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नाम = वरुण श्रीवास्तव​
कक्षा = दसवीीं "सी“
अनुक्रमाींक = ४४
ववषय = सींस्कृ त {वाङमयीं
तपः}
वाङ्मयीं तपः
( वाणी का तप )
॥ सार ॥
विद्या की देिी सरस्िती विद्िानों की िाणी में
ननिास करती है। इस विषय में विद्या के गुणों
अओउ महहमा का स्ष्ट रुप से िणणन ककया गया
है। संस्कारों,महहमा का स्प्ट रुप से िणणन ककया
गया है। संस्कारों से ममली विद्या रुपी िाणी ही
मनु्य को महान बनाती है। महान लोगों का
कहना है कक देिी सरस्िती हमारी िाणी में
ननिास करती है। विद्या रुपी खजा ा़ना बडा ा़ ही
विचित्र बताया गया है। जो खिण करने पर बढता
है तथा इकट्ठा करने पर न्ट हो जाता है।
सच्िाई से बढकर कोई तपस्या नहीं है, सांसाररक
मोह के समान कोई दुुःख नहीं है।
विद्या के समान कोई नेत्र नहीं है। सुनने की इच्छा,
सुनना, सुनकर ग्रहण करना, याद रखना चिंतन
करना। बात समझना और सार को जानना बहुत ही
आिश्यक गुण कहे गये हैं। ऐसी िाणी बोलना जो
मनु्य को व्याकु ल ना करे, जो सत्य हो, विय और्
भलाई करने िाली हो, स्िाध्याय करना, अभ्यास
करते रहना, इसे ही िाणी का तप कहते हैं ।
इस विषय के पहले दो श्लोक सुभावषतरत्न
भाण्डागार से, तीसरा, पााँििा, और सातिााँ श्लोक
महाभारत में िौथा श्लोक कामन्दकीय नीनत नाम के
ग्रन्थ से, छठा श्लोक पाणणनी मिक्षा से तथा आठिााँ
श्लोक श्रीमद भगिदगीता से मलये गये हैं ।
1 . शारदा शारदाम्भोजवदना वदनाम्बुजे ।
सववदा सववदाऽस्माकीं सन्ननध ीं ककयावत ॥१॥
अिन्य​:- िारदा,िारद्-अम्भोज​-िदना,सिणदा िारदा
। अस्माकम् िदन​-अम्बुजे सिणदा सन्न्नचि सत्-
ननचिं कियात् ॥
िब्दाथाण:- िारदा= सरस्िती देिी ।, िारदाम्भोज िदना=
िीतकाल के कमल जैसे मुख िाली ।, िदनाम्बुजे=
कमल जैसे मुख में ।, सिणदा= हमेिा ।, सन्न्नचिं=
ननिास ।, कियात​= करो ।
सरलार्व- हे सरस्वती शीतकाल के कमल जैसे मुख
वाली, हमेशा सब कु छ प्रदान करने वाली आप
हमारे इस कमल रूपी मुुँह में हमेशा उत्तम खजाने
के रूप में ननवास करो ।
भावार्व:- भाव यह है कक ववद्या की देवी सरस्वनत
जो सदा, सबको सबकु छ देने वाली है। वह सादा
हमें मर्ुराणी,सत्य तर्ा ववद्या प्रदान करती रहे ।
2. अपूवव: कोऽवप कोशोऽयीं ववद्यते तव भारती !
