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-: हज़ारी प्रसाद द्वििेदी
लेखक पररचय
आचार्य हजारी प्रसाद द्वििेदी का
जन्म 19 अगस्त 1907 ई० को
उत्तर प्रदेश क
े बलिर्ा जजिे क
े आरत
दुबे का छपरा, ओझिलिर्ा नामक
गााँि में हुआ था। इनक
े वपता का
नाम श्री अनमोि द्वििेदी और माता
का नाम श्रीमती ज्र्ोततष्मती था।
इनका पररिार ज्र्ोततष विद्र्ा क
े
लिए प्रलसद्ध था।
हजारीप्रसाद द्वििेदी
(19 अगस्त 1907 -
19 मई 1979)
द्वििेदी जी की प्रारंलिक लशक्षा गााँि
क
े स्क
ू ि में ही हुई। उन्होंने 1920
में बसररकापुर क
े लमडिि स्क
ू ि से
प्रथम श्रेणी में लमडिि की परीक्षा
पास की। इसक
े बाद उन्होंने गााँि क
े
तनकट ही पराशर ब्रह्मचर्य आश्रम
में संस्कृ त का अध्र्र्न आरम्ि
ककर्ा। सन ् 1923 में िे
विद्र्ाध्र्र्न क
े लिए काशी आर्े।
1927 में काशी हहन्दू
विश्िविद्र्ािर् से हाईस्क
ू ि की
परीक्षा पास की।
आचायय हजारी प्रसाद द्वििेदी की िक्ा
रबीन्रनाथ ठाक
ु र का जन्म 7
मई 1861 को कोिकाता क
े
जोडासााँको ठाक
ु रबाडी में हुआ।
उनक
े वपता देिेन्रनाथ टैगोर और
माता शारदा देिी थीं। सन ् 1776
में मृणालिनी देिी क
े साथ उनका
वििाह हुआ। 7 अगस्त 1941
को उन्होंने कोिकाता में अंततम
सांस िी। बचपन से ही उनकी
कविता, छन्द और िाषा में
अद्िुत प्रततिा का आिास िोगों
को लमिने िगा था।
रबीन्द्रनाथ टैगोर का जीिन पररचय
जन्म - 7 मई 1861
वपता - श्री देिेन्रनाथ टैगोर
माता - श्रीमतत शारदा देिी
जन्मस्थान - कोिकाता क
े जोडासाकों
की ठाक
ु रबाडी
धमय - हहन्दू
राष्रीर्ता - िारतीर्
िाषा - बंगािी, इंजलिश
उपाधध - िेखक और धचत्रकार
प्रमुख रचना - गीतांजलि, पूरबी प्रिाहहनी
पुरुस्कार - नोबोि पुरुस्कार
म्रत्र्ु - 7 अगस्त 1941
रबीन्द्रनाथ टैगोर क
े बारे में क
ु छ जानकारी
रबबन्द्रनाथ टैगोर की िक्ा
रबबन्रनाथ टैगोर जन्म से ही, बहुत
ज्ञानी थे, इनकी प्रारंलिक लशक्षा
कोिकाता क
े , बहुत ही प्रलसद्ध स्क
ू ि
सेंट जेविर्र नामक स्क
ू ि मे हुई|
रबबन्रनाथ जी क
े वपता रबबन्रनाथ जी
को िी, बैररस्टर बनाना चाहते थे|
जबकक, उनकी रूधच साहहत्र् मे थी,
रबबन्रनाथ जी क
े वपता ने 1878 मे
उनका िंदन क
े विश्िविद्र्ािर् मे
दाखखिा करार्ा परन्तु, बैररस्टर की
पढ़ाई मे रूधच न होने क
े कारण , 1880
मे िे बबना डिग्री लिर्े ही िापस आ
गर्े|
कहानी का सार
पाठ की शुरुआत करते हुए िेखक
कहते हैं कक क
ु छ हदन पहिे गुरुदेि
रविंर नाथ टैगोर क
े हदमाग में र्ह
बात आर्ी कक क
ु छ हदन
शांतततनक
े तन छोड कर कहीं और रहा
जाए। क्र्ोंकक िो बीमार थे और
कमजोर हो चुक
े थे। इसीलिए थोडा
आराम करना चाहते थे।
शांतततनक
े तन में िीि िाड ि और
गुरुदेि से लमिने जुिने , आने-जाने
िािों की िजह से र्ह संिि नहीं
था।
िेखक आगे कहते हैं कक छ
ु ट्हटर्ों क
े हदन िोगों क
े बाहर चिे
जाने क
े कारण उन्होंने सपररिार गुरुदेि क
े दशयन करने का
