क
े महीने सवदेारो और िषाेा मे आते रहते जैसे रिनो क
े
रमजान।
इसविए भारतीर खगोि िेर्त्ाओ ने प्रवत तीसरे िषेा एक अविक मास रखकर इस अवनवश्चता को दू र कर विरा,
तथा कोई सूक्ष्म अन्तर नही रहे इस हेतु क्षरमास की रोजना रखी। इस प्रकार प्रत्येक 19 िषेा और 141 िषेा मे एक
चान्द्र मास क्षीण कर वदरा रावन उस िषेा मे चान्द्र िषेा बारह माह का नही होकर ग्यारह माह का होता होता है।
इस प्रकार 160 िषो मे दो चंद्र मास क्षीण (क्षर रा कम) होने से गवणत का सूक्ष्म अन्तर भी ठीक हो जाता है।
वनश्चर ही रह भारतीर खगोि िेर्त्ाओ की सूक्ष्म वनरीक्षण िद्धक्त का पररचारक है।
मास फिादेि
चैत्र - जातक सुिर, सुिर स्वरुप, अहंकारी, उर्त्म कारेािान, िाि नेत्र, गुस्सैि, स्त्री क
े वनकट चंचि, सदा हषेा
रुक्त होता है।
बैिाख - जातक भोगी कामी, िनिान, प्रसन्नवचर्त्, क्रोिी, सुिर नेत्र, सुिर रूप, सुहृदर, स्वतंत्र, संिषेािीि,
महत्वाकांक्षी होता है।
ज्येष्ठ - जातक सुिर, देिांतर मे समर व्यतीत करने िािा (परदेिी) दीघाेारु, बुद्धिमान, िनिान, पवित्र ह्रदरी
पररश्रमी, स्पस्ट भाषी, िवित किा प्रेमी होता है।
आषाढ़ - जातक संतवतिान, िमेा का आदरी / िमेाज्ञ, सम्पवर्त् नष्ट होने से पीवड़त, अल्पसुखी, सुिर िणेा, कारेा
क
ु िि, िनसंचरी, वद्वस्वभाि, द्धस्थर होता है।
श्रािण - जातक िाभ-हावन, सुख-दुःख मे सामान वचर्त्िािा, सुिर, स्थूि देह, क्राद्धन्तकारी, समाज प्रमुख, कारेा
क
ु िि, देिप्रेमी, पथप्रदिेाक होता है।
भाद्रपद - जातक तत्त्विेर्त्ा रा दिेानिास्त्री, रांवत्रक रा विल्पज्ञ, वनश्चरी, व्यिहार क
ु िि,साहसी, रुवचिान, सिेादा
प्रसन्नवचर्त्, िाचाि, कोरि क
े समान िाणी िािा, िीििान होता है।
आवश्वन - जातक सुखी, सुिर, कवि, पवित्र आचरणी, गुणी, िनी, कामी, माता-वपता भक्त, गुरु-ईश्वर- राष्टि प्रेमी,
िुनी, चररत्रिान होता है।
कावतेाक - जातक सजग, उदार, मनमौजी, ईमानदार, पररश्रमी, विख्यात, दीघेा रोग रोगी, किाकार, िनिान,
सुकारो मे व्यरी, व्यापारी, बुद्धि ि हृदर हीन होता है।
मागेािीषेा - जातक वप्ररिक्ता, िनी, िमाेािा, वमत्रिान, पराक्रमी, परोपकारी, साहसी, चतुर, दरािु, संिेदनिीि,
िैरेािान, िांत, आिोचक, न्यारवप्रर होता है।
पौष - जातक स्वावभमानी, साहसी, चतुर, िोभी, व्यसनी, विद्वान, प्रबंिक, ित्रुहंता, स्वेच्छाचारी, प्रतापी, वपतर
देिता को नही मानने िािा, ऐश्वरेािान, पहििान होता है।
माघ - जातक गौरिणेा, विद्यािान, देिाटन करने िािा, िीर, कटुभाषी, कामी, रणिीर, कारेादक्ष, क्रोिी, स्वाथी,
व्यसनी, राजनीवतज्ञ, व्यापारी, अनाराि िन प्राप्त करने िािा, क
ु टुम्ब पौषक होता है।
फाल्गुन - जातक आिविश्वासी, भ्रात सुखहीन, तीव्र बुद्धि, पारखी, भरातुर, रोगी, कजेाहीन, समाजसेिी,
अिगुणी, िन-विद्या-सुख से रुक्त, विदेि भ्रमण करने िािा होता है।
मि / अविक मास - जातक सांसाररक, विषर रवहत, चररत्रिान, तीथेारात्री, उच्च दृवष्टिान, वनरोगी, स्ववहतैषी,
सुिर होता है।
क्षर मास - जातक अल्प विद्या-बुद्धि िािा, िनिान्य रवहत, सुखहीन, बहु विवि रुक्त होता है।
पक्ष ज्ञान
एक चंद्र मास मे दो पक्ष होते है। 1- िुक्ल पक्ष (सुदी रा चादन पक्ष) वजसमे चन्द्रमा िृद्धि की ओर अग्रसर रहता
है। 2- क
ृ ष्ण पक्ष (िदी रा अंिेर पक्ष) वजसमे चन्द्रमा घटने िगता है।
पक्ष फिादेि
⧫ िुक्ल पक्ष - िुक्ल पक्ष मे उत्पन्न जातक चन्द्रमा क
े सामान सुिर, िनिान, उद्यमी, िास्त्रज्ञ, हसमुख, िांवतवप्रर,
संतान सुखी होता है। रवद चन्द्रमा छठे रा आठिे स्थान पर हो तो पीड़ा होती है। िुक्ल पक्ष मे रावत्र का जन्म हो
तो सब अररष्टो का नाि होता है।
⧫ क
ृ ष्ण पक्ष - क
ृ ष्ण पक्ष मे उत्पन्न जातक वनदेारी, खराब मुख िािा, स्त्री का द्वेषी, बुद्धिहीन, मनमानी करने िािा,
व्यसनी, काम िासनारुक्त, चंचि, दुसरो से पावित, सािारण जानो मे रहने िािा, किाह वप्रर होता है। रवद जन्म
क
ुं डिी मे चन्द्रमा छठे आठिे हो तो 8, 16, 32 िे िषेा में िाराररक पीड़ा, जि से भर, आतंररक ज्वर इत्यवद होते
है।
िार
एक सूरोदर से दू सरे सूरोदर परेान्त सािन वदन रा भू वदन कहिाता है। इसी को िार कहते है। सूराेावद सात ग्रह
ही क्रम से इन िारो क
े स्वामी है। रही क्रम सारे विश्व मे प्रचवित है। िार सात होते है, वजनसे सप्ताह बनता है। 1
रवििार (ईतिार) 2 सोमिार (चंद्रिार) 3 मंगििार (भौमिार) 4 बुििार (सौम्यिार) 5 गुरिार (बृहस्पवतिार) 6
िुक्रिार (भृगुिार) 7 िवनिार (मंदिार)
⧫ रे िार दो प्रकार से व्यिहार में िारे जाते है।
1. वतवथ, रोग, करण, नक्षत्र का समाद्धप्त काि, वदनमान, अहोरात्र गणना, इष्ट, सूतक इत्यावद मे सूरोदर से माना
जाता है।
2. रात्रा, वििाह, उत्सि, पिेा, गृह, क
ृ वष, िुभ कारेा, िावमेाक क
ृ त्य, दैनद्धिनी इत्यावद मे प्ररुक्त स्वस्थान (स्थानीर
समर) से माना जाता है।
⦁⦁ स्वस्थान का िार प्रिेि ज्ञान
जो विवहत रा वनवषि िार कहा गरा है िह सदा सूरोदर से नही होता, कभी सूरोदर पहिे रा बाद मे िार प्रिेि
होता है। इसका मध्यम मान 60 घटी रा 24 घंटा है। मध्य रेखा 82-30 से अपना अभीष्ट स्थान वजतने वमवनट
सेकण्ड देिांतर हो उसमे पूिेा हो तो छह घण्टा जोडने से रा पवश्चम हो तो छह घण्टा घटाने पर जो आिे, उतने ही
स्वस्थानीर घंटा, वमवनट, सेक
ं ड पर वनत्य प्रातःकाि उस स्थान पर िार प्रिवर्त् होगी।
उदहारण :- हाटपीपल्या का देिांि 76 - 18 है। देिांतर (82-30 - 76-18 = 06.12 x 4 = 24 48) संस्कार ऋण 24
वमनट 48 सेकण्ड है। अतएि 6 - 0 - 0 मे से 0 - 24 - 48 घटाने पर प्रत्येक वदन प्रातः 5 घण्टा 35 वमवनट 32
सेकण्ड पर हाटवपपल्या मे िार प्रिृवर्त् होगी।
⦁⦁ क्षण िार रा होरा ज्ञान
प्रारः सूरोदर से ही िार का व्यिहार करते है। जो विवहत िार रा वनवषि िार कहे गरे है िे भी दो प्रकार क
े होते
है। 1 स्थूि िार - रह पूणेा 60 घटी रा 24 घंटे का होता है। 2 सूक्ष्म िार - रह प्रत्येक एक घंटे का होता है। रही
सूक्ष्म िार क्षण िार रा होरा कहिाता है। रवद स्थूि िार प्रिस्त हो और सूक्ष्म िार वनवषि हो तो उस समर कारेा
का पररत्याग कर देना चावहरे तथा सूक्ष्म िार प्रिस्त और स्थूि िार वनवषि हो तो उस समर कारेा वकरा जा
सकता है।
उपरुेाक्त्र्त् िार प्रिवर्त् एक-एक घण्टा (होरा = 2 ½) का क्षण िार होता है। प्रथम घंटा उसी िारेि का क्षण िार होता
है, उससे आगे क्रम से छह क
े अन्तर से घंटे-घंटे िारेि क
े क्षण िार होते है। होरा क्रम इस प्रकार है :- 1
सूरेा 2 िुक्र, 3 बुि, 4 चंद्र, 5 िवन, 6 गुरु, 7 मंगि। जैसे रवििार को प्रथम होरा सूरेा, वद्वतीर िुक्र आवद, इस
प्रत्येक छठे िार की होरा क्रम 24 घण्टे तक रहेगा। होरा क्रम सभी स्थानो पर समान होता है। इसे काि होरा भी
कहते है। इसी क्रम अनुसार स्थानीर सारणी बनाई जा सकती है।
⦁ होरा फि
चंद्र, बुि, गुरु की होरा िुभ, सूरेा की होरा सामान्य, मंगि, िवन की होरा अिुभ है। मंगि की होरा मे रुि, िाद-
वििाद, बुि की होरा मे ज्ञान प्राद्धप्त, गुरु की होरा मे वििाह, िुक्र की होरा मे प्रिास, भोग-वििास िवन की होरा मे
द्रव्य संग्रह करना श्रेष्ठ है।
जन्म िार फिादेि
िारो की संज्ञा सात है, जो ग्रहो क
े नाम क
े द्योतक है। रवििार - द्धस्थर, सोमिार - चर, मगििार - उग्र, बुििार -
सम, गुरूिार - िघु, िुक्रिार - मृदु, िवनिार - तीक्ष्ण सज्ञक है।
रवििार - जातक सहृदरी, वनडर, करतबी, सफि, स्पस्ट भाषी, महत्वाकांक्षी, सत्वगुणी, प्रिास वप्रर, द्धस्थर बुद्धि,
स्वावभमानी, आकषेाक, सुिर नेत्र, परम चतुर, तेजस्वी, उत्साही, अल्प रोम, किह वप्रर, होता है। जातक को 1,
6, 13, 32 िे माह में कष्ट होता है तथा आरु 55 से 60 िषेा होती है वकसी-वकसी की आरु ज्यादा होती है।
सोमिार - जातक कारो मे व्यस्त, िान्त नही बैठने िािा, श्रिािान, उद्योगी, पररश्रमी, राज्य कारेारत, समाज
कल्याणी, िावमेाक, िात-कफ पीवड़त, सद् चररत्र, सुख-दुःख समान भोगने िािा, कामी, बुद्धिमान, िनिान, गोि
चेहरा होता है। जातक को 8, 11 िे माह मे पीड़ा, 16, 17 िे िषेा कष्ट तथा आरु 84 िषेा होती है।
मंगििार - जातक क्रोिी, साहसी, िम्बाकद, चंचि, तमोगुणी, कल्पक, वपर्त् प्रक
ृ वत, िद्धक्त का उपासक,
व्यापारी, िचन का पक्का, विरुि बात पर िीध्र गमेा होने िािा, अद्धस्थर, व्यसनािीन, क
ु वटि, क
ृ षक, सेना नारक
रा सैवनक होता है। जातक को 2, 32 िे िषेा में कष्ट, क
ु छ सिेादा रोगी रहते है। आरु 84 िषेा होती है।
बुििार - जातक स्वाथेावसद्धि मे चतुर, किा-िावणज्य रा विज्ञान का कारेा करने का िौक़ीन, विद्यािासंगी, स्पस्ट
भाषी, रजोगुण प्रिान, िेखक रा िेखन से आजीविका, बुद्धिमान, िनिान होता है। घर की जबाबदारी छोटी उम्र
मे ही आ पड़ती है। 8 िे माह, 8 िे िषेा मे पीड़ा, आरु 64 िषेा रा अविक होती है।
गुरिार - जातक विद्या कारेा रा संसोिन से गौराद्धित, अवभिाषी, स्व वहम्मत से व्यापारी, स्व रोगरता से
उन्नवतिान, माता-वपता, गुरु ईश्वर भक्त, िोकवप्रर, िमेापरारण, सेिाभािी, देिप्रेमी, िनिान, वििेकी, अध्यापक
रा राजमंत्री, सत्वगुण प्रिान होता है। जातक जन्म क
े 7, 13,16 िे माह मे कष्ट सहकर 84 िषेा तक जीवित रहता
है।
6 िुक्रिार - जातक चंचिवचर्त्, देिो का वनंदक, िनोपाजेान प्रेमी, क्रीडारत, बुद्धिमान, िक्ता, सुिर, वििेष
प्रकार क
े क
े ि, क
े िो क
े प्रवत वचंवतत, सफ़
े द िस्त्र िौकीन, कारेा मे सूक्ष्मता का ध्यान रखने िािा, गारन-िादन
प्रेमी, काव्य-किा वनपुण, नृत्य प्रिास रा चिवचत्र क
े प्रवत आकवषेात, मस्त प्रक
ृ वत पर िन को तुच्छ समझने िािा,
द्धस्त्ररो क
े प्रवत आकवषेात, प्रीवत वििाह पसंद, सम्भि कर चिने िािा होता है। जातक की देह वनरोगी और 60 से
70 िषेा आरु होती है।
7 िवनिार - जातक भाई रा क
ु टुम्ब विरोिी, वनश्चरी, झगड़ािू, विद्याव्यसनी होता है। इससे वमत्र पड़ोसी ररश्तेदार
ईष्याेा रखते है। भिाई करने पर बुराई वमिती है। जस को तस िािा, खचीिा, साहसी, होता है। हृष्ट- पुष्ट रहता
ितारु होता है।
*** भारतीर मत से िार की गणना सूरोदर से सूरोदर तक होती है। अंग्रेजी पिवत में िार की गणना मध्यरावत्र
से मध्यरावत्र तक होती है। मुसिमानी मत से िार की गणना सूराेास्त से सूराेास्त तक होती है।
वतवथ
सूरेा ि चंद्र की गवत का अंतर ही वतवथ है। भू क
ें द्रीर दृवष्ट से जब सूरेा ि चन्द्रमा एक ही स्थान पर होते है तो सूरेन्दु
एक साथ उदर ि अस्त होते है। रही कारण है वक अमािस्या को चन्द्रमा वदखाई नही देता है। तदनन्तर सूरेा से
चंद्र की गवत अविक होने से चन्द्र 12-12 अंि पूिेा की और आगे चिता है, तो प्रवतपदावद एक-एक वतवथ होती है
पन्द्रह वतवथ पर (180 अंि प्रवतरुवत) पूणेा चंद्र दृश्य होता है एिं तीस वतवथ (30 x 12 = 360) पाश्चात्य पुनः सूरेन्दु
संरोग होता है अथाेात अमािस्या होती है।
रावि मंडि मे प्रत्येक वतवथ का अंिमान 12 तुल्य ही है। वकन्तु सूरेा-चंद्र की गवत (चन्द्रमा की गवत 55 से 60 घटी)
मे न्यूनाविकता होने से प्रत्येक वतवथ में घट-बढ़ होती है। वजन वतवथरो मे घट-बढ़ होती है िे वतवथरा क्षर िृद्धि
कहिाती है। प्रारः पंचाग रा एफ
े मेरीज मे क्षर वतवथ नही विखते तथा िृद्धि िृद्धि वतवथ दो बार विखते है।
क्षर ि िृद्धि वतवथ
क्षर ि िृद्धि वतवथ क