व्ययतो वृन्ददमायानत क्षयमायाती सञचयात् ॥२॥
अनवय:- भारनत! तब अयीं कोश: क: अवप अपुवव:
ववद्यते।व्ययत: वृन्ददम् आयानत, सचयात् च
क्षयम् आयानत ।
शब्दार्ाव:- भारनत= सरस्वती
देवी।,तब=तुम्हारा।,अयीं=यह।,कोऽवप=कोई भी।,
अपूवव=अनोखा।, कोष:= खजाना।, ववद्यते=
ववद्यमान है।,व्यतत:=खचव करने पर।, वृन्ददम्
आयानत= वृन्दद को प्राप्त होता है।, क्षयम आयती=
सरलाथण- हे सरस्िनत देिी! तुम्हारा यह (विद्या रूपी)
खजाना बडा ा़ ही विचित्र (अनोखा है।) जो खिण करने
पर बढ़ता है तथा इकट्ठा करने पर न्ट हो जाता
है।
भिाथण​:- भाि यह है कक हीरे,रत्न आहद सभी िन तो
खिण करने पर घट जाते है परन्तु विद्य रूपी
खजाना (िन​) ही ऐसा िन है न्जसको उपयोग
करने से हमेिा स्मरण रहती है। जबकक इसको
संग्रह करने की अिस्था में िह लगातार कम होती
है। इसमलये विद्य को हमेिा पढते और पढते रहना िाहहये ।
3. नान्स्त ववद्यासमीं चक्षु: नान्स्त सत्यसमीं तप​: ।
नान्स्त रागसमीं दु:खीं नान्स्त त्यागसमीं सुखम् ॥३॥
अन्िय​:- विद्या समम् िक्षुनान्स्त, सत्य समम् तप​:
नान्स्त, रागसमम् दु:खं नान्स्त, त्याग समम् सुखम्
नान्स्त ।
िब्दाथाण:- विद्यासमम्= विद्या के समान।, िक्षु= आखें।,
सत्यसमम्= सत्य के समान।, तप​:= तपस्या।,
रागसमम्= सांसाररक िस्तुओं से लगाि के समान​।,
त्यागसमम्= सांसाररक िस्तुओं को त्यागने के समान​।
सरलार्व​: - इस सींसार में ववद्या के समान कोई
आखें नहीीं है। तर्ा सच्चाई के समान कोई भी
तपस्या नहीीं है। साींसाररक वस्तुओीं से लगाव
के समान कोई दु:ख नहीीं तर्ा सींसाररक
वस्तुओीं को त्यागने के समान कोई भी सुख
नहीीं है।
भावार्व: - भाव यह है कक इस सींसार में ववद्या
रूपी आखों से तर्ा सत्य रूपी तप से ही
साींसाररक वस्तुओीं को त्याग कर सुखी जीवन
प्राप्त हो सकता है।
4. न तर्ा शीतलसलललीं न चनदनरसो न शीतला
छाया ।प्रह्लादयनत च पुरुषीं, यर्ा म ुरभावषणी वाणी
॥४॥
अन्िय​: - यथा मिुरभावषणी िाणी पुरुषं िह्लादयनत
तथा िीतलसमललं न​, िन्दनरसन​, िीतला छाया ि
न (िहलाद यनत)।
िब्दाथाण: - यथा= जैसे।, मिुरभावषणी िाणी = मीठी
बोले जाने िाली िाणी।, िह्लादयनत= िसन्न करती
हैं।, िीतल समललम्= ठंडा जल​।, िन्दनरस​:= िन्दन
का रस।, िीतला= ठंडी।
सरलाथण: - जैसे मीठी बोले जाने िाली िाणी पुरुष
को िसन्न करती है।, िैसे ठंडा जल, िन्दन का
रस (लेप​) और ठंडी छाया नहीं कर सकती,
अथाणत् िसन्न नहीं रह सकती ।
भािाथण​: - भाि यह है कक मीठे ििन बोलने से सभी
िाणी िसन्न होते हैं। अन्य कोई भी िीज़ इतनी
िसन्नता िदान नहीं कर सकती, इसमलये मनु्य
को सदा मीठे ििन ही बोलने िाहहये ।
5. शुश्रूषा श्रवणीं चैव ग्रहणीं ारणीं तर्ा ।
ऊहापोहार्वववज्ञानीं तत्वज्ञान् अीं च ीगुनणा: ॥५॥
अन्िय​: - िुश्रूषा, श्रिणम् ि एि​, ग्रहणम् तथा
िारणम, ऊह​-अपोह​, अथण विज्ञानम्, तत्िज्ञानम् ि
िीगुणा: (सन्न्त) ।
शब्दार्ाव: - शुश्रूचा= सुनने की इच्छा।, श्रवणम्=
सुनना।, ग्रहणम्= ग्रहण करना।, ारणम्= ारण
करना।, ऊह​-अपोह​= तकव ववतकव करना।, अर्व
ववज्ञानम्= शब्दों के अर्व का ज्ञान​।, तत्वज्ञानम्=
वास्तववकता की जानकारी।, ीगुणा:= बुन्दद के
गुण​।,
सरलाथण: - विषय को सुनने की इच्छा, सुनना, सुनकर
