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International Journal of Trend in Scientific Research and Development (IJTSRD)
Volume 6 Issue 4, May-June 2022 Available Online: www.ijtsrd.com e-ISSN: 2456 – 6470
@ IJTSRD | Unique Paper ID – IJTSRD50364 | Volume – 6 | Issue – 4 | May-June 2022 Page 1690
भारतीय अ एवं स ा णाली
िदनेश मोहन जोशी1, िगरीशभ िब2
1मानिवक एवं समाज िव ान िवभाग, भारतीय ौ ोिगक सं ान, मु ई
2 स ा ौितषशा म िव ावा र धशोध ा , राि यसं ृ तिव िव ालय, ित पित
सारांश
ावहा रक ि से िव क सभी स ताओं म ग णत का मह पूण ान रहा
है । स ता और ग णत एक ही स े के दो पहलू ह एसा कहना अितशयोि
नहीं होगी । ा म कोई भी वहार ग णत के िबना स व नहीं है और
अ , ग णत के ास ह । अ ों के िबना हम ग णत क क ना भी नहीं कर
सकते । इस शोध प म हम अ ों एवं स ाओं के इितहास एवं लेखन प ित
पर िव ार से चचा करगे ।
कू टश : ग णत, अथशा , दशमलव, श ा , कटपयािद, ा ी, नानाघाट
How to cite this paper: Dinesh Mohan
Joshi | Girish Bhatt B "Indian Numeral
and Number
System" Published
in International
Journal of Trend in
Scientific Research
and Development
(ijtsrd), ISSN: 2456-
6470, Volume-6 |
Issue-4, June 2022, pp.1690-1705, URL:
www.ijtsrd.com/papers/ijtsrd50364.pdf
Copyright © 2022 by author(s) and
International Journal of Trend in
Scientific Research and Development
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(http://creativecommons.org/licenses/by/4.0)
ावना
महावीराचाय (850 A. D) ने ग णत क ापकता को बताते ये अपने ग णतसारस ह म िवशेष प से ग णत के मह
को बताया है-
लौिकके वैिदके वािप तथा सामाियके ऽिप यः ।
ापार सव सं ानमुपयु ते ॥
कामत ेऽथशा े च गा व नाटके ऽिप वा ।
सूपशा े तथा वै े वा ुिव ािदव ुषु ॥
छ ोऽल ारका ेषु तक ाकरणािदषु ।
कलागुणेषु सवषु ुतं ग णतं परम् ॥
सूयािद हचारेषु हणे हसंयुतौ ।
ि े च वृ ौ च सव ा कृ तं िह तत् ॥
ीपसागरशैलानां स ा ासप र पः ।
भवन र ोितल कक ा धवा सनाम् ॥
नारकाणां च सवषां ेणीब े को राः ।
क णक माणा ा बु े ग णतेन ते ॥
ा णनां त सं ानमायुर गुणादयः ।
IJTSRD50364
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या ा ाः संिहता ा सव ते ग णता याः ॥
ब भिव लापैः िकं ैलो े सचराचरे ।
य ं च ुं त व ग णतेन िवना न िह ॥
तीथकृ ः कृ ताथ ः पू े ो जगदी रैः ।
तेषां श श े ः स ा ु पवतः ॥
जलधे रव र ािन पाषाणािदव का नम् ।
शु े मु ाफलानीव स ा ानमहोदधेः ॥
िक दु ृ त ारं व ेऽहं मितशि तः ।
अ ं मन ाथ ग णतं सारसं हम् ॥
सं ा ो भरथो पूण प रकम वेिदके ।
कलासवणसं ढलुठ ाठीनसंकु ले ॥
क णकमहा ाहे ैरा शकतरि ण ।
िम क वहारो ूि र ांशुिप रे ॥
े िव ीणपाताले खाता सकताकु ले ।
करण स ायावेलािवरा जते ॥
गुणकै गुणसंपूण दथमणयोऽमलाः ।
गृ े करणोपायैः सारस हवा रधौ ॥1
ता य यह है िक लौिकक एवं वैिदक अनु ानों, ापार, कामत , अथशा , गा व, नाटक, सूपशा , चिक ाशा , वा ु,
छ अल ार, का , ाकरण, दशन सूय इ ािद हों क गितयों, ि (िदक् , देश, काल), हण, ीप, सागर, पवत इ ािद
का ास इ ािद िवषयों म सव ग णत क अव कता है, अथात् स ूण ा ग णता त है, कोई भी वहार ग णत के
अभाव म स व नहीं है ।
``ग णत'' श का सव थम योग
सव थम 'ग णत' श का योग वेदा ोितष (1200 B. C) म िकया गया है, इसम ग णत को वेदा ों म सव े बताया
गया है । यथा-
यथा शखा मयूराणां नागानां मणयो यथा ।
तथा वेदा शा ेषु ोितषं मूधिन तम् ॥2
जैसे मोरों म शखा और नागों म म ण का ान सबसे ऊपर है, वैसे ही सभी वेदांग और शा ों मे ग णत का ान सबसे ऊपर
है ।
ग णत का मह
ग णत के मह को भा रचाय ने अपने स ा शरोम ण म ब त ही सु र ढंग से ुत िकया है-
यः स ा मन युि िवततं नो वेि भ ौ यथा
राजा च मयोऽथवा सुघिटतः का क ीरवः ।
गज ु रव जता नृपचमूर ू जताऽ ािदकै ः
1 ग णतसारस हः , सं ा ायः , ोक 9-23
2 आच ोितष 35, याजुष ोितष, 4
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उ ानं ुतचूतवृ मथवा पाथोिवहीनं सरः ।
योिष ोिषतनूतनि यतमा य भा ु कै ः
ोितः शा िमदं तथैव िवबुधाः स ा हीनम् जगुः ॥3
स ा ग णत को जो ोितषी नहीं जानता वह भि पर बनाये गये च , का से बनाये गये गजनाहीन संह तथा पि रिहत
हाथी, अ व िबना घोडों एवं सेना के राजा, िबना आम के वृ ों के नीरस उ ान, जल िवहीन तालाब, यौवना ी के परदेश गया
आ पित का िवयोग जस कार शोभा नहीं पाते उसी कार यह जगत भी ोितष शा के स ा (ग णत) से िवहीन होने पर
का शत नहीं होता अथात् शोभा नहीं पाता । ( ोितष) ह ग णत स ा से रिहत ोितषी क भी एसी ही ित कही गई
है ।
ग णत क अवधारणा
ग णत श से अ भ ाय ''गणना के िव ान'' से है । गणेशदैव ने लीलावती (1150 A. D) पर अपने भा बुि िवला सनी
(1540 A. D) म म लाचरण क ा ा के अ गत ग णत को इस कार प रभािषत िकया है-
गु ते स ायते तद् ग णतम् । त ितपादक ेन त ं ं शा मु ते ।
बौ सािह म ग णत को तीन भागों म िवभ िकया गया है जो मशः मु ा, गणना एवं स ा नाम से स ह । इनक
चचा धीगिनकाय, िवनयपिटक, िद ावदान एवं िम ल पा ो म क गई है । स ा श का योग ग णत के अथ म भ बा ने
भी योग िकया है ।
दशमलव प ित (Decimal place value system)
ग णत वहार के लये स ाओं का ान परमाव क है, स ाओं के अभाव म हम ग णत क क ना ही नहीं कर सकते ह ।
स ा ग णत का पयाय है । पाटीग णत (arithmetic) िवशेष प से अ ों पर ही आधा रत है । भारत का ग णत के े म
दशमलव एवं शू का अिव ार एक ब त बडी उपल है । वतमान समय म सबसे स अ प ित दशमलव प ित है ।
इस प ित क िवशेषता 1 से लेकर 9 अ एवं 0 का योग करते ये पूणा ों का ान िनधारण (place value) करना है ।
दशमलव प ित िन पण से पूव ग णत म अ ों को द शत करना ब त किठन होता था पर ु भारतीय मनीिषयों के िववेक से
ग णत को एक नई िदशा िमली । सव थम स ाओं को श ों म लखा जाता था । इसका सबसे ाचीन उदाहरण ऋ ेद से है-
ी ण शता ीसह ा ि ं ि ंश देवा न चासपयन् । औ न् घृतैरसृणन् बिहर ा -------4
इससे हम 3339 स ा ा होती है । दशमलव प ित के सं ृ त सािह म पया माण उपल ह । अ धकतर ग णत
एवं इितहासकार इस बात से सहमत ह दशमलव प ित एवं शू (zero) क ज भूिम भारत ह एवं समय के साथ इनका चार
िव के अ भागों म आ । जाज साटन (George Sarton) के श ों म
Our numerals and the use of zero were invented by the Hindus and transmitted to us by
the Arabs (hence the name Arabic numerals which we often give them.)5
पर ु कितपय िव ानों के िवचार जाज साटन के िवचारों से भ ह । इनम George R. Kaye एवं Neugebauer मुख ह
। Neugebauer ने अपनी पु क The Exact Sciences in Antiquity म लखा है िक ''बैिबलान (Babylon)
3 स ा शरोम ण, म मा धकार, ोक 7b-8
4 ऋ ेद, 3.9.9
5 Sarton, G. The Appreciation of Ancient and Medieval Science during the Renaissance (1450-1600),
Philadelphia Univ., p. 151. 1955.
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(1600 B. C) म स ा ान (place value) म 60 आधार (sexagesimal) माना जाता था और यही आधार बाद म
ीक और िह ुओं ने माना । अ म इ ीं के सहयोग से स ा ान प ित का उदय आ'' । Neugebauer के श ों म -
Thus the "sexagesimal" order eventually became the main numerical system and with it the
place value writing derived from the use of bigger and smaller signs. The decimal
substratum, however, always remained visible for all numbers up to 60. Similarly, other
systems of units were never completely extinguished. Only the purely mathematical texts,
which we find well represented about 1500 years after the beginning of writing, have fully
utilized the great advantage of a consistent sexagesimal place value notation. Again 1000
years later, this method became the essential tool in the development of a mathematical
astronomy, whence it spread to the Greeks and then to the Hindus, who contributed the
final step, namely, the use of the place value notation also for the smaller decimal units. It is
this system that we use today.6
दशमलव प ित को समझने के लये उदाहरण प स ा 42 को लेते ह । इसम 4, 4 X 10 दशाता है । अरब के लोग
भारत म ापार के लये आते थे अतः वह भी इसी अ प ित का अनुसरण करने लगे इसी लये इस प ित को िह ु-अरबी अ
प ित के नाम से भी जाना जाता है । इस प ित ने ग णत के े म ब त बडी ा पैदा कर दी, फल प धन, ऋण,
गुणन, भाग इ ािद सरल हो गये । िह ु-अरबी अ प ित म 105, 104, 103, 102, 10, 1 एसे लखा जाता है । दशमलव
प ित के अनुसार 434 को (4 X 102 ) + (3 X 10) + (4 X 1) एसे लखा जा सकता है । यही प ित आज पूरे िव म
ीकृ त है । नीचे सा रणी 1 म कु छ मह पूण वैिदक ों से दशमलव प ित के अनुसार स ाओं को उ ृत िकया गया है ।
ेक स ा मशः दश गु णत होती जा रही है, इसी को भा राचाय ि तीय ने ''दशगुणो र सं ा'' कहा है ।
स ा यजुवदसंिहता7 तैि रीयसंिहता8 मै ायणी संिहता9 प िवंश ा ण
100
101
102
103
104
105
106
107
108
109
1010
1011
1012
एक
दश
शत
सह
अयुत
िनयुत
युत
अबुद
बुद
समु
म
अ
पराध
एक
दश
शत
सह
अयुत
िनयुत
युत
अबुद
बुद
समु
म
अ
पराध
एक
दश
शत
सह
अयुत
िनयुत
युत
अबुद
बुद
समु
म
अ
पराध
एक
दश
शत
सह
अयुत
िनयुत
युत
अबुद
बुद
समु
म
अ
पराध
Table 1: िविवध वैिदक ों म दशमलव प ित
6
Neugebauer. O. The exact Science in Antiquity, p. 19-20, 1952.