े घटी पि वकतने हो इस पर मतमतान्तर है। भारतीर ज्योवतष की वििेषता वतवथ का रह
सबसे अंिकार पक्ष है जो वििाद मूिक है।
◾प्राचीनिादी विद्वान् उच्चै रुदघोवषत "बाणिृद्धि रस क्षर:" का अथेा है वक वतवथ का परमाविक मान 60 घटी से
ऊपर पांच घटी रावन 65 घटी एिं परमाल्प मान 60 घाटी से कम 6 घटी रावन 54 घटी होता है। रह उनक
े ही
पंचागो मे रत्र तत्र सिेात्र चररताथेा नही होता, इसे क्या कहा जार ? रह वनरम कहा से प्रारम्भ हुआ इसका कोई
उल्लेख नही है। रह विचारणीर है।
बाण िि का अथेा है पांच की संख्या क
े विरे प्रतीकािक उद्धक्त रावन 5 का अंक। इसी तरह रस, िैविवषक दिेान
क
े अनुसार रस छह है - कटु, अम्ल, मिुर, ििण, वतक्त, और कषार। िही काव्य क
े रस आठ है - श्रृंगार, हास्य,
करुण, रौद्र, िीर, भरानक, विभीत्स, अदभुत। इसमे िांत और िासल्य वमिाने पर दस रस हो जाते है। अतएि
रस का अथेा 6 रा 8 रा 10 अंक िेिे ? रह भी विचारणीर हो जािेगा।
◾बाणिृद्धि तथा रसक्षर िि अनुक
ू ि नही है। इनकी जगह " पञ्चिृद्धि स्थाषटक्षरः" कहना अविक उवचत
होगा अथाेात 5 िृद्धि और 6 क्षर। क
ु छ प्राचीन विद्वान् 65 घटी 30 पि परमिृद्धि एिं 53 घटी 45 पि परमाल्प मान
भी मानते है।
◾उर्त्रोर्त्र आचारो ने गवणत की स्थूिता को सूक्ष्मता क
े विए " सप्तव्रद्धि: दि क्षर:" विरा, रह वसिांत ठीक
है। इसका अथेा है 7 घटी िृद्धि ि 10 घटी क्षर िेिे। वकन्तु प्रचीनिादी िास्त्रज्ञ विद्वान् "बाणिृद्धि रस क्षर:" को ही
प्रामावणक मानते है।
◾◾भारत क
े विवभन्न सम्प्रदारो मे वतवथ मान्यता वभन्न-वभन्न है। रह विषर व्रत, पिेा, त्यौहार, उत्सि आवद हेतु
अविक प्रासंवगक है।
िैष्णि सम्प्रदारी वतवथ मान 54 घटी से एक पि भी ज्यादा रा कम है तो व्रतावद दू सरे वदन करते है। तथा सूरोदर
पर जो वतवथ रहती है उस अनुसासर ही व्रतावद करते है। स्मातेा (विि) सम्प्रदारी वजस समर तक िह वतवथ हो
उसी वदन व्रतावद करते है। वनम्बाक
ेा सम्प्रदारी कपाि िेि मानते है। अन्य क
े िि उदर वतवथ (सूरोदर पर) िेते
है। क
ु छ वतवथ समाद्धप्त पश्चात दू सरी वतवथ प्रारम्भ होने पर उसी िार को िह व्रत करते है।
जैन ज्योवतष अनुसार 6 घटी िािी उदर वतवथ मान्य है। सूरोदर पश्चात जो वतवथ 6 घटी तक हो उसे पूणेा माना
है। जो वतवथ 6 घटी रा 3 मुहूतेा (मुहूतेा = 48 वमवनट) से कम हो िह मान्य नही है। वजस वदन दो वतवथरा होगी उनमे
प्रथम वतवथ मान्य होगी, दू सरी को क्षर (अिम) वतवथ मानते है। जो वतवथ दो वदन तक होती है, उनमे प्रथम वदन की
वतवथ ग्राह्य है दू सरे वदन की वतवथ को िृद्धि वतवथ मानते है। क
ु छ सूराेास्त पश्चात ४८ वमवनट (एक मुहूतेा) रहे उसे
ग्राह्य करते है।
प्रत्येक चंद्र मास मे दो पक्ष होते है 1 क
ृ ष्ण पक्ष 2 िुक्ल पक्ष। प्रत्येक पक्ष मे 15 वतवथ होती है। 1 एकम (प्रवतपदा) 2
दू ज (वद्वतीरा) 3 तीज(तृतीरा) 4 चौथ (चतुथी) 5 पाचम (पंचमी) 6 छठ (षष्ठी) 7 सातम (सप्तमी) 8 आठम
(अष्टमी) 9 नौमी (निमी) 10 दिम (दिमी) 11 ग्याहरस (एकादिी) 12 बारहरस (द्वादिी) 13 तेरहस (त्ररोदिी)
14 चौहदस (चतुदेािी) 15 पंचदिी (पूनम / अमािस्या)
िुक्ल पक्ष की पंचदिी को पूवणेामा भी कहते है। क
ृ ष्ण पक्ष की पंचदिी को अमािस / अमािस्या रा दिेा कहते है
और 30 भी विखते है। प्रातःकाि से िेकर रावत्र तक रहने िािी अमािस्या को वसनीिािी, चतुदेािी से विि को
दिेा और एकम से रुक्त अमािस्या को कहु कहते है।
सत वतवथरा 1, 2, 3, 5, 7, 10, 11, 13 तथा पूवणेामा रे सत वतवथरा है।
असत वतवथरा 4, 6, 8, 12, 14 तथा अमािस्या असत वतवथरां है।
मास िून्य वतवथरा वनम् वतवथरां िुभ नही मानी जाती है। इनमे कारेा सफि नही होता और इन वतवथरो पर
जन्मा जातक का जीिन पूणेातरा सुखी ि सफि नही होता है।
वसिा वतवथरा - रे वतवथरा रवद इन िार पर पड़े तो उर्त्म, वकरे कारेा सफि होते है। इन वतवथरों पर जन्मा
जातक सुखी और सफि होता है। मंगििार - 3, 8, 13 बुििार - 2, 7, 12 गुरिार - 5, 10, 15 (पूनम) िुक्रिार
- 1, 6, 11 िवनिार - 4, 9, 14 .
अिुभ वतवथरा - रे वतवथरां उन िार पर पड़े तो अिुभ, कारेा असफि होता है अतः रे ताज्य है। इन वतवथरो पर
जन्मा जातक को जीिन मे विघ्न बािारे प्रमुखता से रहती है। रवििार - 4, 12 सोमिार - 6, 11 मंगििार - 5,
7 बुििार - 2, 3, 8 गुरिार - 6, 8, 9 िुक्रिार - 8, 9, 10 िवनिार - 7, 9, 11 .
दग्धा, विष, हुतािन वतवथरा - वनम्ांवकत वतवथ वनम् िारो पर हो तो अिुभ और हावनकारक होती है।
पिेा वतवथरां - क
ृ ष्ण पक्ष की अष्टमी, चतुदेािी, अमािस्या िुक्ल पक्ष की पूवणेामा और सूरेा संक्रांवत की वतवथ पिेा
वतवथ कहिाती है इन वतवथरो पर मंगि रा िुभ कारेा ताज्य है।
प्रदोष वतवथरा - अिेा रावत्र पूिेा द्वादिी, रावत्र क
े 4½ घण्टे पूिेा षष्ठी, और रावत्र समाप्त होने क
े 3 घण्टे पूिेा तृतीरा
प्रदोष वतवथ कहिाती है। इनमे सभी िुभ कारेा िवजेात है।
प्रदोष काि - माह की त्ररोदिी को सांरकाि प्रदोष काि होता है। ऐसी मान्यता है वक विि अपने क
ै िाि द्धस्थत
रजत भिन मे इस समर नृत्य करते है और देितागण उनक
े गुणो का स्तिन करते है। (सांरकाि रावन सूराेास्त
क
े पूिेा 01 घंटे 12 वमवनट और पश्चात 01 घंटे 12 वमवनट रावन क
ु ि 02 घण्टा 24 वमवनट रा 06 घटी,
व्रतराज ग्रन्थ में सूराेास्त से तीन घंटा पूिेा क
े समर को प्रदोष काि माना गरा है।)
वतवथरो की संज्ञाएेे - वतवथरो की संज्ञाऐ पांच है। (1) निा - 1, 6, 11 (2) भद्रा - 2, 7, 12 (3) जरा - 3, 8, 13 (4)
ररक्ता - 4, 9, 14 (5) पूणाेा 5, 10, 15 पक्षरन्ध्र 4, 6, 8, 9, 12, 14 .
नंदा - वतवथ में जन्मा जातक मानी, विद्वान, ज्ञानी, देि भक्त, क
ु टुद्धम्बरो का स्नेही होता है। इनमे वचत्रकारी, िास्तु,
तंत्र-मन्त्र, क
ृ वष, वििाह, गृहारम्भ, उत्सि आवद कारेा वसि होते है।
भद्रा - वतवथ में जन्मा जातक बंिुओ में मान्य, राज्यावश्रत (अविकारी, सवचि) िनिान, भि बंिन से भरभीत,
परोपकारी होता है। इनमे वििाह, रात्रा, सिारी, रज्ञ, िांवतकमेा, िस्त्राभूषण आवद वसि होते है।
जरा - वतवथ मे जन्मा जातक राजमान्य (राजरपाि, मन्त्री) पुत्र पौत्रावद से रुक्त, िीर, िांत, दीघाेारु, मनस्वी होता
है। इनमे रात्रा, वििाह, गृह, रुि रात्रा, क
ृ वष, विजरोपरोगी रुि, आवद वसि होते है।
ररक्ता - वतवथ में जन्मा जातक तक
ेा करने िािा, प्रमादी, गुरु ि विद्वान वनंदक, िस्त्राभ्यासी, घमंडी, नािक कामी
होता है। इनमे िुभ कारो मे सफिता नही वमिती है वकन्तु विष, अवग्न, िस्त्र, मारण िड़ाई, रुि, विनाि आवद
क्र
ू रकमेा वसि होते है।
पूणाेा - वतवथ मे जन्मा जातक पूणेा िनी, िेद िे िास्त्र ज्ञाता, सत्यिक्ता, िुिःवचर्त्, बहु विषरज्ञ होता है। इनमे सब
कारेा सफि होते है। क
े िि पूनम को उपनरन िवजेात है।
वतवथ फिादेि
एकम - जातक पररश्रमी, प्रवतज्ञापािक तथा किाप्रेमी होता है। दू ज - जातक बििान, िनिान, िमेा ि संस्क
ृ वत
का पािक, खचीिा होता है। तीज - जातक प्रबििक्ता, चंचि, राष्टिप्रेमी होता है। चतुथी - जातक आिािादी,
कारेावनपुण, गूढ़विद्या प्रिीण, चतुर, क
ं जूस होता है। पंचमी - जातक विद्या से पूणेा, कामिासना रुक्त, क
ृ ि िरीर,
कमजोर, प्रिान, वचवकत्सक रा न्यारािीि रा अवभभाषक की रोग्यता िािा होता है।
छठ - जातक विद्यािान, क्रोिी, विक्षािास्त्री, किाविद, स्पष्ट भाषी होता है। सप्तमी - जातक कफ विकारी,
गौरि प्राप्त करने िािा, िन से तंग, श्रेष्ट नेता, अपमान नही सहने िािा होता है। अष्टमी - जातक कफ प्रक
ृ वत
िािा, स्व स्त्री से प्रीवतिान, व्यसनी, पराक्रमी, स्वस्थ, िीर, अवनरमी, देिी-देिता का इष्टिान होता है। निमी
- जातक िमेा पािक, मंत्रविद्या प्रेमी, स्त्री ि पुत्र से परेिान, क
ु टुम्ब से क्लेि, ईश्वर भक्त होता है। दिमी - जातक
भाग्यिान, िक्ता, रोजक, िोकवप्रर, किावप्रर, कमेाठ होता है।
एकादिी - जातक प्रवतष्ठा से चिने िािा, िावमेाक, ईश्वरिादी, वििाह से सुखी, कल्पक, खचीिा, माता का वप्रर,
स्पष्ट भाषी होता है। द्वादिी - जातक ज्ञाता, कल्पक, बुद्धिमान, पूणेा विद्या प्राप्त करने िािा, राष्टिप्रेमी, सुखी होता
है। त्ररोदिी - जातक िोभी, कामिासना रुक्त, िनिान, नृत्य-नाट्य का िौकीन होता है। चतुदेािी - जातक
क्रोिी, कारेा करक
े पछताने िािा, सस्था संचािक, वकसी विद्या मे प्रिीण, सुखावभिाषी होता है। पूनम - जातक
रिस्वी, हृदरी, क
ु टुम्ब को सुख देने िािा, ईमानदार, क
ु ि गौरिी, नीवतज्ञ, सत्यिचनी, गुरु को मानने िािा होता
है। अमािस - जातक ईश्वर भक्त, विश्व बंिुत्व की भािना रखने िािा, क
ु टुम्ब प्रेमी, िनिान वकन्तु िन से
अनािक्त, वििाह से सुखी होता है।
मानसागरी अनुसार वतवथ फिादेि
प्रवतपदा - जातक दुजेान संगी, क
ु ि किंकी, व्यसनी होता है। वद्वतीरा - जातक पर स्त्री गामी, सत्य और िौच से
रवहत, स्नेह हीन होता है। तृतीरा -जातक चेष्टाहीन, विकि, िनहीन, ईष्याेािु होता है। चतुथी - जातक भोगी,
दानी, वमत्र प्रेमी, विद्वान, िवन, संतान रुक्त होता है। पंचमी - जातक व्यव्हार ज्ञाता गुणग्राही, माता-वपता का भक्त,
दानी, भोगी, अल्प प्रेम करने िािा होता है। षष्ठी - जातक देि-विदेि भ्रमणिीि, झगड़ािू, उदर रोग पीवड़त
होता है। सप्तमी - जातक अल्प मे ही संतुष्ट, तेजस्वी, सौभाग्यिािी, गुणिान, संतान ि िन संपन्न होता
है। अष्टमी - जातक िमाेािा, सत्यिक्ता, भोगी दरािान कारेाक
ु िि होता है।
निमी - जातक देिभक्त, पुत्रिान, िनी, स्त्री मे आिक्त, िास्त्राभ्यासी होता है। दिमी - जातक िमेा अिमेा का
ज्ञाता, देिभक्त, रज्ञ कराने िािा, तेजस्वी, सुखी होता है। एकादिी - जातक स्वल्प मे संतुष्ट, राजा से मान्य
(िासकीर ठे क
े दार, वितरक, कारेाकारी) पवित्र, िनिान, पुत्रिान बुद्धिमान होता है। द्वादिी - जातक चंचि,
अद्धस्थरबुद्धि, क
ृ ि िरीरी, परदेि भ्रमणिीि होता है। त्ररोदिी - जातक महावसि पुरुष,
महाविद्वान, िास्त्राभ्यासी, वजतेद्धन्द्रर, परोपकारी होता है। चतुदेािी - जातक िनिान, उद्योगी, िीर, िचनबि,
राजमान्य, रिस्वी होता है। पूवणेामा - जातक सम्पवर्त्िान, मवतमान, भोजनवप्रर, उद्योगी पर स्त्री में आसक्त होता
है। अमािस्या - जातक दीघेासूत्री, द्वेषी, क
ु वटि, मुखेा, पराक्रमी, गुप्तविचारी होता है।
रोग
भूक
े न्द्रीर दृवष्ट से सूरेा और चन्द्रमा की गवत का जोड़ ही रोग कहिाता है। रह रोग एक नक्षत्र तुल्य 800 किा का
ही होता है। सूरेा चंद्र की गवत क
े कारण एक रोग अविक से अविक 60 घटी तथा कम से कम 50 घटी का होता
है। रे दैवनक रोग भी कहिाते है। रोग 27 होते है तथा इनका क्रम 24 से 26 वदन मे पूरा होता है। इनक
े नाम इस
प्रकार है :-
➧ इनमे विष्क
ु म्भ, अवतगण्ड, िूि, व्याघात, िज्र, व्यवतपात, पररि तथा िैघृवत रे नौ रोग अिुभ है िेष िुभ है।
रोग फिादेि
1 विष्क
ु म्भ - सुिर रूप, भाग्यिान, आभूषणो से पूणेा, बुद्धिमान, पवित्र, कारेादक्ष, पद्धण्डत।
2 प्रीवत - द्धस्त्ररो का वप्रर, तत्वज्ञ, महा उत्साही, स्व प्ररोजनाथेा उद्योगी, ििनाओ का स्नेही।
3 आरुष्मान - मानी, िनिान, कवि, दीघाेारु, बििान, ित्रुहन्ता, रुि में विजरी, पिु-पक्षी प्रेमी।
4 सौभाग्य - जातक राज्य मंत्री, सिेा कारेा दक्ष, विरो का िल्ल्भ होता है।
पञ्चाङ्ग.docx
पञ्चाङ्ग.docx
पञ्चाङ्ग.docx
पञ्चाङ्ग.docx