ग्रहण करना, िारण करना, तकण ​-वितकण करना, िब्दों
के अथण का ज्ञान और िास्तविकता की जानकारी। ये
सभी बुन्ध्द के गुण हैं ।
भािाथणुः - भाि यह है कक बुन्ध्द को वििेषताओं के
विषय में कहा गया है कक श्रे्ठ बुन्ध्द िह है जो
ज्ञान के विषय को सुनने की इच्छा, सुनना, अथण
ग्रहण करना, उसे याद रखना, चिन्तन करना, उसे
समझना और सार को जान लेना ।
6. मा ुयवमक्षरव्यन््तः पदच्छेदस्तु सुस्चरः ।
ैयं लयसमर्ं च षडेते पाठका गुणाः ॥६॥
अन्ियुः - मािुयणम्, अक्षरव्यन््तुः, पदच्छेदुः, तु
सुस्िरुः, िैयं, लय समथणम् ि एते षट् पाठकगुणाुः
(सन्न्त) ।
िब्दाथाणुः - मािुयणम्= मिुरता।, अक्षरव्यन््त= अक्षरों
का स्प्ट उच्िारण​।, पदच्छेदुः= पदों को अलग​-
अलग करना।, सुस्िरुः= सुन्दर स्िर​।, िैयणम्= िैयण​।,
लयससमथणम्= िणों क उचित स्थान​।, ऐते= ये।,
पाठकगुणाुः= पढने िाले के गुण ।
सरलार्वः- मनुष्य की वाणी में म ुरता, अक्षरों क
स्पष्ट उच्चारण​, पदों को अलग​-अलग करना,
सुनदर स्वर​, ैयव और वणों का उधचत स्र्ान-
पढने वाले के ये छः गुण होते हैं ।
भावार्वः - भाव यह है कक उपयुव्त छः गुणों
वाले को ही अच्छा व्ता कहा गया है, ्योंकक
इन गुणों के द्वारा ही बोलने तर्ा पढने वाला
व्यन््त अपने भावों को अच्छी प्रकार से व्य्त
कर सकता है ।
7. आचायावत्पादमादत्ते पादीं लशष्यः स्वमे या ।
कालेन पादमादत्ते पादीं सब्रहमचाररलभः ॥७॥
अनवयः - लशष्यः आचायावत् पादम् आदत्ते, (लशष्यः)
स्वमे ा पादम् (आदत्ते), (लशष्यः) कालेन पादम्
(आदत्ते), (लशष्यः) सब्रहाचाररलभः पादम् आदत्ते ।
शब्दार्ावः - आचायावत्= गुरु से, पादम्= चौर्ाई भाग।,
स्वमे या= अपनी बुद्ध से।, कालेन​= समय से।,
आदत्ते= सीखता है (ग्रहण करता है)।
सरलार्वः - ववद्यार्ी गुरु से, अपनी लशक्षा का
एक चौर्ाई भाग ग्रहण करता है, एक चौर्ाई
भाग अपनी बुद्ध से ग्रहण करता है।
भावार्वः - अपनी लशक्षा पुरी करने के ललये
ववद्यार्ी, गुरु, समय​, अपनी बुन्दद तर्ा अपनें
सार् पढनें वालों से सहायता लेता है और् पुणव
ज्ञान प्राप्त करता है ।
8. अनुद्वेगकरीं वा्यीं वप्रयहहतीं च यत् ।
स्वादयायाभ्यसनीं चैव वाङमयीं तप उच्च्तै ॥८॥
अनवयः - यत् वा्यम् अनुद्वेगकरीं सत्यम् वप्रयहहतीं
च (तर्ा) स्वादयाय​-अभ्यसनम् च एव वाङमयीं तपः
उच्चतै ।
शब्दार्ावः - वा्यीं= वा्य​।, यत्= जो।, अनुद्वेगकरीं=
व्याकु लता उत्पनन न करने वाला।, सत्यम्= सत्य​।,
वप्रय​-हहतम्= हहतकारी और् प्यारा लगने वाला।,
स्वादयाय​= वेदों का अदययन कराने वाला।,
अभ्यसनम्= अभ्यास करवाने वाला।, वाङमयीं
तपः= वाणी तपस्या का ही फल है ।
सरलाथणुः- न्जस िा्य से व्याकु लता उत्पन्न नहीं होती,
जो सि है, जो हहत की बात कहता है और षयारा
है, जो िेदों का अध्ययन और् अभ्यास करिाने िाला
है। इस िाणी को तपस्या का ही फल कहा जाता है।
भािाथणुः - िाणी को मीठी और िभाििाली बनाने हेतु
मनु्य को हमेिा अच्छी पुस्तकों का ही अभ्यास
करना िाहहये ।
वाङ्मयं  तपः

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वाङ्मयं तपः

  • 1. नाम = वरुण श्रीवास्तव​ कक्षा = दसवीीं "सी“ अनुक्रमाींक = ४४ ववषय = सींस्कृ त {वाङमयीं तपः}
  • 2.