7
xvii, 2.
8
iv, 40. 11.4.
9
Ii, 8. 14.
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सा रणी म अबुद 107 है पर ु बाद के सं ृ त सािह म अबुद को 108 माना गया है ।
मोहनजोदडो (3000 B. C) क खुदाई से वहां दशमलव प ित (decimal system) के कई माण िमले ह । जैन जो
िक 500-100 B. C के समय के बीच सूय ि , ीप ि , ानायसू , उ ारा नसू , भगवतीसू एवं अनुयोग ारसू म
बडी स ाओं को दशमलव प ित म बताया गया है । बौ ल लतिव र म ग णत अजुन और बो धस के बीच ये
संवाद म स ाओं को िन ल खत कार से ुत िकया गया है-
अथाजुनो गणको महामा ो बो धस मेवमाह - जानीषे ं कु मार कोिटशतो रा नाम गणना िव धम् ?
आह – जाना हम् ।
आह - कथं पुनः कोिटशतो रा गणना गितरनु वे ा ?
बो धस आह - शतमयुतानां िनयुतं नामो ते । शतं िनयुतानां क ारं नामो ते । शतं क ाराणां िववरं नामो ते । शतं
िववराणां अ ो ं नामो ते । शतम ो ाणां िववाहण नामो ते । शतं िववाहानां उ ं नामो ते । शतमु ानां ब लं
नामो ते । शतं ब लानां नागबलं नामो ते । शतं नागबलानां ितिटल ं नामो ते । शतं ितिटल ानां व ान ि ः
नामो ते । शतं व ान ीनां हेतुिहलं नामो ते । शतं हेतुिहलानां कर नामो ते । शतं कर णां हे यं
नामो ते । शतं हे याणां समा ल ं नामो ते । शतं समा ल ानां गणनागितनामो ते । शतं गणनागतीनां
िनरव ं नामो ते । शतं िनरव ानां मु ाबलं नामो ते । शतं मु ाबलानां सवबलं नामो ते । शतं सवबलानां
िवसं ागितनामो ते । शतं िवसं ागतीनां सवसं ा नामो ते । शतं सवसं ानां िवभूत मा नामो ते । शतं िवभूत मानां
त णं नामो ते ।।10
इसम त ण (1053) तक मान बताये गये ह । का ायन के पाली ाकरण म 10140 (अस ेय) बताई गई ह ।
अनुयोग ारसू (100 B. C) म समय क ईकाई ''शीष हे लका'' का मान 840000028 बताया गया है ।
भारतीय दशन ों म भी दशमलव एवं ाना से स त उ रण ा होते ह । पात ल योगसू , ासभा म कहा गया
है-
यथैका रेखा शत ाने शतं दश ाने दश एका च एक ाने दश एका च एक ाने यथा चैक ेिप ी माता चो ते दुिहता च
सा चेित ।11
इसी कार श राचाय जी ने सू भा म कहा है-
यथा एकोऽिप सन् देवद ः लोके पं स पं च अपे अनेकश य-भा वित - मनु ः , णः , ोि यः ,
वदा ः , बालः , युवा, िवरः , िपता, पु ः , पौ ः , ाता, जामाता इित । यथा च एकािप सती रेखा (अ ः ) ान ेन
िनिवशमाना एक-दश-शत-सह ािद श यभेदं अनुभवित, तथा स नोरेव ......
इससे यह मा णत होता है िक श राचाय जी के समय म दशमलव एवं ाना प ित का िवकास हो चुका था ।
िव ुपुराण म भी इसका स है-
ानात् ानं दशगुणमेक ाद् गु ते ि ज ।
ततोऽ ादशमे भागे पराधम भधीयते ॥12
हे ि ज! एक ान से दूसरा ान दशगु णत है, इस लये 18वां ान 1017 होता है ।
10 ल लतिव र, 168-69.
11 III. 13.
12 िव ुपुराण, 6.3.4.
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भारत मे लगभग 595 A. D से लेकर 972 A. D तक एसे शलालेख िमले ह जो उस समय म दशमलव प ित क सि
होने का माण देते ह । ाचीन प ित एवं नवीन प ित दोनों म बडी स ाओं को बाय रखा जाता था पर ु नवीन प ित म
अ ों क ित (place value) को इि त िकया जाता है । शलालेखों के आधार पर अनुमान लगाया जा सकता है िक आठवीं
शता ी म दशमलव प ित ब त स हो चुक थी । इितहासकारों का मानना है िक ीक म अ र स ेत च ों का अिव ार
700 B. C म हो चुका था पर ु ईसा क थम शता ी म यह पूण प से िवक सत हो चुक थी । कहने का अ भ ाय यह है
िक अ र स ेत च ों को जनसामा तक प ंचने तक लगभग 900 वष लग गये । इसी कार अरब म भी अ र स ेत च ों
को सि िमलने म लगभग 600 वष लग गये । इ ीं त ों के आधार पर हम कह सकते ह िक ाना प ित का भी 100
B. C के लगभग अिव ार आ होगा और आठवीं शता ी तक जनसामा तक प ंच गई ।
श ा प ित (भूतस ा) (Word numerals)
श ा प ित और इसका दशमलव म योग ग णत म ब त बडा योगदान है । ऋ ेद का उदाहरण हम इससे पूव दे चुके ह ।
इस प ित के अ गत स ाओं को लखने के लये भारतीय ग णत ों एवं खगोलिवदों ने एसी प ित का िनमाण िकया जससे
बडी बडी स ाओं को सुलभता से लखा जा सके । ोकब होने के कारण चरकाल तक रण रखने के स भ म यह प ित
ब त ही स ई । यह प ित सवा धक ाचीन एवं स मानी जाती है । इस प ित को भूतस ा के नाम से जाना जाता है
। भूतस ा ''भूतानां स ा'' अथात् कृ ित स ी अ जैसे पृ ी, सूय, च , ह, न , समु , पवत, अि , आकाश, ने ,
शरीरा , शव, इ , मनु, राम, ऋतु, प , ित थ, िदशा इ ािद एवं इनके पयायवाची । नीचे दी गई सा रणी 2 म अ ों को
उनके स ािवत भूतस ा स त श ों के सामने दशाया गया है ।
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अि पुराण म सव थम ाना ों के साथ श ा ों का योग िकया गया है । भ ो ल ने बृह ंिहता क ा ा म पौ लश
स ा (400 A. D) क चचा करते ये इसम ख = 0, ख = 0, अ = 8, मुिनः = 7, रामः = 3, अ = 2, ने = 2,
अ = 8, शर = 5, राि पाः = 1 िदया गया है । ''अ ानां वामतो गितः '' इस िनयम से 158237800 ा आ । सूय स ा
(300 A. D), प स ा का (505 A. D), महाभा रीय (522 A. D), ु ट स ा ः (628 A. D), ि शितका
(750 A. D) एवं ग णतसारस हः (850 A. D) इ ािद स ा ों म हों के भगणमान, सौरमास, चा मास,
अ धकमास, यमास इ ािद क स ायों को बताने के लये श ा प ित का योग सव िकया गया है । बखशाली
पा ु लिप (Bakhshālī manuscripts) (300 A. D) म श ा प ित को इस कार िदया गया है षि ंश (26),
ि प ा (53), एकोनि ंशत् (29) .... इ ािद स ा बताई गई ह इसके िवपरीत 54 के लये चतुः (4), प (5) लखा गया
है । जनभ ग ण (575 A. D) ने ''बृह े समास'' म स ाओं को बाय से दाय लखने का म बताया है पर ु ायः यह
देखा गया है िक श ा दाय से बाय योग िकये जाते ह । सभी स ा ों म दांये से बाय लखने क ही था पाई जाती है
।
आयभ कृ त अ रा िन पण िव ध
वगा रा ण वगऽवगऽवगा रा ण कात् ौ यः ।
खि नवके रा नव वगऽवग नवा वग वा ॥13
वगा र (क से म, लखने चािहये) वग ान म एवं अवग (य से ह) अवग ान म । (वगा रों के मान मशः 1, 2, 3 ....
25 तक ह) क से लेकर ( थम अवगा र का मान) य = ञ+म (5+25) है । नौ जोडों म शू (18 बार) लख ( ानिन पण
के लये लख) सभी 9 रों को लख । ( ेक जोडे म वग और अवग के ान पर एक रा र लख) वग (अवग) ान म
अव कता पडने पर 9 से ादा जोडे भी बना सकते ह ।
आयभट (499 A. D) ने एक एसी प ित का अिव ार िकया जसम र एवं नों क सहायता से स ाओं को लखा
जाता था । इस प ित म क से म तक 25 नों को वग कहा जाता ह एवं मानुसार इनका मान 1 से 25 तक है । य से ह
तक वण को अवग कहा जाता है । इन अवग का मान मशः 30 से 100 तक माना गया है । यह स ा दशमलव ाना
(decimal place value) को पु करता है । आयभट ने ाना िन प के लये रों का योग िकया । ोक म िदया
गया िववरण नीचे दी गई सा रणी म है । एक उदाहरण के मा म से इस ोक के भाव को सा रणी क सहायता से
समझने का यास करगे ।
उदाहरण के लये हमने आभटीय से ही एक श '' ुघृ'' लया है । ोक म ख् + यु + घृ तीन अ र ह । सव थम हम यह
देखना है िक न वग वाला है या अवग वाला । त ात् यह देखना है िक नों के साथ कौनसा र स त है । जो
वग हो एवं जो स त र हो उसके अनुसार सा रणी म ािपत करगे तो ''श '' का मान आ जायेगा । हमारे उदाहरण म
''ख'' वग वाला ह एवं इससे ''उ'' र स त है । हमने ''ख'' को सा रणी म 'उ' के नीचे वग ान म रख िदया, इसी कार
'य' को भी िकया । स ूण ि या करने पार 4320000 ा आ । सा रणी 3 म है ।
इसम V से अ भ ाय वगस ा से है एवं A से भाव अवग स ा से है । इस ि या को दूसरे कार से भी दशाया जा सकता है
। इस ि या के अ गत हम अवगा रों के मान 3 से 10 तक मानते ह । िफर अ से और तक सभी 9 रों के मान वगावग
नों के लये ािपत करते ह । इस िवषय को सा रणी 3 म िकया गया है ।
उदाहरण - ुघृ = खु + यु + घृ िदया गया है । ि तीय कार के अनुसार ''ख्'' वगा है और इसका मान 2 है, इसक
े साथ
''यु'' है जोिक अवगा है एवं ''उ'' र इसक
े साथ है, इसका मान 105 है, इसी कार ''घ'' का मान 4 है एवं यह वगा है,
''ऋ'' र इसक
े साथ है और इसका मान 106 है । इस कार करने पर
13 आयभटीयम्, गीितकापादः , ोकः 2.