Más contenido relacionado

Similar a पञ्चाङ्ग.docx

Gurutva jyotish nov 2011
Gurutva jyotish nov 2011Gurutva jyotish nov 2011
Gurutva jyotish nov 2011
GURUTVAKARYALAY
 
Sanskar sinchan
Sanskar sinchanSanskar sinchan
Sanskar sinchan
gurusewa
 
VICHARAK VISWAS OR IMARTAY
VICHARAK VISWAS OR IMARTAYVICHARAK VISWAS OR IMARTAY
VICHARAK VISWAS OR IMARTAY
RAGHAV JHA
 
Ishta siddhi
Ishta siddhiIshta siddhi
Ishta siddhi
gurusewa
 
जन्म कुंडली से भविष्य कैसे जाने---------
जन्म कुंडली से भविष्य कैसे जाने---------जन्म कुंडली से भविष्य कैसे जाने---------
जन्म कुंडली से भविष्य कैसे जाने---------
shubhamaapkikismat
 
जन्म कुंडली से भविष्य कैसे जाने---------
जन्म कुंडली से भविष्य कैसे जाने---------जन्म कुंडली से भविष्य कैसे जाने---------
जन्म कुंडली से भविष्य कैसे जाने---------
shubhamaapkikismat
 
जनेऊ पहनने के लाभ
जनेऊ पहनने के लाभजनेऊ पहनने के लाभ
जनेऊ पहनने के लाभ
Nand Lal Bagda
 

Similar a पञ्चाङ्ग.docx (20)

Gadauli Dham Brochure
Gadauli Dham BrochureGadauli Dham Brochure
Gadauli Dham Brochure
 
Gurutva jyotish nov 2011
Gurutva jyotish nov 2011Gurutva jyotish nov 2011
Gurutva jyotish nov 2011
 
Shraddha mahima
Shraddha mahimaShraddha mahima
Shraddha mahima
 
Yonivyapd chikitsa ch chi
Yonivyapd chikitsa ch chiYonivyapd chikitsa ch chi
Yonivyapd chikitsa ch chi
 
Sanskar sinchan
Sanskar sinchanSanskar sinchan
Sanskar sinchan
 
SanskarSinchan
SanskarSinchanSanskarSinchan
SanskarSinchan
 
Astronomical Aspects of Makarshankranti.pptx
Astronomical Aspects of Makarshankranti.pptxAstronomical Aspects of Makarshankranti.pptx
Astronomical Aspects of Makarshankranti.pptx
 
ऋतुचक्र (Menstrual Cycle) as given in ayurveda.pptx
ऋतुचक्र (Menstrual Cycle) as given in ayurveda.pptxऋतुचक्र (Menstrual Cycle) as given in ayurveda.pptx
ऋतुचक्र (Menstrual Cycle) as given in ayurveda.pptx
 
शैव सम्प्रदाय
शैव सम्प्रदाय शैव सम्प्रदाय
शैव सम्प्रदाय
 
VICHARAK VISWAS OR IMARTAY
VICHARAK VISWAS OR IMARTAYVICHARAK VISWAS OR IMARTAY
VICHARAK VISWAS OR IMARTAY
 
Concept of aatma and bramha
Concept of aatma and bramhaConcept of aatma and bramha
Concept of aatma and bramha
 
IshtaSiddhi
IshtaSiddhiIshtaSiddhi
IshtaSiddhi
 
Ishta siddhi
Ishta siddhiIshta siddhi
Ishta siddhi
 
जन्म कुंडली से भविष्य कैसे जाने---------
जन्म कुंडली से भविष्य कैसे जाने---------जन्म कुंडली से भविष्य कैसे जाने---------
जन्म कुंडली से भविष्य कैसे जाने---------
 
जन्म कुंडली से भविष्य कैसे जाने---------
जन्म कुंडली से भविष्य कैसे जाने---------जन्म कुंडली से भविष्य कैसे जाने---------
जन्म कुंडली से भविष्य कैसे जाने---------
 
W 23-rikshasheeladhyaya
W 23-rikshasheeladhyayaW 23-rikshasheeladhyaya
W 23-rikshasheeladhyaya
 
Pranayama
PranayamaPranayama
Pranayama
 
Ritucharya
Ritucharya Ritucharya
Ritucharya
 
जनेऊ पहनने के लाभ
जनेऊ पहनने के लाभजनेऊ पहनने के लाभ
जनेऊ पहनने के लाभ
 
Qci ved Upnishad Agam Puran
Qci ved Upnishad Agam PuranQci ved Upnishad Agam Puran
Qci ved Upnishad Agam Puran
 