  • 4. ॥ सार ॥ विद्या की देिी सरस्िती विद्िानों की िाणी में ननिास करती है। इस विषय में विद्या के गुणों अओउ महहमा का स्ष्ट रुप से िणणन ककया गया है। संस्कारों,महहमा का स्प्ट रुप से िणणन ककया गया है। संस्कारों से ममली विद्या रुपी िाणी ही मनु्य को महान बनाती है। महान लोगों का कहना है कक देिी सरस्िती हमारी िाणी में ननिास करती है। विद्या रुपी खजा ा़ना बडा ा़ ही विचित्र बताया गया है। जो खिण करने पर बढता है तथा इकट्ठा करने पर न्ट हो जाता है। सच्िाई से बढकर कोई तपस्या नहीं है, सांसाररक मोह के समान कोई दुुःख नहीं है।
  • 5. विद्या के समान कोई नेत्र नहीं है। सुनने की इच्छा, सुनना, सुनकर ग्रहण करना, याद रखना चिंतन करना। बात समझना और सार को जानना बहुत ही आिश्यक गुण कहे गये हैं। ऐसी िाणी बोलना जो मनु्य को व्याकु ल ना करे, जो सत्य हो, विय और् भलाई करने िाली हो, स्िाध्याय करना, अभ्यास करते रहना, इसे ही िाणी का तप कहते हैं । इस विषय के पहले दो श्लोक सुभावषतरत्न भाण्डागार से, तीसरा, पााँििा, और सातिााँ श्लोक महाभारत में िौथा श्लोक कामन्दकीय नीनत नाम के ग्रन्थ से, छठा श्लोक पाणणनी मिक्षा से तथा आठिााँ श्लोक श्रीमद भगिदगीता से मलये गये हैं ।
  • 6. 1 . शारदा शारदाम्भोजवदना वदनाम्बुजे । सववदा सववदाऽस्माकीं सन्ननध ीं ककयावत ॥१॥ अिन्य​:- िारदा,िारद्-अम्भोज​-िदना,सिणदा िारदा । अस्माकम् िदन​-अम्बुजे सिणदा सन्न्नचि सत्- ननचिं कियात् ॥ िब्दाथाण:- िारदा= सरस्िती देिी ।, िारदाम्भोज िदना= िीतकाल के कमल जैसे मुख िाली ।, िदनाम्बुजे= कमल जैसे मुख में ।, सिणदा= हमेिा ।, सन्न्नचिं= ननिास ।, कियात​= करो ।
  • 7. सरलार्व- हे सरस्वती शीतकाल के कमल जैसे मुख वाली, हमेशा सब कु छ प्रदान करने वाली आप हमारे इस कमल रूपी मुुँह में हमेशा उत्तम खजाने के रूप में ननवास करो । भावार्व:- भाव यह है कक ववद्या की देवी सरस्वनत जो सदा, सबको सबकु छ देने वाली है। वह सादा हमें मर्ुराणी,सत्य तर्ा ववद्या प्रदान करती रहे ।
  • 8. 2. अपूवव: कोऽवप कोशोऽयीं ववद्यते तव भारती ! व्ययतो वृन्ददमायानत क्षयमायाती सञचयात् ॥२॥ अनवय:- भारनत! तब अयीं कोश: क: अवप अपुवव: ववद्यते।व्ययत: वृन्ददम् आयानत, सचयात् च क्षयम् आयानत । शब्दार्ाव:- भारनत= सरस्वती देवी।,तब=तुम्हारा।,अयीं=यह।,कोऽवप=कोई भी।, अपूवव=अनोखा।, कोष:= खजाना।, ववद्यते= ववद्यमान है।,व्यतत:=खचव करने पर।, वृन्ददम् आयानत= वृन्दद को प्राप्त होता है।, क्षयम आयती=
  • 9. सरलाथण- हे सरस्िनत देिी! तुम्हारा यह (विद्या रूपी) खजाना बडा ा़ ही विचित्र (अनोखा है।) जो खिण करने पर बढ़ता है तथा इकट्ठा करने पर न्ट हो जाता है। भिाथण​:- भाि यह है कक हीरे,रत्न आहद सभी िन तो खिण करने पर घट जाते है परन्तु विद्य रूपी खजाना (िन​) ही ऐसा िन है न्जसको उपयोग करने से हमेिा स्मरण रहती है। जबकक इसको संग्रह करने की अिस्था में िह लगातार कम होती है। इसमलये विद्य को हमेिा पढते और पढते रहना िाहहये ।