तनश्चर् ककर्ा। और िो गुरुदेि से लमिने चिे गए। िेखक को
देखते ही गुरुदेि बोिे “दशयनाथी” आ गए।
ठीक उसी समर् शाजन्त तनक
े तन से गुरुदेि का क
ु त्ता उनक
े
पास आकर पूाँछ हहिाने िगा। गुरुदेि ने जैसे ही उसकी पीठ
पर हाथ फ
े रा , क
ु त्ते का रोम रोम खखि उठा र्ातन क
ु त्ता खुश
हो गर्ा। तिी गुरुदेि आश्चर्य से कहने िगे कक इसे क
ै से
मािूम हुआ कक मैं र्हााँ हूाँ। गुरुदेि आगे कहते हैं कक ककसी ने
क
ु त्ते को रास्ता िी नहीं बतार्ा और ना हीं ककसी ने क
ु त्ते को
बतार्ा कक मैं र्हां पर हूाँ। कफर िी र्े दो मीि अक
े िे चिकर
र्हां आर्ा हैं ।
िह क
ु त्ता प्रततहदन उनक
े आसन क
े पास एकदम शांत िाि से
तब तक बैठा रहता था , जब तक गुरुदेि अपने हाथों से उसे
स्पशय नहीं कर िेते। स्पशय करने िर से ही उसका रोम रोम
खुशी से िर उठता था।
िेखक र्हां पर एक और धटना का
उल्िेख करते हुए कहते हैं कक जब
गुरुदेि की धचतािस्म को कोिकाता
से शांतततनक
े तन आश्रम में िार्ा
गर्ा। तब िह क
ु त्ता िी अन्र् िोगों
क
े साथ उत्तरार्ण तक गर्ा और
क
ु छ देर धचतािस्म क
े किश क
े
पास बडे ही शांत िाि से बैठा रहा।
िेखक र्हां पर क
ु छ समर्
पीछे की एक और धटना को
र्ाद करते हुए कहते हैं कक
एक हदन गुरुदेि एक अध्र्ापक
क
े साथ बगीचे में टहिते हुए
उनसे बातें ककर्े जा रहे थे।
और साथ में ही बगीचे क
े हर
फ
ू ि-पत्ते को बडे ध्र्ान से देख
रहे थे।
िेखक को पहिी बार पता
चिा कक कौिे और सिी पक्षी
किी-किी प्रिास को चिे जाते
हैं। िगिग एक सप्ताह बाद
कफर से कौिे हदखाई हदए।
एक और धटना का जजक्र
र्हां पर िेखक करते हुए
कहते हैं कक एक सुबह जब
िो गुरुदेि से लमिने गए थे
तो उस समर् िहााँ एक
िाँगडी मैना फ
ु दक रही थी।
गुरुदेि ने िेखक को बतार्ा
कक र्ह र्ूथभ्रष्ट (अपने
दि र्ा ग्रुप से तनकािी
हुए) मैना है जो र्हााँ आकर
रोज फ
ु दकती है।
िेखक समझते थे कक
मैना करुण िाि हदखाने
िािा पक्षी नहीं है । िो
मानते थे कक मैना तो
दूसरों पर अनुक
ं पा (दर्ा)
हदखाती है।
िेखक कहते हैं कक तीन
चार िषों से िो जजस
मकान में रहते हैं। उस
मकान क
े चारों ओर चार
बडे बडे सुराख़ हैं। उनमें से
एक सुराख़ में एक मैना
दंपवत्त ने अपना घोंसिा
बना लिर्ा।
िेककन अगिी बार कफर मैना
दंपवत्त ने िहां एक छोटा सा छेद
देखकर िही पर अपना घोंसिा
बनाना शुरू कर हदर्ा। अब पतत
पत्नी (मैना दंपवत्त) जब िी कोई
ततनका िेकर आते तो उनक
े
िाि देखने िार्क होते। िो
नाचने गाने और आपस में बातें
करने िगते थे। उनक
े हाि िाि
देखकर ऐसा िगता था कक मानो
िो हमारे घर पर नहीं , बजल्क
हम उनक
े घर पर उनकी दर्ा से
रह रहे हों।
िेखक को विश्िास नहीं था कक सच में मैना क
े अंदर करुण िाि
मौजूद हो सकता हैं ।िेककन गुरुदेि की बात पर जब िेखक ने उस
िंगडी मैना को ध्र्ान से देखा तो पार्ा कक सच में उसक
े मुख पर
करुणिाि था।
िेखक आगे कहते हैं कक इस िंगडी मैना क
े ऊपर गुरुदेि ने बाद