पञ्चाङ्ग.docx

  • 1. पञ्चाङ्ग / पंचांग / panchang भारत मे पंचांग का अपना विविष्ट स्थान है। भारत व्रत, त्यौहार, उत्सि, मांगविक कारेाेा का देि है। रे रहा की संस्क ृ वत मे रचे-बसे है। पंचांग का मूि उद्देश्य विवभन्न व्रत, त्यौहार, उत्सि, मांगविक कारेा की जांच करना है। वहन्दू प्रणािी से पंचांग क े विवभन्न तत्वो क े संरोजन से िुभ और अिुभ क्षण (रोग) का गठन करना है। इसक े आिािा सप्ताह क े वदन, वतवथ, रोग, नक्षत्र, करण आवद को विविष्ट गवतविविरो क े विए वनिाेाररत वकरे गरे उनक े उतार-चढाि का ज्ञान है। एक िुभ समर वनिाेाररत करने क े विए पंचांग िुद्धि मौविक है। इसक े अिािा अनुक ू ि पारगमन, िुि िग्न, अिुभ रोगो की अनुपद्धस्थवत, अनुक ू ि दिा (वहंदू प्रगवत), कताेा का नाम, प्रस्ताि, मंत्रो का जप, गवतविवि की जगह, सामावजक रीवत-ररिाज, सगुन, श्वास क े तरीक े का पररक्षण भी पंचांग की मौविकता है। पञ्चाङ्ग पररभाषा- वजस पत्रक द्वारा किान्तगेात िार, वतवथ, रोग, नक्षत्र, करण इन पांचो का ज्ञान हो उसे पंचाग कहते है। िैसे सौर, चांद्र, बृहस्पतस्य, सािन, नाक्षत्र इन पांच प्रकार क े काि क े अंगो का ज्ञान वजस पिवत से हो उसे भी पंचांग कहते है। पंचांग का िाद्धिक अथेा है :- पञ्च + अंग अथाेात वजसक े पांच अंग हो।इनक े आिािा भी पंचाग मे अरन, ऋतु, मास, पक्ष, ग्रह, ग्रहो क े उदरास्तावद, िग्न सारवणरा, वििाहावद अनेक प्रकार क े मुहूर्त्ेा, व्रत त्योहारो का वदन समर, िषेा फि, रावि फि आवद अनेक जानकारररा दी रहती है। उत्पवर्त् : िैवदक अनुष्ठानो क े विरे समर िुद्धि और समर रखना महत्वपूणेा था और िैवदक रुग मे खगोिीर वपण्डो पर नजर रखना और भविष्यिाणी क े विरे समर रखना, अनुष्ठानो क े विरे वदन और समर तर करना ज्योवतष का क्षेत्र था। रह अध्यरन छह मे एक प्राचीन िेदांग रा िेदो से जुडी सहारक विज्ञान मे से था। प्राचीन भारतीर संस्क ृ वत ने िेवदक अनुष्ठानो क े विए पिवत और वदनदिेाक (पंचांग) रखने क े विए एक पररष्क ृ त समर विकवसत वकरा। क ु छ का मानना है वक समर रखने की रह पिवत "मेसोपोटावमरा" मे विकवसत हुई। चारनीज रोंवकओ ओहािी का कहना है वक रह िेदांग क्षेत्र प्राचीन भारत मे िास्तविक खगोिीर अध्यरन से विकवसत हुआ है। िैवदक ज्योवतष विज्ञान क े ग्रंथो को दू सरी और तीसरी ितािी सीई मे चीनी भाषा मे अनुिावदत वकरा गरा था, और खगोि विज्ञान पर ऋग्वेवदक मागेा झू वजरावनरान और झी वकरान क े कारो मे पारे जाते हैं। िैवदक ग्रंथो मे समर-साररणी क े साथ-साथ सौर और चंद्रमा आंदोिनो की प्रक ृ वत का उल्लेख वकरा गरा है। उदाहरण क े विए कौवितकी ब्राह्मण अध्यार 1 9.3 मे सूरेा क े सापेक्ष स्थान मे 6 महीने क े विए उर्त्र की वदिा मे बदिाि, और दवक्षण मे 6 महीने क े विए बदिाि का उल्लेख है।
  • 2. भारतीर ज्योवतष गवणत पिवत का आिार भारतीर खगोि िेर्त्ाओ द्वारा ग्रह, वतवथ इत्यावद क े विए बनारे गए आषेा वसिांत है। और इन्ही आषेा वसिान्तो पर भारत क े विवभन्न स्थानो से कई पंचांग विवभन्न मतो अनुसार बनारे जाते है। भारत मे आजकि जो वसिांत प्रचिन मे है उनक े अनुसार दृश्य गणना पर ग्रह इत्यावद पंचांगो मे दविेात स्थानो पर नही वदखते, इसका बोि प्राचीन खगोि िेर्त्ाओ को रहा होगा ! भारत िषेा िमेा प्राण देि है और िावमेाक क ृ त्यावद क े विरे "आषेा वसिान्तो" पर आिाररत वतथ्यावद मान ही प्रामावणक है। सूक्ष्मकाि का ज्ञान आिक्य है, वकन्तु वफर भी िास्तविकता क े समीप का ज्ञान हो िही श्रेष्ठ है। प्रारः ग्रहो की गवत मे िैिक्षण्य होने से कािांतर मे वतथ्यावद मान मे अन्तर हो जारा करता है, इसविए प्राचीन ज्योवतष ग्रन्थो मे संसोिन होता आरा है और आज भी इसकी आिश्यकता है। आजकि पंचांग क े विषर मे भारत मे मतभेद चि रहे है। ितेामान समर मे प्राचीन पंचांग पिवत वसि ग्रहो क े संचार मे काफी अन्तर आ गरा है िे प्रत्यक्ष ग्रह से नही वमि पाते इसविए निीन िेदोिब्ध पिवत वसि सूक्ष्मासन्न होने से िही ग्रहण करना चावहरे। आजकि ग्रीनविच पंचांग अनुसार बने ग्रह इत्यावद जैसे पंचांग बनाने की सम्मवत कई एक विद्वानो की है और कई एक बनाते भी है उनका मत है वक जब सब ग्रह इत्यावद प्रत्यक्ष है तो सब विषर प्रत्यक्ष वसि िेना चावहरे। परन्तु इन पंचांगों मे भी अरनांि का मतभेद है। पाश्चात्य देिो मे सारन और भारत मे वनररण वसिांत से पंचांग बनारे जाते है। दोनो मे अरनांि का अंतर है। वकन्तु भारत मे प्रचवित अिग-अिग वसिान्तो क े अनुसार अरनांिो मे अंतर है और भारत मे ही िगभग 12 प्रकार क े अरनांि प्रचवित है। विवभन्न मतो अनुसार 'िका: 1895 िषाेारम्भ पर अरनांि वनम्ांवकत थे। ➤ ग्रहिाघि मत 23 अंि, 41 किा, 00 विकिा, गवत 60 विकिा प्रवतिषेा। ➤ क े तकर मत 21 अंि, 02 किा, 57 विकिा, गवत 50 विकिा 13 प्र. वि. प्रवत िषेा। ➤ मकरद्धिर मत 21 अंि, 39 किा, 36 विकिा, गवत 54 विकिा प्रवत िषेा। ➤ वसिांत सम्राट मत 20 अंि, 40 किा, 17 विकिा, गवत 51 विकिा प्रवत िषेा। पंचांग सुिार सवमवत calendar reform committee भारतीर रावष्टिर पंचांग I N C भारतीर स्वतंत्रता क े बाद सन 1952 मे भारत सरकार ने एक पंचांग सुिार सवमवत calendar reform committee का गठन मेघनाथ िाह और एन सी िावहरी की प्रमुखता मे वकरा। इसक े वनष्कषेा अनुसार भारत सरकार ने िक: संित को भारतीर संित की मान्यता दी और चैत्रावद को मासारम्भ माना, तदनुसार 22 माचेा 1957 से एक चैत्र 1879 िक: गणना प्रारम्भ है। इसक े मास तथा उनक े वदन इस प्रकार है :- (1) चैत्र 30 / 31* (2) िैिाख 31 (3) ज्येष्ठ 31 (4) आषाढ़ 31 (5 ) श्रािण 31 (6) भाद्रपद 31 (7) आवश्वन 3 0 (8) कावतेाक 30 (9) अगहन 30 (10) पौष 30 (11) माघ 30 (12) फाल्गुन 30 * िीप ईरर 31
  • 3. इसी सवमवत की वसफाररि अनुसार "वचत्रा पक्षीर" अरनांि को मान्य वकरा। इस अनुसार ईसिी सन 285 रा िक: 207 मे अरनांि िून्य था अथाेात सारन और वनररण भचक्र का प्रारम्भ मेष रावि क े िसंत संपात वबंदु से साथ-साथ था। रह समर 22 माचेा 285 रवििार भारतीर प्रामावणक समर I S T 21 घण्टे 27 वमवनट था। इस समर वचत्रा नक्षत्र SPICA STAR क े सारन वनररण दोनो की िम्बाई 180 । 00 । 03 थी। इसी वदन मध्यम सूरेा की िम्बाई 360 अंि थी। पंचाग सुिार सवमवत क े सुझाि अनुसार भारत सरकार अिीन भारतीर खगोि एेे फ े मेरीज ने अरनांि 5". 8 कम कर वचत्रा पक्षीर अरनांि को ग्रहण वकरा। इसी वसफाररस अनुसार 21 माचेा 1956 से अरनांि 23 अंि 15 किा प्रचिन मे है। इसी मे सन 1985 मे अत्यंत अल्प 0". 658 का सुिार वकरा गरा। इस प्रकार 01 जनिरी 2010 को अरनांि 24 अंि, 00 किा, 05 विकिा और गवत 50 विकिा प्रवतिषेा थी। पंचांगीर वसिांत भारत मे प्रारः तीन वसिांत प्रचवित है। 1 दवक्षण भारत मे आरेावसिांत, 2 मध्य भारत मे ब्रम्ह वसिांत, 3 उर्त्र भारत मे सूरेा वसिांत और सूरेा वसिान्तानुसार बने करण ग्रंथो का। इनमे ब्रम्ह वसिांत और सूरेा वसिांत प्रारः तुल्य ही है। वकन्तु ब्रम्ह वसिांत, िविष्ठ वसिांत, िराह वमहर, कमिाकर आवद विद्वानो क े अनुसार रोग्य नही है। इसविए सूरेा वसिांत पिवत वसि रा प्रत्यक्ष िेिोपिब्ध रा क े िि सूरेा वसिान्तीर गवणत ही मान्य है। भारत मे ग्रहिाघि, मकरंदीर, ब्रम्हपक्षीर, सौरपक्षीर, ििोपिब्ध, दृश्यपक्षीर, वचत्रापक्षीर, खगोिवसि, वनररण भारतीर पिवतवसि इत्यावद कई प्रकार क े पंचांग विवभन्न स्थानो से प्रकावित होते है। ग्रहिाघिी और मकरंदीर पंचांग गवणत सरि है। समरानुसार संिोिन और मतैक्यता की आिश्यकता है। सािारण ज्योवतषी को गवणत की अिुिता से बचने क े विरे अपना वनकटिती पंचांग िेना चावहरे। ितेामान मे ज्योवतष सॉफ्टिेरर का प्रचिन है। इनमे विवभन्न अरनांि दी रहती है। अतः सिेामान्य वचत्रा पक्षीर रा एन सी िावहरी अरनांि िेना चावहरे। इनमे दैवनक पंचांग भी वदरा रहता है इसे अक्षांि, देिांि से अपने स्थान का बना सकते है। पंचांग पररचर भारतीर पंचांग विदेिो क े अिमनक almanac रा एेे फ े मेरीज ephemeris से वभन्न प्रकार क े होते है। इनमे से अविकतर आषेावसिान्तो क े अनुक ू ि िमेाक ृ त्योपरोगी होते है। रे पंचांग वकसी स्थान वििेष क े अक्षांि, देिांि द्वारा बनारे जाते है। प्ररोग मे हमेिा वनकटिती पंचांग ही िेना चावहरे। प्रत्येक पंचांग में दी विवि से उसे स्थानीर पंचाग बना सकते है। प्रत्येक पंचांग मे वदरे गरे वतथ्यावद मान (वतवथ, रोग, नक्षत्र, करण) सूरोदर काि से समाद्धप्त काि घटी पि अथिा घंटा वमवनट मे वदरा रहता है। एक अहोरात्र मे दो करण होते है, पंचाग मे सूरोदर से जो प्रथम करण होता उसका समाद्धप्त काि वदरा रहता उसक े बाद उस वतवथ क े वद्वतीर दि का करण होता है। वकसी-वकसी पंचाग में