  • 10. 3. नान्स्त ववद्यासमीं चक्षु: नान्स्त सत्यसमीं तप​: । नान्स्त रागसमीं दु:खीं नान्स्त त्यागसमीं सुखम् ॥३॥ अन्िय​:- विद्या समम् िक्षुनान्स्त, सत्य समम् तप​: नान्स्त, रागसमम् दु:खं नान्स्त, त्याग समम् सुखम् नान्स्त । िब्दाथाण:- विद्यासमम्= विद्या के समान।, िक्षु= आखें।, सत्यसमम्= सत्य के समान।, तप​:= तपस्या।, रागसमम्= सांसाररक िस्तुओं से लगाि के समान​।, त्यागसमम्= सांसाररक िस्तुओं को त्यागने के समान​।
  • 11. सरलार्व​: - इस सींसार में ववद्या के समान कोई आखें नहीीं है। तर्ा सच्चाई के समान कोई भी तपस्या नहीीं है। साींसाररक वस्तुओीं से लगाव के समान कोई दु:ख नहीीं तर्ा सींसाररक वस्तुओीं को त्यागने के समान कोई भी सुख नहीीं है। भावार्व: - भाव यह है कक इस सींसार में ववद्या रूपी आखों से तर्ा सत्य रूपी तप से ही साींसाररक वस्तुओीं को त्याग कर सुखी जीवन प्राप्त हो सकता है।
  • 12. 4. न तर्ा शीतलसलललीं न चनदनरसो न शीतला छाया ।प्रह्लादयनत च पुरुषीं, यर्ा म ुरभावषणी वाणी ॥४॥ अन्िय​: - यथा मिुरभावषणी िाणी पुरुषं िह्लादयनत तथा िीतलसमललं न​, िन्दनरसन​, िीतला छाया ि न (िहलाद यनत)। िब्दाथाण: - यथा= जैसे।, मिुरभावषणी िाणी = मीठी बोले जाने िाली िाणी।, िह्लादयनत= िसन्न करती हैं।, िीतल समललम्= ठंडा जल​।, िन्दनरस​:= िन्दन का रस।, िीतला= ठंडी।
  • 13. सरलाथण: - जैसे मीठी बोले जाने िाली िाणी पुरुष को िसन्न करती है।, िैसे ठंडा जल, िन्दन का रस (लेप​) और ठंडी छाया नहीं कर सकती, अथाणत् िसन्न नहीं रह सकती । भािाथण​: - भाि यह है कक मीठे ििन बोलने से सभी िाणी िसन्न होते हैं। अन्य कोई भी िीज़ इतनी िसन्नता िदान नहीं कर सकती, इसमलये मनु्य को सदा मीठे ििन ही बोलने िाहहये ।
  • 14. 5. शुश्रूषा श्रवणीं चैव ग्रहणीं ारणीं तर्ा । ऊहापोहार्वववज्ञानीं तत्वज्ञान् अीं च ीगुनणा: ॥५॥ अन्िय​: - िुश्रूषा, श्रिणम् ि एि​, ग्रहणम् तथा िारणम, ऊह​-अपोह​, अथण विज्ञानम्, तत्िज्ञानम् ि िीगुणा: (सन्न्त) । शब्दार्ाव: - शुश्रूचा= सुनने की इच्छा।, श्रवणम्= सुनना।, ग्रहणम्= ग्रहण करना।, ारणम्= ारण करना।, ऊह​-अपोह​= तकव ववतकव करना।, अर्व ववज्ञानम्= शब्दों के अर्व का ज्ञान​।, तत्वज्ञानम्= वास्तववकता की जानकारी।, ीगुणा:= बुन्दद के गुण​।,
  • 15. सरलाथण: - विषय को सुनने की इच्छा, सुनना, सुनकर ग्रहण करना, िारण करना, तकण ​-वितकण करना, िब्दों के अथण का ज्ञान और िास्तविकता की जानकारी। ये सभी बुन्ध्द के गुण हैं । भािाथणुः - भाि यह है कक बुन्ध्द को वििेषताओं के विषय में कहा गया है कक श्रे्ठ बुन्ध्द िह है जो ज्ञान के विषय को सुनने की इच्छा, सुनना, अथण ग्रहण करना, उसे याद रखना, चिन्तन करना, उसे समझना और सार को जान लेना ।