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4 X 104 + 3 X 105 + 4 X 106= 4320000
ा आ । य िप यह प ित अ धक जिटल है पर ु बडी बडी स ाओं को लखने म स म है । अ धक जिटलता के कारण
िकसी ओर सै ा क म इसका उ ेख नहीं िमलता । िन ल खत सा रणी 4 म आयभट ारा द रों के वग एवं अवग
ानों के मानों को िदया गया है ।
आयभट क दशमलव प ित (स ा ान िनवचन)
एकं च दश च शतं च सह मयुतिनयुते तथा युतम् ।
को बुदं च वृ ं ाना ानं दशगुणं ात् ।। 14
आयभटीयभा म भा र थम ने ब त ही ढंग से दशमलव प ित का िन पण िकया है । त था-
एकं च दश च शतं च सह म् । एतेषां एकदशशतसह ाणां थमि तीयतृतीय-चतुथािन ानािन । तु पादपूरणे । अयुिनयुते
अयुतं च िनयुतं च अयुतिनयते । अयुत प मं ानम् । दशसह ा ण अयुतम् । िनयुत ष ं ानम् । िनयुतं ल ः । तथा
तेनैव कारेण युत स मं ानम् । दशल ाः युतम् । कोिटः , को ाः अ मं ानम् । ल ाः शतं, कोिटः । अबुदम्,
अबुद नवमं ानम् । दशको ोबुदम् । वृ म्, वृ दशमं ानम् । कोिटशतं वृ म् ।
ाना ानं दशगुणं ात् । ाना ानम त् दशगुणं प रक त ानात् उ रं ानं दशगुणं भवतीित यावत् ।
िकमथिमदमु ते । ननु च एतािन ानािन अन रापे या दशगुणा ेव । य े ोऽ ानप र हाथ वचनं तथा सित
ाना भधानमनथकम् । कु तः ? ानात् ानं दशगुणं ािद नेनैवा- भिहता, अ भिहत ानप र ह स ात् । नैषः दोषः ।
ाना ानं दशगुणं ािद ेत णम् । एकादीिन ाना ल ण ोदा तािन । नैतद । न िह सू काराः सं ेपिवव वो
ल णमुदाहरणं ूयुः । नैवं िव ायतेव। यदा ल णमुदाहरणं च िनरथकं तिह एकािदवृ ा ायाः स ायाः सं ा िन े ।
ाना ानं दशगुणिमित एकािदसङ ायाः ानिन पण-मा मेव उपिद ते, उपयोगाभावा स ासं ा ।
अ ैत म् - के षां ानानां शि ः , यदेकं पं दश शतं सह ं च भवित । स ां चैत ां ानश ौ यका
िवशेषे भाजनाः ुः । ं च िवव ातोऽ ं ब च ात् । एवं च सित लोक वहारा थाभाव स ः । नैषः दोषः ।
ाने तािन पा ण दशादीिन कृ तािन । िकं तिह तैः । तािन ितपा े लेखागम ायेन । अथवा ल थ ानािन
इ ु म ा भः । ास ानानाम् -
14 आभटीयम्, ग णतपादः , ोक 2.
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० ० ० ० ० ० ० ० ० ०
इसी स भ म लीलावती म भा राचाय ने भी कहा है-
एकदशशतसह ायुतल युतकोटयः मशः ।
अबुदम ं खविनखवमहाप श व ात् ॥
जल ध ा ं म ं पराधिमित दशगुणो राः सं ाः ।
स ायाः ानानां वहाराथ कृ ताः पूवः ॥
एक, दश, शत, सह , अयुत, ल , युत, कोिट, अबुद, अ , खव, िनखव, महाप , श ु, जल ध, अ , म , पराध इस
कार पूवाचाय ने स ा के वहार के लये पूव पूव क अपे ा उ रो र दशगुणी सं ा कही है, जैसे - एक से दशगुणा दश,
दश से दशगुणा शत, शत से दशगुणा सह इ ािद ।
सा रणी 5 म आयभट एवं भा र II के स ान ानिनवचन िदये गये ह । कोिट 108 तक दोनों क स ाय समान ह पर ु
109 म आयभट ने वृ एवं भा र II ने अ कहा गया है । आयभट के स ा ानिनवचन 108 तक ही है जबिक भा र II
के पराध 1017 तक ह । ीधर (750 A. D) का स ािनवचन दो ानों महाप और जल ध को छोडकर भा र II के
स ािनवचन के समान ही है । महाप और जल ध के ान पर ीधर ने मशः महासरोज एवं स रतापित श का योग
िकया है । नारायण प त (1356 A. D) ने ीधर के अ , महासरोज एवं स रतापित के ान पर मशः सरोज, महा
एवं पारावार श ों का योग िकया है ।
कटपयािद प ित
कटपयािद से अ भ ाय क, ट, प, य इ ािद वण से स त है जनको अ ों के ान पर लखा जाता है । इस प ित के
अनुसार र अके ला रहने पर शू माना जाता है पर ु न के साथ रहने पर उसका कोई मान नहीं रहता । क से लेकर ह
तक के नों का मान सा रणी 6 म बताया गया है-
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इस प ित का सव थम योग वर च (400 A. D) ने च वा ों क रचना करने के स भ म िकया था । उनका थम
च वा ''गीनः ेयः '' है । इसको अगर हम कटपयािद प ित से देख तो 12o03' बनेगा ।
नीचे िदया गया ोक श रवमन (1830 A. D) क स माला से उ ृत है जो कटपयािद प ित क ि या को बताता है-
नञावच शू ािन स ा कटपयादयः ।
िम े तूपा ह स ा न च च ो हलः रः ॥15
अथात् न, ञ एवं सभी रों को शू मानो । शेष क, ट, प, य इ ािद नों को स ा मानो । मशः इनको 1, 2, 3
इ ािद अ ो से अि त कर । रों का नों के साथ होने पार रों का कोई मान नहीं होता । संयु ा रों म से उसी न
को लेना है जसके साथ र हो । उदाहरण - ''हे िव ो िनिहतं कृ ं '' वा लेने पर हम देखगे िक हे = 8, िव = 4, ो =
5, िन = 0, िह = 8, तं = 6, कृ म् = 01 ा आ, स ा 1680548 ई । इसी कार हम िकसी भी श को स ा म
प रवितत कर सकते ह ।
दशमलव प ित के मह को बताते ये जाने माने ग णत ले ेस (Laplace) (1749-1827 A. D) ने कहा है
The idea of expressing all quantities by nine figures (or digits) whereby is imparted to
them both an absolute value and one by position is so simple that this very simplicity
is the reason for our not being sufficiently aware how much admiration it deserves.
शू क प रक ना एवं माण
''भारत ने िव को शू िदया है'' यह वा सुनने म ब त ही िव च लग रहा है लेिकन यह स है । शू पर अगर एक नजर
डाल तो कु छ िवशेष नहीं िदखता है पर ु अगर इसके अ र से कु छ देख तो सब कु छ िदखाई पडता है । यही इसका रह है ।
शू का अिव ार िकसने िकया ? यह ायः सभी क म म दौडता रहता है पर ु इसका उ र इतना आसान नहीं है,
इसका कारण इसक जिटलता है । उ र िमल भी सकता है पर ु स ोषजनक उ र पाना थोडा किठन है । शू ग णत के े
म यं म एक ब त बडा अनुस ान है । इितहास के प ों को कु रेदने से शू क प रक ना के भ भ ोत हम िमलते ह ।
भारतीय प रपे म शू का योग दो िव भ प र ितयों म होता है । एक तो शू ''अभाव'' को ोितत करने के लये और
दूसरा अ के प म । zero जो हम बोलते ह वह अरबी के sifr श से उ आ है इसको cipher भी कहा जाता है ।
शू के स भ म G. B. Halsted ने कहा है-
The importance of the creation of the zero can never be exaggerated. This giving to
airy nothing, not merely a local habitation and a name, a picture, a symbol, but
helpful power, is the characteristic of the Hindu race whence it sprang. It is like
coining the Nirvāṇa into Dynamics. No single mathematical creation has been more
potent for the general on-go of intelligence and power.16
शू ग णत का इतना सहज िवषय नहीं है । एसा नहीं है िक िकसी एक ि ने अनुस ान िकया और अ लोगों ने इसको
योग म लाना ार कर िदया । िप ल के छ ः सू (300 B. C) म शू श का योग िकया गया है। त था-
15 स माला, प ा करणम्, ोक 3.
16 G. B. Halsted, On the foundation and technique of Arithmetic, Chicago, 1912, p. 20.
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ि रध । पे शू म् । ि शू े । तावदध त ु णतम् ।17
यहां शू को एक च के प म योग िकया गया है न िक अ के प म । पा णिन (500 B. C) ने अ ा ायी म अदशनं
लोपः '' सू म अभाव क तरफ स ेत िकया है ।
चरकाल से ''यावत्-तावत्'' का योग ग णत म एसी स ाओं के लये िकया गया है जनका मान अ ात होता है पर ु
बखशाली पा ु लिप (300 A. D) म ''यावत्-तावत्'' के ान पर ''य ा'' श का योग िकया गया है और इसके लये
शू (0) च का योग िकया गया है । प स ा का (505 A. D) म भूतस ा प ित म स ाओं को लखने के लये
शू का योग िकया गया है ।18 जनभ ग ण (529-589 A. D) ने भी शू के स भ कु छ स ाओं को अपने
''बृह े समास'' िदया है । यथा 224400000000,19 320040000000020 इ ािद मुख उदाहरण ह ।
गु (628 A. D) के समय से स ा ोितष के ों म शू स ी चचा के माण िमलते ह । ु ट स ा के
18व अ ाय कु का ाय म ''धनणषि धम्'' क चचा क गई है जसम शू के साथ धन, ऋण, गुणन इ ािद के करने क
ि या बताई गई है । इस ि या से स त िन ल खत छः ोक एवं इनका िववरण इस कार ह-
धनयोधनमृणमृणयोधनणयोर रं समै ं खम् ।
ऋणमै ं च धनमृणधनशू योः शू योः शू म् ॥
ऋण + शू → शू
धन + शू → धन
शू + शू → शू
ऊनम धकाि शो ं धनं धना णमृणाद धकमूनात् ।
ं तद रं ा णं धनं धनमृणं भवित ॥
शू िवहीनमृणमृणं धनं धनं भवित शू माकाशम् ।
शो ं यदा धनमृणा णं धना ा तदा े म् ॥
ऋण X शू → शू
धन X शू → धन
शू X शू → शू
ऋणमृणधनयोघातो धनमृणयोधनवधो धनं भवित ।
शू णयोः खघनयोः खशू योवा वधः शू म् ॥
ऋण X शू → शू
धन X शू → धन
शू X शू → शू
17 छ ः शा म्, 8.28-31
18 थम अ ाय, ोक 17, ि तीय अ ाय, ोक 12, चतुथ अ ाय, ोक 7, 11, अ म अ ाय, ोक 5, 45.