  • 4. दोनो करण वदरे रहते है। नक्षत्र, रोग, कारण प्रारः संक े वतत ििो में विखे रहते है और कई क े संक े वतत िि समान होते है अतएि ध्यान रखे। इसक े अिािा प्रत्येक वदन की चन्द्र रावि और रावि प्रिेि का समर वदरा रहता है। इसक े साथ जहा का पंचांग हो िहा का सूरोदर, सूराेास्त भारतीर प्रामावणक समर घंटा वमवनट मे वदरा रहता है। साथ ही विवभन्न प्रकार की तारीखे रहती है। अविकतर पंचांगो मे उस वदन का प्रातः स्पस्ट रवि, वदनमान, रावत्रमान, वमश्रमान आवद तथा उसी कािम मे आगे व्रतावद, मुहूतेा, ग्रहो का रावि रा नक्षत्र प्रिेि का समर ि उदर अस्त, िक्री-मागी आवद जानकारररा दी रहती है। अवितर पंचांग प्रत्येक पृष्ठ पर 15 वदन (पावक्षक) का पंचांग देते है, सबसे ऊपर माह, पक्ष, संित, िक:, अंग्रेजी तारीख, सूरेा का अरन, गोि, ऋतु आवद वदरा रहता है। क ु छ पंचागो मे प्रवतवदन और क ु छ मे सातवदन (साप्तावहक) ग्रह स्पस्ट वदए रहते है। क ु छ पंचांग वमश्रकाि और क ु छ अन्य इष्ट क े ग्रह देते है। ग्रहो की दैवनक गवत, उदरास्त, िक्री-मागी, नक्षत्र प्रिेि आवद भी देते है। क ु छ पंचाग दैवनक िग्न प्रिेि, चंद्र क े निमांि प्रिेि का समर, संक्रावत फि, ग्रह का निांि चरण प्रिेि, िर, क्रांवत, दैवनक रोग, ग्रहण, आवद देते है। इसक े अिािा कई पंचांग सूरेा क्रांवत साररणी, विवभन्न स्थानो की िग्न साररणी, दिम साररणी, साम्पवतक काि, अरनांि, मुहूतेा, िषेा फि, रावि फि, व्रत का वनणेार इत्यावद देते है। ⊛ पंचांग मे िृद्धि वतवथ विखकर दू सरे वदन का नक्षत्र, रोग, करण विखते है वकन्तु क्षर वतवथ क े िि विख देते है उसक े आगे क ु छ नहींविखते है। ⊛ जब एक ही वदन में दो वतवथ सम्मवित हो तो जो वतवथ सूरोदर क े समर हो उसका मान विखकर आगे क े कािम मे नक्षत्र आवद का मान विखते है। उसक े नीचे क ु छ पंचांग सम्मवित (वििोम) वतवथ का मान विखकर िही िार और नक्षत्रावद क ु छ नही विखते है। ⊛ प्रत्येक पंचांग मे उसमे समािेि वकरे गरे विषरो की जानकारी दी रहती है उसे देख िेना आिश्यक है। ⊛ पंचांगों मे प्ररुक्त सांक े वतक िि : वद. मा. = वदनमान। वत. = वतवथ। घ. = घटी। प. = पि। वि. = विपि। घं. = घण्टा। वम. = वमवनट। से. = सेकण्ड। न. = नक्षत्र। रो. = रोग। क. = करण। अं. = अंग्रेजी तारीख। रा. = राष्टिीर (भारतीर) तारीख। भा. ता. = भारतीर तारीख। ता. = तारीख। ई. = ईसिी। सू. उ. = सूरेा उदर। र. उ. = रवि उदर। सू. अ. = सूरेा अस्त। र. अ. = रवि अस्त। वम. मा. = वमश्रमान (मध्यरावत्र) पू. = पूिेा। प. = पवश्चम। उ. = उर्त्र। द. = दवक्षण। भ. = भद्रा। उ. उपरान्त। ि. = िक्री। मा. = मागी। िू. = िून्य। अ. = अमृत। ब. =बंगिा। प्रा. स्प. सू. = प्रातः स्पस्ट सूरेा। मेषाक ेा = मेष मे अक ेा । ि. िषेा। मा. = मास। वद. = वदन। मा. मागी। ि. = िक्री। पाश्चात्य पंचांग - अिमनक almanac रा एेे फ े मेरीज ephemeris रह इंग्लैंड मे ग्र्रीनविच की िेििािा observatory क े आिार पर तैरार वकरा जाता है। इसमे हषेाि, न्येपचुन, प्लूटो ग्रह की स्थवत भी दी रहती है। ग्रह और रावि क े नाम की जगह उनक े वचन्ह वदए रहते है।
  • 5. दृवष्ट aspect आवद भी वचन्ह मे वदरे जाते है। ➧ अिमनक आंकड़े : प्रत्येक 12. 5 वमवनट मे सॅटॅिाइट से प्रसाररत और जी पी एस ररसीिर से प्राप्त आंकड़े होते है, रे स्थूि होते है। रे आंकड़े कई महीनो तक माने जाते है। ➧ एेे फ े मेरीज आंकड़े : प्रत्येक 30 सेकण्ड मे सॅटॅिाइट से प्रसाररत और जी पी एस ररसीिर से प्राप्त आंकड़े होते है, रे सूक्ष्म होते है। रे 30 वमवनट ही मान्य होते है ⊛ सािन वदन apparent day- इसमे सूरेा क े मध्यान्ह से दू सरे वदन क े मध्यान्ह तक का समर सािन वदन कहिाता है। इसका मान कम-ज्यादा होता रहता है अतः मध्यम मान वनकि कर वदरा जाता है। ⊛ मध्यम सािन वदन - इसका काि 24 घण्टा होता है। सूरेा की गवत 59'-8" मानकर सूरेा विषुििृर्त् घूमता है ऐसा माना गरा है। रह मध्यम सूरेा मध्यान्ह मे आकर अस्त होता है दू सरे वदन वफर उदर होकर वफर मध्यान्ह मे आता है. अतः एक मध्यान्ह से दू सरे वदन की मध्यान्ह तक 24 घण्टा मानते है। ⊛ नाक्षत्र वदन sidereal day - मध्यान्ह मे तारा आवद उदर होकर मध्यान्ह तक आने का समर नाक्षत्र वदन रा नाक्षत्र काि कहिाता है। इस नाक्षत्र काि को ही साम्पावर्त्क काि sidereal time कहते है। िेििािा मे देखने को रह घवड़राि रहती है। सम्पावतक काि पृथ्वी की दैवनक गवत से बनता है। रह सािन काि मान से 23 घण्टा 56 वमवनट 4. 40906 सेकण्ड का होता है। रह हमेिा एकसा रहता है। ⊛ मध्यम सूरेा - इसका उदर ठीक 6 बजे, 12 बजे मध्यान, 18 बजे अस्त होता है। संित्सर संित्सर िैवदक सावहत्य जैसे ऋग्वेद और अन्य प्राचीन ग्रंथों मे "िषेा" क े विए संस्क ृ त िि है। मध्यरुगीन सावहत्य मे, एक संित्सर "बृहस्पवत िषेा" को संदवभेात करता है, जो एक िषेा बृहस्पवत ग्रह की सापेक्ष द्धस्थवत क े आिार पर होता है। प्राचीन पाठ सूरेा वसिांत अनुसार बृहस्पवत िषेा की गणना 361.026721 वदन रा पृथ्वी आिाररत सौर िषेा की तुिना मे 4.232 वदन कम है। इस अंतर क े विए आिश्यक है वक प्रत्येक 85 सौर िषेा (~ 86 जोविरन िषेा) मे िगभग एक बार, नावमत संित्सर मे से एक को वनकािा जाता है (एक छारा िषेा क े रूप मे छोड़ वदरा जाता है) इससे दोनो क ै िेंडर समक्रवमक हो जाते है। हािांवक, समक्रवमक का वििरण उर्त्र और दवक्षण भारतीर क ै िेंडर क े बीच थोड़ा वभन्न होता है। संित्सरो का क्रम चांद्र िषेा और बृहस्पवत मत मे एक जैसा ही रहता है। संित्सरो का महत्व पंचांग मे िषेा क े नामकरण तथा उनक े नाम अनुसार िषेा क े फि मे वििेष है। संित्सर 60 होते है और ब्रम्ह विंिवतका, विष्णु विंिवतका, चन्द्र विंिवतका प्रत्येक मे 20 संित्सर होते है। ब्रम्हविंिवतका विष्णुविंिवतका चन्द्रविंिवतका 01 प्रभि 21 सिेाजीत 41 प्लिङ्ग 02 विभि 22 सिेािारी 42 कीिक
  • 6. 03 िुक्ल 23 विरोिी 43 सौम्य 04 प्रमोद 24 विक ृ त 44 सािारण 05 प्रजापवत 25 खर 45 विरोिक ृ त 06 अंवगरा 26 नंदन 46 पररिािी 07 श्रीमुख 27 विजर 47 प्रमादी 08 भाि 28 जर 48 आनि 09 रुिा 29 मन्मथ 49 राक्षस 10 िाता 30 दुमुेाख 50 नि 11 ईश्वर 31 हेमिम्ब 51 वपंगि 12 बहुिान्य 32 वििम्ब 52 कािरुक्त 13 प्रमाथी 33 विकारी 53 वसिाथेा 14 विक्रम 34 ििेारी 54 रौद्र 15 िृष 35 प्लि 55 दुमेावत 16 वचत्रभानु 36 िुभक ृ त 56 दुिवभ 17 सुभानु 37 िोभन 57 रुविरोदारी 18 तारण 38 क्रोिी 58 रक्ताक्ष 19 पावथेाि 39 विश्वािसु 59 क्रोिन 20 व्यर 40 पराभि 60 क्षर संित्सर की गणना १ िवििाहन िक: मे 12 जोड़कर 60 का भाग दे, जो िेष बचे िह उपरोक्त क्रम मे संित्सर होता है। इसकी गणना चैत्र िुक्ल प्रवतप्रदा िक: िषेा से होती है। २ विक्रम संित मे 9 जोड़कर 60 का भाग दे, जो िेष बचे िह उपरोक्त क्रम मे संित्सर होता है। इसकी गणना विक्रम सम्वत अनुसार होती है। जैसे कही चैत्र से तो कही कावतेाक होती है। ३ बृहस्पवत मत से गणना िक: को दो जगह रखकर 22 से गुना करे, वफर पहिे गुणन फि मे 4251 जोड़कर 1875 का भाग दे िद्धब्ध अंक को दू सरी जगह की संख्या मे जोड़ना रोगफि मे 60 का भाग देना जो िेष बचे िही बृहस्पवत मत से गत संित्सर होगा, उससे आगे का जन्म संित्सर होगा। संित्सर का भोग्य - पहिी जगह क े िेष मे 12 का गुणा कर 1875 का भाग दे, िद्धब्ध माह होगे िेष मे 30 का गुणा करे रोगफि मे 1875 का भाग दे िद्धब्ध वदन होगे। इसे 12 माह मे से घटाने पर भोग्य काि होगा। िषेा काि प्रकार
  • 7. रो तो सूराेावद रद्धििि काि सात प्रकार क े होते है परन्तु व्यिहार मे क े िि पांच प्रकार क े आते है। 1 सौर, 2 चांद्र, 3 सािन, 4 नाक्षत्र 5 बृहस्पतस्य। 1 सौर काि - प्रत्येक नक्षत्र क े साथ सूरेा से जो काि में वििक्षणता आती है िह सौर काि है। 2 चांद्र काि - चंद्र क े िुक्ल से जो काि मे हावन िृद्धि होती है उसे चंद्र काि कहते है। 3 सािन काि - सूरेा क े उदर अस्त से जो काि मे वििक्षणता आती है उसे सािन काि कहते है। रह सामान्यतरा िषेा कहिाता है। 4 नाक्षत्र काि - प्रत्येक नक्षत्र क े साथ चन्द्रमा से काि में जो वििक्षणता आती है उसे नक्षत्र काि कहते है। 5 बृहस्पवत काि - गुरु ग्रह क े नक्षत्रो क े साथ जो काि मे वििक्षणता आती है उसे बृहस्पवत काि कहते है। सौर िषेा - सूरेा क े द्वादि रावि 360 अंि क े भोग से एक सौर िषेा होता है। रह सूरेा की गवत पर आिाररत है। इसका प्रारम्भ सारन सूरेा की मेष संक्रांवत रा िैिाखी से होता है। एक सम्पूणेा िषेा 365 वदन, 15 घटी, 22 पि, 52. 30 विपि अथिा 365 वदन, 6 घण्टा 9 वमवनट, 9 सेकण्ड का होता है। चांद्र िषेा - रह चन्द्रमा की गवत पर आिाररत होता है। रह 360 वतवथ का होता है। एक चान्द्र िषेा मे 354 अहोरात्र रा सािन होते है। रह सौर िषेा से कम वदनो का है। चंद्र नक्षत्र िषेा - रह चन्द्रमा क े 27 नक्षत्रो को भोगने से बनता है। एक चांद्र नक्षत्र िषेा 327 वदन, 10 घंटा, 38 वमवनट, 18. 12 सेकण्ड का होता है। सािन िषेा - रह 360 वदन-रात / सािन / अहोरात्र का एक िषेा है। एक अहोरात्र 60 घटी रा 24 घण्टे का होता है। बृहस्पतस्य िषेा - रह मध्यम बृहस्पवत क े एक रावि का भोग काि समर है। रह 361 अहोरात्र का होता है। इसे संित्सर भी कहते है। संित्सर 60 होते है। िषेामान - ितेामान िोि अनुसार एक िषेा 365 वदन, 6 घण्टा, 9 वमवनट, 10.5 सेक ं ड का होता है। अन्य वसिान्तो अनुसार िषेामान वनम्ानुसार है :- मत वदिस घटी पि विपि प्र. वि. 1 आरेा वसिांत 365 15 31 30 00 2 सूरेा वसिांत िराह वमवहर 365 15 31 31 24 3 पोविि वसिांत 365 15 30 00 00 4 िोमेि वसिांत 365 14 48 00 00 5 वसिांत विरोमवण 365 15 30 22 30 6 ब्रम्हगुप्त वसिांत 365 15 30 22 30 7 ग्रह िाघि 365 15 31 30 00