  • 16. 6. मा ुयवमक्षरव्यन््तः पदच्छेदस्तु सुस्चरः । ैयं लयसमर्ं च षडेते पाठका गुणाः ॥६॥ अन्ियुः - मािुयणम्, अक्षरव्यन््तुः, पदच्छेदुः, तु सुस्िरुः, िैयं, लय समथणम् ि एते षट् पाठकगुणाुः (सन्न्त) । िब्दाथाणुः - मािुयणम्= मिुरता।, अक्षरव्यन््त= अक्षरों का स्प्ट उच्िारण​।, पदच्छेदुः= पदों को अलग​- अलग करना।, सुस्िरुः= सुन्दर स्िर​।, िैयणम्= िैयण​।, लयससमथणम्= िणों क उचित स्थान​।, ऐते= ये।, पाठकगुणाुः= पढने िाले के गुण ।
  • 17. सरलार्वः- मनुष्य की वाणी में म ुरता, अक्षरों क स्पष्ट उच्चारण​, पदों को अलग​-अलग करना, सुनदर स्वर​, ैयव और वणों का उधचत स्र्ान- पढने वाले के ये छः गुण होते हैं । भावार्वः - भाव यह है कक उपयुव्त छः गुणों वाले को ही अच्छा व्ता कहा गया है, ्योंकक इन गुणों के द्वारा ही बोलने तर्ा पढने वाला व्यन््त अपने भावों को अच्छी प्रकार से व्य्त कर सकता है ।
  • 18. 7. आचायावत्पादमादत्ते पादीं लशष्यः स्वमे या । कालेन पादमादत्ते पादीं सब्रहमचाररलभः ॥७॥ अनवयः - लशष्यः आचायावत् पादम् आदत्ते, (लशष्यः) स्वमे ा पादम् (आदत्ते), (लशष्यः) कालेन पादम् (आदत्ते), (लशष्यः) सब्रहाचाररलभः पादम् आदत्ते । शब्दार्ावः - आचायावत्= गुरु से, पादम्= चौर्ाई भाग।, स्वमे या= अपनी बुद्ध से।, कालेन​= समय से।, आदत्ते= सीखता है (ग्रहण करता है)।
  • 19. सरलार्वः - ववद्यार्ी गुरु से, अपनी लशक्षा का एक चौर्ाई भाग ग्रहण करता है, एक चौर्ाई भाग अपनी बुद्ध से ग्रहण करता है। भावार्वः - अपनी लशक्षा पुरी करने के ललये ववद्यार्ी, गुरु, समय​, अपनी बुन्दद तर्ा अपनें सार् पढनें वालों से सहायता लेता है और् पुणव ज्ञान प्राप्त करता है ।
  • 20. 8. अनुद्वेगकरीं वा्यीं वप्रयहहतीं च यत् । स्वादयायाभ्यसनीं चैव वाङमयीं तप उच्च्तै ॥८॥ अनवयः - यत् वा्यम् अनुद्वेगकरीं सत्यम् वप्रयहहतीं च (तर्ा) स्वादयाय​-अभ्यसनम् च एव वाङमयीं तपः उच्चतै । शब्दार्ावः - वा्यीं= वा्य​।, यत्= जो।, अनुद्वेगकरीं= व्याकु लता उत्पनन न करने वाला।, सत्यम्= सत्य​।, वप्रय​-हहतम्= हहतकारी और् प्यारा लगने वाला।, स्वादयाय​= वेदों का अदययन कराने वाला।, अभ्यसनम्= अभ्यास करवाने वाला।, वाङमयीं तपः= वाणी तपस्या का ही फल है ।
  • 21. सरलाथणुः- न्जस िा्य से व्याकु लता उत्पन्न नहीं होती, जो सि है, जो हहत की बात कहता है और षयारा है, जो िेदों का अध्ययन और् अभ्यास करिाने िाला है। इस िाणी को तपस्या का ही फल कहा जाता है। भािाथणुः - िाणी को मीठी और िभाििाली बनाने हेतु मनु्य को हमेिा अच्छी पुस्तकों का ही अभ्यास करना िाहहये ।