19 Bṛhatkṣetrasamāsa of Jinabhadra Gani, edited with the commentary of Malayagiri, Bombay, i. 69.
20 Bṛhatkṣetrasamāsa of Jinabhadra Gani, edited with the commentary of Malayagiri, Bombay, i. 71.
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धनभ ं धनमृण तमृणं धनं भवित खं खभ ं खम् ।
भ मृणेन धनमृणं धनेन तमृणमृणं भवित ॥
खो ृतमृणं धनं वा त ेदं21 खमृणधनिवभ ं वा ।।
ऋणधनयोवगः ं खं ख पदं कृ ितयत् तत् ॥22
इसी कार भा र (1150 A. D) ने भी अपने बीजग णत म शू स ी ग णत क चचा क है । भा र के अन क
क ना ईशावा ोपिनषद् के म ल ोक के समान ही है ।23 भा र ने बीजग णत म कहा है-
अ न् िवकारः खहरे न राशाविप िव े िप िनः सृतेषु ।
ब िप ा यसृि कालेऽन ेऽ ुते भूतगणेषु य त् ।।24
अथात् िकसी स ा को शू से भाग देने पर ल िव ु भगवान क तरह अन होगी । लीलावती म भी भा र ने उदाहरण
सिहत इस िवषय पर चचा क है ।25
अ ों का िवकास
लखने क ि या का ार भारत म कब से आ इस पर इितहासकारों म मतभेद है । कितपय पा ा इितहासकारों का
कहना है िक 800 B. C के लगभग प म देशों से भारत म अ ो को लखने क पर रा का ार आ पर ु यह तकस त
तीत नहीं होता ोंिक ऋ ेद म ''सह ं मे ददतो अ कर ः ''26 का उ ेख है जसका अ भ ाय ''मुझे 1000 एसी गाय
चािहये जनके कान पर 8 लखा हो'' इस कथन म कु छ इितहासकारों को आपि है पर इसका समाधान पा णनी ने ''कण
वणल णात्''27 से कर िदया है । इन त ों के आधार पर पा ा इितहासकारों के तक का ख न कर िदया गया है ।
ाचीन अ
मोहनजोदडो (3000 B. C) से ा अ लिप म ता का अभाव है । इसम छोटी छोटी रेखाय दी गई ह जो िक छोटे अ ों
1, 2, 3, 4 इ ािद को ोितत करती ह बडी स ाओं को लखने के माण वहां नहीं िमलते है पर ु ऋ ेद एवं यजुवद म बडी
स ाओं को लखने के माण हमारे पास उपल ह, यजुवद के 1012 क चचा हम पीछे कर चुके ह । अशोक के समय म
21 शू को छोडकर अ अ अथवा स ा जब शू से भाग दी जाती है तो उस अ अथवा स ा को त ेद कहा जाता है ।
22 ु ट स ा , कु का ाय, ोक 30-35.
23 Bijagaṇita of Bhāskarācārya, Ed. by Muralidhara Jha, Benaras 1927, vāsanā on Khaṣaḍavidham 3, p. 6.
24 बीजग णत, खषि धम्, ोक 20.
25 Līlāvatī of Bhāskarācārya, Ed. by H. C. Bannerjee, Calcutta 1927, Vāsanā on verses 45-46, pp. 14-15.
26 ऋ ेद, 10-62.7
27 लघु स ा कौमुदी, 6-2.12.
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ा ी और ो ी का चार था यह अशोक के शलालेखों से ात होता है । नीचे हम ो ी एवं ा ी अ ों का सं ेप म िववरण
ुत कर रहे ह ।
ो ी अ
ो ी को दाय से बाय लखा जाता था । यह प ित गा ार एवं प ाब इ ािद े ों म अ धक योग होती थी । इितहासकारों
का मानना है िक इसका योग 400 B. C से लेकर 300 A. D के बीच रहा होगा । अशोक के शलालेखों म ो ी के 1, 2,
3, 4 तक के अ ों का योग आ है जो इस कार ह –
इस प ित का िवकास शकों के शलालेखों (100 B. C) म िदखाई देता है । जो इस कार है (image khroshti
complete) इसम 9 के अ के लये कु छ नहीं िदया गया है । इितहासकार यह भी मानते ह िक ो ी एक िवदेशी लिप है
जसका काला र म भारत म चार आ ।
ा ी अ
इस अ प ित का चार स ूण भारतवष म रहा है । यह शु प से भारतीय मूल क अ प ित है । सा ों के अभाव म
यह िन त तौर पर कह पाना ब त किठन है िक ा ी अ ों का आधार ा है पर ु इस अ प ित का योग सव थम अशोक
(300 B. C) के शलालेखों म पाया गया है । ा ी अ ों म अनुना सक, अनु ार एवं उप ानीय का ब शः योग आ है
अतः यह सीधा भारतीय मूल क होने का माण है ूंिक यह सभी च सं ृ त म पाये जाते ह ।
नानाघाट अ
नानाघाट क गुफाओं से ा अ प ित भी भारतीय मूल क ही है, इन गुफाओं का िनमाण राजा वेदी ी ने िकया था जो इस
कार है28-
एसा माना जाता है िक भारत म योग होने वाली ेक लिप अथवा अ एक दूसरे से भ है पर ु सबका ोत ा ी लिप
ही है । अल बै नी (Al-Bīrūnī) के श ों म –
As in difference parts of India, the letters have different shapes the numerical signs, too,
which is call aṅka, differ.29
28 “On Ancient Nāgari Numeration from an inscription at Nānāghāt'', Journ. of the Bombay Branch of the
Royal Asiatic Society, 1876, vol. XII, p. 404.
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वतमान अ प ित
वतमान म भारत म यु होने वाली अ प ित का नाम ''नागरी'' है जो िक नीचे द सा रणी 7 के अनुसार है-
कितपय िव ानों के अ स ी मत
ग णत एवं खगोलिवद् Pierre Simon Laplace (1749-1827 A. D) ने भारत क ंशसा करते ये कहा है-
The idea of expressing all numbers by the ten digits whereby is imparted to them
both an absolute and a positional value is so simple that very simplicity is the reason
for our not being sufficiently aware how much admiration it deserves. It is India that
gave us this ingenious method.
िबभूितभूषण द ा के श ों म30 -
The Hindus adopted decimal system very early. The numerical language of no other
notation is so scientific and attained as high a state of perfection as that of Ancient
Indians. In symbolism they succeeded with ten digits to express any number most
elegantly and simply. It is the beauty of Hindu numerical notation which attracted
the attention of all civilized people of the world and charm them to adopt it.
Prof. J. Ginsburg के श ों म31 -
Hindu notation was carried to Arabia about 770 A. D by Hindu scholar Kanka who
was invited from Ujjain to the famous court of Baghdad by Abbaside Khalif Ali-
Mansur. Kanka taught Hindu Astronomy and Mathematics to Arab scholars and with
his help, they translated `Brahma-Sphuta-Siddhanta' of Brahmagupta.
अरब के इितहासकार Abul Hassan Al-Masūdi (943 A. D) कहते ह-
A Congress of Sages at the command of creator Brahma invented the nine digits and
also their astronomy and other sciences.
अल-बै नी (Al-Birūni) एक स पारसी लेखक थे जो िक भारत म लगभग 13 वष (1017-1030 A. D) तक रहे एवं
उ ोंने ''ता रक अलिह '' (Chronical of India) नाम क पु क लखी । उसम अल-बै नी कहते ह-
The numerical signs which we use are derived from the finest forms of Hindu digits. I
have composed a treatise showing how far possibly, the Hindus are ahead of us in this
subject.
िन ष
सृ ािद से ही ग णत िकसी न िकसी प म मानव जीवन म िव मान रहा है ूंिक कोई भी वहार ग णत के अभाव म स व
नहीं । इसी बात को ान म रखते ये महावीराचाय ने अपने ग णतसारस ह म बडे सु र श ों म ग णत के मह को
29 Alberuni’s Indian, I, p. 74
30 Indian Historical Society, vol. 3, pp. 530-540.
31 New light on our numbers, Bulletin of American Mathematical Society, vol. 23, pp. 366-369.
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ुत िकया । हमने इस शोध प म अ ों क उ ि स ी त ों को भारत के स भ म ितपािदत करने का यास िकया
एवं भारत म समय समय पर िव मान स ाओं को लखने वाली प ितयों का वणन िकया । दशमलव प ित एवं शू के
अनुस ान इ ािद िवषयों पर िवशेष चचा क गई । अपने तक को पु करने के लये पा ा इितहासकारों एवं ग णत ों के
मतों को भी यथा ान ुत िकया गया है ।
स भ
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Vāsanāvārtika, ed. by Muralidhara Chaturvedi, Varanasi 1981.
[18] Tantrasaṅgraha of Nīlakaṇṭha Somayājī, with Laghuvivṛti, ed. by S. K. Pillai,
Trivandrum 1958.428.
[19] Tantrasaṅgraha of Nīlakaṇṭha Somayājī, with Yuktidīpikā (for chapters I–IV) and
Laghuvivṛti (for chapters V–VIII) of Śaṅkara Vārīyar ed. by K. V. Sarma, VVRI,
Hoshiarpur 1977.
[20] Tantrasaṅgraha of Nīlakaṇṭha Somayājī, tr. by V. S. Nara- simhan, Indian Journal
History of Science, INSA, New Delhi 1998–99.
[21] Tantrasaṅgraha of Nīlakaṇṭha Somayājī, tr. with mathematical
[22] notes by K. Ramasubramanian and M. S. Sriram, HBA, Delhi and Springer,
[23] London 2011.
[24] The History of Ancient Indian Mathematics by C. N. Srinivas Iengar, The world press
private LTD. Calcutta, 1967.
[25] Vedāṅga Jyotiṣa of Lagadha, with the translation and notes of Prof. T. S. Kuppanna
Sastry, critically edited by K. V. Sarma, INSA, New Delhi.