में एक कविता िी लिखी थी । उस कविता में उन्होंने लिखा था
कक “पता नहीं ककस कारण से िह मैना अपने दि से अिग रह
रही है। िह प्रततहदन संगीहीन होकर कीडों का लशकार करती है और
उनक
े बरामदे में आकर क
ू द क
ू द कर चहिकदमी करती है। गुरुदेि
की इस कविता को अब , जब िेखक पढ़ते हैं तो , उस मैना की
करुण मूततय उनकी आाँखों क
े सामने घूम जाती है।
िेखक कहते हैं एक हदन िह मैना उड गई।और रात का अाँधधर्ारा
होते ही िह दूर पेड की िािी पर जाकर बैठ गई। िेखक को उसका
गार्ब होना िी अब करुणाजनक िग रहा है। र्ानी उसकी
अनुपजस्थतत से िेखक दुखी हैं।
कब्दाथय
क्षीणिार्ु - दुबिा पतिा, कमजोर शरीर
प्रगल्ि - िाचाि, बोिने में संकोच न करने िािा
अस्तगामी - िूबता हुआ
पररतृजप्त - पूरी तरह संतोष प्राप्त करना
आरोलर् - बांलिा िाषा की एक पबत्रका
अहैतुक - अकारण, बबना ककसी कारण क
े
प्राणपण - जान की बाजी
ममयिेदी - अततदुखद, हदि को िगने िािा
तततल्िे – तीसरी मंजजि पर
उत्तराणर् - शांतततनक
े तन में उत्तर हदशा की ओर बना
रविंर नाथ टैगोर का एक तनिास स्थान|
धृष्ट - िज्जा रहहत, तनसंकोच
र्ूथभ्रष्ट - समूह र्ा झुंि से तनकिा र्ा तनकािा हुआ
अपररसीम - असीलमत
सियव्र्ापक - सब में रहने िािा
अनुक
ं पा - दर्ा
मुखाततब - संबोधधत होकर
बबडाि - बबिाि
ईषत - थोडा, क
ु छ-क
ु छ, आंलशक रूप से
तनिायसन - देश तनकािा
अलिर्ोग - आरोप
एक कुत्ता और एक मैना

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एक कुत्ता और एक मैना

  • 1. -: हज़ारी प्रसाद द्वििेदी
  • 2. लेखक पररचय आचार्य हजारी प्रसाद द्वििेदी का जन्म 19 अगस्त 1907 ई० को उत्तर प्रदेश क े बलिर्ा जजिे क े आरत दुबे का छपरा, ओझिलिर्ा नामक गााँि में हुआ था। इनक े वपता का नाम श्री अनमोि द्वििेदी और माता का नाम श्रीमती ज्र्ोततष्मती था। इनका पररिार ज्र्ोततष विद्र्ा क े लिए प्रलसद्ध था। हजारीप्रसाद द्वििेदी (19 अगस्त 1907 - 19 मई 1979)
  • 3. द्वििेदी जी की प्रारंलिक लशक्षा गााँि क े स्क ू ि में ही हुई। उन्होंने 1920 में बसररकापुर क े लमडिि स्क ू ि से प्रथम श्रेणी में लमडिि की परीक्षा पास की। इसक े बाद उन्होंने गााँि क े तनकट ही पराशर ब्रह्मचर्य आश्रम में संस्कृ त का अध्र्र्न आरम्ि ककर्ा। सन ् 1923 में िे विद्र्ाध्र्र्न क े लिए काशी आर्े। 1927 में काशी हहन्दू विश्िविद्र्ािर् से हाईस्क ू ि की परीक्षा पास की। आचायय हजारी प्रसाद द्वििेदी की िक्ा
  • 4. रबीन्रनाथ ठाक ु र का जन्म 7 मई 1861 को कोिकाता क े जोडासााँको ठाक ु रबाडी में हुआ। उनक े वपता देिेन्रनाथ टैगोर और माता शारदा देिी थीं। सन ् 1776 में मृणालिनी देिी क े साथ उनका वििाह हुआ। 7 अगस्त 1941 को उन्होंने कोिकाता में अंततम सांस िी। बचपन से ही उनकी कविता, छन्द और िाषा में अद्िुत प्रततिा का आिास िोगों को लमिने िगा था। रबीन्द्रनाथ टैगोर का जीिन पररचय