  • 8. 8 सन वसिान्त सारन 365 15 02 53 00 9 आिुवनक िोि 365 15 22 56 37 सूरेा से अरन सूरेा भी अपनी पररवि पर चक्कर िगा रहा है इसी िजह से िषेा मे दो अरन उर्त्रारण (सौम्यारन) और दवक्षणारन (राम्यारन) होते है। स्थूि मान से प्रत्येक अरन छह माह का होता है। पंचाग कारो और ज्योवतष कारो मे इनका बहुत महत्व है। उर्त्रारण - इसे सौम्यारन भी कहते है। सूरेा क े मकर से वमथुन रावि तक पररभ्रमण का काि उर्त्रारण है। इसका काि सारन सूरेा की मकर संक्रावत 22 वदसम्बर से कक ेा संक्रांवत तक होता है। रह समर देिताओ का वदन और राक्षसो की रावत्र का है। उर्त्रारण मे सभी िुभ कारेा, गृह प्रिेि, वििाह, देि प्रवतष्ठा, िावमेाक क ृ त्य, दीक्षा, मुण्डन, रज्ञोपिीत संस्कार, विक्षा आवद िुभ है। उर्त्रारण फिादेि - वजसकी मृत्यु उर्त्रारण में होती है उसे मोक्ष की प्राद्धप्त होती है, ऐसा िास्त्रो का मत है । पौरावणकता अनुसार महाभारत मे भीष्म वपतामह ने अपने प्राण उर्त्रारण मे त्यागे थे। उर्त्रारण मे जन्म िेने िािा जातक प्रसन्नवचर्त्, िावमेाक, पवतव्रता, सुिर, तथा वििेकी होता है। उसे क ु टुंब सुख, श्रेष्ठ भाराेा तथा पुत्र की प्राद्धप्त होती है। ऐसा जातक हमेिा सदाचारी, श्रिािान, दीघाेारु होता है। दवक्षणारन - इसे राम्यारन भी कहते है। सूरेा क े कक ेा रावि से िनु भ्रमण का समर दवक्षणारन है। इसका काि सारन सूरेा की कक ेा संक्रांवत 21 जून से मकर संक्रांवत तक होता है। इस समर असुरो का वदन और सुरो की रावत्र होती है। इसमे समस्त अिुभ कारेा सफि होते है। दवक्षणारन फिादेि - जातक क े मन का रहस्य पाना मुद्धिि है। इसमे उत्पन्न जातक आिोचक, अपनी चीजो और पैसो को सम्हाि कर रखने िािा, क ृ षक, भागीदारी से उन्नवत करने िािा, पिु पािक, अच्छे भोजन और अच्छे िस्त्र क े प्रवत वििेष रुवचिान होता है। ऋतुऐ सामान्यतरा िषेा मे तीन ऋतुऐ होती है िषाेा, िीत, ग्रीष्म। वकन्तु सारन सूरेा क े मकरावद दो-दो रावि भोग क े कारण छह ऋतुऐ होती है। (1) 10 -11 मकर-क ु म्भ विविर, (2) 12-1 मीन-मेष िसन्त, (3) 2-3 िृषभ-वमथुन ग्रीष्म, (4) 4-5 कक ेा -वसंह िषाेा, (5) 6-7 कन्या तुिा िरद, (6) 8-9 िृवश्चक-िनु हेमन्त। जातक फिादेि 1 विविर ऋतु - जातक परोपकारी, न्यारवप्रर, वमतभाषी, अविक वमत्र िािा, अपमान नही सहने िािा, जि वप्रर, सुिर स्वरुप, स्वस्थ, वििम्ब से कारेा करने िािा, सािु हृदरी, कामी होता है।
  • 9. 2 िसन्त ऋतु - जातक पुष्ट िरीरी, स्वस्थ स्नारु िािा, तीव्र घ्राण िद्धक्त िािा, उद्योगी, मनस्वी, तेजस्वी, बहुत कारेा करने िािा, देिाटन करने िािा, रसो का ज्ञाता होता है। 3 ग्रीष्म ऋतु - जातक क्रि िरीरी, भोगी, िेखक, स्वाध्यारी, प्रिास का िौकीन, बहुत कारेा प्रारम्भ करने िािा, क्रोिहीन, क्षुिातुर, कामी, िाम्बाकद, िठ, सुखी-दु:खी, अपवित्र होता है। 4 िषाेा ऋतु - जातक ईमिी, आिंिा, दही आवद खट्टे पदाथो का िौकीन, माता से वििेष प्रेमिान, गुणी, भोगी, राजमान्य, वजतेद्धन्द्रर, चतुर, मतिबी होता है। 5 हेमन्त ऋतु - जातक कामिासना रुक्त, व्यसनी, पेट रोगी, श्रिािान, हीरे जिाहरात का िौकीन, पररिार पािक, व्यापारी, क ृ षक, िन-िान्य रुक्त, तेजस्वी, िोक मान्य होता है। 6 िरद ऋतु - जातक रोगी, आध्यद्धिक, सत्संगी, कारेा क ु िि, पुष्ट िरीरी, रोगी, तेजहीन, भरभीत, वनष्ठ ू र, छोटी और मोटी गदेान िािा, िोभी, अंत मे संसार से विरक्त होता है। मास मेषावद राविरो मे सूरेा क े रहने से वजस-वजस चंद्र मास में अमािस्या होती है, िे क्रम से 12 मास होते है। इनक े नाम इस प्रकार है :- 1-चैत्र 2-िैिाख, 3-ज्येष्ठ, 4-आषाढ़, 5-श्रािण, 6-भाद्र, 7-आवश्वन, 8-कावतेाक, 9-मागेािीषेा, 10- पौष, 11-माघ, 12-फाल्गुन। इनका नाम सादृश्य है और इनसे कोन से वदन कोन सा नक्षत्र होगा, इसका अनुमान कर सकते है। वजस मॉस की पूवणेामा पर जो नक्षत्र होता है उससे उस मास का नाम वनवश्चत वकरा गरा है। जैसे चैत्र मास की पूवणेामा पर वचत्रा नक्षत्र होने से चैत्र नामकरण हुआ। इसी प्रकार अन्य नक्षत्रो से विवभन्न मास का नाम वनवश्चत वकरा गरा है। इन्हे नक्षत्र संज्ञक मास भी कहते है। िैवदक मास - तैवर्त्रीर संवहता मे 12 महीनो क े नाम मिु, मािि, िुक्र, िुवच, नभस, नभस्य, इष, ऊजेा, सहस, सहस्य, तपस, तपस्य आरे है। इसी प्रकार ईसिी सन क े 12 महीनो क े नाम 1- जनिरी, 2- फरिरी, 3- माचेा, 4- अप्रैि, 5- मई, 6- जून, 7- जुिाई, 8- अगस्त, 9- वसतम्बर, 10- अक्ट ू म्बर, 11- निम्बर, 12- वदसम्बर। इन महीनो और ईसिी सन को अंतराेाष्टिीर मान्यता है। मासज्ञान 1 चांद्र मास - िुक्ल पक्ष की प्रवतपदा से क ृ ष्ण पक्ष की अमािश्या तक एक चान्द्र मास होता है। 2 सौर मास - सूरेा की एक रावि संक्रमण से दू सरी रावि संक्रमण तक का समर सौर मास है। 3 सािन मास - क ृ ष्ण पक्ष की प्रवतपदा से िुक्ल पक्ष की पूवणेामा तक का सािन मास है। 4 नक्षत्र मास - नक्षत्र से नक्षत्र तक चंद्र भ्रमण का समर चैत्रावद नक्षत्र मास कहिाता है।
  • 10. कारेा भेद से मास ज्ञान - वििाहावद कारो मे सौर मास, रज्ञावद मे सािन मास रा सािन संज्ञक मास, वपतृ कारेा मे चांद्र संज्ञक मास, व्रतावद मे नक्षत्र संज्ञक मास ग्रहण करना चावहरे। चंद्र मास वनणेार - चांद्र मास दो प्रकार का होता है। 1- अमांत 2- पूवणेामान्त 1- अमांत मास - रह िुक्ल प्रवतपदा से क ृ ष्ण अमािस्या तक होता है। रह समस्त दवक्षण भारत तथा महाराष्टि मे प्रचवित है। 2- पूवणेामान्त मास - रह क ृ ष्ण प्रवतपदा से िुक्ल पूवणेामा तक होता है। रह समस्त उर्त्र भारत में प्रचवित है। ➧ वटप्पणी :- अमांत और पूवणेामान्त मास मे उर्त्र भारत मे मास गणना मे एक माह का अंतर आ जाता है। उर्त्र भारत मे चैत्र क ृ ष्ण हुआ तो दवक्षण भारत मे फाल्गुन क ृ ष्ण कहेगे। अतः दवक्षण भारत रा महाराष्टि मे क ृ ष्ण पक्ष मे एक माह का अंतर होता है जबवक िुक्ल पक्ष मे कोई अंतर नही होता है। क्षरमास ि मिमास ज्ञान इसक े वनणेार मे चंद्र मास विरा जाता है। वजस मास मे सूरेा की संक्रावत नही हो अथाेात वजस मास मे सूरेा की रावि पररितेान नही हो िह अविमास रा मिमास कहिाता है। वजस मास में सूरेा की दो संक्राद्धन्त हो जार िह क्षरमास होता है। क्षरमास कभी-कभी होता है। रह क े िि कावतेाक, अगहन, पौष माह मे ही होता है। सौर मास और चांद्र मास क े िषेा मे िगभग दस वदिस का अंतर है। इस अंतर को दू र करने का उपार नही वकरा होता तो चांद्र मास का कोई वठकाना नही रहता, गवमेारो क े महीने सवदेारो और िषाेा मे आते रहते जैसे रिनो क े रमजान। इसविए भारतीर खगोि िेर्त्ाओ ने प्रवत तीसरे िषेा एक अविक मास रखकर इस अवनवश्चता को दू र कर विरा, तथा कोई सूक्ष्म अन्तर नही रहे इस हेतु क्षरमास की रोजना रखी। इस प्रकार प्रत्येक 19 िषेा और 141 िषेा मे एक चान्द्र मास क्षीण कर वदरा रावन उस िषेा मे चान्द्र िषेा बारह माह का नही होकर ग्यारह माह का होता होता है। इस प्रकार 160 िषो मे दो चंद्र मास क्षीण (क्षर रा कम) होने से गवणत का सूक्ष्म अन्तर भी ठीक हो जाता है। वनश्चर ही रह भारतीर खगोि िेर्त्ाओ की सूक्ष्म वनरीक्षण िद्धक्त का पररचारक है। मास फिादेि चैत्र - जातक सुिर, सुिर स्वरुप, अहंकारी, उर्त्म कारेािान, िाि नेत्र, गुस्सैि, स्त्री क े वनकट चंचि, सदा हषेा रुक्त होता है। बैिाख - जातक भोगी कामी, िनिान, प्रसन्नवचर्त्, क्रोिी, सुिर नेत्र, सुिर रूप, सुहृदर, स्वतंत्र, संिषेािीि, महत्वाकांक्षी होता है।
  • 11. ज्येष्ठ - जातक सुिर, देिांतर मे समर व्यतीत करने िािा (परदेिी) दीघाेारु, बुद्धिमान, िनिान, पवित्र ह्रदरी पररश्रमी, स्पस्ट भाषी, िवित किा प्रेमी होता है। आषाढ़ - जातक संतवतिान, िमेा का आदरी / िमेाज्ञ, सम्पवर्त् नष्ट होने से पीवड़त, अल्पसुखी, सुिर िणेा, कारेा क ु िि, िनसंचरी, वद्वस्वभाि, द्धस्थर होता है। श्रािण - जातक िाभ-हावन, सुख-दुःख मे सामान वचर्त्िािा, सुिर, स्थूि देह, क्राद्धन्तकारी, समाज प्रमुख, कारेा क ु िि, देिप्रेमी, पथप्रदिेाक होता है। भाद्रपद - जातक तत्त्विेर्त्ा रा दिेानिास्त्री, रांवत्रक रा विल्पज्ञ, वनश्चरी, व्यिहार क ु िि,साहसी, रुवचिान, सिेादा प्रसन्नवचर्त्, िाचाि, कोरि क े समान िाणी िािा, िीििान होता है। आवश्वन - जातक सुखी, सुिर, कवि, पवित्र आचरणी, गुणी, िनी, कामी, माता-वपता भक्त, गुरु-ईश्वर- राष्टि प्रेमी, िुनी, चररत्रिान होता है। कावतेाक - जातक सजग, उदार, मनमौजी, ईमानदार, पररश्रमी, विख्यात, दीघेा रोग रोगी, किाकार, िनिान, सुकारो मे व्यरी, व्यापारी, बुद्धि ि हृदर हीन होता है। मागेािीषेा - जातक वप्ररिक्ता, िनी, िमाेािा, वमत्रिान, पराक्रमी, परोपकारी, साहसी, चतुर, दरािु, संिेदनिीि, िैरेािान, िांत, आिोचक, न्यारवप्रर होता है। पौष - जातक स्वावभमानी, साहसी, चतुर, िोभी, व्यसनी, विद्वान, प्रबंिक, ित्रुहंता, स्वेच्छाचारी, प्रतापी, वपतर देिता को नही मानने िािा, ऐश्वरेािान, पहििान होता है। माघ - जातक गौरिणेा, विद्यािान, देिाटन करने िािा, िीर, कटुभाषी, कामी, रणिीर, कारेादक्ष, क्रोिी, स्वाथी, व्यसनी, राजनीवतज्ञ, व्यापारी, अनाराि िन प्राप्त करने िािा, क ु टुम्ब पौषक होता है। फाल्गुन - जातक आिविश्वासी, भ्रात सुखहीन, तीव्र बुद्धि, पारखी, भरातुर, रोगी, कजेाहीन, समाजसेिी, अिगुणी, िन-विद्या-सुख से रुक्त, विदेि भ्रमण करने िािा होता है। मि / अविक मास - जातक सांसाररक, विषर रवहत, चररत्रिान, तीथेारात्री, उच्च दृवष्टिान, वनरोगी, स्ववहतैषी, सुिर होता है। क्षर मास - जातक अल्प विद्या-बुद्धि िािा, िनिान्य रवहत, सुखहीन, बहु विवि रुक्त होता है। पक्ष ज्ञान एक चंद्र मास मे दो पक्ष होते है। 1- िुक्ल पक्ष (सुदी रा चादन पक्ष) वजसमे चन्द्रमा िृद्धि की ओर अग्रसर रहता है। 2- क ृ ष्ण पक्ष (िदी रा अंिेर पक्ष) वजसमे चन्द्रमा घटने िगता है। पक्ष फिादेि ⧫ िुक्ल पक्ष - िुक्ल पक्ष मे उत्पन्न जातक चन्द्रमा क े सामान सुिर, िनिान, उद्यमी, िास्त्रज्ञ, हसमुख, िांवतवप्रर, संतान सुखी होता है। रवद चन्द्रमा छठे रा आठिे स्थान पर हो तो पीड़ा होती है। िुक्ल पक्ष मे रावत्र का जन्म हो तो सब अररष्टो का नाि होता है।