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  • 2. International Journal of Trend in Scientific Research and Development @ www.ijtsrd.com eISSN: 2456-6470 @ IJTSRD | Unique Paper ID – IJTSRD50364 | Volume – 6 | Issue – 4 | May-June 2022 Page 1691 या ा ाः संिहता ा सव ते ग णता याः ॥ ब भिव लापैः िकं ैलो े सचराचरे । य ं च ुं त व ग णतेन िवना न िह ॥ तीथकृ ः कृ ताथ ः पू े ो जगदी रैः । तेषां श श े ः स ा ु पवतः ॥ जलधे रव र ािन पाषाणािदव का नम् । शु े मु ाफलानीव स ा ानमहोदधेः ॥ िक दु ृ त ारं व ेऽहं मितशि तः । अ ं मन ाथ ग णतं सारसं हम् ॥ सं ा ो भरथो पूण प रकम वेिदके । कलासवणसं ढलुठ ाठीनसंकु ले ॥ क णकमहा ाहे ैरा शकतरि ण । िम क वहारो ूि र ांशुिप रे ॥ े िव ीणपाताले खाता सकताकु ले । करण स ायावेलािवरा जते ॥ गुणकै गुणसंपूण दथमणयोऽमलाः । गृ े करणोपायैः सारस हवा रधौ ॥1 ता य यह है िक लौिकक एवं वैिदक अनु ानों, ापार, कामत , अथशा , गा व, नाटक, सूपशा , चिक ाशा , वा ु, छ अल ार, का , ाकरण, दशन सूय इ ािद हों क गितयों, ि (िदक् , देश, काल), हण, ीप, सागर, पवत इ ािद का ास इ ािद िवषयों म सव ग णत क अव कता है, अथात् स ूण ा ग णता त है, कोई भी वहार ग णत के अभाव म स व नहीं है । ``ग णत'' श का सव थम योग सव थम 'ग णत' श का योग वेदा ोितष (1200 B. C) म िकया गया है, इसम ग णत को वेदा ों म सव े बताया गया है । यथा- यथा शखा मयूराणां नागानां मणयो यथा । तथा वेदा शा ेषु ोितषं मूधिन तम् ॥2 जैसे मोरों म शखा और नागों म म ण का ान सबसे ऊपर है, वैसे ही सभी वेदांग और शा ों मे ग णत का ान सबसे ऊपर है । ग णत का मह ग णत के मह को भा रचाय ने अपने स ा शरोम ण म ब त ही सु र ढंग से ुत िकया है- यः स ा मन युि िवततं नो वेि भ ौ यथा राजा च मयोऽथवा सुघिटतः का क ीरवः । गज ु रव जता नृपचमूर ू जताऽ ािदकै ः 1 ग णतसारस हः , सं ा ायः , ोक 9-23 2 आच ोितष 35, याजुष ोितष, 4
  • 3. International Journal of Trend in Scientific Research and Development @ www.ijtsrd.com eISSN: 2456-6470 @ IJTSRD | Unique Paper ID – IJTSRD50364 | Volume – 6 | Issue – 4 | May-June 2022 Page 1692 उ ानं ुतचूतवृ मथवा पाथोिवहीनं सरः । योिष ोिषतनूतनि यतमा य भा ु कै ः ोितः शा िमदं तथैव िवबुधाः स ा हीनम् जगुः ॥3 स ा ग णत को जो ोितषी नहीं जानता वह भि पर बनाये गये च , का से बनाये गये गजनाहीन संह तथा पि रिहत हाथी, अ व िबना घोडों एवं सेना के राजा, िबना आम के वृ ों के नीरस उ ान, जल िवहीन तालाब, यौवना ी के परदेश गया आ पित का िवयोग जस कार शोभा नहीं पाते उसी कार यह जगत भी ोितष शा के स ा (ग णत) से िवहीन होने पर का शत नहीं होता अथात् शोभा नहीं पाता । ( ोितष) ह ग णत स ा से रिहत ोितषी क भी एसी ही ित कही गई है । ग णत क अवधारणा ग णत श से अ भ ाय ''गणना के िव ान'' से है । गणेशदैव ने लीलावती (1150 A. D) पर अपने भा बुि िवला सनी (1540 A. D) म म लाचरण क ा ा के अ गत ग णत को इस कार प रभािषत िकया है- गु ते स ायते तद् ग णतम् । त ितपादक ेन त ं ं शा मु ते । बौ सािह म ग णत को तीन भागों म िवभ िकया गया है जो मशः मु ा, गणना एवं स ा नाम से स ह । इनक चचा धीगिनकाय, िवनयपिटक, िद ावदान एवं िम ल पा ो म क गई है । स ा श का योग ग णत के अथ म भ बा ने भी योग िकया है । दशमलव प ित (Decimal place value system) ग णत वहार के लये स ाओं का ान परमाव क है, स ाओं के अभाव म हम ग णत क क ना ही नहीं कर सकते ह । स ा ग णत का पयाय है । पाटीग णत (arithmetic) िवशेष प से अ ों पर ही आधा रत है । भारत का ग णत के े म दशमलव एवं शू का अिव ार एक ब त बडी उपल है । वतमान समय म सबसे स अ प ित दशमलव प ित है । इस प ित क िवशेषता 1 से लेकर 9 अ एवं 0 का योग करते ये पूणा ों का ान िनधारण (place value) करना है । दशमलव प ित िन पण से पूव ग णत म अ ों को द शत करना ब त किठन होता था पर ु भारतीय मनीिषयों के िववेक से ग णत को एक नई िदशा िमली । सव थम स ाओं को श ों म लखा जाता था । इसका सबसे ाचीन उदाहरण ऋ ेद से है- ी ण शता ीसह ा ि ं ि ंश देवा न चासपयन् । औ न् घृतैरसृणन् बिहर ा -------4 इससे हम 3339 स ा ा होती है । दशमलव प ित के सं ृ त सािह म पया माण उपल ह । अ धकतर ग णत एवं इितहासकार इस बात से सहमत ह दशमलव प ित एवं शू (zero) क ज भूिम भारत ह एवं समय के साथ इनका चार िव के अ भागों म आ । जाज साटन (George Sarton) के श ों म Our numerals and the use of zero were invented by the Hindus and transmitted to us by the Arabs (hence the name Arabic numerals which we often give them.)5 पर ु कितपय िव ानों के िवचार जाज साटन के िवचारों से भ ह । इनम George R. Kaye एवं Neugebauer मुख ह । Neugebauer ने अपनी पु क The Exact Sciences in Antiquity म लखा है िक ''बैिबलान (Babylon) 3 स ा शरोम ण, म मा धकार, ोक 7b-8 4 ऋ ेद, 3.9.9 5 Sarton, G. The Appreciation of Ancient and Medieval Science during the Renaissance (1450-1600), Philadelphia Univ., p. 151. 1955.
  • 4. International Journal of Trend in Scientific Research and Development @ www.ijtsrd.com eISSN: 2456-6470 @ IJTSRD | Unique Paper ID – IJTSRD50364 | Volume – 6 | Issue – 4 | May-June 2022 Page 1693 (1600 B. C) म स ा ान (place value) म 60 आधार (sexagesimal) माना जाता था और यही आधार बाद म ीक और िह ुओं ने माना । अ म इ ीं के सहयोग से स ा ान प ित का उदय आ'' । Neugebauer के श ों म - Thus the "sexagesimal" order eventually became the main numerical system and with it the place value writing derived from the use of bigger and smaller signs. The decimal substratum, however, always remained visible for all numbers up to 60. Similarly, other systems of units were never completely extinguished. Only the purely mathematical texts, which we find well represented about 1500 years after the beginning of writing, have fully utilized the great advantage of a consistent sexagesimal place value notation. Again 1000 years later, this method became the essential tool in the development of a mathematical astronomy, whence it spread to the Greeks and then to the Hindus, who contributed the final step, namely, the use of the place value notation also for the smaller decimal units. It is this system that we use today.6 दशमलव प ित को समझने के लये उदाहरण प स ा 42 को लेते ह । इसम 4, 4 X 10 दशाता है । अरब के लोग भारत म ापार के लये आते थे अतः वह भी इसी अ प ित का अनुसरण करने लगे इसी लये इस प ित को िह ु-अरबी अ प ित के नाम से भी जाना जाता है । इस प ित ने ग णत के े म ब त बडी ा पैदा कर दी, फल प धन, ऋण, गुणन, भाग इ ािद सरल हो गये । िह ु-अरबी अ प ित म 105, 104, 103, 102, 10, 1 एसे लखा जाता है । दशमलव प ित के अनुसार 434 को (4 X 102 ) + (3 X 10) + (4 X 1) एसे लखा जा सकता है । यही प ित आज पूरे िव म ीकृ त है । नीचे सा रणी 1 म कु छ मह पूण वैिदक ों से दशमलव प ित के अनुसार स ाओं को उ ृत िकया गया है । ेक स ा मशः दश गु णत होती जा रही है, इसी को भा राचाय ि तीय ने ''दशगुणो र सं ा'' कहा है । स ा यजुवदसंिहता7 तैि रीयसंिहता8 मै ायणी संिहता9 प िवंश ा ण 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 1010 1011 1012 एक दश शत सह अयुत िनयुत युत अबुद बुद समु म अ पराध एक दश शत सह अयुत िनयुत युत अबुद बुद समु म अ पराध एक दश शत सह अयुत िनयुत युत अबुद बुद समु म अ पराध एक दश शत सह अयुत िनयुत युत अबुद बुद समु म अ पराध Table 1: िविवध वैिदक ों म दशमलव प ित 6 Neugebauer. O. The exact Science in Antiquity, p. 19-20, 1952. 7 xvii, 2. 8 iv, 40. 11.4. 9 Ii, 8. 14.
  • 5. International Journal of Trend in Scientific Research and Development @ www.ijtsrd.com eISSN: 2456-6470 @ IJTSRD | Unique Paper ID – IJTSRD50364 | Volume – 6 | Issue – 4 | May-June 2022 Page 1694 सा रणी म अबुद 107 है पर ु बाद के सं ृ त सािह म अबुद को 108 माना गया है । मोहनजोदडो (3000 B. C) क खुदाई से वहां दशमलव प ित (decimal system) के कई माण िमले ह । जैन जो िक 500-100 B. C के समय के बीच सूय ि , ीप ि , ानायसू , उ ारा नसू , भगवतीसू एवं अनुयोग ारसू म बडी स ाओं को दशमलव प ित म बताया गया है । बौ ल लतिव र म ग णत अजुन और बो धस के बीच ये संवाद म स ाओं को िन ल खत कार से ुत िकया गया है- अथाजुनो गणको महामा ो बो धस मेवमाह - जानीषे ं कु मार कोिटशतो रा नाम गणना िव धम् ? आह – जाना हम् । आह - कथं पुनः कोिटशतो रा गणना गितरनु वे ा ? बो धस आह - शतमयुतानां िनयुतं नामो ते । शतं िनयुतानां क ारं नामो ते । शतं क ाराणां िववरं नामो ते । शतं िववराणां अ ो ं नामो ते । शतम ो ाणां िववाहण नामो ते । शतं िववाहानां उ ं नामो ते । शतमु ानां ब लं नामो ते । शतं ब लानां नागबलं नामो ते । शतं नागबलानां ितिटल ं नामो ते । शतं ितिटल ानां व ान ि ः नामो ते । शतं व ान ीनां हेतुिहलं नामो ते । शतं हेतुिहलानां कर नामो ते । शतं कर णां हे यं नामो ते । शतं हे याणां समा ल ं नामो ते । शतं समा ल ानां गणनागितनामो ते । शतं गणनागतीनां िनरव ं नामो ते । शतं िनरव ानां मु ाबलं नामो ते । शतं मु ाबलानां सवबलं नामो ते । शतं सवबलानां िवसं ागितनामो ते । शतं िवसं ागतीनां सवसं ा नामो ते । शतं सवसं ानां िवभूत मा नामो ते । शतं िवभूत मानां त णं नामो ते ।।10 इसम त ण (1053) तक मान बताये गये ह । का ायन के पाली ाकरण म 10140 (अस ेय) बताई गई ह । अनुयोग ारसू (100 B. C) म समय क ईकाई ''शीष हे लका'' का मान 840000028 बताया गया है । भारतीय दशन ों म भी दशमलव एवं ाना से स त उ रण ा होते ह । पात ल योगसू , ासभा म कहा गया है- यथैका रेखा शत ाने शतं दश ाने दश एका च एक ाने दश एका च एक ाने यथा चैक ेिप ी माता चो ते दुिहता च सा चेित ।11 इसी कार श राचाय जी ने सू भा म कहा है- यथा एकोऽिप सन् देवद ः लोके पं स पं च अपे अनेकश य-भा वित - मनु ः , णः , ोि यः , वदा ः , बालः , युवा, िवरः , िपता, पु ः , पौ ः , ाता, जामाता इित । यथा च एकािप सती रेखा (अ ः ) ान ेन िनिवशमाना एक-दश-शत-सह ािद श यभेदं अनुभवित, तथा स नोरेव ...... इससे यह मा णत होता है िक श राचाय जी के समय म दशमलव एवं ाना प ित का िवकास हो चुका था । िव ुपुराण म भी इसका स है- ानात् ानं दशगुणमेक ाद् गु ते ि ज । ततोऽ ादशमे भागे पराधम भधीयते ॥12 हे ि ज! एक ान से दूसरा ान दशगु णत है, इस लये 18वां ान 1017 होता है । 10 ल लतिव र, 168-69. 11 III. 13. 12 िव ुपुराण, 6.3.4.