  • 5. जन्म - 7 मई 1861 वपता - श्री देिेन्रनाथ टैगोर माता - श्रीमतत शारदा देिी जन्मस्थान - कोिकाता क े जोडासाकों की ठाक ु रबाडी धमय - हहन्दू राष्रीर्ता - िारतीर् िाषा - बंगािी, इंजलिश उपाधध - िेखक और धचत्रकार प्रमुख रचना - गीतांजलि, पूरबी प्रिाहहनी पुरुस्कार - नोबोि पुरुस्कार म्रत्र्ु - 7 अगस्त 1941 रबीन्द्रनाथ टैगोर क े बारे में क ु छ जानकारी
  • 6. रबबन्द्रनाथ टैगोर की िक्ा रबबन्रनाथ टैगोर जन्म से ही, बहुत ज्ञानी थे, इनकी प्रारंलिक लशक्षा कोिकाता क े , बहुत ही प्रलसद्ध स्क ू ि सेंट जेविर्र नामक स्क ू ि मे हुई| रबबन्रनाथ जी क े वपता रबबन्रनाथ जी को िी, बैररस्टर बनाना चाहते थे| जबकक, उनकी रूधच साहहत्र् मे थी, रबबन्रनाथ जी क े वपता ने 1878 मे उनका िंदन क े विश्िविद्र्ािर् मे दाखखिा करार्ा परन्तु, बैररस्टर की पढ़ाई मे रूधच न होने क े कारण , 1880 मे िे बबना डिग्री लिर्े ही िापस आ गर्े|
  • 7. कहानी का सार पाठ की शुरुआत करते हुए िेखक कहते हैं कक क ु छ हदन पहिे गुरुदेि रविंर नाथ टैगोर क े हदमाग में र्ह बात आर्ी कक क ु छ हदन शांतततनक े तन छोड कर कहीं और रहा जाए। क्र्ोंकक िो बीमार थे और कमजोर हो चुक े थे। इसीलिए थोडा आराम करना चाहते थे। शांतततनक े तन में िीि िाड ि और गुरुदेि से लमिने जुिने , आने-जाने िािों की िजह से र्ह संिि नहीं था।
  • 8. िेखक आगे कहते हैं कक छ ु ट्हटर्ों क े हदन िोगों क े बाहर चिे जाने क े कारण उन्होंने सपररिार गुरुदेि क े दशयन करने का तनश्चर् ककर्ा। और िो गुरुदेि से लमिने चिे गए। िेखक को देखते ही गुरुदेि बोिे “दशयनाथी” आ गए। ठीक उसी समर् शाजन्त तनक े तन से गुरुदेि का क ु त्ता उनक े पास आकर पूाँछ हहिाने िगा। गुरुदेि ने जैसे ही उसकी पीठ पर हाथ फ े रा , क ु त्ते का रोम रोम खखि उठा र्ातन क ु त्ता खुश हो गर्ा। तिी गुरुदेि आश्चर्य से कहने िगे कक इसे क ै से मािूम हुआ कक मैं र्हााँ हूाँ। गुरुदेि आगे कहते हैं कक ककसी ने क ु त्ते को रास्ता िी नहीं बतार्ा और ना हीं ककसी ने क ु त्ते को बतार्ा कक मैं र्हां पर हूाँ। कफर िी र्े दो मीि अक े िे चिकर र्हां आर्ा हैं ।
  • 9. िह क ु त्ता प्रततहदन उनक े आसन क े पास एकदम शांत िाि से तब तक बैठा रहता था , जब तक गुरुदेि अपने हाथों से उसे स्पशय नहीं कर िेते। स्पशय करने िर से ही उसका रोम रोम खुशी से िर उठता था। िेखक र्हां पर एक और धटना का उल्िेख करते हुए कहते हैं कक जब गुरुदेि की धचतािस्म को कोिकाता से शांतततनक े तन आश्रम में िार्ा गर्ा। तब िह क ु त्ता िी अन्र् िोगों क े साथ उत्तरार्ण तक गर्ा और क ु छ देर धचतािस्म क े किश क े पास बडे ही शांत िाि से बैठा रहा।