  • 12. ⧫ क ृ ष्ण पक्ष - क ृ ष्ण पक्ष मे उत्पन्न जातक वनदेारी, खराब मुख िािा, स्त्री का द्वेषी, बुद्धिहीन, मनमानी करने िािा, व्यसनी, काम िासनारुक्त, चंचि, दुसरो से पावित, सािारण जानो मे रहने िािा, किाह वप्रर होता है। रवद जन्म क ुं डिी मे चन्द्रमा छठे आठिे हो तो 8, 16, 32 िे िषेा में िाराररक पीड़ा, जि से भर, आतंररक ज्वर इत्यवद होते है। िार एक सूरोदर से दू सरे सूरोदर परेान्त सािन वदन रा भू वदन कहिाता है। इसी को िार कहते है। सूराेावद सात ग्रह ही क्रम से इन िारो क े स्वामी है। रही क्रम सारे विश्व मे प्रचवित है। िार सात होते है, वजनसे सप्ताह बनता है। 1 रवििार (ईतिार) 2 सोमिार (चंद्रिार) 3 मंगििार (भौमिार) 4 बुििार (सौम्यिार) 5 गुरिार (बृहस्पवतिार) 6 िुक्रिार (भृगुिार) 7 िवनिार (मंदिार) ⧫ रे िार दो प्रकार से व्यिहार में िारे जाते है। 1. वतवथ, रोग, करण, नक्षत्र का समाद्धप्त काि, वदनमान, अहोरात्र गणना, इष्ट, सूतक इत्यावद मे सूरोदर से माना जाता है। 2. रात्रा, वििाह, उत्सि, पिेा, गृह, क ृ वष, िुभ कारेा, िावमेाक क ृ त्य, दैनद्धिनी इत्यावद मे प्ररुक्त स्वस्थान (स्थानीर समर) से माना जाता है। ⦁⦁ स्वस्थान का िार प्रिेि ज्ञान जो विवहत रा वनवषि िार कहा गरा है िह सदा सूरोदर से नही होता, कभी सूरोदर पहिे रा बाद मे िार प्रिेि होता है। इसका मध्यम मान 60 घटी रा 24 घंटा है। मध्य रेखा 82-30 से अपना अभीष्ट स्थान वजतने वमवनट सेकण्ड देिांतर हो उसमे पूिेा हो तो छह घण्टा जोडने से रा पवश्चम हो तो छह घण्टा घटाने पर जो आिे, उतने ही स्वस्थानीर घंटा, वमवनट, सेक ं ड पर वनत्य प्रातःकाि उस स्थान पर िार प्रिवर्त् होगी। उदहारण :- हाटपीपल्या का देिांि 76 - 18 है। देिांतर (82-30 - 76-18 = 06.12 x 4 = 24 48) संस्कार ऋण 24 वमनट 48 सेकण्ड है। अतएि 6 - 0 - 0 मे से 0 - 24 - 48 घटाने पर प्रत्येक वदन प्रातः 5 घण्टा 35 वमवनट 32 सेकण्ड पर हाटवपपल्या मे िार प्रिृवर्त् होगी। ⦁⦁ क्षण िार रा होरा ज्ञान प्रारः सूरोदर से ही िार का व्यिहार करते है। जो विवहत िार रा वनवषि िार कहे गरे है िे भी दो प्रकार क े होते है। 1 स्थूि िार - रह पूणेा 60 घटी रा 24 घंटे का होता है। 2 सूक्ष्म िार - रह प्रत्येक एक घंटे का होता है। रही सूक्ष्म िार क्षण िार रा होरा कहिाता है। रवद स्थूि िार प्रिस्त हो और सूक्ष्म िार वनवषि हो तो उस समर कारेा का पररत्याग कर देना चावहरे तथा सूक्ष्म िार प्रिस्त और स्थूि िार वनवषि हो तो उस समर कारेा वकरा जा सकता है।
  • 13. उपरुेाक्त्र्त् िार प्रिवर्त् एक-एक घण्टा (होरा = 2 ½) का क्षण िार होता है। प्रथम घंटा उसी िारेि का क्षण िार होता है, उससे आगे क्रम से छह क े अन्तर से घंटे-घंटे िारेि क े क्षण िार होते है। होरा क्रम इस प्रकार है :- 1 सूरेा 2 िुक्र, 3 बुि, 4 चंद्र, 5 िवन, 6 गुरु, 7 मंगि। जैसे रवििार को प्रथम होरा सूरेा, वद्वतीर िुक्र आवद, इस प्रत्येक छठे िार की होरा क्रम 24 घण्टे तक रहेगा। होरा क्रम सभी स्थानो पर समान होता है। इसे काि होरा भी कहते है। इसी क्रम अनुसार स्थानीर सारणी बनाई जा सकती है। ⦁ होरा फि चंद्र, बुि, गुरु की होरा िुभ, सूरेा की होरा सामान्य, मंगि, िवन की होरा अिुभ है। मंगि की होरा मे रुि, िाद- वििाद, बुि की होरा मे ज्ञान प्राद्धप्त, गुरु की होरा मे वििाह, िुक्र की होरा मे प्रिास, भोग-वििास िवन की होरा मे द्रव्य संग्रह करना श्रेष्ठ है। जन्म िार फिादेि िारो की संज्ञा सात है, जो ग्रहो क े नाम क े द्योतक है। रवििार - द्धस्थर, सोमिार - चर, मगििार - उग्र, बुििार - सम, गुरूिार - िघु, िुक्रिार - मृदु, िवनिार - तीक्ष्ण सज्ञक है। रवििार - जातक सहृदरी, वनडर, करतबी, सफि, स्पस्ट भाषी, महत्वाकांक्षी, सत्वगुणी, प्रिास वप्रर, द्धस्थर बुद्धि, स्वावभमानी, आकषेाक, सुिर नेत्र, परम चतुर, तेजस्वी, उत्साही, अल्प रोम, किह वप्रर, होता है। जातक को 1, 6, 13, 32 िे माह में कष्ट होता है तथा आरु 55 से 60 िषेा होती है वकसी-वकसी की आरु ज्यादा होती है। सोमिार - जातक कारो मे व्यस्त, िान्त नही बैठने िािा, श्रिािान, उद्योगी, पररश्रमी, राज्य कारेारत, समाज कल्याणी, िावमेाक, िात-कफ पीवड़त, सद् चररत्र, सुख-दुःख समान भोगने िािा, कामी, बुद्धिमान, िनिान, गोि चेहरा होता है। जातक को 8, 11 िे माह मे पीड़ा, 16, 17 िे िषेा कष्ट तथा आरु 84 िषेा होती है। मंगििार - जातक क्रोिी, साहसी, िम्बाकद, चंचि, तमोगुणी, कल्पक, वपर्त् प्रक ृ वत, िद्धक्त का उपासक, व्यापारी, िचन का पक्का, विरुि बात पर िीध्र गमेा होने िािा, अद्धस्थर, व्यसनािीन, क ु वटि, क ृ षक, सेना नारक रा सैवनक होता है। जातक को 2, 32 िे िषेा में कष्ट, क ु छ सिेादा रोगी रहते है। आरु 84 िषेा होती है। बुििार - जातक स्वाथेावसद्धि मे चतुर, किा-िावणज्य रा विज्ञान का कारेा करने का िौक़ीन, विद्यािासंगी, स्पस्ट भाषी, रजोगुण प्रिान, िेखक रा िेखन से आजीविका, बुद्धिमान, िनिान होता है। घर की जबाबदारी छोटी उम्र मे ही आ पड़ती है। 8 िे माह, 8 िे िषेा मे पीड़ा, आरु 64 िषेा रा अविक होती है। गुरिार - जातक विद्या कारेा रा संसोिन से गौराद्धित, अवभिाषी, स्व वहम्मत से व्यापारी, स्व रोगरता से उन्नवतिान, माता-वपता, गुरु ईश्वर भक्त, िोकवप्रर, िमेापरारण, सेिाभािी, देिप्रेमी, िनिान, वििेकी, अध्यापक रा राजमंत्री, सत्वगुण प्रिान होता है। जातक जन्म क े 7, 13,16 िे माह मे कष्ट सहकर 84 िषेा तक जीवित रहता है। 6 िुक्रिार - जातक चंचिवचर्त्, देिो का वनंदक, िनोपाजेान प्रेमी, क्रीडारत, बुद्धिमान, िक्ता, सुिर, वििेष प्रकार क े क े ि, क े िो क े प्रवत वचंवतत, सफ़ े द िस्त्र िौकीन, कारेा मे सूक्ष्मता का ध्यान रखने िािा, गारन-िादन प्रेमी, काव्य-किा वनपुण, नृत्य प्रिास रा चिवचत्र क े प्रवत आकवषेात, मस्त प्रक ृ वत पर िन को तुच्छ समझने िािा,
  • 14. द्धस्त्ररो क े प्रवत आकवषेात, प्रीवत वििाह पसंद, सम्भि कर चिने िािा होता है। जातक की देह वनरोगी और 60 से 70 िषेा आरु होती है। 7 िवनिार - जातक भाई रा क ु टुम्ब विरोिी, वनश्चरी, झगड़ािू, विद्याव्यसनी होता है। इससे वमत्र पड़ोसी ररश्तेदार ईष्याेा रखते है। भिाई करने पर बुराई वमिती है। जस को तस िािा, खचीिा, साहसी, होता है। हृष्ट- पुष्ट रहता ितारु होता है। *** भारतीर मत से िार की गणना सूरोदर से सूरोदर तक होती है। अंग्रेजी पिवत में िार की गणना मध्यरावत्र से मध्यरावत्र तक होती है। मुसिमानी मत से िार की गणना सूराेास्त से सूराेास्त तक होती है। वतवथ सूरेा ि चंद्र की गवत का अंतर ही वतवथ है। भू क ें द्रीर दृवष्ट से जब सूरेा ि चन्द्रमा एक ही स्थान पर होते है तो सूरेन्दु एक साथ उदर ि अस्त होते है। रही कारण है वक अमािस्या को चन्द्रमा वदखाई नही देता है। तदनन्तर सूरेा से चंद्र की गवत अविक होने से चन्द्र 12-12 अंि पूिेा की और आगे चिता है, तो प्रवतपदावद एक-एक वतवथ होती है पन्द्रह वतवथ पर (180 अंि प्रवतरुवत) पूणेा चंद्र दृश्य होता है एिं तीस वतवथ (30 x 12 = 360) पाश्चात्य पुनः सूरेन्दु संरोग होता है अथाेात अमािस्या होती है। रावि मंडि मे प्रत्येक वतवथ का अंिमान 12 तुल्य ही है। वकन्तु सूरेा-चंद्र की गवत (चन्द्रमा की गवत 55 से 60 घटी) मे न्यूनाविकता होने से प्रत्येक वतवथ में घट-बढ़ होती है। वजन वतवथरो मे घट-बढ़ होती है िे वतवथरा क्षर िृद्धि कहिाती है। प्रारः पंचाग रा एफ े मेरीज मे क्षर वतवथ नही विखते तथा िृद्धि िृद्धि वतवथ दो बार विखते है। क्षर ि िृद्धि वतवथ क्षर ि िृद्धि वतवथ क े घटी पि वकतने हो इस पर मतमतान्तर है। भारतीर ज्योवतष की वििेषता वतवथ का रह सबसे अंिकार पक्ष है जो वििाद मूिक है। ◾प्राचीनिादी विद्वान् उच्चै रुदघोवषत "बाणिृद्धि रस क्षर:" का अथेा है वक वतवथ का परमाविक मान 60 घटी से ऊपर पांच घटी रावन 65 घटी एिं परमाल्प मान 60 घाटी से कम 6 घटी रावन 54 घटी होता है। रह उनक े ही पंचागो मे रत्र तत्र सिेात्र चररताथेा नही होता, इसे क्या कहा जार ? रह वनरम कहा से प्रारम्भ हुआ इसका कोई उल्लेख नही है। रह विचारणीर है। बाण िि का अथेा है पांच की संख्या क े विरे प्रतीकािक उद्धक्त रावन 5 का अंक। इसी तरह रस, िैविवषक दिेान क े अनुसार रस छह है - कटु, अम्ल, मिुर, ििण, वतक्त, और कषार। िही काव्य क े रस आठ है - श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, िीर, भरानक, विभीत्स, अदभुत। इसमे िांत और िासल्य वमिाने पर दस रस हो जाते है। अतएि रस का अथेा 6 रा 8 रा 10 अंक िेिे ? रह भी विचारणीर हो जािेगा।