  • 6. International Journal of Trend in Scientific Research and Development @ www.ijtsrd.com eISSN: 2456-6470 @ IJTSRD | Unique Paper ID – IJTSRD50364 | Volume – 6 | Issue – 4 | May-June 2022 Page 1695 भारत मे लगभग 595 A. D से लेकर 972 A. D तक एसे शलालेख िमले ह जो उस समय म दशमलव प ित क सि होने का माण देते ह । ाचीन प ित एवं नवीन प ित दोनों म बडी स ाओं को बाय रखा जाता था पर ु नवीन प ित म अ ों क ित (place value) को इि त िकया जाता है । शलालेखों के आधार पर अनुमान लगाया जा सकता है िक आठवीं शता ी म दशमलव प ित ब त स हो चुक थी । इितहासकारों का मानना है िक ीक म अ र स ेत च ों का अिव ार 700 B. C म हो चुका था पर ु ईसा क थम शता ी म यह पूण प से िवक सत हो चुक थी । कहने का अ भ ाय यह है िक अ र स ेत च ों को जनसामा तक प ंचने तक लगभग 900 वष लग गये । इसी कार अरब म भी अ र स ेत च ों को सि िमलने म लगभग 600 वष लग गये । इ ीं त ों के आधार पर हम कह सकते ह िक ाना प ित का भी 100 B. C के लगभग अिव ार आ होगा और आठवीं शता ी तक जनसामा तक प ंच गई । श ा प ित (भूतस ा) (Word numerals) श ा प ित और इसका दशमलव म योग ग णत म ब त बडा योगदान है । ऋ ेद का उदाहरण हम इससे पूव दे चुके ह । इस प ित के अ गत स ाओं को लखने के लये भारतीय ग णत ों एवं खगोलिवदों ने एसी प ित का िनमाण िकया जससे बडी बडी स ाओं को सुलभता से लखा जा सके । ोकब होने के कारण चरकाल तक रण रखने के स भ म यह प ित ब त ही स ई । यह प ित सवा धक ाचीन एवं स मानी जाती है । इस प ित को भूतस ा के नाम से जाना जाता है । भूतस ा ''भूतानां स ा'' अथात् कृ ित स ी अ जैसे पृ ी, सूय, च , ह, न , समु , पवत, अि , आकाश, ने , शरीरा , शव, इ , मनु, राम, ऋतु, प , ित थ, िदशा इ ािद एवं इनके पयायवाची । नीचे दी गई सा रणी 2 म अ ों को उनके स ािवत भूतस ा स त श ों के सामने दशाया गया है ।
  • 7. International Journal of Trend in Scientific Research and Development @ www.ijtsrd.com eISSN: 2456-6470 @ IJTSRD | Unique Paper ID – IJTSRD50364 | Volume – 6 | Issue – 4 | May-June 2022 Page 1696 अि पुराण म सव थम ाना ों के साथ श ा ों का योग िकया गया है । भ ो ल ने बृह ंिहता क ा ा म पौ लश स ा (400 A. D) क चचा करते ये इसम ख = 0, ख = 0, अ = 8, मुिनः = 7, रामः = 3, अ = 2, ने = 2, अ = 8, शर = 5, राि पाः = 1 िदया गया है । ''अ ानां वामतो गितः '' इस िनयम से 158237800 ा आ । सूय स ा (300 A. D), प स ा का (505 A. D), महाभा रीय (522 A. D), ु ट स ा ः (628 A. D), ि शितका (750 A. D) एवं ग णतसारस हः (850 A. D) इ ािद स ा ों म हों के भगणमान, सौरमास, चा मास, अ धकमास, यमास इ ािद क स ायों को बताने के लये श ा प ित का योग सव िकया गया है । बखशाली पा ु लिप (Bakhshālī manuscripts) (300 A. D) म श ा प ित को इस कार िदया गया है षि ंश (26), ि प ा (53), एकोनि ंशत् (29) .... इ ािद स ा बताई गई ह इसके िवपरीत 54 के लये चतुः (4), प (5) लखा गया है । जनभ ग ण (575 A. D) ने ''बृह े समास'' म स ाओं को बाय से दाय लखने का म बताया है पर ु ायः यह देखा गया है िक श ा दाय से बाय योग िकये जाते ह । सभी स ा ों म दांये से बाय लखने क ही था पाई जाती है । आयभ कृ त अ रा िन पण िव ध वगा रा ण वगऽवगऽवगा रा ण कात् ौ यः । खि नवके रा नव वगऽवग नवा वग वा ॥13 वगा र (क से म, लखने चािहये) वग ान म एवं अवग (य से ह) अवग ान म । (वगा रों के मान मशः 1, 2, 3 .... 25 तक ह) क से लेकर ( थम अवगा र का मान) य = ञ+म (5+25) है । नौ जोडों म शू (18 बार) लख ( ानिन पण के लये लख) सभी 9 रों को लख । ( ेक जोडे म वग और अवग के ान पर एक रा र लख) वग (अवग) ान म अव कता पडने पर 9 से ादा जोडे भी बना सकते ह । आयभट (499 A. D) ने एक एसी प ित का अिव ार िकया जसम र एवं नों क सहायता से स ाओं को लखा जाता था । इस प ित म क से म तक 25 नों को वग कहा जाता ह एवं मानुसार इनका मान 1 से 25 तक है । य से ह तक वण को अवग कहा जाता है । इन अवग का मान मशः 30 से 100 तक माना गया है । यह स ा दशमलव ाना (decimal place value) को पु करता है । आयभट ने ाना िन प के लये रों का योग िकया । ोक म िदया गया िववरण नीचे दी गई सा रणी म है । एक उदाहरण के मा म से इस ोक के भाव को सा रणी क सहायता से समझने का यास करगे । उदाहरण के लये हमने आभटीय से ही एक श '' ुघृ'' लया है । ोक म ख् + यु + घृ तीन अ र ह । सव थम हम यह देखना है िक न वग वाला है या अवग वाला । त ात् यह देखना है िक नों के साथ कौनसा र स त है । जो वग हो एवं जो स त र हो उसके अनुसार सा रणी म ािपत करगे तो ''श '' का मान आ जायेगा । हमारे उदाहरण म ''ख'' वग वाला ह एवं इससे ''उ'' र स त है । हमने ''ख'' को सा रणी म 'उ' के नीचे वग ान म रख िदया, इसी कार 'य' को भी िकया । स ूण ि या करने पार 4320000 ा आ । सा रणी 3 म है । इसम V से अ भ ाय वगस ा से है एवं A से भाव अवग स ा से है । इस ि या को दूसरे कार से भी दशाया जा सकता है । इस ि या के अ गत हम अवगा रों के मान 3 से 10 तक मानते ह । िफर अ से और तक सभी 9 रों के मान वगावग नों के लये ािपत करते ह । इस िवषय को सा रणी 3 म िकया गया है । उदाहरण - ुघृ = खु + यु + घृ िदया गया है । ि तीय कार के अनुसार ''ख्'' वगा है और इसका मान 2 है, इसक े साथ ''यु'' है जोिक अवगा है एवं ''उ'' र इसक े साथ है, इसका मान 105 है, इसी कार ''घ'' का मान 4 है एवं यह वगा है, ''ऋ'' र इसक े साथ है और इसका मान 106 है । इस कार करने पर 13 आयभटीयम्, गीितकापादः , ोकः 2.
  • 8. International Journal of Trend in Scientific Research and Development @ www.ijtsrd.com eISSN: 2456-6470 @ IJTSRD | Unique Paper ID – IJTSRD50364 | Volume – 6 | Issue – 4 | May-June 2022 Page 1697 4 X 104 + 3 X 105 + 4 X 106= 4320000 ा आ । य िप यह प ित अ धक जिटल है पर ु बडी बडी स ाओं को लखने म स म है । अ धक जिटलता के कारण िकसी ओर सै ा क म इसका उ ेख नहीं िमलता । िन ल खत सा रणी 4 म आयभट ारा द रों के वग एवं अवग ानों के मानों को िदया गया है । आयभट क दशमलव प ित (स ा ान िनवचन) एकं च दश च शतं च सह मयुतिनयुते तथा युतम् । को बुदं च वृ ं ाना ानं दशगुणं ात् ।। 14 आयभटीयभा म भा र थम ने ब त ही ढंग से दशमलव प ित का िन पण िकया है । त था- एकं च दश च शतं च सह म् । एतेषां एकदशशतसह ाणां थमि तीयतृतीय-चतुथािन ानािन । तु पादपूरणे । अयुिनयुते अयुतं च िनयुतं च अयुतिनयते । अयुत प मं ानम् । दशसह ा ण अयुतम् । िनयुत ष ं ानम् । िनयुतं ल ः । तथा तेनैव कारेण युत स मं ानम् । दशल ाः युतम् । कोिटः , को ाः अ मं ानम् । ल ाः शतं, कोिटः । अबुदम्, अबुद नवमं ानम् । दशको ोबुदम् । वृ म्, वृ दशमं ानम् । कोिटशतं वृ म् । ाना ानं दशगुणं ात् । ाना ानम त् दशगुणं प रक त ानात् उ रं ानं दशगुणं भवतीित यावत् । िकमथिमदमु ते । ननु च एतािन ानािन अन रापे या दशगुणा ेव । य े ोऽ ानप र हाथ वचनं तथा सित ाना भधानमनथकम् । कु तः ? ानात् ानं दशगुणं ािद नेनैवा- भिहता, अ भिहत ानप र ह स ात् । नैषः दोषः । ाना ानं दशगुणं ािद ेत णम् । एकादीिन ाना ल ण ोदा तािन । नैतद । न िह सू काराः सं ेपिवव वो ल णमुदाहरणं ूयुः । नैवं िव ायतेव। यदा ल णमुदाहरणं च िनरथकं तिह एकािदवृ ा ायाः स ायाः सं ा िन े । ाना ानं दशगुणिमित एकािदसङ ायाः ानिन पण-मा मेव उपिद ते, उपयोगाभावा स ासं ा । अ ैत म् - के षां ानानां शि ः , यदेकं पं दश शतं सह ं च भवित । स ां चैत ां ानश ौ यका िवशेषे भाजनाः ुः । ं च िवव ातोऽ ं ब च ात् । एवं च सित लोक वहारा थाभाव स ः । नैषः दोषः । ाने तािन पा ण दशादीिन कृ तािन । िकं तिह तैः । तािन ितपा े लेखागम ायेन । अथवा ल थ ानािन इ ु म ा भः । ास ानानाम् - 14 आभटीयम्, ग णतपादः , ोक 2.