  • 10. िेखक र्हां पर क ु छ समर् पीछे की एक और धटना को र्ाद करते हुए कहते हैं कक एक हदन गुरुदेि एक अध्र्ापक क े साथ बगीचे में टहिते हुए उनसे बातें ककर्े जा रहे थे। और साथ में ही बगीचे क े हर फ ू ि-पत्ते को बडे ध्र्ान से देख रहे थे। िेखक को पहिी बार पता चिा कक कौिे और सिी पक्षी किी-किी प्रिास को चिे जाते हैं। िगिग एक सप्ताह बाद कफर से कौिे हदखाई हदए। एक और धटना का जजक्र र्हां पर िेखक करते हुए कहते हैं कक एक सुबह जब िो गुरुदेि से लमिने गए थे तो उस समर् िहााँ एक िाँगडी मैना फ ु दक रही थी। गुरुदेि ने िेखक को बतार्ा कक र्ह र्ूथभ्रष्ट (अपने दि र्ा ग्रुप से तनकािी हुए) मैना है जो र्हााँ आकर रोज फ ु दकती है।
  • 11. िेखक समझते थे कक मैना करुण िाि हदखाने िािा पक्षी नहीं है । िो मानते थे कक मैना तो दूसरों पर अनुक ं पा (दर्ा) हदखाती है। िेखक कहते हैं कक तीन चार िषों से िो जजस मकान में रहते हैं। उस मकान क े चारों ओर चार बडे बडे सुराख़ हैं। उनमें से एक सुराख़ में एक मैना दंपवत्त ने अपना घोंसिा बना लिर्ा। िेककन अगिी बार कफर मैना दंपवत्त ने िहां एक छोटा सा छेद देखकर िही पर अपना घोंसिा बनाना शुरू कर हदर्ा। अब पतत पत्नी (मैना दंपवत्त) जब िी कोई ततनका िेकर आते तो उनक े िाि देखने िार्क होते। िो नाचने गाने और आपस में बातें करने िगते थे। उनक े हाि िाि देखकर ऐसा िगता था कक मानो िो हमारे घर पर नहीं , बजल्क हम उनक े घर पर उनकी दर्ा से रह रहे हों।
  • 12. िेखक को विश्िास नहीं था कक सच में मैना क े अंदर करुण िाि मौजूद हो सकता हैं ।िेककन गुरुदेि की बात पर जब िेखक ने उस िंगडी मैना को ध्र्ान से देखा तो पार्ा कक सच में उसक े मुख पर करुणिाि था। िेखक आगे कहते हैं कक इस िंगडी मैना क े ऊपर गुरुदेि ने बाद में एक कविता िी लिखी थी । उस कविता में उन्होंने लिखा था कक “पता नहीं ककस कारण से िह मैना अपने दि से अिग रह रही है। िह प्रततहदन संगीहीन होकर कीडों का लशकार करती है और उनक े बरामदे में आकर क ू द क ू द कर चहिकदमी करती है। गुरुदेि की इस कविता को अब , जब िेखक पढ़ते हैं तो , उस मैना की करुण मूततय उनकी आाँखों क े सामने घूम जाती है। िेखक कहते हैं एक हदन िह मैना उड गई।और रात का अाँधधर्ारा होते ही िह दूर पेड की िािी पर जाकर बैठ गई। िेखक को उसका गार्ब होना िी अब करुणाजनक िग रहा है। र्ानी उसकी अनुपजस्थतत से िेखक दुखी हैं।
  • 13. कब्दाथय क्षीणिार्ु - दुबिा पतिा, कमजोर शरीर प्रगल्ि - िाचाि, बोिने में संकोच न करने िािा अस्तगामी - िूबता हुआ पररतृजप्त - पूरी तरह संतोष प्राप्त करना आरोलर् - बांलिा िाषा की एक पबत्रका अहैतुक - अकारण, बबना ककसी कारण क े प्राणपण - जान की बाजी ममयिेदी - अततदुखद, हदि को िगने िािा तततल्िे – तीसरी मंजजि पर उत्तराणर् - शांतततनक े तन में उत्तर हदशा की ओर बना रविंर नाथ टैगोर का एक तनिास स्थान|
  • 14. धृष्ट - िज्जा रहहत, तनसंकोच र्ूथभ्रष्ट - समूह र्ा झुंि से तनकिा र्ा तनकािा हुआ अपररसीम - असीलमत सियव्र्ापक - सब में रहने िािा अनुक ं पा - दर्ा मुखाततब - संबोधधत होकर बबडाि - बबिाि ईषत - थोडा, क ु छ-क ु छ, आंलशक रूप से तनिायसन - देश तनकािा अलिर्ोग - आरोप