  • 15. ◾बाणिृद्धि तथा रसक्षर िि अनुक ू ि नही है। इनकी जगह " पञ्चिृद्धि स्थाषटक्षरः" कहना अविक उवचत होगा अथाेात 5 िृद्धि और 6 क्षर। क ु छ प्राचीन विद्वान् 65 घटी 30 पि परमिृद्धि एिं 53 घटी 45 पि परमाल्प मान भी मानते है। ◾उर्त्रोर्त्र आचारो ने गवणत की स्थूिता को सूक्ष्मता क े विए " सप्तव्रद्धि: दि क्षर:" विरा, रह वसिांत ठीक है। इसका अथेा है 7 घटी िृद्धि ि 10 घटी क्षर िेिे। वकन्तु प्रचीनिादी िास्त्रज्ञ विद्वान् "बाणिृद्धि रस क्षर:" को ही प्रामावणक मानते है। ◾◾भारत क े विवभन्न सम्प्रदारो मे वतवथ मान्यता वभन्न-वभन्न है। रह विषर व्रत, पिेा, त्यौहार, उत्सि आवद हेतु अविक प्रासंवगक है। िैष्णि सम्प्रदारी वतवथ मान 54 घटी से एक पि भी ज्यादा रा कम है तो व्रतावद दू सरे वदन करते है। तथा सूरोदर पर जो वतवथ रहती है उस अनुसासर ही व्रतावद करते है। स्मातेा (विि) सम्प्रदारी वजस समर तक िह वतवथ हो उसी वदन व्रतावद करते है। वनम्बाक ेा सम्प्रदारी कपाि िेि मानते है। अन्य क े िि उदर वतवथ (सूरोदर पर) िेते है। क ु छ वतवथ समाद्धप्त पश्चात दू सरी वतवथ प्रारम्भ होने पर उसी िार को िह व्रत करते है। जैन ज्योवतष अनुसार 6 घटी िािी उदर वतवथ मान्य है। सूरोदर पश्चात जो वतवथ 6 घटी तक हो उसे पूणेा माना है। जो वतवथ 6 घटी रा 3 मुहूतेा (मुहूतेा = 48 वमवनट) से कम हो िह मान्य नही है। वजस वदन दो वतवथरा होगी उनमे प्रथम वतवथ मान्य होगी, दू सरी को क्षर (अिम) वतवथ मानते है। जो वतवथ दो वदन तक होती है, उनमे प्रथम वदन की वतवथ ग्राह्य है दू सरे वदन की वतवथ को िृद्धि वतवथ मानते है। क ु छ सूराेास्त पश्चात ४८ वमवनट (एक मुहूतेा) रहे उसे ग्राह्य करते है। प्रत्येक चंद्र मास मे दो पक्ष होते है 1 क ृ ष्ण पक्ष 2 िुक्ल पक्ष। प्रत्येक पक्ष मे 15 वतवथ होती है। 1 एकम (प्रवतपदा) 2 दू ज (वद्वतीरा) 3 तीज(तृतीरा) 4 चौथ (चतुथी) 5 पाचम (पंचमी) 6 छठ (षष्ठी) 7 सातम (सप्तमी) 8 आठम (अष्टमी) 9 नौमी (निमी) 10 दिम (दिमी) 11 ग्याहरस (एकादिी) 12 बारहरस (द्वादिी) 13 तेरहस (त्ररोदिी) 14 चौहदस (चतुदेािी) 15 पंचदिी (पूनम / अमािस्या) िुक्ल पक्ष की पंचदिी को पूवणेामा भी कहते है। क ृ ष्ण पक्ष की पंचदिी को अमािस / अमािस्या रा दिेा कहते है और 30 भी विखते है। प्रातःकाि से िेकर रावत्र तक रहने िािी अमािस्या को वसनीिािी, चतुदेािी से विि को दिेा और एकम से रुक्त अमािस्या को कहु कहते है। सत वतवथरा 1, 2, 3, 5, 7, 10, 11, 13 तथा पूवणेामा रे सत वतवथरा है। असत वतवथरा 4, 6, 8, 12, 14 तथा अमािस्या असत वतवथरां है। मास िून्य वतवथरा वनम् वतवथरां िुभ नही मानी जाती है। इनमे कारेा सफि नही होता और इन वतवथरो पर जन्मा जातक का जीिन पूणेातरा सुखी ि सफि नही होता है।
  • 16. वसिा वतवथरा - रे वतवथरा रवद इन िार पर पड़े तो उर्त्म, वकरे कारेा सफि होते है। इन वतवथरों पर जन्मा जातक सुखी और सफि होता है। मंगििार - 3, 8, 13 बुििार - 2, 7, 12 गुरिार - 5, 10, 15 (पूनम) िुक्रिार - 1, 6, 11 िवनिार - 4, 9, 14 . अिुभ वतवथरा - रे वतवथरां उन िार पर पड़े तो अिुभ, कारेा असफि होता है अतः रे ताज्य है। इन वतवथरो पर जन्मा जातक को जीिन मे विघ्न बािारे प्रमुखता से रहती है। रवििार - 4, 12 सोमिार - 6, 11 मंगििार - 5, 7 बुििार - 2, 3, 8 गुरिार - 6, 8, 9 िुक्रिार - 8, 9, 10 िवनिार - 7, 9, 11 . दग्धा, विष, हुतािन वतवथरा - वनम्ांवकत वतवथ वनम् िारो पर हो तो अिुभ और हावनकारक होती है। पिेा वतवथरां - क ृ ष्ण पक्ष की अष्टमी, चतुदेािी, अमािस्या िुक्ल पक्ष की पूवणेामा और सूरेा संक्रांवत की वतवथ पिेा वतवथ कहिाती है इन वतवथरो पर मंगि रा िुभ कारेा ताज्य है। प्रदोष वतवथरा - अिेा रावत्र पूिेा द्वादिी, रावत्र क े 4½ घण्टे पूिेा षष्ठी, और रावत्र समाप्त होने क े 3 घण्टे पूिेा तृतीरा प्रदोष वतवथ कहिाती है। इनमे सभी िुभ कारेा िवजेात है। प्रदोष काि - माह की त्ररोदिी को सांरकाि प्रदोष काि होता है। ऐसी मान्यता है वक विि अपने क ै िाि द्धस्थत रजत भिन मे इस समर नृत्य करते है और देितागण उनक े गुणो का स्तिन करते है। (सांरकाि रावन सूराेास्त क े पूिेा 01 घंटे 12 वमवनट और पश्चात 01 घंटे 12 वमवनट रावन क ु ि 02 घण्टा 24 वमवनट रा 06 घटी, व्रतराज ग्रन्थ में सूराेास्त से तीन घंटा पूिेा क े समर को प्रदोष काि माना गरा है।) वतवथरो की संज्ञाएेे - वतवथरो की संज्ञाऐ पांच है। (1) निा - 1, 6, 11 (2) भद्रा - 2, 7, 12 (3) जरा - 3, 8, 13 (4) ररक्ता - 4, 9, 14 (5) पूणाेा 5, 10, 15 पक्षरन्ध्र 4, 6, 8, 9, 12, 14 .
  • 17. नंदा - वतवथ में जन्मा जातक मानी, विद्वान, ज्ञानी, देि भक्त, क ु टुद्धम्बरो का स्नेही होता है। इनमे वचत्रकारी, िास्तु, तंत्र-मन्त्र, क ृ वष, वििाह, गृहारम्भ, उत्सि आवद कारेा वसि होते है। भद्रा - वतवथ में जन्मा जातक बंिुओ में मान्य, राज्यावश्रत (अविकारी, सवचि) िनिान, भि बंिन से भरभीत, परोपकारी होता है। इनमे वििाह, रात्रा, सिारी, रज्ञ, िांवतकमेा, िस्त्राभूषण आवद वसि होते है। जरा - वतवथ मे जन्मा जातक राजमान्य (राजरपाि, मन्त्री) पुत्र पौत्रावद से रुक्त, िीर, िांत, दीघाेारु, मनस्वी होता है। इनमे रात्रा, वििाह, गृह, रुि रात्रा, क ृ वष, विजरोपरोगी रुि, आवद वसि होते है। ररक्ता - वतवथ में जन्मा जातक तक ेा करने िािा, प्रमादी, गुरु ि विद्वान वनंदक, िस्त्राभ्यासी, घमंडी, नािक कामी होता है। इनमे िुभ कारो मे सफिता नही वमिती है वकन्तु विष, अवग्न, िस्त्र, मारण िड़ाई, रुि, विनाि आवद क्र ू रकमेा वसि होते है। पूणाेा - वतवथ मे जन्मा जातक पूणेा िनी, िेद िे िास्त्र ज्ञाता, सत्यिक्ता, िुिःवचर्त्, बहु विषरज्ञ होता है। इनमे सब कारेा सफि होते है। क े िि पूनम को उपनरन िवजेात है। वतवथ फिादेि एकम - जातक पररश्रमी, प्रवतज्ञापािक तथा किाप्रेमी होता है। दू ज - जातक बििान, िनिान, िमेा ि संस्क ृ वत का पािक, खचीिा होता है। तीज - जातक प्रबििक्ता, चंचि, राष्टिप्रेमी होता है। चतुथी - जातक आिािादी, कारेावनपुण, गूढ़विद्या प्रिीण, चतुर, क ं जूस होता है। पंचमी - जातक विद्या से पूणेा, कामिासना रुक्त, क ृ ि िरीर, कमजोर, प्रिान, वचवकत्सक रा न्यारािीि रा अवभभाषक की रोग्यता िािा होता है। छठ - जातक विद्यािान, क्रोिी, विक्षािास्त्री, किाविद, स्पष्ट भाषी होता है। सप्तमी - जातक कफ विकारी, गौरि प्राप्त करने िािा, िन से तंग, श्रेष्ट नेता, अपमान नही सहने िािा होता है। अष्टमी - जातक कफ प्रक ृ वत िािा, स्व स्त्री से प्रीवतिान, व्यसनी, पराक्रमी, स्वस्थ, िीर, अवनरमी, देिी-देिता का इष्टिान होता है। निमी - जातक िमेा पािक, मंत्रविद्या प्रेमी, स्त्री ि पुत्र से परेिान, क ु टुम्ब से क्लेि, ईश्वर भक्त होता है। दिमी - जातक भाग्यिान, िक्ता, रोजक, िोकवप्रर, किावप्रर, कमेाठ होता है। एकादिी - जातक प्रवतष्ठा से चिने िािा, िावमेाक, ईश्वरिादी, वििाह से सुखी, कल्पक, खचीिा, माता का वप्रर, स्पष्ट भाषी होता है। द्वादिी - जातक ज्ञाता, कल्पक, बुद्धिमान, पूणेा विद्या प्राप्त करने िािा, राष्टिप्रेमी, सुखी होता है। त्ररोदिी - जातक िोभी, कामिासना रुक्त, िनिान, नृत्य-नाट्य का िौकीन होता है। चतुदेािी - जातक क्रोिी, कारेा करक े पछताने िािा, सस्था संचािक, वकसी विद्या मे प्रिीण, सुखावभिाषी होता है। पूनम - जातक रिस्वी, हृदरी, क ु टुम्ब को सुख देने िािा, ईमानदार, क ु ि गौरिी, नीवतज्ञ, सत्यिचनी, गुरु को मानने िािा होता है। अमािस - जातक ईश्वर भक्त, विश्व बंिुत्व की भािना रखने िािा, क ु टुम्ब प्रेमी, िनिान वकन्तु िन से अनािक्त, वििाह से सुखी होता है। मानसागरी अनुसार वतवथ फिादेि
  • 18. प्रवतपदा - जातक दुजेान संगी, क ु ि किंकी, व्यसनी होता है। वद्वतीरा - जातक पर स्त्री गामी, सत्य और िौच से रवहत, स्नेह हीन होता है। तृतीरा -जातक चेष्टाहीन, विकि, िनहीन, ईष्याेािु होता है। चतुथी - जातक भोगी, दानी, वमत्र प्रेमी, विद्वान, िवन, संतान रुक्त होता है। पंचमी - जातक व्यव्हार ज्ञाता गुणग्राही, माता-वपता का भक्त, दानी, भोगी, अल्प प्रेम करने िािा होता है। षष्ठी - जातक देि-विदेि भ्रमणिीि, झगड़ािू, उदर रोग पीवड़त होता है। सप्तमी - जातक अल्प मे ही संतुष्ट, तेजस्वी, सौभाग्यिािी, गुणिान, संतान ि िन संपन्न होता है। अष्टमी - जातक िमाेािा, सत्यिक्ता, भोगी दरािान कारेाक ु िि होता है। निमी - जातक देिभक्त, पुत्रिान, िनी, स्त्री मे आिक्त, िास्त्राभ्यासी होता है। दिमी - जातक िमेा अिमेा का ज्ञाता, देिभक्त, रज्ञ कराने िािा, तेजस्वी, सुखी होता है। एकादिी - जातक स्वल्प मे संतुष्ट, राजा से मान्य (िासकीर ठे क े दार, वितरक, कारेाकारी) पवित्र, िनिान, पुत्रिान बुद्धिमान होता है। द्वादिी - जातक चंचि, अद्धस्थरबुद्धि, क ृ ि िरीरी, परदेि भ्रमणिीि होता है। त्ररोदिी - जातक महावसि पुरुष, महाविद्वान, िास्त्राभ्यासी, वजतेद्धन्द्रर, परोपकारी होता है। चतुदेािी - जातक िनिान, उद्योगी, िीर, िचनबि, राजमान्य, रिस्वी होता है। पूवणेामा - जातक सम्पवर्त्िान, मवतमान, भोजनवप्रर, उद्योगी पर स्त्री में आसक्त होता है। अमािस्या - जातक दीघेासूत्री, द्वेषी, क ु वटि, मुखेा, पराक्रमी, गुप्तविचारी होता है। रोग भूक े न्द्रीर दृवष्ट से सूरेा और चन्द्रमा की गवत का जोड़ ही रोग कहिाता है। रह रोग एक नक्षत्र तुल्य 800 किा का ही होता है। सूरेा चंद्र की गवत क े कारण एक रोग अविक से अविक 60 घटी तथा कम से कम 50 घटी का होता है। रे दैवनक रोग भी कहिाते है। रोग 27 होते है तथा इनका क्रम 24 से 26 वदन मे पूरा होता है। इनक े नाम इस प्रकार है :- ➧ इनमे विष्क ु म्भ, अवतगण्ड, िूि, व्याघात, िज्र, व्यवतपात, पररि तथा िैघृवत रे नौ रोग अिुभ है िेष िुभ है। रोग फिादेि 1 विष्क ु म्भ - सुिर रूप, भाग्यिान, आभूषणो से पूणेा, बुद्धिमान, पवित्र, कारेादक्ष, पद्धण्डत। 2 प्रीवत - द्धस्त्ररो का वप्रर, तत्वज्ञ, महा उत्साही, स्व प्ररोजनाथेा उद्योगी, ििनाओ का स्नेही। 3 आरुष्मान - मानी, िनिान, कवि, दीघाेारु, बििान, ित्रुहन्ता, रुि में विजरी, पिु-पक्षी प्रेमी। 4 सौभाग्य - जातक राज्य मंत्री, सिेा कारेा दक्ष, विरो का िल्ल्भ होता है।