  • 9. International Journal of Trend in Scientific Research and Development @ www.ijtsrd.com eISSN: 2456-6470 @ IJTSRD | Unique Paper ID – IJTSRD50364 | Volume – 6 | Issue – 4 | May-June 2022 Page 1698 ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० इसी स भ म लीलावती म भा राचाय ने भी कहा है- एकदशशतसह ायुतल युतकोटयः मशः । अबुदम ं खविनखवमहाप श व ात् ॥ जल ध ा ं म ं पराधिमित दशगुणो राः सं ाः । स ायाः ानानां वहाराथ कृ ताः पूवः ॥ एक, दश, शत, सह , अयुत, ल , युत, कोिट, अबुद, अ , खव, िनखव, महाप , श ु, जल ध, अ , म , पराध इस कार पूवाचाय ने स ा के वहार के लये पूव पूव क अपे ा उ रो र दशगुणी सं ा कही है, जैसे - एक से दशगुणा दश, दश से दशगुणा शत, शत से दशगुणा सह इ ािद । सा रणी 5 म आयभट एवं भा र II के स ान ानिनवचन िदये गये ह । कोिट 108 तक दोनों क स ाय समान ह पर ु 109 म आयभट ने वृ एवं भा र II ने अ कहा गया है । आयभट के स ा ानिनवचन 108 तक ही है जबिक भा र II के पराध 1017 तक ह । ीधर (750 A. D) का स ािनवचन दो ानों महाप और जल ध को छोडकर भा र II के स ािनवचन के समान ही है । महाप और जल ध के ान पर ीधर ने मशः महासरोज एवं स रतापित श का योग िकया है । नारायण प त (1356 A. D) ने ीधर के अ , महासरोज एवं स रतापित के ान पर मशः सरोज, महा एवं पारावार श ों का योग िकया है । कटपयािद प ित कटपयािद से अ भ ाय क, ट, प, य इ ािद वण से स त है जनको अ ों के ान पर लखा जाता है । इस प ित के अनुसार र अके ला रहने पर शू माना जाता है पर ु न के साथ रहने पर उसका कोई मान नहीं रहता । क से लेकर ह तक के नों का मान सा रणी 6 म बताया गया है-
  • 10. International Journal of Trend in Scientific Research and Development @ www.ijtsrd.com eISSN: 2456-6470 @ IJTSRD | Unique Paper ID – IJTSRD50364 | Volume – 6 | Issue – 4 | May-June 2022 Page 1699 इस प ित का सव थम योग वर च (400 A. D) ने च वा ों क रचना करने के स भ म िकया था । उनका थम च वा ''गीनः ेयः '' है । इसको अगर हम कटपयािद प ित से देख तो 12o03' बनेगा । नीचे िदया गया ोक श रवमन (1830 A. D) क स माला से उ ृत है जो कटपयािद प ित क ि या को बताता है- नञावच शू ािन स ा कटपयादयः । िम े तूपा ह स ा न च च ो हलः रः ॥15 अथात् न, ञ एवं सभी रों को शू मानो । शेष क, ट, प, य इ ािद नों को स ा मानो । मशः इनको 1, 2, 3 इ ािद अ ो से अि त कर । रों का नों के साथ होने पार रों का कोई मान नहीं होता । संयु ा रों म से उसी न को लेना है जसके साथ र हो । उदाहरण - ''हे िव ो िनिहतं कृ ं '' वा लेने पर हम देखगे िक हे = 8, िव = 4, ो = 5, िन = 0, िह = 8, तं = 6, कृ म् = 01 ा आ, स ा 1680548 ई । इसी कार हम िकसी भी श को स ा म प रवितत कर सकते ह । दशमलव प ित के मह को बताते ये जाने माने ग णत ले ेस (Laplace) (1749-1827 A. D) ने कहा है The idea of expressing all quantities by nine figures (or digits) whereby is imparted to them both an absolute value and one by position is so simple that this very simplicity is the reason for our not being sufficiently aware how much admiration it deserves. शू क प रक ना एवं माण ''भारत ने िव को शू िदया है'' यह वा सुनने म ब त ही िव च लग रहा है लेिकन यह स है । शू पर अगर एक नजर डाल तो कु छ िवशेष नहीं िदखता है पर ु अगर इसके अ र से कु छ देख तो सब कु छ िदखाई पडता है । यही इसका रह है । शू का अिव ार िकसने िकया ? यह ायः सभी क म म दौडता रहता है पर ु इसका उ र इतना आसान नहीं है, इसका कारण इसक जिटलता है । उ र िमल भी सकता है पर ु स ोषजनक उ र पाना थोडा किठन है । शू ग णत के े म यं म एक ब त बडा अनुस ान है । इितहास के प ों को कु रेदने से शू क प रक ना के भ भ ोत हम िमलते ह । भारतीय प रपे म शू का योग दो िव भ प र ितयों म होता है । एक तो शू ''अभाव'' को ोितत करने के लये और दूसरा अ के प म । zero जो हम बोलते ह वह अरबी के sifr श से उ आ है इसको cipher भी कहा जाता है । शू के स भ म G. B. Halsted ने कहा है- The importance of the creation of the zero can never be exaggerated. This giving to airy nothing, not merely a local habitation and a name, a picture, a symbol, but helpful power, is the characteristic of the Hindu race whence it sprang. It is like coining the Nirvāṇa into Dynamics. No single mathematical creation has been more potent for the general on-go of intelligence and power.16 शू ग णत का इतना सहज िवषय नहीं है । एसा नहीं है िक िकसी एक ि ने अनुस ान िकया और अ लोगों ने इसको योग म लाना ार कर िदया । िप ल के छ ः सू (300 B. C) म शू श का योग िकया गया है। त था- 15 स माला, प ा करणम्, ोक 3. 16 G. B. Halsted, On the foundation and technique of Arithmetic, Chicago, 1912, p. 20.
  • 11. International Journal of Trend in Scientific Research and Development @ www.ijtsrd.com eISSN: 2456-6470 @ IJTSRD | Unique Paper ID – IJTSRD50364 | Volume – 6 | Issue – 4 | May-June 2022 Page 1700 ि रध । पे शू म् । ि शू े । तावदध त ु णतम् ।17 यहां शू को एक च के प म योग िकया गया है न िक अ के प म । पा णिन (500 B. C) ने अ ा ायी म अदशनं लोपः '' सू म अभाव क तरफ स ेत िकया है । चरकाल से ''यावत्-तावत्'' का योग ग णत म एसी स ाओं के लये िकया गया है जनका मान अ ात होता है पर ु बखशाली पा ु लिप (300 A. D) म ''यावत्-तावत्'' के ान पर ''य ा'' श का योग िकया गया है और इसके लये शू (0) च का योग िकया गया है । प स ा का (505 A. D) म भूतस ा प ित म स ाओं को लखने के लये शू का योग िकया गया है ।18 जनभ ग ण (529-589 A. D) ने भी शू के स भ कु छ स ाओं को अपने ''बृह े समास'' िदया है । यथा 224400000000,19 320040000000020 इ ािद मुख उदाहरण ह । गु (628 A. D) के समय से स ा ोितष के ों म शू स ी चचा के माण िमलते ह । ु ट स ा के 18व अ ाय कु का ाय म ''धनणषि धम्'' क चचा क गई है जसम शू के साथ धन, ऋण, गुणन इ ािद के करने क ि या बताई गई है । इस ि या से स त िन ल खत छः ोक एवं इनका िववरण इस कार ह- धनयोधनमृणमृणयोधनणयोर रं समै ं खम् । ऋणमै ं च धनमृणधनशू योः शू योः शू म् ॥ ऋण + शू → शू धन + शू → धन शू + शू → शू ऊनम धकाि शो ं धनं धना णमृणाद धकमूनात् । ं तद रं ा णं धनं धनमृणं भवित ॥ शू िवहीनमृणमृणं धनं धनं भवित शू माकाशम् । शो ं यदा धनमृणा णं धना ा तदा े म् ॥ ऋण X शू → शू धन X शू → धन शू X शू → शू ऋणमृणधनयोघातो धनमृणयोधनवधो धनं भवित । शू णयोः खघनयोः खशू योवा वधः शू म् ॥ ऋण X शू → शू धन X शू → धन शू X शू → शू 17 छ ः शा म्, 8.28-31 18 थम अ ाय, ोक 17, ि तीय अ ाय, ोक 12, चतुथ अ ाय, ोक 7, 11, अ म अ ाय, ोक 5, 45. 19 Bṛhatkṣetrasamāsa of Jinabhadra Gani, edited with the commentary of Malayagiri, Bombay, i. 69. 20 Bṛhatkṣetrasamāsa of Jinabhadra Gani, edited with the commentary of Malayagiri, Bombay, i. 71.
  • 12. International Journal of Trend in Scientific Research and Development @ www.ijtsrd.com eISSN: 2456-6470 @ IJTSRD | Unique Paper ID – IJTSRD50364 | Volume – 6 | Issue – 4 | May-June 2022 Page 1701 धनभ ं धनमृण तमृणं धनं भवित खं खभ ं खम् । भ मृणेन धनमृणं धनेन तमृणमृणं भवित ॥ खो ृतमृणं धनं वा त ेदं21 खमृणधनिवभ ं वा ।। ऋणधनयोवगः ं खं ख पदं कृ ितयत् तत् ॥22 इसी कार भा र (1150 A. D) ने भी अपने बीजग णत म शू स ी ग णत क चचा क है । भा र के अन क क ना ईशावा ोपिनषद् के म ल ोक के समान ही है ।23 भा र ने बीजग णत म कहा है- अ न् िवकारः खहरे न राशाविप िव े िप िनः सृतेषु । ब िप ा यसृि कालेऽन ेऽ ुते भूतगणेषु य त् ।।24 अथात् िकसी स ा को शू से भाग देने पर ल िव ु भगवान क तरह अन होगी । लीलावती म भी भा र ने उदाहरण सिहत इस िवषय पर चचा क है ।25 अ ों का िवकास लखने क ि या का ार भारत म कब से आ इस पर इितहासकारों म मतभेद है । कितपय पा ा इितहासकारों का कहना है िक 800 B. C के लगभग प म देशों से भारत म अ ो को लखने क पर रा का ार आ पर ु यह तकस त तीत नहीं होता ोंिक ऋ ेद म ''सह ं मे ददतो अ कर ः ''26 का उ ेख है जसका अ भ ाय ''मुझे 1000 एसी गाय चािहये जनके कान पर 8 लखा हो'' इस कथन म कु छ इितहासकारों को आपि है पर इसका समाधान पा णनी ने ''कण वणल णात्''27 से कर िदया है । इन त ों के आधार पर पा ा इितहासकारों के तक का ख न कर िदया गया है । ाचीन अ मोहनजोदडो (3000 B. C) से ा अ लिप म ता का अभाव है । इसम छोटी छोटी रेखाय दी गई ह जो िक छोटे अ ों 1, 2, 3, 4 इ ािद को ोितत करती ह बडी स ाओं को लखने के माण वहां नहीं िमलते है पर ु ऋ ेद एवं यजुवद म बडी स ाओं को लखने के माण हमारे पास उपल ह, यजुवद के 1012 क चचा हम पीछे कर चुके ह । अशोक के समय म 21 शू को छोडकर अ अ अथवा स ा जब शू से भाग दी जाती है तो उस अ अथवा स ा को त ेद कहा जाता है । 22 ु ट स ा , कु का ाय, ोक 30-35. 23 Bijagaṇita of Bhāskarācārya, Ed. by Muralidhara Jha, Benaras 1927, vāsanā on Khaṣaḍavidham 3, p. 6. 24 बीजग णत, खषि धम्, ोक 20. 25 Līlāvatī of Bhāskarācārya, Ed. by H. C. Bannerjee, Calcutta 1927, Vāsanā on verses 45-46, pp. 14-15. 26 ऋ ेद, 10-62.7 27 लघु स ा कौमुदी, 6-2.12.
  • 13. International Journal of Trend in Scientific Research and Development @ www.ijtsrd.com eISSN: 2456-6470 @ IJTSRD | Unique Paper ID – IJTSRD50364 | Volume – 6 | Issue – 4 | May-June 2022 Page 1702 ा ी और ो ी का चार था यह अशोक के शलालेखों से ात होता है । नीचे हम ो ी एवं ा ी अ ों का सं ेप म िववरण ुत कर रहे ह । ो ी अ ो ी को दाय से बाय लखा जाता था । यह प ित गा ार एवं प ाब इ ािद े ों म अ धक योग होती थी । इितहासकारों का मानना है िक इसका योग 400 B. C से लेकर 300 A. D के बीच रहा होगा । अशोक के शलालेखों म ो ी के 1, 2, 3, 4 तक के अ ों का योग आ है जो इस कार ह – इस प ित का िवकास शकों के शलालेखों (100 B. C) म िदखाई देता है । जो इस कार है (image khroshti complete) इसम 9 के अ के लये कु छ नहीं िदया गया है । इितहासकार यह भी मानते ह िक ो ी एक िवदेशी लिप है जसका काला र म भारत म चार आ । ा ी अ इस अ प ित का चार स ूण भारतवष म रहा है । यह शु प से भारतीय मूल क अ प ित है । सा ों के अभाव म यह िन त तौर पर कह पाना ब त किठन है िक ा ी अ ों का आधार ा है पर ु इस अ प ित का योग सव थम अशोक (300 B. C) के शलालेखों म पाया गया है । ा ी अ ों म अनुना सक, अनु ार एवं उप ानीय का ब शः योग आ है अतः यह सीधा भारतीय मूल क होने का माण है ूंिक यह सभी च सं ृ त म पाये जाते ह । नानाघाट अ नानाघाट क गुफाओं से ा अ प ित भी भारतीय मूल क ही है, इन गुफाओं का िनमाण राजा वेदी ी ने िकया था जो इस कार है28- एसा माना जाता है िक भारत म योग होने वाली ेक लिप अथवा अ एक दूसरे से भ है पर ु सबका ोत ा ी लिप ही है । अल बै नी (Al-Bīrūnī) के श ों म – As in difference parts of India, the letters have different shapes the numerical signs, too, which is call aṅka, differ.29 28 “On Ancient Nāgari Numeration from an inscription at Nānāghāt'', Journ. of the Bombay Branch of the Royal Asiatic Society, 1876, vol. XII, p. 404.
  • 14. International Journal of Trend in Scientific Research and Development @ www.ijtsrd.com eISSN: 2456-6470 @ IJTSRD | Unique Paper ID – IJTSRD50364 | Volume – 6 | Issue – 4 | May-June 2022 Page 1703 वतमान अ प ित वतमान म भारत म यु होने वाली अ प ित का नाम ''नागरी'' है जो िक नीचे द सा रणी 7 के अनुसार है- कितपय िव ानों के अ स ी मत ग णत एवं खगोलिवद् Pierre Simon Laplace (1749-1827 A. D) ने भारत क ंशसा करते ये कहा है- The idea of expressing all numbers by the ten digits whereby is imparted to them both an absolute and a positional value is so simple that very simplicity is the reason for our not being sufficiently aware how much admiration it deserves. It is India that gave us this ingenious method. िबभूितभूषण द ा के श ों म30 - The Hindus adopted decimal system very early. The numerical language of no other notation is so scientific and attained as high a state of perfection as that of Ancient Indians. In symbolism they succeeded with ten digits to express any number most elegantly and simply. It is the beauty of Hindu numerical notation which attracted the attention of all civilized people of the world and charm them to adopt it. Prof. J. Ginsburg के श ों म31 - Hindu notation was carried to Arabia about 770 A. D by Hindu scholar Kanka who was invited from Ujjain to the famous court of Baghdad by Abbaside Khalif Ali- Mansur. Kanka taught Hindu Astronomy and Mathematics to Arab scholars and with his help, they translated `Brahma-Sphuta-Siddhanta' of Brahmagupta. अरब के इितहासकार Abul Hassan Al-Masūdi (943 A. D) कहते ह- A Congress of Sages at the command of creator Brahma invented the nine digits and also their astronomy and other sciences. अल-बै नी (Al-Birūni) एक स पारसी लेखक थे जो िक भारत म लगभग 13 वष (1017-1030 A. D) तक रहे एवं उ ोंने ''ता रक अलिह '' (Chronical of India) नाम क पु क लखी । उसम अल-बै नी कहते ह- The numerical signs which we use are derived from the finest forms of Hindu digits. I have composed a treatise showing how far possibly, the Hindus are ahead of us in this subject. िन ष सृ ािद से ही ग णत िकसी न िकसी प म मानव जीवन म िव मान रहा है ूंिक कोई भी वहार ग णत के अभाव म स व नहीं । इसी बात को ान म रखते ये महावीराचाय ने अपने ग णतसारस ह म बडे सु र श ों म ग णत के मह को 29 Alberuni’s Indian, I, p. 74 30 Indian Historical Society, vol. 3, pp. 530-540. 31 New light on our numbers, Bulletin of American Mathematical Society, vol. 23, pp. 366-369.
  • 15. International Journal of Trend in Scientific Research and Development @ www.ijtsrd.com eISSN: 2456-6470 @ IJTSRD | Unique Paper ID – IJTSRD50364 | Volume – 6 | Issue – 4 | May-June 2022 Page 1704 ुत िकया । हमने इस शोध प म अ ों क उ ि स ी त ों को भारत के स भ म ितपािदत करने का यास िकया एवं भारत म समय समय पर िव मान स ाओं को लखने वाली प ितयों का वणन िकया । दशमलव प ित एवं शू के अनुस ान इ ािद िवषयों पर िवशेष चचा क गई । अपने तक को पु करने के लये पा ा इितहासकारों एवं ग णत ों के मतों को भी यथा ान ुत िकया गया है । स भ [1] Āryabhaṭīya of Āryabhaṭa (499 A. D): Ed. and Tr. by K. S. Shukla and K. V. Sarma, Indian National Science Academy, New Delhi 1976. [2] Āryabhaṭīya of Āryabhaṭa with the commentary of Bhāskara I and Someśvara, ed. by K. S. Shukla, INSA, New Delhi 1976. [3] Āryabhaṭīya of Āryabhaṭācārya with the Mahābhāṣya of Nīlakaṇṭha Somasutvan, Part I, Gaṇitapāda, ed. by Sāmbaśiva Śāstrī, Trivandrum Sanskrit Series 101, Trivandrum 1930. [4] Āryabhaṭīya of Āryabhaṭācārya with the Mahābhāṣya of Nīlakaṇṭha Somasutvan, Part II, Kālakriyāpāda, ed. by Sāmbaśiva Śāstrī, Trivandrum Sanskrit Series 110, Trivandrum 1931. [5] Āryabhaṭīya of Āryabhaṭācārya with the Mahābhāṣya of Nīlakaṇṭha Somasutvan, Part III, Golapāda, ed. by Śūranāḍ Kuñjan Pillai, Trivandrum Sanskrit Series 185, Trivandrum 1957. [6] Brahmasphuṭasiddhānta (628 A. D) of Brahmagupta: Mathematics Chap-ters (XIII, XVIII) translated in H. T. Colebrooke Algebra with Arithmetic and Mensuration from the Sanskrit of Brahmagupta and Bhāskara, London 1817. Ed. by Sudhakara Dvivedi, Varanasi 1902. [7] Bījagaṇita (1150 A. D) of Bhāskarācārya II: Tr. in H. T. Colebrooke, Algebra with Arithmetic Mensuration from the Sanskrit of Brahmagupta and Bhāskara London 1817. Ed. with Bhāskara's Vāsanā by Muralidhara Jha, Benares 1927, Chaukhamba Rep. 1994. [8] Bṛhatkṣetravyavahāra of Jinabhadra Gani, editec with the commentary of Malayagiri, Bombay. [9] Gaṇitasārasaṅgraha (850 A. D) of Mahāvīra: Ed. and tr. by M. Rangacharya, Govt. Press, Madras 1912. Ed. with Hindi Tr. by L C Jain, Jain Sarnskrit Samrakshaka Sangha, Sholapur 1963. [10] HISTORY OF HINDU MATHEMATIC - A SOURCE BOOK PARTS I AND II BY BIBHUTIBHUSHAN DATTA AND AVADESH NARAYANA SINGH, 1935. [11] Kriyākramakarī (1535 A. D) of Śaṅkara Vāriyar on Līlāvatī of Bhāskara II: Ed. by K. V. Sarma, Hoshiarpur, 1975. [12] Laghubhāskarīya of Bhāskara I, ed. and tr. with notes by K. S. Shukla, Lucknow 1963.
  • 16. International Journal of Trend in Scientific Research and Development @ www.ijtsrd.com eISSN: 2456-6470 @ IJTSRD | Unique Paper ID – IJTSRD50364 | Volume – 6 | Issue – 4 | May-June 2022 Page 1705 [13] Līlāvatī (1150 A. D) of Bhāskarācārya II: Tr. in H. T. Colebrooke, Algebra with Arithmetic and Mensuration from the Sanskrit of Brahmagupta bra and Bhāskara, London 1817. Ed. with Bhāskara's Vāsanā and Buddhivilāsinī of Gaṇeśa Daivajña (1545 A. D) by V. G. Apte, 2 Vols, Pune 1937. [14] Mahābhāskarīya of Bhāskara I, ed. and tr. with notes by K. S. Shukla, Lucknow 1960. [15] Pañcasiddhāntikā of Varāhamihira, ed. and tr. by T. S. Kuppanna Sastri and K. V. Sarma, PPST Foundation, Chennai 1993. [16] Sadratnamālā of Śaṅkaravarman, tr. by S. Madhavan, KSRI, Chennai 2011. [17] Siddhāntaśiromaṇi of Bhāskara II, with Bhāskara’s Vāsanā and Nṛsiṃha Daivajña’s Vāsanāvārtika, ed. by Muralidhara Chaturvedi, Varanasi 1981. [18] Tantrasaṅgraha of Nīlakaṇṭha Somayājī, with Laghuvivṛti, ed. by S. K. Pillai, Trivandrum 1958.428. [19] Tantrasaṅgraha of Nīlakaṇṭha Somayājī, with Yuktidīpikā (for chapters I–IV) and Laghuvivṛti (for chapters V–VIII) of Śaṅkara Vārīyar ed. by K. V. Sarma, VVRI, Hoshiarpur 1977. [20] Tantrasaṅgraha of Nīlakaṇṭha Somayājī, tr. by V. S. Nara- simhan, Indian Journal History of Science, INSA, New Delhi 1998–99. [21] Tantrasaṅgraha of Nīlakaṇṭha Somayājī, tr. with mathematical [22] notes by K. Ramasubramanian and M. S. Sriram, HBA, Delhi and Springer, [23] London 2011. [24] The History of Ancient Indian Mathematics by C. N. Srinivas Iengar, The world press private LTD. Calcutta, 1967. [25] Vedāṅga Jyotiṣa of Lagadha, with the translation and notes of Prof. T. S. Kuppanna Sastry, critically edited by K. V. Sarma, INSA, New Delhi.